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जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण (2013) पुस्तक से साभार
आज का दौर पूँजीपतियों की लूट का नंगा दौर है। देश में लागू विकास के मॉडल में ‘किसका विकास’ हो पाया है और हो रहा है, इसे समझा जाना चाहिए। कल गाँधी जी जब अन्तिम आदमी और देश पर राज कर रहे ब्रिटिश वायसराय के बीच के फर्क को बता रहे थे, तब यह फर्क 1: 5,000 रुपए का था आज यह फर्क आम आदमी और खास आदमी के बीच बढ़कर 1: 90 लाख रुपए का हो गया है।
पिछले दिनों नंदीग्राम और सिंगुर में उठ रहे प्रतिरोध के स्वर को कुचलने के लिये पश्चिम बंगाल की सरकार ने कई लोगों की जान ले ली। इस हिंसा के बाद विस्थापन और पुनर्वासन को लेकर देशभर में बहस का माहौल तैयार हो गया है। केन्द्र सरकार ने मामले को रफा-दफा करने के लिये ‘नई पुनर्वास नीति’ बनाने की घोषणा कर दी है, लेकिन आम जनता के हर मामले की तरह ही यह मामला भी ठंडे बस्ते में जाता हुआ नजर आ रहा है। सच है कि विकास के नाम पर उजाड़े जाने वाले परिवारों के पुनर्वास के लिये हमारे देश में आजादी के 60 वर्ष बाद भी कोई राष्ट्रीय नीति या कानून नहीं बनाया जा सका है। शासक अपनी जरूरतों के हिसाब से दमनात्मक ‘पोटा’ और ‘टाडा’ जैसे कानून को लाने के लिये आकाश-पाताल एक कर देते हैं और संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुलाकर कानून बनाते हैं, परन्तु उन्हें कभी इस बात की जरूरत नहीं महसूस हुई कि विकास के नाम पर विस्थापित होने वाले नागरिकों के लिये पुनर्वास का कोई ठोस कानून बनाया जाये। विकास के नाम पर विस्थापित होने वालों की आवाज आजादी के बाद से ही शासकों के राष्ट्रीय निर्माण के कोलाहल के नीचे घुटती रही है। समय-समय पर अलग-अलग रंगों वाली सरकारों ने इस मुद्दे पर अपनी काहिली भी स्वीकार की है। वे यह मानती रही हैं कि विस्थापित लोगों को बसाना एक बहुत चुनौतीपूर्ण काम है।विस्थापन का दंश झेलने वाली आबादी अपनी तबाही से इसकी कीमत चुकाती रही है। देशी-विदेशी पूँजीपतियों के हितों के लिये लागू जनविरोधी उदारीकरण की नीतियों के अमल में आने के बाद से विस्थापन का नया आक्रामक दौर शुरू हुआ है। औद्योगीकरण, खनिजों के दोहन, अतिक्रमण और शहरों के सौन्दर्यीकरण के नाम पर लोगों को उजाड़ने का अभियान तेजी से आगे बढ़ता जा रहा है। चाहे उड़ीसा के कलिंगनगर के आदिवासियों की 3000 एकड़ जमीन और खनिज उद्योग के लिये टाटा को देने का प्रतिरोध कर रहे आदिवासियों के निर्मम दमन व 12 हत्याओं का मामला हो या नर्मदा व उसकी सहायक नदियों पर बनने वाले 3,000 छोटे व 30 बड़े बाँधों के निर्माण की योजनाओं से उजड़ने वालों का, या फिर शहरों में झुग्गी-झोंपड़ियों को बेरहमी से ध्वस्त करने का मामला हो, शासक वर्गों का चरित्र स्पष्ट है कि उन्हें विस्थापितों की पीड़ा से कोई सरोकार नहीं है।
