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नेटवर्क6, 08 जून 2012
बिहार के लगभग 21 जिले आर्सेनिक से प्रभावित हैं और कई जिले फ्लोराइड से प्रभावित हैं। भागलपुर जिले का कोलाखुर्द गांव के भूजल में आर्सेनिक और फ्लोराइड दोनों की मात्रा बहुत ज्यादा है। 2000 आबादी के इस गांव में 100 से ज्यादा लोग पूर्णतः या अंशतः विकलांग हो चुके हैं। काफी लोग गांव छोड़कर जा चुके हैं। सरकारी प्रयास दिखावे के लिए आर्सेनिक और फ्लोराइड प्रभावित चापाकलों पर लाल निशान लगाने तक सीमित रह गया है। गांव से महज एक किलोमीटर दूर साफ पानी उपलब्ध है। पर लापरवाही और गैरजिम्मेदारी से निजात मिले तो साफ पानी मिले। बता रही हैं डॉ. जेन्नी शबनम।
45 वर्षीया गीता देवी जिसका पूरा बदन ही सुख गया है और दोनों हाथ पाँव की हड्डियां टेढ़ी होकर अकड़ गई है, खुद से कुछ भी नहीं कर सकती। अपना व्यक्तिगत काम करने में भी असमर्थ है। उसकी बीमारी के कारण उसे देख कर लगता है जैसे वो 60 साल की हो। उससे पूछने पर कि ये बीमारी कब से है ऐसे देखती है मानो उसके कान भी सुन्न पड़ चुके हैं और जुबां भी खामोश, बस बेचारगी से चुपचाप देखती है। उसका पति बताता है कि करीब दो तीन साल पहले बीमार हुई और धीरे-धीरे पूरा देह सुख के अकड़ गया। वो बताता है कि वही जहर जो पूरे गाँव को एक-एक करके खा रहा है उसी से ऐसा हाल हुआ है।
मेरे विद्यालय के प्रधानाध्यापक राकेश सिंह और हिन्दी की शिक्षिका अलका सिंह के साथ मैं भागलपुर शहर से करीब 15 किलोमीटर दूर जगदीशपुर प्रखंड के कोलाखुर्द गाँव में पहुँची। राकेश सिंह के एक मित्र जो भागलपुर में फिजियोथेरेपिस्ट हैं और वहाँ मरीजों को देखने जाते हैं, भी साथ थे। गाँव में घुसते हीं 20-25 लोग इकट्ठे हो गए। सभी का अपना-अपना दर्द, कुछ बदन की पीड़ा कुछ मन की पीड़ा। ग्रामीणों ने बताया कि तकरीबन 2000 की आबादी वाले इस गाँव में लगभग 100 व्यक्ति पूर्णतः या अंशतः विकलांग हो चुके हैं। कितने बड़े-बड़े नेता आए कितने पेपरों में छपा। देश में कई जगहों पर यहां का पानी टेस्ट हुआ और सभी रिपोर्ट में आर्सेनिक और फ्लोराइड होने की पुष्टि हुई। फिर भी कोई कुछ नहीं करता। अब भी जहर वाला पानी पी रहे हैं सभी। फ्लोराइड और आर्सेनिक के कारण लगभग सभी को जोड़ में दर्द और हड्डी की समस्या है। रीढ़ की हड्डी धनुष की तरह मुड़ गई है। कई लोगों ने गाँव को छोड़ दिया है। ग्रामीणों ने बताया कि यहां कोई अपनी बेटी नहीं देना चाहता, न यहां की बेटी से कोई जल्दी ब्याह करना चाहता है। अपना खेत होते हुए भी कई लोग खेती छोड़ कर पंजाब गुजरात दिल्ली पलायन कर चुके हैं लेकिन कमाई इतनी कम है कि घर वालों को ले नहीं जा सकते, जो कुछ भी कमाते हैं परिवार वालों की बीमारी पर खर्च हो जाता है। छोटे-छोटे बच्चों का पाँव टेढ़ा हो गया है और सीधे चल नहीं पाते हैं। सरकार योजना तो बनाती है लेकिन कितने लोगों को अपाहिज बनाने के बाद कुछ करेगी क्या पता।
