भारत में फ्लोरोसिस का पता 1930 के दशक में चला और तब से तकरीबन एक सदी बीतने के बावजूद यह एक विकराल समस्या के रूप में हमारे सामने मौजूद है। 1970 के दशक तक इस मसले पर कुछ गम्भीर शोध किये गए, मगर उस वक्त से अब तक इस विषय को लेकर कोई ढंग का रचनात्मक शोध नहीं हुआ है। जबकि इस दौरान समस्या और जटिल होती चली गई, जिससे इस समस्या पर काम करने वालों के लिये इससे जुड़कर आगे बढ़ना ही मुश्किल हो गया।
इस रोग से लाखों लोगों के पीड़ित होने के बावजूद वैश्विक स्तर पर इसके निदान के लिये कोई कार्यक्रम तैयार नहीं हुआ है और कोई ऐसी संस्था नहीं है जिसके पास इस रोग से मुकाबले की विशेषज्ञता हो, कुछ छोटे संस्थानों को छोड़कर जो इस दिशा में शोध कर रहे हैं और अपने नतीजों के सहारे फ्लोरोसिस से मुकाबला कर रहे हैं।
इस पेपर का मकसद 1930 के दशक से अब तक हमने जो सीखा है उसे संक्षिप्त रूप में पेश करना है और उसे इस रूप में लाना है जिससे लागू करने योग्य किसी कार्यक्रम को विकसित किया जा सके। फ्लोरोसिस के विविध आयामों की वजह से उपलब्ध तथ्यों और इसका मुकाबला करने के अनुभवों की सहायता से इसके निदान के तरीके को स्पष्ट बना सकते हैं। इस पेपर में ऐसे अनुभवों का विश्लेषण और निदान के लिये एक ढाँचा प्रस्तुत किया जा रहा है। इस पेपर के खण्ड हैंः
1. फ्लोरोसिस को समझना
1.1. सुरक्षित ग्राह्यता और शरीर का वजन
1.2. जीविकाजन्य और दूसरे लिंक
1.3. डेंटल फ्लोरोसिस के हमले की उम्र
1.4. रेनल परिस्थितियाँ
1.5. कैल्शियम और फ्लोराइड
1.6. फ्लोराइड और थायराइड
1.7. फ्लोराइड और एनीमिया
1.8. फ्लोराइड और ऑस्टियोपोरोसिस
1.9. गर्भवती और धातृ महिलाओं को खतरा
1.10. बच्चे और फ्लोरोसिस का खतरा
1.11. भोजन के जरिए फ्लोराइड का प्रवेश
1.12. चिकित्सकीय परीक्षण का अभाव
2. निदान
2.1. फ्लोराइड हटाने के लिये पानी का उपचार
2.2. मैगनीशियम, विटामिन सी और दूसरे पोषक तत्वों की भूमिका
2.3. सम्भावित विषमुक्तिकरण और रोगमुक्ति
2.4. फ्लोरोसिस के मुकाबले के लिये प्रस्तावित भोजन
3. क्रियान्वयन के तरीके
3.1. क्रियान्वयन की प्राथमिकताएँ तय करना3.2. फ्लोरोसिस उन्मूलन के जीवन चक्र की समझ
3.3. कार्यक्रम सम्बन्धी निर्देश
3.4. विचारों के बेहतर सम्प्रेषण के तरीके
3.5. अपेक्षित व्यवस्थागत परिवर्तन
1. फ्लोरोसिस की समझ
1.1 सुरक्षित ग्राह्यता और शरीर का वजन
फ्लोराइड की सक्रियता शरीर के वजन के हिसाब से इसकी प्रति इकाई ग्राह्यता पर निर्भर होती है। 1930 के दशक में काज रोहोल्म ने यूरोप में एक फैक्ट्री में फ्लोराइड प्रभावित मरीजों पर ऐसे डोज के निर्धारण के लिये प्रयोग किया था (रोहोल्म 1937)। इस प्रयोग के दौरान उन्होंने पाया कि 0.2-0.35 मिग्रा/किलो शरीर के वजन के हिसाब से प्रतिदिन फ्लोराइड का डोज दिये जाने पर व्यक्ति 2 साल और 5 महीने के बाद स्केलेटल फ्लोरोसिस के शुरुआती चरण (जोड़ों में कड़ापन और sporadic pain), और 4 साल 10 महीने के बाद यह दूसरे चरण में पहुँच जाता है (आर्थ्रिटिक लक्षण और लम्बी हड्डियों में ओस्टियोपोरोसिस) और 11 साल 2 महीने में स्केलेटल फ्लोरोसिस का खतरा हड्डियों के मुड़ने तक पहुँच जाता है (रीढ़ और जोड़ों की हड्डियाँ मुड़ने लगती हैं)। उन्होंने यह भी दर्ज किया कि लगभग 50 फीसदी से अधिक फ्लोराइड को किडनी द्वारा बाहर निकाल दिया जाता है।
इस पृष्ठभूमि के आधार पर शरीर के वजन के हिसाब से डोज की दर इस प्रकार होनी चाहिए (देखें टेबल 1) :
टेबल 1 : फ्लोराइड ग्राह्यता की श्रेणी जिससे स्केलेटल फ्लोरोसिस हो सकता है
शरीर का वजन (किग्रा) |
रोजाना फ्लोराइड ग्राह्यता की दर (मिग्रा/दिन) |
पानी में फ्लोराइड की सान्द्रता- मिग्रा/लीटर में 2 लीटर/दिन के हिसाब से |
पानी में फ्लोराइड की सान्द्रता- मिग्रा/लीटर में 4 लीटर/दिन के हिसाब से |
10 किग्रा |
2-3.5 |
1-1.75 |
0.5-0.875 |
50 किग्रा |
10-17.5 |
5-8.75 |
2.5-4.375 |
70 किग्रा |
14-24.5 |
7-12.25 |
3.5-6.125 |
टेबल 1 से यह बात जाहिर है कि पेयजल मानक के 1.5 मिग्रा/लीटर(स्वीकृत सीमा) और 1 मिग्रा/लीटर (भारत के लिये आवश्यक सीमा) के बावजूद लम्बे काल अवधि में स्केलेटल फ्लोरोसिस होने का खतरा बरकरार है, पानी में फ्लोराइड की सान्द्रता कम होने की स्थिति में भी। खासतौर पर अगर हम 10 किलो वजन वाले बच्चों की बात करते हैं तो 0.5-1 मिग्रा/लीटर जितनी मात्रा भी काफी खतरनाक हो सकती है। अगर भोजन के माध्यम से भी फ्लोराइड लिया जा रहा हो तो ये स्तर और गम्भीर हो सकते हैं।
जैसा कि कई आलेखों और शोध पत्रों में दर्ज है, हालाँकि काज रोहोल्म के इस शुरुआती नतीजों का बाद में गलत तरीके से भी इस्तेमाल किया गया (पाउंड-किलो के भ्रम के कारण) और बाद में कई महत्त्वपूर्ण अन्तरराष्ट्रीय नीतिगत दिशा-निर्देशों 2.2 का गलत आँकड़ा इस्तेमाल किया गया (एडिटोरियल 1997)। इस भूल को हाल में ही सुधारा जा सका है, हालाँकि, इस भूल के अवशेष अभी भी बरकरार हैं।
1.2 जीविकाजन्य और दूसरे सम्बन्ध
शुरुआती 1930 और 40 के दशक में फ्लोरोसिस के अध्ययनों में यह पाया गया और सवाल किया गया कि ऐसा क्यों होता है कि कुछ खास श्रमिक इससे ज्यादा पीड़ित हो जाते हैं (शार्ट एट एल, 1937)। इस सम्बन्ध में एक शुरुआती अनुमान यह था कि उष्ण कटिबन्धीय मौसम में उन्हें अधिक पानी पीना पड़ता है। दूसरा यह था कि, ऐसे लोग जिन्हें धूप में काम करना पड़ता है, उनका पसीना अधिक निकलता है और वे अधिक पानी पीते हैं। अगर यह सब फ्लोराइड की अधिक सान्द्रता वाले इलाके में होता है कि वे फ्लोराइड की अधिक मात्रा ग्रहण करते हैं और फ्लोरोसिस का खतरा काफी अधिक हो जाता है।
इस बहस को आगे बढ़ाते हुए यह समझा जा सकता है कि ऐसी जगह जहाँ सूर्य की रोशनी में लम्बी दूरी तय करनी होती है, जैसे पानी भरने के लिये, ईंधन और चारा लाने के लिये, वहाँ फ्लोरोसिस का अधिक खतरा रहता है, क्योंकि वहाँ अधिक पानी पीना पड़ता है। जैसा कि हम आगे देखते हैं, ऐसी परेशानियों की वजह से लोगों का भोजन भी बढ़ जाता है, जिससे दूसरी तरह की परेशानियाँ होने लगती हैं। जीविकाजन्य परेशानियों के अतिरिक्त, पोषण ग्रहण करने, कैल्शियम मेटाबोलिज्म और जेनेटिक किस्म के कारक भी जिन्हें ध्यान में रखने की जरूरत होती है।