विस्थापन की चपेट में आने वाली आबादी अधिकांशतः हाशिए पर पड़ी गरीब जनता ही होती है। जनहित के नाम पर चलने वाली योजनाओं का दूरगामी लाभ जिसे भी मिले, लेकिन विस्थापन से इन्हें तत्काल बर्बादी का सामना करना पड़ता है। यहाँ तक कि जीवनयापन के नाममात्र के साधन तक से वंचित होना पड़ता है। आश्रयहीनता झेलनी पड़ती है। जीवन की मूलभूत सुविधाओं जैसे-शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, संचार आदि सामुदायिक सुविधाओं से वंचित होना पड़ता है। अपने सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश से विलग होना पड़ता है और स्थानीय प्राकृतिक धरोहर पर जो परम्परागत और सहज अधिकार होता है, उससे वंचित होना पड़ता है। यह आर्थिक, सामाजिक, आत्मिक वंचना स्वैच्छिक नहीं होती है, बल्कि गरीब जनता पर जबरन लादी जाती है। मानवीय दृष्टि से देखा जाये तो इस वंचना की भरपाई बेहतर स्थान पर सुरक्षित एवं सुविधापूर्ण पुनर्वास कराने से एक सीमा तक की जा सकती है, लेकिन यह शासकों की क्रूरता ही है कि हमारे देश में आज भी विस्थापन का समाधान एवं पुनर्वास की कोई राष्ट्रीय नीति नहीं है।
तमाम तरह से किये जा रहे विस्थापन को अंजाम देने के मामलों में पुनर्वास की बात तो दूर, विस्थापन से चल-अचल सम्पत्ति से वंचित होने वालों के लिये भी कोई राष्ट्रीय नीति कानून नहीं है। गुलाम भारत के समय का एकमात्र कानून-भूमि अधिग्रहण कानून-1894 आज भी अस्तित्व में है। इसी के कुछ प्रावधानों को लेकर विभिन्न सत्ता प्रतिष्ठानों ने मुआवजा व पुनर्वास कानून बनाए, जिनमें मध्य प्रदेश एक है। अंग्रेजों ने जो भूमि अधिग्रहण कानून बनाया, उसमें उनकी मानसिकता स्पष्ट थी। वे भारतीयों के लिये मानवीय गरिमा व नागरिक अस्मिता जैसी किसी बात की परवाह नहीं करते थे। वे अपने को स्वयंभू मालिक और भारतीयों को अपना गुलाम मानते थे। उनके लिये सम्पत्ति से विस्थापन का अर्थ मुआवजे के रूप में कुछ रुपए भर मुहैया कराना था। इतना जरूर था कि प्रभावित लोगों को अधिगृहित की जाने वाली जमीन, उसके प्रस्तावित उपयोग, स्थान और क्षेत्रफल की सूचना जरूर देनी होती थी और सन्तुष्ट नहीं होने पर जनता को प्रतिवाद का अधिकार था। इसी तरह के विस्थापन का दूसरा क्षेत्र वन क्षेत्र से सम्बन्धित है। गुलाम भारत में ही अंग्रेजों द्वारा भारतीय वन कानून-1927 में बनाया गया था। इसमें संरक्षित व आरक्षित वन घोषित करने का प्रावधान था, लेकिन ग्रामीण आदिवासियों के लिये वन भूमि व वन उपज के उपयोग के परम्परागत अधिकार बहाल रखे गए थे। ऐसा नहीं है कि अंग्रेज शासक बड़े संवेदनशील थे, बल्कि इसकी जड़ में आदिवासियों के भीषण प्रतिरोध और बिरसा मुंडा जैसे जुझारू लोगों के संघर्ष थे। उन्हीं की बदौलत अंग्रेजों को ‘छोटा नागपुर टेनेंसी एक्ट’ बनाना पड़ा था और वन व वन उपज पर निर्भर आबादी के लिये घास, चारा, ईंधन, मछली, फल-फूल आदि के उपयोग के साथ-साथ वनों की खाली पड़ी जमीन पर फसलें उगाने तक के अधिकार हासिल हुए थे।