कोलाखुर्द गाँव जहां अधिकांश राजपूत हैं और सबके पास खेत है, परन्तु सिंचाई के अभाव में खेत-खलिहान बंजर पड़े हुए हैं। सभी घरों में एक न एक व्यक्ति जरूर है जिसे आर्सेनिक और फ्लोराइड के दुष्प्रभाव ने मरीज बना दिया है। तकरीबन 30 वर्षों से यहां ये समस्या है। लोक स्वास्थय अभियंत्रण विभाग ने यहां पर स्वच्छ पानी के लिए मिनी प्लांट बिठाया है जिसमें कोई खास दवा डाली जाती है, जिससे पानी शुद्ध होता है। लेकिन ये जो दवा है उसकी कीमत लाखों में है और सरकार द्वारा नियुक्त ठेकेदार अपनी मनमानी करता है और समय पर दवा नहीं डालता है, जिसके कारण ये पानी भी जहरीला है। जिन-जिन चापाकलों के पानी में आर्सेनिक या फ्लोराइड की मात्रा ज्यादा है उन चापाकलों पर लाल निशान लगा दिए गए हैं और पानी के इस्तेमाल पर रोक लगा दी गई है। परन्तु सभी लोग इन चापाकलों के पानी का उपयोग कर रहे हैं, क्योंकि मिनी प्लांट समुचित पानी देने में असमर्थ है। लाल निशान वाले एक चापाकल से एक चुल्लू पानी मैंने भी पी कर देखा कि पीने में ये कैसा लगता है। स्वाद में सामान्य पानी जैसा ही रंगहीन गंधहीन। लेकिन ऐसे रसायन का समिश्रण जिससे इंसान की जिन्दगी में तकलीफ और दर्द का अंतहीन सिलसिला शुरू हो जाता है और मृत्युपर्यन्त रहता है।
इस गाँव से एक किलोमीटर की दूरी पर नारायणपुर कोलाखुर्द गाँव है जहां एक कुआँ है जिसके पानी में न तो फ्लोराइड है न आर्सेनिक। सरकार ने एक योजना बनायी है जिसके तहत इस कुआँ के पास एक बड़ा कुआँ खोद कर पाईप लाइन द्वारा घर-घर पानी की आपूर्ति जायेगी। लेकिन सरकारी योजनाओं की तरह ये योजना भी फाइलों में दबी पड़ी है। यहां के लोगों के द्वारा बार-बार मांग करने पर सरकार ने तीन महीने के अंदर योजना के कार्यान्वयन की बात कही थी लेकिन तीन महीने गुजर चुके हैं। ग्रामीणों की स्थिति और भी विकट होती जा रही है।
भागलपुर का ये जगदीशपुर प्रखंड कतरनी चावल के उत्पादन के लिए समूचे देश में प्रसिद्ध है। लेकिन इसका कोलाखुर्द गाँव न अनाज उपजाता है न कोई सब्जी, क्योंकि सिंचाई भी तो इसी पानी से होगी। सिर्फ वर्षा के पानी पर निर्भर होकर खेती संभव नहीं होती है। जिनको भी संभव हो सका गाँव छोड़ कर चले गए। परन्तु जो बिल्कुल असमर्थ हैं चाहे शारीरिक रूप से या आर्थिक रूप से, धीरे-धीरे खुद को खत्म कर रहे हैं। अधिकांश मरीज तो ऐसे हो चुके हैं जिनका इलाज संभव भी नहीं है। न उठ सकते न हिल सकते न स्वयं दैनिक क्रियाकलाप कर सकते, खामोशी से मृत्यु का इंतजार कर रहे हैं।