1.3 डेंटल फ्लोरोसिस
डेंटल फ्लोरोसिस डेंटल एनामेल का एक विकासात्मक अवरोध है, जो दाँतों के विकास के दौरान उच्च सान्द्रता वाले फ्लोराइड के लगातार सम्पर्क में आने की वजह से होता है। इसकी वजह से एनामेल निम्न खनिज वाले हो जाते हैं और दाँत खोखले होने लगते हैं। डेंटल फ्लोरोसिस के लिये खतरनाक उम्र एक से चार साल की उम्र होती है। जब उम्र आठ साल की हो जाती है तो डेंटल फ्लोरोसिस का खतरा समाप्त हो जाता है (अलवरेज एट एल, 2009)।
डेंटल फ्लोरोसिस की इस सामान्य समझ के इतर इसके कई विविध आयाम हैं। पहला यह कि यह फ्लोरोसिस के शुरुआती लक्षण की ओर इशारा करता है, यह संकेत करता है कि शरीर में फ्लोराइड का प्रवेश हो रहा है। अगर किसी इलाके में 3-4 साल की उम्र के 10 बच्चे डेंटल फ्लोरोसिस से प्रभावित हों तो यह खतरे के बढ़ने की तरफ इशारा कर देता है। इसे देखते हुए बड़े इलाके में त्वरित सर्वेक्षण कराया जाना चाहिए।
अन्त में, हमने ऐसे कई मामले देखे हैं, जिनमें महिलाएँ जो कम फ्लोराइड वाले इलाके की रहने वाली हैं और शादी के बाद उच्च फ्लोराइड वाले इलाके में रहने आती हैं। ऐसे मामले में ये औरतें विवाहोपरान्त डेंटल फ्लोरोसिस से कभी प्रभावित नहीं होतीं, मगर स्केलेटल फ्लोरोसिस और दूसरे रोग इन पर अपना असर छोड़ देते हैं। हालाँकि पुरुषों के मामले में यह सम्भावना भी कम ही रहती है। इसलिये यह ध्यान में रखना चाहिये कि क्या वह व्यक्ति अपने बचपन के दौर में उच्च फ्लोराइड वाले इलाके में रहा है।
1.4 रेनल परिस्थितियाँ
फ्लोरोसिस और रेनल रोगों के अन्तरसम्बन्ध के बारे में 1930 के दशक के शुरुआत से ही रुचि ली जाती रही है। 1937 के एक पेपर (शार्ट एट एल, 1937) के एक अवलोकन में पाया गया कि इस रोग से सर्वाधिक प्रभावित व्यक्ति को किडनी का रोग भी होता है। आगे 1970 के दशक में यह महसूस किया गया कि किडनी के रोगी जिन्हें फ्लोराइडयुक्त जल को डायलिसिस करना होता है वे ओस्टियोमलासिया नामक रोग की जद में आ जाते हैं, जो हड्डियों को कमजोर कर देता है। एक स्वस्थ किडनी में शरीर से काफी मात्रा में फ्लोराइड निकालने की क्षमता होती है। हालाँकि, यह भी देखा गया है कि लम्बे समय तक उच्च सान्द्रता वाले फ्लोराइडयुक्त जल का सेवन करने से किडनी भी प्रभावित होने लगती है। फ्लोराइड-रेनल रोगों की इस चक्रीय प्रकृति की वजह से लम्बे अन्तराल में कुछ रोगी गम्भीर किस्म के स्केलेटल फ्लोरोसिस का शिकार हो जाते हैं।
रेनल सम्बन्धी परेशानियाँ बच्चों और किशोरों में भी उत्पन्न हो जाती हैं। इसलिये, कम उम्र में रेनल समस्याओं की पहचान अधिक गम्भीर मरीजों के लिये शुरुआती कदम उठाने की ओर इशारा करते हैं। इसी तरह, पानी में फ्लोराइड की मात्रा घटाने से भी लम्बे अन्तराल में रेनल स्वास्थ्य में सुधार नजर आता है (स्किफ्ल, 2008)।
1.5 कैल्शियम और फ्लोराइड
फ्लोराइड हड्डियों में ऑस्टियोराइड की मात्रा को बढ़ाता है। सामान्यतः इसका अर्थ यह है कि फ्लोराइड हड्डी निर्माण की प्रक्रिया को प्रेरित करता है, उससे अधिक जो शरीर के लिये सन्तुलित हो। हालाँकि, स्वस्थ हड्डी के निर्माण के लिये कैल्शियम और विटामिन डी जैसे आवश्यक खनिज पदार्थों की अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है (क्रगस्त्रुप 1989, अर्नल 1985)। एक आकलन के मुताबिक फ्लोराइड को प्रेरित करने के लिये 40 गुना अधिक कैल्शियम की जरूरत होती है, उदाहरण के लिये 5 मिग्रा फ्लोराइड को प्रेरित करने के लिये 200 मिग्रा कैल्शियम की जरूरत होती है (जोवसे, 1972)।
एक समय ओस्टियोपोरोसिस के उपचार के लिये फ्लोराइड का इस्तेमाल किया जाता था, क्योंकि यह माना जाता था कि यह हड्डियों के घनत्व को बढ़ाता है। हालाँकि इस तरह के उपचार को आने वाले सालों में हटा लिया गया। क्योंकि इससे अल्पकाल के लिये हड्डियों का घनत्व बढ़ता जरूर था, मगर स्वस्थ हड्डियों के निर्माण की सम्भावना कम ही रहती थी।
वयस्कों में गैर खनिजयुक्त ऑस्टियोराइड की अत्यधिक मात्रा की वजह से हड्डियाँ मुलायम होने लगती हैं और यह जो परिस्थिति बनती है उसे ऑस्टियोमलासिया कहते हैं। बचपन में ऐसी परिस्थितियाँ विकसित होने से रिकेट्स की समस्या होने लगती है, जिसमें पैर की हड्डियाँ टेढ़ी होने लगती हैं।
संक्षेप में, बच्चों या वयस्कों में फ्लोराइड का असर दूसरे खनिजों की आवश्यकता को बढ़ाता है, जैसे कैल्शियम और विटामिन डी। यह जरूरत कई मामलों में इतनी अधिक होती है कि इसकी प्रतिपूर्ति बिना किसी अन्य परेशानी को बढ़ाए मुमकिन नहीं है: खासतौर पर गर्भवती और धातृ महिलाओं के मामले में और बढ़ती उम्र के बच्चों में जहाँ कैल्शियम की जरूरत वैसे ही काफी अधिक होती है। परिणामस्वरूप यह कैल्शियम की कमी जैसी दूसरी परेशानियों को जन्म देती है।
1.6 फ्लोराइड और थायराइड
फ्लोराइड का थायराइडल स्वास्थ्य से सूक्ष्म सम्बन्ध है। यह अभी तक किसी शोध से स्पष्ट नहीं हुआ है कि फ्लोराइड किस तरह थायराइडल व्यवहार को प्रभावित करता है (एनआरसी 2006, बर्गी एट एल, 1984)। लेकिन, थायराइडल एक्शन के दबाव जिसकी वजह से हाइपोथायराइडिज्म होता है और अति सक्रियता जिससे हायपोथायराइडिज्म होता है के लक्षण देखे गए हैं। यहाँ, आयोडीन (थायराइडल हेल्थ के लिये आवश्यक) के साथ-साथ कैल्शियम (पारा थायराइडल और सम्बन्धित हारमोन) के बीच एक लिंक है। जिन लोगों में आयोडीन की कमी होती है उन पर फ्लोराइड प्रेरित हाइपोथायराइडिज्म का असर अधिक पड़ता है। दूसरी तरफ, फ्लोराइड द्वारा प्रेरित हाइपोथायराइडिज्म की वजह से कैसकेडिंग इफेक्ट विकसित हो जाता है।
इस मामले में, लम्बे अन्तराल में बोन रिजोर्प्शन (या बोन डिजेनेरेशन) होने लगता है और जिससे ऑस्टियोपोरोसिस जैसी परेशानी उत्पन्न होने लगती है। आगे यह फ्लोराइड में बढ़ोत्तरी और कैल्शियम से लिंकेज की वजह से बढ़ने लगता है, ऐसे में चक्रीय परिस्थितियाँ कुछ रोगियों में परेशानी को बढ़ा देती हैं।
