फ्लोराइड ने छीन ली कचहरिया डीह की जवानी

Submitted by Shivendra on Wed, 12/24/2014 - 16:55
. कचहरिया डीह बिहार के नवादा जिले का एक बदनसीब टोला है। रजौली प्रखण्ड के हरदिया पंचायत में स्थित इस गाँव को आस-पास के लोग विकलांगों की बस्ती कहते हैं।

71 घरों वाले इस छोटे से टोले के सौ के करीब जवान लड़के-लड़कियाँ चलने-फिरने से लाचार हैं। उनकी हड्डियाँ धनुषाकार हो गई हैं। यह सब तीन दशक पहले शुरू हुआ जब अचानक इस बस्ती के भूजल में फ्लोराइड की मात्रा तय सीमा से काफी अधिक हो गई और बस्ती स्केलेटल फ्लोरोसिस के भीषण प्रकोप का शिकार हो गया।

हालाँकि मीडिया में लगातार यहाँ की परिस्थितियों पर खबरें आने से एक फायदा तो यह हुआ कि सरकार का ध्यान इस ओर गया और यहाँ वाटर ट्रीटमेंट प्लांट स्थापित हो गया। मगर देखरेख के अभाव में पिछले दिनों वह चार माह से खराब पड़ा था, महज दस दिन पहले यह ठीक हुआ है।

पूरी एक पीढ़ी बरबाद हो गई


टोले की शुरुआत में ही सन्तोष मिलते हैं। उनके दोनों पैर धनुषाकार मुड़े हुए हैं। वे घिसट-घिसटकर चलते हैं। उनकी उम्र 19-20 साल के करीब है। उनके पिता कहते हैं, दस साल की उम्र तक सन्तोष बड़ा तन्दरुस्त बच्चा था। फिर अचानक यह गड़बड़ाने लगा। इसका पाँव मुड़ने लगा और फिर इसकी यह हालत हो गई।

आगे बढ़ने पर सन्तोष के तरह ही और भी कई युवा मिलते हैं जिनकी हालत ऐसी ही है। इनमें कारू रजवार के पुत्र शिवबालक, बालो भुइयाँ के पुत्र ब्रह्मदेव, लालो राजवंशी के पुत्र पंकज आदि हैं।

एक स्थानीय ग्रामीण ईश्वरी राजवंशी कहते हैं, इस गाँव में आपको 16 से 24 साल का कोई नौजवान ऐसा नहीं मिलेगा जिसकी हड्डी सही सलामत हो। फ्लोराइड के कारण पूरी एक पीढ़ी बरबाद हो गई।

ऐसा नहीं है कि फ्लोराइड की फाँस ने सिर्फ बच्चों और युवाओं को अपने कब्जे में लिया है। प्रौढ़ों और बुजुर्गों की हालत भी ठीक नहीं है। बिस्तर से उठने में उनका दम निकल जाता है। कोई झुकने कह दे तो जान मुँह को आ जाता है। हाँ, यह जरूर है कि वे बच्चों और युवाओं की तरह विकलांग नहीं हुए, क्योंकि जब पानी में फ्लोराइड की मात्रा बढ़ी तो उनका शरीर इतना मजबूत हो चुका था कि वह फ्लोराइड का मुकाबला कर सके। मगर जोड़ों के दर्द और भीषण किस्म के आर्थराइटिस से वे खुद को नहीं बचा पाए।

50 साल की पन्ना देवी बताती हैं कि खाट ही अब उनका जीवन है। वे बताती हैं कि दोनों पैर नाकाम हो चुके हैं। हाथ ऊपर नहीं उठता। गोवर्धन भुइयाँ, द्वारी राजवंशी और ईश्वरी राजवंशी समेत कई लोगों का यही हाल है।

पानी में अचानक कैसे फ्लोराइड बढ़ गया


टोले के लोग बहुत पढ़े लिखे नहीं हैं, इसलिए उन्हें तारीखें या साल याद नहीं रहता। मगर वे बताते हैं कि पहले इस गाँव का पानी ऐसा नहीं था। जबसे हरदिया में फुलवरिया डैम बना है उसके कुछ दिन बाद से यहाँ के कुओं का पानी तीता लगने लगा। उसके कुछ साल बाद से ही बच्चे विकलांग होते चले गये।