गाँव से ही लगा हुआ मध्य विद्यालय है जिसमें 145 बच्चे और 4 शिक्षक हैं। कितने बच्चों को विकलांगता है, ये पूछने पर शिक्षकों ने अनभिज्ञता जताई। 5 बच्चे तो वहीं सामने दिख गए जिनके पाँव की हड्डी टेढ़ी हो गई थी। स्कूल परिसर में हीं मध्याह्न भोजन बनता है और बच्चों को खिलाया जाता है। भात (चावल) और दाल फ्राई बना था जिसमें दाल कम और पीला पानी ज्यादा था। खाना बनाने वाली हमें देख कर डर गई कि कहीं सरकार की तरफ से कोई जाँच पड़ताल तो नहीं। राकेश सिंह ने वहाँ की भाषा (अंगिका) में उसे समझाया कि डरो नहीं हम लोग सरकार के यहां से नहीं आए हैं, बस घूमने आए हैं। बहुत कहने पर भी वो खाना दिखाने से डरती रही, फिर वहीं का एक छात्र ढक्कन खोल कर खाना दिखाया। मेनू के हिसाब से खाना तो है लेकिन मात्रा की कमी और पोषकता को कोई नहीं देखता। बीच-बीच में इसका भी अकस्मात अवलोकन और परीक्षण आवश्यक है।
कोलाखुर्द का दर्द पिघल-पिघल कर पूरे देश के अखबार की खबरों का हिस्सा बनता है, लेकिन किसी इंसान के दिल को नहीं झकझोरता न तो सरकार की व्यवस्था पर सवाल उठाता है। यहां स्वास्थय केंद्र भी नहीं है। भागलपुर जाकर ईलाज कराना इनके लिए मुमकिन नहीं क्योंकि आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं कि रोजगार छोड़ कर अपने घर वालों का अच्छा ईलाज करा सकें। सरकार ने उन चापाकलों पर लाल निशान लगा दिया है जिसका पानी दूषित है। प्लांट में समुचित पानी नहीं आता है जिससे कि पूरे गाँव को पानी मिल सके; यूँ प्लांट भी दवा के अभाव में अशुद्ध पानी ही दे रहा है। ग्रामीणों के पास दो विकल्प हैं, या तो जहर पी-पी कर धीरे-धीरे पीड़ा से मरें या गाँव छोड़ दें। एक और विकल्प है जिससे कोलाखुर्द को बचाया जा सकता है और वो है – सामूहिक आंदोलन, जिसके लिए समस्त ग्रामीण को एकजुट होकर हिम्मत दिखानी है। फिर शुद्ध पानी सप्लाई की ठंडी योजना फाइल से निकल कोलाखुर्द तक पहुँच जायेगी और एक गाँव मिटने से बच जाएगा। कई बार अधिकार न मिले तो छीनना पड़ता है और शुद्ध पानी पाने का हक हमारा कानून हमें देता है।
एक सवाल जो मेरे जेहन में आया और मैं पूछने से खुद को रोक न सकी कि अगर अब जब सभी जान चुके हैं कि पानी जहरीला है तो महज एक किलो मीटर दूर जहां शुद्ध पानी है, से कम से कम पीने का पानी तो हर घर में लाया जा सकता है, जब तक कि सरकार योजना पर अमल नहीं करती है। यूँ भी सरकार द्वारा चापाकल गड़वाने से पहले यहां के ग्रामीण उसी कुआँ से पानी लाते थे। जिन्दगी दांव पर लगा सकते लेकिन थोड़ा अधिक मेहनत नहीं कर सकते हैं। सरकार तो अपनी ही रफ्तार से चलती है लेकिन हमें अपनी रफ्तार तो बढ़ानी और बदलनी चाहिए।
कोलाखुर्द का दर्द पिघल-पिघल कर पूरे देश के अखबार की खबरों का हिस्सा बनता है, लेकिन किसी इंसान के दिल को नहीं झकझोरता न तो सरकार की व्यवस्था पर सवाल उठाता है। यहां स्वास्थय केंद्र भी नहीं है। भागलपुर जाकर ईलाज कराना इनके लिए मुमकिन नहीं क्योंकि आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं कि रोजगार छोड़ कर अपने घर वालों का अच्छा ईलाज करा सकें। ग्रामीणों के पास दो विकल्प हैं, या तो जहर पी-पी कर धीरे-धीरे पीड़ा से मरें या गाँव छोड़ दें।