फ्लोरोसिस के रोगियों को भविष्य के खतरों से बचाने के लिये उनके थायराइडल स्वास्थ्य का पता लगाना आवश्यक है। अगर आयोडीन की कमी की सम्भावना दिखे तो आयोडाइज्ड नमक के इस्तेमाल के जरिये आयोडीन की कमी किसी सूरत में नहीं होने देनी चाहिए। दूसरी तरफ, हाइपर थायरिज्म के शुरुआती चरण की भी पहचान हो सकती है, उदाहरण के लिये अगर पारा-थायराइडल हारमोन (पीटीएच) का पता पीटीएच टेस्ट और सीरम कैल्शियम की जाँच के जरिए चल सकता है। सीरम कैल्शिटोनिन का अवलोकन भी शुरुआती चेतावनी दे सकता है। ऐसे परीक्षण फ्लोरोसिस कार्यक्रम का हिस्सा हो सकते हैं।
1.7 फ्लोराइड और एनीमिया
फ्लोराइड की वजह से एनीमिया में बढ़ोत्तरी की बात ज्ञात है : यह गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल (जीआई) म्यूकस को गम्भीर किस्म का नुकसान पहुँचाता है। क्योंकि यह माइक्रोविलि को नष्ट कर देता है, जिससे भोजन से पोषक तत्वों का अवशोषण रोक देता है। यह इर्थ्रोसाइट्स को भी नष्ट कर देता है, जिससे हीमोग्लोबिन में कमी आती है और नतीजन लोग एनीमिया का शिकार हो जाते हैं। इन परिस्थितियों में अगर लम्बे समय तक फ्लोराइड का सेवन करना पड़े तो एनीमिया क्रोनिक हो सकता है और कुपोषण की स्थिति भी उत्पन्न हो सकती है (सुशीला 2011)।
हालाँकि इस समस्या के कुछ पहलू अल्प अवधि में उलट भी सकते हैं। खासकर जीआई म्यूकस दो हफ्तों के भीतर फिर से तैयार हो सकते हैं। नई दिल्ली में 205 गर्भवती महिलाओं के साथ होने वाले एक परीक्षण में यह प्रदर्शित हुआ है। नतीजे बताते हैं कि उन महिलाओं के पेयजल और भोजन से जब फ्लोराइड की मात्रा हटा ली गई तो हीमोग्लोबिन की मात्रा में महत्त्वपूर्ण बढ़ोत्तरी दर्ज की गई (सुशीला एट एल 2010)।
यहाँ यह ध्यान रखने योग्य तथ्य है कि फ्लोराइड की अल्प मात्रा के सेवन से भी जीआई म्यूकस नष्ट हो सकते हैं और पोषक तत्वों का अभाव हो सकता है। अतः यह परेशानी पूरे भारत के लोगो के लिये हो सकती हैं। चूँकि म्यूकस नष्ट होने की वजह से पोषक तत्वों का अवशोषण घट जाता है, ऐसे में आयरन टेबलेट जैसे सप्लीमेंट भी अपेक्षित परिणाम नहीं दे पाते। केवल फ्लोराइड ग्रहण पर विराम लगाने से ही ऐसे सप्लीमेंट काफी प्रभावी हो सकते हैं।
1.8 फ्लोराइड और ऑस्टियोपोरोसिस
सम्भवतः हड्डियों पर फ्लोराइड का सबसे खतरनाक प्रभाव ऑस्टियोपोरोसिस के रूप में सामने आता है। यह बच्चों और किशोरों में भी रिकेट्स और ऑस्टियोपोरोसिस के रूप में नजर आता है। फ्लोराइड की वजह से उत्पन्न होने वाला ऑस्टियोपोरोसिस कई तन्त्रों का समुच्चय होता है- फ्लोराइड से प्रेरित होकर ऑस्टियोब्लास्ट होता है और इससे अल्प खनिज क्षमता वाली हड्डियों का निर्माण होता है, थायराइडल परेशानियों से हड्डियाँ कमजोर होती हैं और इन सभी कारकों की वजह से रेनल समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। ये कारक सामूहिक रूप से भी काम करते हैं और अकेले में भी। जहाँ लम्बे समय तक फ्लोराइड की अधिक मात्रा का सम्पर्क होता है और शरीर में इसका मुकाबला करने की बहुत कम क्षमता होती है, तो इस तरह की परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं।
जैसा कि जाहिर है, इस तरह के ऑस्टियोपोरोसिस की अगर पहचान होती है, तो इसका मतलब है कि फ्लोरोसिस एडवांस स्टेज में पहुँच गया है। काज रोहोल्म के 1937 की परिभाषा के मुताबिक, यह फ्लोरोसिस का स्टेज 2 होता है। इसका मतलब है कि फ्लोरोएपेटाइट का निर्माण हो रहा है और हड्डियों के घिसने का शुरुआती चरण सम्भवतः शुरू हो गया है।
इस किस्म के फ्लोराइड प्रेरित ऑस्टियोपोरोसिस को, खासतौर पर बच्चों में, सम्भालना काफी मुश्किल होता है। इसके लिये सबसे पहले सम्पूर्ण फ्लोराइड विमुक्तिकरण प्रयासों को शुरू करना पड़ता है, साथ में कैल्शियम सप्लीमेंट और अन्य खनिजों का पर्याप्त इस्तेमाल करना पड़ता है, जैसे- मैगनीशियम, विटामिन डी, जिंक। हालाँकि इन तमाम तरीकों से पहले से मौजूद ऑस्टियोपोरोसिस को ठीक नहीं किया जा सकता है, लेकिन आगे होने वाले नुकसानों को जरूर रोका जा सकता है।
हैरत में डालने वाली जानकारी यह है कि पिछले कई दशकों से यूरोप में ऑस्टियोपोरोसिस के इलाज के लिये फ्लोराइड का इस्तेमाल किया जाता रहा है (जोवसे एट एल, 1972)। ऑस्टियोब्लास्ट की प्रक्रिया को उत्प्रेरित करने और बोन रिजोर्प्शन को लगभग घटा देने की फ्लोराइड की क्षमता, तात्कालिक तौर पर यहाँ इस्तेमाल की जाती रही है। अध्ययन बताते हैं कि शुरुआती तौर पर बोन डेनसिटी में बढ़ोत्तरी के बावजूद अगर इसके साथ उच्च मात्रा में कैल्शियम और खनिज सप्लीमेंट का इस्तेमाल न किया जाए तो इसका नतीजा कमजोर और अस्वस्थ हड्डियों के रूप में होता है और इसके फ्रैक्चर होने की सम्भावना काफी बढ़ जाती है।
फ्लोराइड और ऑस्टियोपोरोसिस को लेकर अलग-अलग लगते ये नज़रिए एक ही प्रक्रिया तक पहुँचते हैं। हड्डियों के निर्माण के लिये फ्लोराइड अत्यधिक खनिज सप्लीमेंट की आवश्यकता तो उत्पन्न करता है, जो उपलब्ध नहीं होता है, जिसके कारण हड्डियाँ मुलायम हो जाती हैं और अधिक खोखलेपन के कारण हाइपोकैलसीमिया या ऑस्टियोपोरोसिस की तरह रोगी बढ़ने लगता है। वही तथ्य सामने आता है जब इसके इलाज के लिये अत्यल्प मात्रा में फ्लोराइड का इस्तेमाल किया जाता है। यह पहलू सम्भवतः फ्लोराइड प्रेरित ऑस्टियोपोरोसिस के सन्दर्भ में महत्त्व नहीं रखता।
1.9 गर्भवती और धातृ महिलाओं को खतरा
ऐसे कई कारक हैं जिसकी वजह से गर्भवती और धातृ महिलाएँ फ्लोरोसिस का शिकार हो सकती हैं। पहली बात जिसकी चर्चा पहले ही हो चुकी है कि फ्लोराइड प्रेरित एनीमिया गर्भवती महिलाओं के लिये काफी नुकसानदेह हो सकती है। दूसरी बात, कैल्शियम के सन्दर्भ में है। गर्भावस्था और दुग्धपान की अवधि के दौरान कैल्शियम की आवश्यकता काफी अधिक होती है। इस अवधि के दौरान अगर शरीर में फ्लोराइड का प्रवेश होता है, इसकी आवश्यकता काफी बढ़ जाती है, जिसका उल्लेख पहले ही किया जा चुका है।
कैल्शियम की अचानक बढ़ गई अत्यधिक माँग की वजह से खतरनाक प्रभाव हो सकते हैं। ऐसे मामलों में महिलाएँ स्केलेटल फ्लोरोसिस का शिकार हो सकती हैं और 2-3 सालों के भीतर उनकी हड्डियाँ मुड़ने लग सकती हैं। ऐसे उदाहरण बड़ी मुश्किल से पहचान में आते हैं चूँकि ये लिंक सामान्यतः स्पष्ट तौर पर पहचान में नहीं आते और क्षेत्रीय चिकित्सकों द्वारा इन्हें तरजीह भी नहीं दिया जाता है। दूसरी बात, कैल्शियम की यह इस कमी का नतीजा माँ के दूध की गुणवत्ता में कमी के रूप में सामने आता है और इससे बच्चे का स्वास्थ्य प्रभावित होता है।