जब तक लोग कुछ समझ पाते कि परेशानी की वजह क्या है यहाँ सौ से अधिक बच्चे विकलांग हो चुके थे। बिहार सरकार के रिकार्ड में बताया जाता है कि फुलवरिया डैम का निर्माण 1988 में पूरा हुआ है। स्थानीय विशेषज्ञ मानते हैं कि डैम के पानी के सिपेज से ही इस टोले के भूजल में फ्लोराइड की मात्रा अचानक बढ़ गई और इसका नतीजा इस रूप में सामने आया। कचहरिया डीह के पेयजल में फ्लोराइड की मात्रा 8 मिग्रा प्रति लीटर पाई गई है। जबकि यूनिसेफ ने पेयजल में फ्लोराइड की परमिशेबल लिमिट 1.5 मिग्रा प्रति लीटर तय की है।

मीडिया में छा गया कचहरिया डीह


2002 के बाद के सालों में कचहरिया डीह की खबरें मीडिया में लगातार आने लगी। इससे सरकार पर दबाव बढ़ा और लोक स्वास्थ्य अभियन्त्रण विभाग के अधिकारी बार-बार यहाँ आने लगे।

फ्लोराइड का कहर केवल बच्चों और युवाओं पर ही नहीं बल्कि प्रौढ़ों और बुजुर्गों को भी अपने गिरफ्त में कर लिया। बिस्तर से उठने में उनका दम निकल जाता है। कोई झुकने कह दे तो जान मुँह को आ जाता है। हाँ, यह जरूर है कि वे बच्चों और युवाओं की तरह विकलांग नहीं हुए, क्योंकि जब पानी में फ्लोराइड की मात्रा बढ़ी तो उनका शरीर इतना मजबूत हो चुका था कि वह फ्लोराइड का मुकाबला कर सके। मगर जोड़ों के दर्द और भीषण किस्म के आर्थराइटिस से वे खुद को नहीं बचा पाए।स्थानीय अधिकारियों ने भी कचहरिया डीह पर विशेष ध्यान देना शुरू किया। इसके दो फायदे हुए। पहला, यहाँ एक वाटर ट्रीटमेंट प्लांट स्थापित हो गया और टोले में सार्वजनिक पेयजलापूर्ति के कई नल लग गए। दूसरा तत्कालीन डीएम विजयलक्ष्मी ने यहाँ कैम्प लगाकर कई विकलांगों का निःशक्तता प्रमाणपत्र बनवा दिया।

सरकार द्वारा किए गए इन प्रयासों की वजह से एकबारगी लगने लगा कि अब इस गाँव की सारी समस्याएँ सुलझ जाएँगे। इस वजह से कचहरिया डीह से मीडिया अटेंशन भी कम होने लगा।

नाकाफी साबित हुए ये उपाय


सरकारी संस्थाओं द्वारा किए गए ये दोनों उपाय कुछ ही सालों में नाकाफी साबित होने लगे। वाटर ट्रीटमेंट प्लांट के संचालक दिलीप यादव बताते हैं कि तकरीबन 44 महीने ठीक-ठाक चलने के बाद प्लांट का मोटर बिगड़ गया और इसे सुधरवाने में चार महीने लग गए। इस बीच गाँव के लोग दूर-दराज से पानी लाकर काम चलाते रहे। वे कहते हैं कि अब तक इस प्लांट को लगे 49 महीने बीत चुके हैं, मगर उन्हें अब तक सिर्फ 15 महीनों का मेहनताना मिला है। ऐसे में वे अब इस जिम्मेदारी से मुक्त होने की कोशिश कर रहे हैं।