दोनों ही मामलों में देशी शासकों ने प्रजातांत्रिक मूल्यों के अनुरूप कोई नया कानून तो नहीं बनाया, बल्कि इसके विपरीत अंग्रेजों द्वारा बनाए गए कानूनों के नाममात्र के प्रावधानों को भी दाँव-पेंच व तीन-तिकड़म से बनाने का निरन्तर प्रयास किया। नर्मदा घाटी योजना और टिहरी बाँध परियोजना के विस्थापितों की उपेक्षा इसके ताजा उदाहरण हैं। इसी प्रकार वन संरक्षण व पर्यावरण कानून के नाम पर वन्य जीव संरक्षण, टाइगर प्रोजेक्ट, हाथी कॉरिडोर आदि के बहाने एक ओर गाँवों का विस्थापन जारी है तो दूसरी ओर वन उपज से वंचित करके लोगों को भाँति-भाँति के हथकंडों से उत्पीड़ित करने की अन्तहीन तिकड़में भी बदस्तूर जारी हैं। कलिंगनगर की घटना इसका ताजा उदाहरण है। इस घटना में यह बात उभर कर सामने आई है कि किस तरह से अफसरशाहों द्वारा ग्रामीणों को वन कानूनों की आड़ में प्रताड़ित किया जाता है।
सिंहभूम जिले में 1978 से 1981 के बीच 5,160 मामले मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत के दायरे में थे, जिनमें 1,430 मामले वन कानून सम्बन्धी थे, जो 1961 से लम्बित थे और जिनमें चार्जशीट दाखिल नहीं की गई थी। लोग जेलों में बन्द पड़े थे। सर्वोच्च न्यायालय को सभी मामले निरस्त करने पड़े। यह कड़वी सच्चाई है कि देश की पीड़ित आबादी वन कानूनों के मामलों में अनभिज्ञ है, साथ ही उन तिकड़मी नियमों को लागू कराने वाले प्रशासनिक अधिकारियों से भी अनजान है, जो शायद जनता को सूचित किये बगैर काम करते रहते हैं। शासन-सत्ता की तिपाई विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका के किसी भी प्रतिष्ठान में पदासीन अधिकारी वर्ग इन हालात से अच्छी तरह परिचित हैं। उनकी पक्षधरता स्पष्ट है। वे स्वयं की लिखी इबारत से उस समय मुकर जाते हैं जब गरीब किसानों, मजदूरों, मेहनतकशों के हितों का सवाल रू-ब-रू होता है। संविधान के अनुच्छेद-21 में जीवनयापन का मौलिक अधिकार व अनुच्छेद-31 में व्यक्तिगत सम्पत्ति की सुरक्षा का अधिकार गरीबों का मुँह चिढ़ाते प्रतीत हैं।
आज का दौर पूँजीपतियों की लूट का नंगा दौर है। देश में लागू विकास के मॉडल में ‘किसका विकास’ हो पाया है और हो रहा है, इसे समझा जाना चाहिए। कल गाँधी जी जब अन्तिम आदमी और देश पर राज कर रहे ब्रिटिश वायसराय के बीच के फर्क को बता रहे थे, तब यह फर्क 1: 5,000 रुपए का था आज यह फर्क आम आदमी और खास आदमी के बीच बढ़कर 1: 90 लाख रुपए का हो गया है। मुनाफाखोर व्यवस्था संचार माध्यमों द्वारा देश के लोगों को करोड़पति और अरबपतियों की गिनती समझाती है। देश में दलाली का आलम इस कदर परवान चढ़ा है कि अशोक मल्होत्रा जैसा आदमी रातोंरात राजनीतिकों और प्रशासनिक अधिकारियों की शह पाकर करोड़ों और अरबों में खेलने लगता है। दूसरी तरफ कूड़ा बीनकर अपना पेट भरते बच्चों की तस्वीरें हैं, जिन्हें ‘लोकतांत्रिक मीडिया’ नहीं दिखाता है। दरअसल यह सब वर्ग पक्षधरता को उजागर करता है। देश के आम मेहनतकशों की व्यापक एकता और संगठित संघर्ष के अलावा आज कोई विकल्प नहीं है, जिसके जरिए मानवीय गरिमा और नागरिक अस्मिता की सुरक्षा की जा सके।
जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
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पुस्तक परिचय - जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण | |
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