फ्लोराइड प्रेरित एनीमिया और कैल्शियम की कमी का सम्मिलित प्रभाव यह होता है कि दोनों मिलकर माँ और बच्चे की सेहत पर काफी नकारात्मक असर डालते हैं। इसलिये, फ्लोरोसिस रोकथाम कार्यक्रम के तहत गर्भवती और धातृ महिलाओं पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।
1.10 बच्चे और फ्लोरोसिस का खतरा
विभिन्न वजहों से बच्चों के लिये फ्लोरोसिस का खतरा काफी बड़ा होता है। पहली बात, शिशुओं के लिये, माँ के दूध में कैल्शियम और खनिज की कमी हो जाती है, क्योंकि माताओं में कैल्शियम की कमी रहती है। दूसरी बात, बच्चे वयस्कों के मुकाबले शरीर के वजन के मुताबिक 5-10 गुना अधिक फ्लोराइड ग्रहण करते हैं। तीसरी बात, विकसित हो रहे बच्चों में वैसे भी कैल्शियम और खनिज की अधिक आवश्यकता होती है, फ्लोराइड की वजह से यह जरूरत और बढ़ जाती है, जिससे कैल्शियम की कमी स्वतः पैदा हो जाती है। चौथी बात, दाँत और खासतौर पर हड्डियाँ, मुलायम और विकसित हो रही होती हैं, वे फ्लोराइड के प्रभाव के आगे कमजोर पड़ जाती हैं, जैसे- पैरों की लम्बी हड्डियाँ अधिक खोखलापन की वजह से शरीर का भार वहन करने में नाकाम हो जाती हैं और झुक जाती हैं और रिकेट्स बन जाते हैं।
इसके अलावा एनीमिया जैसी बीमारियाँ बच्चों के लिये फ्लोराइड को काफी खतरनाक बना देती हैं। फ्लोरोसिस उन्मूलन कार्यक्रम के लिये इसका क्या अर्थ है? उन्हें बच्चों को प्राथमिकता देनी चाहिये, क्योंकि यही वह उम्र होती है जिसमें फ्लोरोसिस के खतरनाक प्रभावों को रोका जा सकता है। ऐसे रोकथाम का मतलब है फ्लोराइड को शरीर में प्रवेश करने से पूरी तरह रोकना और कैल्शियम के साथ खनिज सप्लीमेंट का अलग से इस्तेमाल करना।
1.11 भोजन के जरिये फ्लोराइड का प्रवेश
कुछ प्राकृतिक चीजें जैसे चाय की कुछ किस्में, काला नमक, पत्थर वाला नमक में फ्लोराइड की अधिक मात्रा होती है। इसके अलावा भोजन में फ्लोराइड की अधिक मात्रा का आना तभी मुमकिन है जब फसल की सिंचाई उच्च फ्लोराइडयुक्त जल से की गई हो। लगातार इसी तरह के पानी से सिंचाई करने पर मिट्टी भी प्रभावित हो जाती है और कुछ जगहों पर खाद्य पदार्थों में फ्लोराइड की सान्द्रता बढ़ जाती है।
कुछ इलाकों में दूध की अनुपलब्धता और इसके महँगे होने की वजह से लोगों में काफी कम उम्र से ही काली चाय पीने की आदत हो जाती है, जिसमें कभी थोड़ा दूध और कभी दूध का पाउडर डाल दिया जाता है। अगर वहाँ के पानी में फ्लोराइड की मात्रा अधिक हो तो यह खतरे को और बढ़ा ही देती है।
नलगोंडा (आन्ध्र प्रदेश) के कुछ गाँवों में हुए अध्ययन से पता चला है कि वहाँ चावल, दाल और सब्जियों में फ्लोराइड की मात्रा मौजूद थी और जो प्रतिदिन 75 मिग्रा और 62 मिग्रा की दर से हर वयस्क मनुष्य के शरीर में जा रही थी। टेबल 1 में रोजाना ग्रहण से सम्बन्धित आँकड़ों को देखें, ये आँकड़े अपने आप में स्केलेटल फ्लोरोसिस की वजह जाहिर करने के लिये पर्याप्त हैं (रेड्डी 2011)।
नीरी (एनईईआरई) द्वारा मध्य प्रदेश के धार और झाबुआ के गाँवों में किये अध्ययन बताते हैं कि वहाँ भोजन में अपेक्षाकृत फ्लोराइड की मात्रा कम है (मक्का, गेहूँ और चावल में 1 मिग्रा प्रति किलो से कम)। ये तथ्य झाबुआ में हालिया अवलोकन से जाहिर हुए हैं, हालाँकि तुअर दाल के कुछ नमूनों में वहाँ 5 मिग्रा प्रति किलो की दर से फ्लोराइड पाया गया नीरी (एनईआरआरई, 2007)।
ये अवलोकन क्षेत्र में सिंचाई की प्रक्रियाओं से सम्बन्धित हैं। धार और झाबुआ अधिकांशतः वर्षा आश्रित इलाके हैं जहाँ सिंचाई मुख्यतः उथले कुओं के पानी से की जाती हैं, जिनमें फ्लोराइड की मात्रा बहुत कम होती है। पिछले कुछ सालों में मिट्टी दूषित होने लगी है और गहरे कुओं से बोरवेल के जरिए सिंचाई का फैलाव होने लगा है, अब हम यहाँ भी भोजन में फ्लोराइड की अधिक मात्रा की अपेक्षा कर सकते हैं।
भोजन के जरिये फ्लोराइड की ग्राह्यता खासतौर पर जहाँ फ्लोराइड की अधिकता प्राकृतिक तौर पर हो, उसे पूरी तरह खत्म किया जा सकता है, ऐसे भोजन की पहचान करके और इस बारे में बेहतर समझबूझ विकसित करके। लेकिन, सिंचाई की वजह से जहाँ फ्लोराइड भोज्य पदार्थों में शामिल हो रहा है उसे रोकना काफी मुश्किल है। खाद्यान्न उत्पादन अपने आप में एक बड़ी प्राथमिकता है और गहरे भूजल जिसमें फ्लोराइड की अधिक मात्रा हो, से सिंचाई को रोकना नीतिगत फैसला हो सकता है और यह कोई आसान विकल्प नहीं है।
इसलिये कुछ ऐसे विकल्प अपनाए जा सकते हैं, जैसे अखाद्य फसलों की खेती अगर मुमकिन हो तो, या फिर ऐसे फसल की खेती की जानी चाहिये जो फ्लोराइड का कम अवशोषण करते हैं, ग्रहण किये गए फ्लोराइड का असर कम करने के लिये सम्बन्धित पोषाहार का इस्तेमाल किया जा सकता है।
1.12 चिकित्सकीय जाँच का अभाव
दुर्भाग्यवश, फ्लोरोसिस के ज्यादातर मामले डॉक्टर की पकड़ में नहीं आते। वस्तुतः ऐसे मामले ज्यादातर नागरिक समाज, यूनिसेफ आदि द्वारा चलाए जा रहे अभियान के जरिए पकड़ में आते हैं। इसकी कई वजहें हैं, प्राथमिक कारण तो यह है कि भारत में अब तक संचालित हो रहे चिकित्सा शिक्षण पाठ्यक्रमों में फ्लोरोसिस के बारे में शायद ही कुछ बताया जाता है। पार्क एंड पार्क की पुस्तक कम्युनिटी हेल्थ में एक छोटा सा खण्ड है और कुछ डेंटल कॉलेज के पाठ्यक्रमों में फ्लोरोसिस पढ़ाया जाता है। लेकिन चिकित्सकीय व्यवहार में शायद ही कभी इसका इस्तेमाल किया जाता होगा।
यह तथ्य भी ध्यातव्य है कि राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय स्वास्थ्य कार्यक्रमों में अब तक फ्लोरोसिस को लेकर कोई विशेष कार्यक्रम शुरू नहीं किया गया है। फ्लोरोसिस को लेकर अधिकतर सरकारी कार्यक्रम जलापूर्ति विभाग की ओर से संचालित किये जाते हैं, लोक स्वास्थ्य विभाग की ओर से भी नहीं। उदाहरण के लिये, कोई स्वास्थ्य सर्वेक्षण नहीं, स्कूल हेल्थ में भी नहीं, या एनआरएचएम आदि की ओर से भी, किसी में फ्लोरोसिस सूचीबद्ध नहीं है। नतीजन न फ्लोरोसिस की पहचान होती है और न ही यह आँकड़ाबद्ध होता है।