“न चल सकते हैं, न सो सकते हैं, न बैठ सकते हैं, कैसे जीवन काटें?” कहते-कहते आँसू भर आते हैं गीता देवी की आँखों में। मेरे पास कोई जवाब नहीं, क्या दूँ इस सवाल का जवाब? मैं पूछती हूँ” कब से आप बीमार हैं?” 50 वर्षीया शान्ति देवी जो विकलांग हो चुकी है रो-रो कर बताती है “जब से सरकार ने चापाकल गाड़ा है जहर पी-पी के हमारा ई हाल हुआ है।” वे अपने दोनों पाँव को दिखलाती है जिसकी हड्डियां टेढ़ी हो चुकी है। उन्होंने कहा “जब तक चापाकल नहीं गाड़ा गया था तब तक पानी का बहुत दिक्कत था। लेकिन अब लगता है कि ये चापाकल ही हमारा जान ले लेगा तो हम कभी इसका पानी नहीं पीते।”खटिया पर बैठे हुए वो अपने घर का चापाकल दिखाती है और फिर इशारा करती है उन डब्बों की ओर जिसमें पानी भर कर रखा हुआ है। वो कहती है कि सरकार थोड़ा-बहुत पानी का इंतजाम की है वहीं से पानी ला कर रखते हैं, बाकी काम तो इसी जहर वाले पानी से करना पड़ता है।”45 वर्षीया गीता देवी जिसका पूरा बदन ही सुख गया है और दोनों हाथ पाँव की हड्डियां टेढ़ी होकर अकड़ गई है, खुद से कुछ भी नहीं कर सकती। अपना व्यक्तिगत काम करने में भी असमर्थ है। उसकी बीमारी के कारण उसे देख कर लगता है जैसे वो 60 साल की हो। उससे पूछने पर कि ये बीमारी कब से है ऐसे देखती है मानो उसके कान भी सुन्न पड़ चुके हैं और जुबां भी खामोश, बस बेचारगी से चुपचाप देखती है। उसका पति बताता है कि करीब दो तीन साल पहले बीमार हुई और धीरे-धीरे पूरा देह सुख के अकड़ गया। वो बताता है कि वही जहर जो पूरे गाँव को एक-एक करके खा रहा है उसी से ऐसा हाल हुआ है।
मेरे विद्यालय के प्रधानाध्यापक राकेश सिंह और हिन्दी की शिक्षिका अलका सिंह के साथ मैं भागलपुर शहर से करीब 15 किलोमीटर दूर जगदीशपुर प्रखंड के कोलाखुर्द गाँव में पहुँची। राकेश सिंह के एक मित्र जो भागलपुर में फिजियोथेरेपिस्ट हैं और वहाँ मरीजों को देखने जाते हैं, भी साथ थे। गाँव में घुसते हीं 20-25 लोग इकट्ठे हो गए। सभी का अपना-अपना दर्द, कुछ बदन की पीड़ा कुछ मन की पीड़ा। ग्रामीणों ने बताया कि तकरीबन 2000 की आबादी वाले इस गाँव में लगभग 100 व्यक्ति पूर्णतः या अंशतः विकलांग हो चुके हैं। कितने बड़े-बड़े नेता आए कितने पेपरों में छपा। देश में कई जगहों पर यहां का पानी टेस्ट हुआ और सभी रिपोर्ट में आर्सेनिक और फ्लोराइड होने की पुष्टि हुई। फिर भी कोई कुछ नहीं करता। अब भी जहर वाला पानी पी रहे हैं सभी। फ्लोराइड और आर्सेनिक के कारण लगभग सभी को जोड़ में दर्द और हड्डी की समस्या है। रीढ़ की हड्डी धनुष की तरह मुड़ गई है। कई लोगों ने गाँव को छोड़ दिया है। ग्रामीणों ने बताया कि यहां कोई अपनी बेटी नहीं