पर्यावरण से कतराती सरकारें

Submitted by Shivendra on Sat, 11/23/2019 - 16:14
Source
अमर उजाला, 05 जून 2016

फोटो - marxist.ca

पर्यावरण की बिगड़ती परिस्थितियों के बाद भी हम में गंभीरता नहीं दिखाई दे रही है। सरकार की प्राथमिकताएं अब भी उन्हीं कार्यों पर ज्यादा केंद्रित हैं, जो पहले से ही पर्यावरण को क्षति पहुंचा चुके हैं। मसलन उद्योगों पर जोर, नए-नए कलेवर में नई तरह की योजनाएं, जिनका उद्देश्य विश्व पटल पर भारत को आधुनिक देश दिखाना है। कहीं ‘बुलेट ट्रेन’ पर जोर है, तो कहीं ‘मेक इन इंडिया या फिर ‘इंडस्ट्रियल काॅरिडोर’ पर। 

असल में या तो सरकार व नीतिकार पर्यावरण जैसे मुद्दों को विकास का विरोधी मानकर चर्चा से दूर रखना चाहते हैं, या वे फिर पूरी तरह से बिगड़ते पर्यावरण के प्रति न तो समझ रखते हैं और न ही गंभीर हैं। पर अब हालात ऐसे हैं कि बात केवल सरकारों तक नहीं छोड़ी जा सकती है। नए विकास के सरकारी ढांचे से आम आदमी को कुछ मिला हो या न मिला हो, पर भगवान व प्रकृति ने जो सबको दिया, उसका हनन करने का अधिकार भी सरकार का नहीं हो सकता। इसे सिर्फ सरकारी फैंसलांे पर नहीं छोड़ सकते।

नमामि गंगे जैसी योजना इसलिए बल पकड़ लेती थी, क्योंकि उसे प्रधानमंत्री का वरदहस्त प्राप्त था। उसमें भी फाइलों और चर्चाओं पर ज्यादातर जोर दिया गया। हो-हल्लों से ही गंगा का उद्धार होना होता, तो गंगा कभी मैली नहीं होती, क्योंकि हरिद्वार से लेकर बनारस के घाट गंगा के जयकारों से गूंजते ही रहते हैं। फिर क्या देश की एक ही नदी है, जिसे हमारी आवश्यकता है ? देश की हर नदी डूबने को है, नदियों की ये बड़ी मार हम पर ही पड़ने वाली है। इसलिए गंगा प्रतीक जरूर हो सकती है, पर सवाल सभी नदियों को बचाने का है। सरकारों को हमेशा से लगा कि पर्यावरण का मुद्दा देश के विकास का सबसे बड़ा विरोधी है, पर इस विकास से होने वाले विनाश का जरा भी संज्ञान नहीं लिया गया। ये अनदेखी हमें बड़ी भारी पड़ेगी। गत पांच वर्षों में तमाम तरह की आपदाओं ने जो भी जानमाल का नुकसान किया, वे भी हमारे लिए सबक न बन सके। पर्यावरण के नुकसान को वे ही ज्यादा झेल रहे हैं, जो इसके रक्षक हैं। पारिस्थितिकी के असली रक्षक गांव ही हैं, देश की तमाम नदियां गांवों से ही शुरू होती हैं, वन गांवों की धरोहर हैं, खेत की मिट्टी भी गांवों से जुड़ी है और इन तीनों के ढेर सारे उत्पाद आज हमारे जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति भी करते हैं। अजीब-सी बात है कि जितनी भी आपदाएं आईं, उन सबने गांवों को ही ज्यादा लीला। आज की बदली हुई पारिस्थितिकी का सारा दोष उस विकास का ही है, जिसकी सभ्यता शहरों में पनपी है। शहर अपनी सुविधा व विलासिता से कभी समझौता नहीं कर पाएंगे।

एक स्मार्ट गांव व एक स्मार्ट शहर में शायद एक ही अंतर है, गांव बड़े उत्पादक के रूप में जाना जाएगा और शहर उपभोक्ता के रूप में। बढ़ते शहर और उद्योगो की आवश्यकताएं आज पारिस्थितिकी के लिए सबसे ज्यादा घातक हैं। दुर्भाग्य यह भी है कि हमने आज तक कोई सीमा भी तय नहीं की। 1982 में वनों को लेकर हम गंभीर हुए और अधिनियम बनाया कि 33 प्रतिशत भूमि वनाच्छादित होनी चाहिए, पर हुआ क्या ? वनभूमि तो रही, पर वनों का कोई पता नहीं। वन घटती-बढ़ती जीडीपी के कारक तो है नहीं, जिनसे राज्य व देश अपनी प्रतिष्ठा तय करते। मरती-सूखती नदियां, बिगड़ती हवा व मिट्टी देश की अंतर्राष्ट्रीय छवि से मतलब नहीं रखती, क्योंकि जीडीपी ही इस तरह के दिखावे का सूचक है, जिसमें देश की प्रगति तय की गई है।

 

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