अक्सर डेंटल फ्लोरोसिस के कई मामलों को दाँत सम्बन्धी दूसरी समस्याओं के रूप में समझ लिया जाता है। एक गलत सोच यह भी है कि ये पीले और लाल दाग वाले दाँत तम्बाकू सम्बन्धी परेशानियों की वजह से होते हैं। स्केलेटल फ्लोरोसिस की समस्या मस्कुलो-स्केलेटल डिसॉर्डर (एमएसडी) के रूप में पहचान ली जाती है और उसका सामान्य तरीके से इलाज शुरू कर दिया जाता है, सामान्यतः पेनकिलर दे दिया जाता है। फ्लोरोसिस गैस्ट्रिक रोग को बढ़ावा देता है और यह एनीमिया या थायराइड को प्रेरित करता है। कभी ऐसे मामलों के जड़ तक पहुँचने की कोशिश नहीं की जाती और हमेशा लक्षणों के आधार पर इलाज किया जाने लगता है। ऐसा ही फ्लोराइड द्वारा प्रेरित ऑस्टियोपोरोसिस और रिकेट्स के मामलों में भी होता है।
इस तरह, फ्लोरोसिस के अधिकतर लक्षण, अगर चिकित्सक द्वारा पहचान भी लिये जाते हैं तो वे एक अलग रोग के रूप में मान लिये जाते हैं, अत्यल्प मामलों में ही, इन रोगों के असली कारणों की पड़ताल की जाती है, जो फ्लोराइड है।
समुचित परीक्षण के लिये बेहतर जाँच सुविधाओं की जरूरत होती है, खासकर ब्लड सीरम और यूरिन के परीक्षण के लिये। नई दिल्ली में डॉ. ए.के. सुशीला की लैब को छोड़कर देश में और लेबोरेटरी नहीं है जहाँ इस तरह की जाँच सही-सही की जा सकती हो और वह भी उचित फीस लेकर। यहाँ मरीज स्केलेटल समस्याओं के लिये बेहतर रेडियोलॉजिकल सुझाव प्राप्त कर सकते हैं।
इन तमाम कारकों का नतीजा यह निकल रहा है कि मौजूदा परिस्थितियों में फ्लोरोसिस के मरीजों का गलत परीक्षण होता है और ऐसी कोई स्वास्थ्य सुविधा नहीं है जहाँ उनका ढँग से इलाज हो सके। इस तरह यह जाहिर है कि स्वास्थ्य कर्मियों को इस दिशा में प्रशिक्षित किया जाना जरूरी है, वह भी उन लोगों को जो फ्लोरोसिस वाले इलाके में काम करते हैं।
2. समाधान
सुरक्षित जल को अगर प्राथमिकता दी जाए तो बेहतरीन समाधान ये हैंः
(क) साफ किये हुए जल, सतह पर मौजूद जल की आपूर्ति
(ख) हाइड्रोलॉजी के ज्ञान का इस्तेमाल करते हुए ऐसे कुएँ को चिन्हित करना जिसमें बहुत कम या न के बराबर फ्लोराइड हो
(ग) वर्षाजल पुनर्भरण और भूजल को उस स्तर तक लाने की कोशिश जहाँ खतरा कम हो जाए।
अगर किसी मामले में इन तीनों को लागू नहीं किया जा सकता हो तो वाटर ट्रीटमेंट ही विकल्प बचता है।
2.1 फ्लोराइड हटाने के लिये जल शुद्धिकरण
फ्लोराइड हटाने के लिये जल शुद्धिकरण का उपाय कई दशकों से अपनाया जाता रहा है। पुरानी तकनीक का प्रयोग किया गया और वह नाकाम भी हो गई, फिर नीरी (एनईईआरई) ने नलगोंडा तकनीक को प्रोमोट किया। रेजिन और इलेक्ट्रो-कॉगुलेशन पर आधारित विभिन्न तकनीकें भी सामने आईं, मगर उन्हें अब तक व्यवहार में नहीं लाया जा सका है।
फ्लोराइड को हटाने के वैकल्पिक तकनीकों के मद्देनज़र पानी को कुछ खास किस्म की ईटों के ऊपर से बहाया गया और उनमें तुलसी के पत्ते भी डाले गए। आज की तारीख में, केवल दो तकनीक ही विभिन्न अपेक्षित कारकों पर खरी उतरी हैं। वैसे, इनका भी फैलाव ढँग से नहीं हुआ है और ये व्यावहारिक भी साबित नहीं हो पाई हैं।
एक्टिवेटेड एल्युमीना (एए)
यहाँ फ्लोराइड के साथ एल्युमीनियम के नाते को ध्यान में रखा गया है, जैसा कि नलगोंडा तकनीक में है, फर्क सिर्फ इतना है कि यह डिहाइड्रोक्सीलेटेड एल्युमीनियम हाइड्रोक्साइड है जो पोरस मेटेरियल का निर्माण करता है। बीडेड पार्टिकिल का आकार जितना स्पष्ट होगा, सरफेस एरिया जितना बड़ा होगा, फ्लोराइड का अवशोषण उतना ही बेहतर होगा और एल्युमीनियम फ्लोराइड यौगिक के रूप में उसका निर्माण होगा। सामान्यतः 0.4-1.2 एमएम व्यास का पार्टिकल साइज एए के स्टैंडर प्रैक्टिस के लिये आवश्यक होता है, यह तत्व की गुणवत्ता पर निर्भर करता है और जल के दूसरे तत्व जैसे पीएच और अल्केलिनिटी पर भी, यह 3000 से 5000 मिग्रा प्रतिकिलो की दर से फ्लोराइड का अवशोषण करता है। रिजेनेरेशन की प्रक्रिया आवश्यक होती है, उसके बाद अवशोषण की दर 10-15 फीसदी कम हो जाती है।
एए का लाभ यह है कि अगर उच्च सान्द्रता युक्त फ्लोराइड जल एक मीटर की ऊँचाई वाली परत के आकार में 20 मिनट तक गुजरे तो फ्लोराइड का स्तर गिरकर 0.1 मिग्रा/लीटर तक रह जाता है या उससे भी कम हो जाता है। इसके लिये किसी ऊर्जा स्रोत की जरूरत नहीं होती है। इस तकनीक के साथ ये परेशानियाँ जरूर हैं कि एक तो अगर पानी का पीएच वैल्यू अधिक हो, उसमें एल्केनिलिटी हो और कार्बोनेट की मौजूदगी हो तो इसके अवशोषण की क्षमता कम हो जाती है। दूसरी, रिजेनेरेशन एक कठिन प्रक्रिया है और तीसरी, शुरुआती दिनों में पानी में अवांछित स्वाद आ जाता है।
1990 के दशक में एए आधारित फ्लोराइड हटाने वाले फिल्टर का भारत में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होता रहा है। व्यापक स्तर पर इनका परीक्षण किया गया मगर ये लम्बी अवधि में सफल नहीं हो पाए। कुछ समूह के लोगों को छोड़कर जो 10-15 साल से आज भी इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। अब एए फिल्टर में फिर से रुचि जगने लगी है भारत में इसको लेकर फिर से कुछ प्रयोग होने लगे हैं।रिवर्स ओस्मोसिस (आरओ)
1990 के दशक के मध्य से ही आरओ तकनीक भारतीय फिल्टर बाजार में छाने लगा है। आरओ मेंबरेन फ्लोराइड को हटा सकता है। हालाँकि इससे जो अपशिष्ट जल बाहर आता है उसमें फ्लोराइड की अत्यधिक मात्रा होती है, इसलिये इस अपशिष्ट जल का निष्पादन एक बड़ी समस्या हो जाती है। ग्रामीण क्षेत्रों में आरओ को सामुदायिक वाटर ट्रीटमेंट प्लांट के रूप में बढ़ावा दिया जा रहा है, इसका आकार सौ लीटर प्रति घंटे से लेकर 10 हजार लीटर प्रति घंटे तक होता है। गुजरात और आन्ध्र प्रदेश इस क्षेत्र के अगुआ हैं, वहाँ उद्योगों, समुदायों और सरकारी कार्यक्रमों के साथ गठजोड़ कर बड़े पैमाने पर ऐसे प्लांट लगाए गए। ऐसे अधिकतर प्रयास वाटर एंटरप्राइजेज के रूप में संचालित हो रहे हैं और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं।