वहीं, निःशक्तता प्रमाण पत्र बनने के बाद से अब तक यहाँ के विकलांगों को सिर्फ एक बार निःशक्तता पेंशन मिला है। उसके बाद उनका पेंशन कहाँ गया यह उन्हें पता नहीं। विकलांगता की वजह से यहाँ के नब्बे फीसदी युवा पढ़ाई-लिखाई में पिछड़ गए हैं। अब वे अपने परिवारों पर बोझ बनकर रह गए हैं। जबकि उनके लिए एक विशेष पाठशाला खोले जाने की जरूरत थी ताकि वे पढ़ लिखकर मुख्य धारा में आ सकें। कोई नौकरी कर सकें या रोजगार शुरू करके आत्मनिर्भर हो सकें।

निःशक्तों को मिलने वाला सामाजिक पेंशन अब टोले में एक राजनीतिक मसला बन चुका है। टोले के लोग मानते हैं कि उनका पैसा ग्राम सेवक हड़प कर जा रहे हैं। ईश्वरी राजवंशी अपनी बेटी ममता कुमारी का सामाजिक पेंशन का पासबुक दिखाते हुए शिकायत करते हैं कि कैसे ग्राम सेवक ने उस पर दो फर्जी एण्ट्रियाँ कर दी हैं, जबकि उन्हें पेंशन का एक पैसा नहीं मिला। वार्ड नौ की वार्ड सदस्य सिया देवी भी इस बात की तसदीक करती हैं।

ट्रीटमेंट प्लांट से आया बदलाव


हालाँकि यह कहना गलत होगा कि ट्रीटमेंट प्लांट से कचहरिया डीह को कोई खास लाभ नहीं हुआ। यह प्लांट द्वारा मिलने वाले शुद्ध पेयजल का ही लाभ है कि टोले के नए बच्चों में से कोई विकलांग नहीं हुआ। किसी को फ्लोरोसिस की परेशानी नहीं है। मगर जो लोग एक बार इससे प्रभावित हो चुके हैं, उनकी स्थिति जस-की-तस है। उनके लिए विशेष इलाज की दरकार है।

पड़ोस के गाँव में भी पसर रहा संक्रमण


इस बीच कचहरिया डीह के पड़ोस के गाँव पुरानी हरदिया के दो-तीन मुस्लिम परिवार भी स्केलेटल फ्लोरोसिस की चपेट में आ गये हैं।



ऐसा लगता है कि इस बस्ती में भी अब डैम का सिपेज घुसने लगा है। गाँव के जसीम अंसारी के पाँव भी कचहरिया डीह के बच्चों की तरह मुड़ गए हैं। रहमान अंसारी (62) और असगरी खातून (48) जोड़ों के भीषण दर्द से परेशान रहते हैं और चलने-फिरने से लाचार हो गए हैं। सगीना खातून(10) के पाँव टेढ़े होने लगे हैं। इनकी तरफ किसी का ध्यान नहीं है।

कचहरिया एक केस स्टडी है। गया-नवादा में ऐसे कई गाँव हैं, जहाँ ऐसी ही हालत है। दक्षिण बिहार में फ्लोराइड प्रभावित गाँवों में कोई पॉलिसी बनाकर ही सरकार को काम करना होगा। ताकि वहाँ के लोगों को राहत मिल सके।
- अशोक घोष, अध्यक्ष, पर्यावरण एवं जल प्रबन्धन विभाग, एएन कॉलेज, पटना

कचहरिया डीह में वाटर ट्रीटमेंट प्लांट का निर्माण इन्वायरोटेक प्रा. लिमिटेड द्वारा कराया गया था और इसके मेंटनेंस का जिम्मा वाटरलाइफ इंफ्राटेक को दिया गया था। पिछले तीन चार महीने से मेंटेनेंस देखने वाली कम्पनी काम ठीक से नहीं कर पा रही। कुछ माह पहले जो मशीन खराब हुई थी उसकी मरम्मत का जिम्मा कम्पनी का था। मगर कम्पनी ने कोई पहल नहीं की, बाद में विभाग की ओर से ही उसे ठीक कराया गया।
- रामजी प्रसाद, एसडीओ, रजौली अनुमण्डल, नवादा

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