देना चाहता, न यहां की बेटी से कोई जल्दी ब्याह करना चाहता है। अपना खेत होते हुए भी कई लोग खेती छोड़ कर पंजाब गुजरात दिल्ली पलायन कर चुके हैं लेकिन कमाई इतनी कम है कि घर वालों को ले नहीं जा सकते, जो कुछ भी कमाते हैं परिवार वालों की बीमारी पर खर्च हो जाता है। छोटे-छोटे बच्चों का पाँव टेढ़ा हो गया है और सीधे चल नहीं पाते हैं। सरकार योजना तो बनाती है लेकिन कितने लोगों को अपाहिज बनाने के बाद कुछ करेगी क्या पता।
कोलाखुर्द गाँव जहां अधिकांश राजपूत हैं और सबके पास खेत है, परन्तु सिंचाई के अभाव में खेत-खलिहान बंजर पड़े हुए हैं। सभी घरों में एक न एक व्यक्ति जरूर है जिसे आर्सेनिक और फ्लोराइड के दुष्प्रभाव ने मरीज बना दिया है। तकरीबन 30 वर्षों से यहां ये समस्या है। लोक स्वास्थय अभियंत्रण विभाग ने यहां पर स्वच्छ पानी के लिए मिनी प्लांट बिठाया है जिसमें कोई खास दवा डाली जाती है, जिससे पानी शुद्ध होता है। लेकिन ये जो दवा है उसकी कीमत लाखों में है और सरकार द्वारा नियुक्त ठेकेदार अपनी मनमानी करता है और समय पर दवा नहीं डालता है, जिसके कारण ये पानी भी जहरीला है। जिन-जिन चापाकलों के पानी में आर्सेनिक या फ्लोराइड की मात्रा ज्यादा है उन चापाकलों पर लाल निशान लगा दिए गए हैं और पानी के इस्तेमाल पर रोक लगा दी गई है। परन्तु सभी लोग इन चापाकलों के पानी का उपयोग कर रहे हैं, क्योंकि मिनी प्लांट समुचित पानी देने में असमर्थ है। लाल निशान वाले एक चापाकल से एक चुल्लू पानी मैंने भी पी कर देखा कि पीने में ये कैसा लगता है। स्वाद में सामान्य पानी जैसा ही रंगहीन गंधहीन। लेकिन ऐसे रसायन का समिश्रण जिससे इंसान की जिन्दगी में तकलीफ और दर्द का अंतहीन सिलसिला शुरू हो जाता है और मृत्युपर्यन्त रहता है।
इस गाँव से एक किलोमीटर की दूरी पर नारायणपुर कोलाखुर्द गाँव है जहां एक कुआँ है जिसके पानी में न तो फ्लोराइड है न आर्सेनिक। सरकार ने एक योजना बनायी है जिसके तहत इस कुआँ के पास एक बड़ा कुआँ खोद कर पाईप लाइन द्वारा घर-घर पानी की आपूर्ति जायेगी। लेकिन सरकारी योजनाओं की तरह ये योजना भी फाइलों में दबी पड़ी है। यहां के लोगों के द्वारा बार-बार मांग करने पर सरकार ने तीन महीने के अंदर योजना के कार्यान्वयन की बात कही थी लेकिन तीन महीने गुजर चुके हैं। ग्रामीणों की स्थिति और भी विकट होती जा रही है।
भागलपुर का ये जगदीशपुर प्रखंड कतरनी चावल के उत्पादन के लिए समूचे देश में प्रसिद्ध है। लेकिन इसका कोलाखुर्द गाँव न अनाज उपजाता है न कोई सब्जी, क्योंकि सिंचाई भी तो इसी पानी से होगी। सिर्फ वर्षा के पानी पर निर्भर होकर खेती संभव नहीं होती है। जिनको भी संभव हो सका गाँव छोड़ कर चले गए। परन्तु जो बिल्कुल असमर्थ हैं चाहे शारीरिक रूप से या आर्थिक रूप से, धीरे-धीरे खुद को खत्म कर रहे हैं। अधिकांश मरीज तो ऐसे हो चुके हैं जिनका इलाज संभव भी नहीं है। न उठ सकते न हिल सकते न स्वयं दैनिक क्रियाकलाप कर सकते, खामोशी से मृत्यु का इंतजार कर रहे हैं।