आरओ का लाभ यह है कि इसमें किसी अतिरिक्त कैमिकल के इस्तेमाल की आवश्यकता नहीं होती। चूँकि यह डिमिनरलाइज भी करता है, इसलिये इसका स्वाद बेहतर होता है, खासतौर पर भारी जल वाले इलाकों में। हालाँकि आरओ तकनीक के साथ परेशानी यह है कि इसको चलाने के लिये ऊर्जा की जरूरत होती है, क्योंकि इसी के जरिये मेंबरेन पर फोर्स के साथ पानी डाला जा सकता है। अवशिष्ट जल में फ्लोराइड की काफी मात्रा होती है, डिमिनरलाइजेशन की वजह से आवश्यक पोषक तत्व भी निकल जाते हैं और कीमत अधिक होने की वजह से यह हर जगह इस्तेमाल नहीं हो पाता और हर किसी की पहुँच से बाहर होता है। मेंबरेन आयात किये जाते हैं और हर 3-4 साल में इसे बदला जाना जरूरी होता है।
2.2 मैंगनीशियम, विटामिन सी और दूसरे पोषक तत्वों की भूमिका
फ्लोराइड को रोकने की दिशा में मैंगनीशियम दो अलग-अलग तरीकों से मददगार होता है।
पहला, मैंगनीशियम हड्डियों में कैल्शियम के अवशोषण में मददगार होता है। पारा-थायराइड हारमोन (पीटीएच) को घटाकर और खून में कैल्शिटोनिन का स्तर बढ़ाकर, कैल्शियम के अवशोषण को बढ़ा देता है और हड्डियों के भंगुर होने को रोक देता है।
दूसरा तरीका, मैंगनीशियम शरीर से फ्लोराइड को बाहर निकालने में मददगार होता है। यह कैसे यूरिन के जरिये फ्लोराइड को निकाल देता है यह प्रक्रिया अब तक अस्पष्ट है। परीक्षण सिर्फ यही बताते हैं कि मैंगनीशियम सप्लीमेंट शरीर से फ्लोराइड को बाहर निकालने में मददगार होता है।
कई लेखकों द्वारा एस्कोर्बिक एसिड के कई प्रभावों का जिक्र किया गया है। विभिन्न अध्ययनों में यह देखा गया है कि एस्कोर्बिक एसिड शरीर से फ्लोराइड को बाहर निकालने में निश्चित तौर पर सफल है। लेकिन यह हर परीक्षण में सफल साबित नहीं हुआ है, खासतौर पर स्केलेटल फ्लोरोसिस के मामले में। इसके बावजूद विटामिन सी शरीर के अन्दर फ्लोराइड की खतरनाक गतिविधियों को रोकने के लिये महत्त्वपूर्ण उपाय साबित हुआ है। थायराइडल स्वास्थ्य के नजरिए से और फ्लोराइड की रोकथाम के लिये आयोडीन की भूमिका भी मददगार साबित हुई है। इनके अलावा, सेलेनियम, विटानिम डी और विटामिन ए भी मददगार माने जाते हैं।
फ्लोरोसिस के रोकथाम के लिये न्यूट्रीएंट सप्लीमेंट के रूप में निम्न का इस्तेमाल किया जा सकता है-
1. कैल्शियम, मैगनीशियम, विटामिन डी3 और जिंक का इस्तेमाल बेहतर कैल्शियम अवशोषण के लिये और दूसरे जरूरी खनिज हड्डियों की सेहत के लिये
2. विटामिन सी और दूसरे पोषक तत्व जैसे विटामिन ए और आवश्यक एंटी ऑक्सीडेंट
इनके अलावा, इनका भी सुझाव दिया जा सकता है
बेहतर थायराइड स्वास्थ्य के लिये आयोडीन सप्लीमेंट
आयरन सप्लीमेंट, फ्लोराइड के एनीमिया के साथ लिंक को तोड़ने के लिये
2.3 सम्भावित विषमुक्तिकरण और रोगमुक्ति
फ्लोरोसिस के कई परीक्षणों से जाहिर होता है कि इसकी वजह से शरीर में दूसरी कई परेशानियाँ भी शुरू हो जाती हैं, उदाहरण के लिये, हाइपरग्लूकेमिया, किडनी के रोग, थायराइड का असन्तुलन, ऑस्टियोपोरोसिस, आदि। इसके अलावा रोग के उच्च स्तर में पहुँचने के बाद हड्डियों के भंगुर होने और मुड़ जाने जैसी परेशानियाँ भी शुरू हो जाती हैं।
फ्लोराइड के विषमुक्तिकरण और रोगमुक्ति के लिये इन रोगों और परेशानियों को महसूस करना एक रास्ता है। बड़ी संख्या में फ्लोरोसिस रोगी दूसरी-दूसरी बीमारियों का इलाज कराते रहते हैं, उन्हें खुद भी इस बारे में पता नहीं होता है और न ही चिकित्सकों को। ऐसे मामलों में फ्लोराइड को शरीर में जाने से रोकने की जरूरत होती है, इसके बिना लम्बे अन्तराल के लिये इन बीमारियों से निजात पाना मुश्किल रहता है।
फ्लोराइड के अवलोकन के कुछ आसान तरीकों में से हैं ब्लड सीरम फ्लोराइड और यूरिन फ्लोराइड। ब्लड सीरम फ्लोराइड में आने वाली कमी का अर्थ फ्लोराइड का विषमुक्तिकरण या रोगमुक्ति नहीं है। यह सम्भवतः रोग को आगे बढ़ने से रोकने के बारे में इशारा करता है। कई क्लिनिकल मामलों में ब्लड सीरम फ्लोराइड में कमी को देखा गया है। फ्लोरोसिस के फील्ड ट्रायल के मामले बहुत कम हैं, अधिकतर मामलों में यूरिनरी फ्लोराइड देखा गया है।
एक बहुत व्यावहारिक स्तर पर यह पाया गया है कि कुछ जोड़ों में होने वाले दर्द में अस्थायी तौर पर कमी आई है। साथ ही बाहों को मोड़ना, कंधों के साथ घुमाना और लम्बी दूरी तक पैदल चलना भी फ्लोराइड विषमुक्तिकरण के कुछ लक्षण हैं।
जिन रोगियों को गैस्ट्रिक की परेशानी होती है, उनके ऐसे लक्षणों में कमी आती है, एक अन्य अल्पकालीन लक्षण यह है कि जो एनीमिया से पीड़ित होते हैं उनके हीमोग्लोबिन के लेवल में बढ़ोत्तरी आने लगती है। बहुत कम मामलों में अपवाद स्वरूप ही किसी रोगी की हड्डियों का खोखला होना बन्द हो जाता है। लम्बे समय तक फ्लोराइड का इस्तेमाल बन्द करने पर जो लोग उँगलियों को मोड़ नहीं पाते थे, वे मोड़ने लगते हैं। ये दर्द सम्बन्धी कारकों की वजह से होते हैं जिसकी वजह से शुरुआत में वे जोड़ों का संचालन नहीं कर पाते थे।
2.4 फ्लोरोसिस से मुकाबले के लिये भोजन
फ्लोरोसिस से मुकाबले के लिये खाद्य और पोषण आधारित योजना बनाते वक्त यह ध्यान रखना चाहिये कि उसमें कैल्शियम, ऐसे पोषक तत्व जिनसे कैल्शियम का अवशोषण बेहतर तरीके से होता है, आदि की प्रधानता होनी चाहिये। साथ ही ऐसे तत्वों का भी समावेश होना चाहिये जिससे आन्तरिक तौर पर विषमुक्तिकरण में मदद मिल सके।
आवश्यक पोषक तत्व जिसमें कैल्शियम, मैगनीशियम, विटामिन डी, जिंक, विटामिन सी, आयरन, आयोडीन आदि होने चाहिये। यह कई तरीकों से प्राप्त किया जा सकता है।
क. कैल्शियम-मैगनीशियम टेबलेट
इस प्रक्रिया में रोगी कैल्शियम और मैगनीशियम की आधारभूत न्यूनतम मात्रा ग्रहण कर सके, फार्मा सप्लीमेंट के रूप में हम कैल्शियम (210 मिग्रा एलीमेंटल), मैगनीशियम (100 मिग्रा एलीमेंटल), जिंक (4 मिग्रा एलीमेंटल), विटामिन डी 3 (200 आईयू) का मिश्रण प्रस्तावित करते हैं। फिलहाल हम इस सप्लीमेंट को दो साल लेने का सुझाव देते हैं।
ख. सूखा आँवला और आँवला टेबलेट
विटामिन सी बेहतरीन स्रोतों में से एक है आँवला। 100 ग्राम के फल में यह 700 मिग्रा तक होता है। यह साल में महज 2-3 महीने के लिये ही उपलब्ध हो पाता है, दिसम्बर से मार्च तक। आँवला को पूरे साल तक सुरक्षित रखने की कई पारम्परिक विधियाँ होती हैं। छाया में सुखाना, अचार, मुरब्बा आदि कुछ सामान्य तरीके हैं। आँवला को सुखाकर सुरक्षित रखना भी मुमकिन है। आपूर्ति, सरंक्षण और लोगों की ग्राह्यता को देखते हुए आँवला का टेबलेट के रूप में भी इस्तेमाल किया जा सकता है।
