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डॉ. दिनेश कुमार मिश्र की पुस्तक 'दुइ पाटन के बीच में'
तटबन्धों के अन्दर रहने वालों को पुनर्वास मिला हुआ है और अगर वह पुनर्वास स्थलों में न रह कर किसी दूसरी जगह या अपने पुराने गांव में रहते हैं तो हो सकता है, उन्हें रिलीफ मिले ही नहीं। ऐसा कई बार हुआ भी है। राहत का हकदार कौन है, और कौन नहीं, इस पर एक लम्बी बहस चल सकती है लेकिन जो दस्तूर है वह यह कि गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों या फिर जरूरतमंद को राहत मिलनी चाहिये।
पुनर्वास स्थल तटबन्धों के कन्ट्री-साइड में हैं और इनमें से अधिकांश में जल-जमाव है और यह रिहाइश के काबिल नहीं हैं। पुनर्वास स्थलों में कुछ परिवार रहते जरूर हैं मगर यह वही लोग हैं जिनके पास और कोई दूसरा उपाय नहीं है। जहां जहां लोग पुनर्वास स्थल छोड़ कर अपने पैतृक गांवों में चले गये हैं उन पुनर्वास स्थलों पर तकनीकी रूप से सरकार काबिज है और वह इन जमीनों की नीलामी एक साल की अवधि के लिए करती है। इस जमीन का कुछ भाग रबी या गरमा में पानी से निकल आता है और इस पर कुछ खेती हो जाती है। वैसे पुनर्वास की ज्यादातर जमीन पर जो स्थिति है उसके बारे में राजेन्द्र झा कहते हैं, पुनर्वास की जमीन का हर कोई मालिक है। देखें बॉक्स।जहां तटबन्धों के बाहर रहने वालों की यह हालत है वहीं उन लोगों के बारे में भी जानना दिलचस्प होगा जिन्हें पुनर्वास में जमीन मिली। देखें बाक्स- यही है हमारा पुनर्वास।
तबाही के नक्शे
अगर आप कभी सहरसा, सुपौल, दरभंगा या मधुबनी जिलों के प्रखण्डों के नक्शे इन्हीं प्रखण्ड कार्यालयों से मांगे तो इनमें एक समानता मिलेगी कि इन नक्शों में तटबन्धों के बीच के गांवों को अलग रंग से दिखाया गया है। पूछने पर कोई भी अधिकारी कहेगा कि वह सब ‘खतम’ गांव हैं, हर साल पानी में डूबते हैं, रिलीफखोर हैं और हमेशा-हमेशा के लिए बाढ़ग्रस्त हैं। वहां कोई विकास का काम नहीं हो सकता और निर्माण का काम तो हरगिज नहीं क्योंकि इस साल बनायेंगे तो अगली साल कट कर बराबर हो जायेगा, इसलिए उन्हें अलग रंग से दिखाया जाता है। दुर्भाग्यवश, कोसी के पश्चिमी तटबन्ध और कमला के पूर्वी तटबन्ध के बीच के क्षेत्रों को यह नक्शे बाढ़-मुक्त बताते हैं। पानी की निकासी की गंभीर समस्या से जूझते इस क्षेत्र को बाढ़ग्रस्त क्षेत्र होने की मान्यता तक नहीं मिलती। तटबन्धों के अन्दर रहने वालों को पुनर्वास मिला हुआ है और अगर वह पुनर्वास स्थलों में न रह कर किसी दूसरी जगह या अपने पुराने गांव में रहते हैं तो हो सकता है, उन्हें रिलीफ मिले ही नहीं। ऐसा कई बार हुआ भी है। राहत का हकदार कौन है, और कौन नहीं, इस पर एक लम्बी बहस चल सकती है लेकिन जो दस्तूर है वह यह कि गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों या फिर जरूरतमंद को राहत मिलनी चाहिये। इस विषय में बिहार सरकार पि़फलहाल जो कहती है उसे नीचे दिया जा रहा है।
1. ऐसा प्रत्येक परिवार एक क्विंटल गेहूँ का हकदार है जो 25 किलोग्राम की चार साप्ताहिक किस्तों में उन्हें दिया जायेगा।
2. प्रत्येक बाढ़ प्रभावित परिवार इसी दौरान 5 किलोग्राम चना और एक किलोग्राम नमक का हकदार है।
3. वह लोग जो तटबन्धों के ऊपर या ऐसे ही किसी स्थान पर शरण लेते हैं उन्हें तैयार भोजन (सत्तू, चूड़ा, चना और नमक) या फिर 50 रुपया नगद सहायता दी जायेगी।
4. प्रत्येक परिवार को 200 रुपये नगद देने का प्रावधान है जिससे वह अपने लिए मसाले, दियासलाई, तेल और प्याज आदि खरीद सके।
5. बाढ़ के कारण किसी व्यक्ति की मृत्यु होने पर उसके नजदीकी प्रियजनों को 50,000 रुपये का मुआवजा दिया जायेगा बशर्ते जिलाधिकारी यह प्रमाणपत्र निर्गत करें कि उस आदमी की मृत्यु बाढ़ के कारण हुई है।
6. गरीबी रेखा के नीचे रह रहे लोगों के लिए इन्दिरा आवास योजना के अधीन गृह निर्माण का प्रावधान है।
7. प्रति परिवार पीछे पशु-चारा खरीदने के लिए 200/ रुपयों का प्रावधान है।
8. बाढ़ जनित बीमारियों के इलाज/दवा-दारू के लिए सरकार व्यवस्था करेगी और वह सर्प-दंश के इलाज की भी व्यवस्था करेगी।
9. अत्यधिक कठिनाई के समय सरकार प्रखण्ड स्तर पर सस्ती दरों पर मिलने वाली रोटी की दुकानों की व्यवस्था करेगी।
10. राहत और बचाव कार्यों में लगे नाविकों को 70 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से भुगतान किया जायेगा।
यह सारी सामग्री और राशि केवल प्रावधानों तक ही सीमित हैं और इसे सरकार किसी का हक नहीं मानतीं लिहाजा काफी बड़ी तादाद में लोग इस तरह की राहत से महरूम रह जाते हैं। अगले अध्याय (अध्याय-10) में राहत कार्यों में राज्य तथा केन्द्र सरकार की भूमिकाओं पर हम बात कर सकेंगे।