गाँव से ही लगा हुआ मध्य विद्यालय है जिसमें 145 बच्चे और 4 शिक्षक हैं। कितने बच्चों को विकलांगता है, ये पूछने पर शिक्षकों ने अनभिज्ञता जताई। 5 बच्चे तो वहीं सामने दिख गए जिनके पाँव की हड्डी टेढ़ी हो गई थी। स्कूल परिसर में हीं मध्याह्न भोजन बनता है और बच्चों को खिलाया जाता है। भात (चावल) और दाल फ्राई बना था जिसमें दाल कम और पीला पानी ज्यादा था। खाना बनाने वाली हमें देख कर डर गई कि कहीं सरकार की तरफ से कोई जाँच पड़ताल तो नहीं। राकेश सिंह ने वहाँ की भाषा (अंगिका) में उसे समझाया कि डरो नहीं हम लोग सरकार के यहां से नहीं आए हैं, बस घूमने आए हैं। बहुत कहने पर भी वो खाना दिखाने से डरती रही, फिर वहीं का एक छात्र ढक्कन खोल कर खाना दिखाया। मेनू के हिसाब से खाना तो है लेकिन मात्रा की कमी और पोषकता को कोई नहीं देखता। बीच-बीच में इसका भी अकस्मात अवलोकन और परीक्षण आवश्यक है।
कोलाखुर्द का दर्द पिघल-पिघल कर पूरे देश के अखबार की खबरों का हिस्सा बनता है, लेकिन किसी इंसान के दिल को नहीं झकझोरता न तो सरकार की व्यवस्था पर सवाल उठाता है। यहां स्वास्थय केंद्र भी नहीं है। भागलपुर जाकर ईलाज कराना इनके लिए मुमकिन नहीं क्योंकि आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं कि रोजगार छोड़ कर अपने घर वालों का अच्छा ईलाज करा सकें। सरकार ने उन चापाकलों पर लाल निशान लगा दिया है जिसका पानी दूषित है। प्लांट में समुचित पानी नहीं आता है जिससे कि पूरे गाँव को पानी मिल सके; यूँ प्लांट भी दवा के अभाव में अशुद्ध पानी ही दे रहा है। ग्रामीणों के पास दो विकल्प हैं, या तो जहर पी-पी कर धीरे-धीरे पीड़ा से मरें या गाँव छोड़ दें। एक और विकल्प है जिससे कोलाखुर्द को बचाया जा सकता है और वो है – सामूहिक आंदोलन, जिसके लिए समस्त ग्रामीण को एकजुट होकर हिम्मत दिखानी है। फिर शुद्ध पानी सप्लाई की ठंडी योजना फाइल से निकल कोलाखुर्द तक पहुँच जायेगी और एक गाँव मिटने से बच जाएगा। कई बार अधिकार न मिले तो छीनना पड़ता है और शुद्ध पानी पाने का हक हमारा कानून हमें देता है।
एक सवाल जो मेरे जेहन में आया और मैं पूछने से खुद को रोक न सकी कि अगर अब जब सभी जान चुके हैं कि पानी जहरीला है तो महज एक किलो मीटर दूर जहां शुद्ध पानी है, से कम से कम पीने का पानी तो हर घर में लाया जा सकता है, जब तक कि सरकार योजना पर अमल नहीं करती है। यूँ भी सरकार द्वारा चापाकल गड़वाने से पहले यहां के ग्रामीण उसी कुआँ से पानी लाते थे। जिन्दगी दांव पर लगा सकते लेकिन थोड़ा अधिक मेहनत नहीं कर सकते हैं। सरकार तो अपनी ही रफ्तार से चलती है लेकिन हमें अपनी रफ्तार तो बढ़ानी और बदलनी चाहिए।