ग. तिल चिक्की
तिल व गुड़ कैल्शियम और मैगनीशियम के बहुत अच्छे स्रोत हैं। प्रति सौ ग्राम तिल में 1000 मिग्रा कैल्शियम और 360 मिग्रा मैगनीशियम पाया जाता है, वहीं 100 ग्राम गुड़ में 1638 ग्राम कैल्शियम होता है। हमारे आकलन के मुताबिक 20 ग्राम वजन वाले तिल गुड़ के लड्डू में 237 मिग्रा कैल्शियम और 32 मिग्रा मैगनीशियम होता है और कुल मिलाकर 282 कैलोरी ऊर्जा भी। खासतौर पर जाड़े के मौसम में, इसे सुरक्षित रखना और इस्तेमाल करना आसान होता है।
घ. उपलब्ध हरी पत्तियाँ पोषक तत्वों के लिये
मौसमी हरी पत्तियाँ पूरे भारत में उपलब्ध रहती हैं। इन्हें सुखाया और सुरक्षित रखा जा सकता है, ताकि इनका इस्तेमाल पूरे साल किया जा सके।
मोरिंगा ओलिफेरा सम्भवतः सबसे अच्छी हरी पत्ती है, अमूमन इसका इस्तेमाल भारत के कई इलाकों में बहुत अधिक नहीं होता है।
केसिया तोरा जैसी कुछ पत्तियाँ हैं जो काफी उपेक्षित हैं, लेकिन इनमें पोषक तत्वों की मात्रा काफी अधिक होती है और ये हड्डियों के लिये भी उपयोगी होती हैं। अगर इन पत्तियों को सुखाकर पाउडर बना लिया जाए तो प्रति सौ ग्राम में 4000 मिग्रा कैल्शियम, 300 मिग्रा मैगनीशियम, 100 मिग्रा विटामिन सी और 25 ग्राम प्रोटीन रहता है। सम्मिलित रूप से ये फ्लोरोसिस का मुकाबला करने में बेहतरीन साबित होते हैं। इस मिश्रण को स्वादिष्ट बनाने के लिये इसमें जीरा आदि मसाला डाला जा सकता है। केसिया तोरा पाउडर को भोजन पर छिड़क कर भी उसका सेवन किया जा सकता है।
ङ. आयुर्वेदिक स्रोत
लीवर के जरिए विषमुक्तिकरण के प्रयास में, यश्टीमधु, उशीर, रक्त पुनर्नवा, गोखरू, प्रबाल और मोती का मिश्रण इस्तेमाल किया जाता है। यह मिश्रण शरीर से फ्लोराइड विमुक्तिकरण की दिशा में कितना कारगर है इसका अभी परीक्षण चल रहा है।
कुछ अन्य खाद्य पदार्थ जैसे सोया और दूध से बने खाद्य, अंडा में कैल्शियम की उच्च मात्रा पाई जाती है। अगर मुमकिन हो तो इनका सेवन करना चाहिए।
2.5 फ्लोराइड का विसर्जन तेज करना
अगर मूत्र को अल्कलाइन कर दिया जाए तो इसके जरिए फ्लोराइड का विसर्जन तेज हो सकता है। अब तक हुए अध्ययन के मुताबिक इसके लिये नीचे एक सुरक्षित विधि बताई गई है। इनमें से किसी विधि को शुरुआत में 5 दिन लगातार प्रयोग में लाएँ। अगर कोई साइड इफेक्ट न हो तो नीचे दी गई हर विधि को अपनाएँ, किसी एक विधि से चिपकें नहीं। इससे पता चलेगा कि कौन सी विधि बेहतर है और अगर कोई नकारात्मक प्रभाव हो तो उससे बचें। दस साल से कम उम्र के बच्चे पर इसका प्रयोग बिना डॉक्टर की सहमति के न करें।
1. अल्कासिट्रा (सिट्राल्का) एक सुरक्षित, सस्ती दवा है, जो सभी दवा दुकानों में उपलब्ध रहती है- बड़े पैमाने पर तैयार कर इसे उपलब्ध कराया जा सकता है।
2. केले का तना- तीन सेमी लम्बा अच्छी तरह पिसा हुआ, उसे 250 मिली पानी में मिलाकर खाली पेट दिन में दो बार लें।
3. अशगोआर्ड जूस- 30-50 मिली- दिन में दो बार।
4. नारियल पानी 100 मिली + नए नारियल के रेशे का रस 5-10 मिली
5. जौ पानी- 20 ग्राम जौ पिसा हुआ और 100-150 मिली पानी में उबालने के बाद ठंडा करके।
क्रियान्वयन की दिशा
3.1 क्रियान्वयन की प्राथमिकताओं का निर्धारणऊपर बताए गए जटिल उपायों को लागू करते हुए फ्लोरोसिस का मुकाबला करने के लिये हमें एक रणनीति की जरूरत है। इस रणनीति की एक प्राथमिकता सूची होनी चाहिए, शुरुआत सर्वोच्च प्राथमिकता से करना चाहिये और फिर उसी क्रम में आगे बढ़ना चाहिएः
क. पानी और भोजन के जरिए फ्लोराइड की ग्राह्यता को कम करने की कोशिश करना, यह फ्लोराइड मुक्त जलस्रोत को अपनाकर या असुरक्षित स्रोत से फ्लोराइड को हटाकर किया जा सकता है। इसके लिये स्थानीय स्तर के मुताबिक जो सबसे बेहतर विकल्प हैं उसे अपनाना चाहिए। जहाँ मुमकिन हो वर्षाजल पुनर्भरण और संरक्षण के विकल्प को अपनाना चाहिए।
एक्टीवेटेड एल्यूमिना (ऊर्जा की जरूरत नहीं) और रिवर्स ओस्मोसिस (ऊर्जा जरूरी) आधुनिक तकनीक वाले उपाय हैं जिनसे उच्च फ्लोराइडयुक्त जल को स्वच्छ किया जा सकता है। एक महीने तक शुद्ध किया हुआ पानी पिएँ। इसके बाद शुद्ध जल के साथ 10 फीसदी सामान्य जल मिलाएँ ताकि कुछ लवण भी हासिल हो। लम्बे समय तक लवणमुक्त पानी पीना भी अच्छा नहीं है। इस प्रयोग के जरिए हम सन्तुलित तरीके तक पहुँच सकते हैं। निम्न रक्तचाप वाले लोगों को लवणयुक्त पानी अधिक नहीं पीना चाहिए।
ख. कैल्शियम और कैल्शियम को अवशोषित करने वाले तत्व, जैसे मैगनीशियम, विटामिन डी लेने की मात्रा बढ़ा देना आवश्यक है। इसके अलावा कैल्शियम अवशोषण बढ़ाने के दूसरे विकल्पों का भी इस्तेमाल करते रहना चाहिए। पोषक तत्वों के लिये दूध, हरी पत्तेदार सब्जी (पालक, मेथी, मोरिंगा, केसिया तोरा), तिल और गुड़ का सेवन करते रहना चाहिये।
ग. शरीर के अन्दर फ्लोराइड की सक्रियता को घटाना, विषमुक्तिकरण की प्रक्रिया के जरिए इसे शरीर से बाहर निकालना, जैसे, शरीर के डिटॉक्स प्रोसेस को बेहतर बनाना, विटामिन सी, आयोडीन (थायराइयड और कैल्शिटोनिन के सम्पर्क के लिये), मैगनीशियम (डॉक्टर से सम्पर्क कर डोज का निर्धारण करें), एंटीऑक्सीडेंट, आयरन, आदि। भोजन में इनके स्रोत आँवला, नींबू, हल्दी, तुलसी आदि हैं।
घ. लक्ष्यबद्ध क्रियान्वयन के लिये फ्लोरोसिस के संकेतों का इस्तेमाल करें, जैसेः डेंटल फ्लोरोसिस, स्केलेटल फ्लोरोसिस के शुरुआती लक्षण, सीरम फ्लोराइड आदि। गर्भवती और धातृ महिलाओं, बढ़ते बच्चों जैसे विशेष लक्षित समूह, ऐसे रोगी जिन्हें अत्यधिक कैल्शियम की जरूरत पड़ती है, हमेशा एक जैसे जल स्रोत का इस्तेमाल करते हैं आदि। प्रभावित समुदाय के बीच खास आबादी होती है, जो खतरे की जद में होती है। इसे विस्तृत रूप में फ्लोरोसिस इंटरवेंशन की दिशा में लाइफसाइकिल अप्रोच कहते हैं। इस अप्रोच के तहत कई प्रभावित लोग जिनकी रोगमुक्ति मुमकिन नहीं है उनका पुनर्वास करने की जरूरत होती है।
ङ. लम्बी अवधि के फ्लोराइड सम्बन्धी सामाजिक पहलुओं जैसे बेहतर पानी की सुविधाओं तक पहुँच और हैसियत के मुताबिक बेहतर पोषण, कूड़ा-करकट (चारा, पानी या ईंधन) कम करने से भी पोषण में बढ़ोत्तरी होती है। जल संरक्षण के जरिए स्वच्छ जल की उपलब्धता सुनिश्चित होती है, भूजल प्रशासन का लक्ष्य जल स्रोतो में स्वच्छ जल की सुरक्षा होना चाहिए। गरीबी का फ्लोरोसिस के खतरे से बहुत नज़दीकी रिश्ता होता है। बेहतर अर्थव्यवस्था की वजह से बेहतर भोजन खाने, स्वच्छता, कम श्रम, कम बच्चे (दो बच्चों के बीच समुचित अन्तराल), महिलाओं की बेहतर स्थिति की आदत विकसित होती है, जो लम्बे अन्तराल में फ्लोरोसिस का मुकाबला करने में सक्षम बनाती है।
3.2 फ्लोरोसिस उन्मूलन के लिये जीवन-चक्रीय नजरिया
फ्लोरोसिस से मुकाबले के लिये जो नजरिया होना चाहिये वह आयु और लिंग तथा जीवन के एक खास चरण से सम्बन्धित होना चाहिए। इस नजरिए को कुछ खतरों का ख्याल रखना चाहिए और उनका समाधान निकालने की कोशिश करनी चाहिए। इस नजरिए की रूपरेखा इस प्रकार हो सकती है-
i. गर्भवती और धातृ महिलाएँ न सिर्फ गम्भीर खतरों की जद में होती हैं, बल्कि उनके खतरे में आने से भावी पीढ़ी पर भी फ्लोरोसिस का खतरा मँडराने लगता है, वे बहुत कम उम्र में फ्लोरोसिस के शिकार हो जाते हैं। इन महिलाओं पर खास ध्यान देने की जरूरत है, इन्हें स्वच्छ फ्लोराइडमुक्त पानी, कैल्शियम और अन्य खनिज पूरक दवाइयाँ और आहार उपलब्ध कराना चाहिए।
ii. एनीमिया की रोगी गर्भवती महिलाओं की मदद कुछ हद तक फ्लोराइड मुक्त जल से की जा सकती है। यह भी माँ और बच्चे की सेहत के लिये खासतौर पर जरूरी है।
iii. चूँकि बच्चे फ्लोरोसिस के नजरिए से सबसे अधिक खतरे की जद में होते हैं (कम वजन और कैल्शियम की अधिक जरूरत की वजह से), हमें उनके लिये फ्लोराइड ग्राह्यता के लिये आँगनबाड़ी और स्कूल में अलग मानक निर्धारित करना चाहिये। वहाँ भी फ्लोराइड मुक्त पानी की व्यवस्था होनी चाहिए, भोजन भी उसी पानी में बनना चाहिए।
iv. बच्चों में डेंटल फ्लोरोसिस के लक्षण इस ओर इशारा करते हैं कि फ्लोराइड शरीर में प्रवेश कर चुका है। यह हमें मौका देता है कि हम उम्र के साथ शरीर में फ्लोराइड के प्रवेश को रोक सकें। इसलिये जिस इलाके में डेंटल फ्लोरोसिस युक्त बच्चों की संख्या अधिक नजर आए वहाँ बचाव के प्रयास तत्काल शुरू करने चाहिए ताकि आगे की परेशानियों को टाला जा सके।
v. रेनल और थायराइड स्वास्थ्य आदि दो कारक हैं जिनका फ्लोरोसिस से काफी नज़दीकी नाता रहता है। यह महिला और पुरुष दोनों के मामले में आवश्यक है। दोनों का फ्लोराइड से दोतरफा सम्बन्ध है- वे फ्लोरोसिस से प्रभावित हो सकते हैं और वहीं रेनल और थायराइड की परेशानी की वजह से फ्लोरोसिस की परेशानी बढ़ सकती है। इसलिये, फ्लोरोसिस के खतरे का आकलन करते वक्त इन पहलुओं का भी ध्यान रखना चाहिये।
ऊपर बताए गए ये तथ्य उम्र, लिंग और दूसरे पहलुओं के मुताबिक फ्लोरोसिस के खतरे की पहचान और उसका मुकाबला करने के लिये हैं। इन्हें सामूहिक रूप से जीवन-चक्रीय नजरिया कहते हैं, इससे यह भी निर्धारण होता है कि हरेक श्रेणी के लिये अलग-अलग औषधीय और पोषक तत्वों की जरूरत क्या है। वर्तमान में फ्लोरोसिस उन्मूलन के लिये इस तरह का नजरिया और उसके हिसाब से उपाय विकसित नहीं हो पाए हैं। मगर ऐसा किया जा सका तो खतरे में पड़े लोगों के लिये बेहतर मदद होगी।
3.3 कार्यक्रम आधारित निर्देश
विभिन्न विभाग और सरकारी कार्यक्रमों के जरिये फ्लोरोसिस से मुकाबले की नीति तैयार की जा सकती है। यहाँ हम कुछ बिन्दुओं को रख रहे हैं जिन्हें लागू किया जा सकता है..
1. स्थानीय स्तर पर सुरक्षित फ्लोराइड मुक्त जल स्रोतों की पहचान, उनका संरक्षण और समान वितरण की व्यवस्था सुनिश्चित करना।
2. भोजन और पोषाहार से सम्बन्धित सभी कार्यक्रमों में सुरक्षित फ्लोराइड मुक्त जल की व्यवस्था करना, जैसे आँगनबाड़ी, स्कूल, मध्याह्न भोजन आदि (फिल्टर, वर्षाजल पुनर्भरण जैसी तकनीकों को प्रोत्साहित करके)
3. सभी स्वास्थ्य केन्द्रों जैसे, सीएचसी, पीएचसी और स्थानीय उप स्वास्थ्य केन्द्र में सुरक्षित फ्लोराइड मुक्त जल की व्यवस्था।
4. फ्लोराइड प्रभावित इलाकों में जन वितरण प्रणाली, आँगनबाड़ी, मध्याह्न भोजन, महिला और बाल पोषाहार कार्यक्रमों के जरिए कैल्शियम और दूसरे खनिजों को अतिरिक्त पूरक आहार के रूप में उपलब्ध कराया जाना।
5. फ्लोरोसिस रोकथाम अभियान के तहत गर्भवती और धातृ महिलाओं और पाँच साल से छोटे बच्चों पर विशेष ध्यान देना- फ्लोराइड मुक्त जल और बेहतर पोषण उपलब्ध कराना।
6. पोषण के मामले में समृद्ध स्थानीय खाद्य पदार्थ जो फ्लोरोसिस को नियन्त्रित करने में सक्षम हैं, जैसे- आँवला, तिल, सोया, हरी साग जैसे मोरिंगा, केसिया तोरा, आदि का संरक्षण और उनका स्थानीय सामुदायिक समूहों के जरिए या ऊपर बताए गए कार्यक्रमों के जरिए वितरण। कैल्शियम से समृद्ध भोज्य पदार्थ जैसे दूध, अंडा और साग को दैनिक आहार में शामिल करने को प्रोत्साहित करना।
7. आशा या एएनएम या किसी अन्य स्वास्थ्य कर्मी की मदद से फ्लोरोसिस पीड़ितों पीएचसी, सीएचसी और ऐसे अस्पतालों में जहाँ फ्लोरोसिस पुनर्वास केन्द्र हो वहाँ तक रेफर करने का तन्त्र विकसित करना, जहाँ गम्भीर रूप से पीड़ित रोगियों को समुचित स्वास्थ्य सुविधा मिल सके।
3.4 विचारों के बेहतर सम्प्रेषण का तरीका
फ्लोरोसिस उन्मूलन कार्यक्रम की सफलता के लिये संवाद की बड़ी महत्ता है। चूँकि व्यवहारगत परिवर्तन काफी आवश्यक है और इसे सालों तक बरकरार रखना आवश्यक है, इसलिये जब तक सकारात्मक आदतों को लगातार प्रोत्साहित न किया जाए लोगों की कोशिशें धीरे-धीरे कमजोर पड़ने लगती हैं। यह मौका कई स्वास्थ्य संवाद प्रक्रियाओं को अपनाने का है जो विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों के अनुकूल हैं।
1. हेल्थ बिलीफ मॉडल- खासतौर पर जब स्वास्थ्य सेवियों के बीच इस रोग की समझ विकसित नहीं हुई हो और लोगों के मन में फ्लोरोसिस को लेकर विविध किस्म की मान्यताएँ हों। तमिलनाडु के धर्मपुरी और कृष्णगिरी जिलों में फील्ड विजिट के दौरान लोगों के बीच यह मान्यता देखने को मिली कि डेंटल फ्लोरोसिस की वजह से जो दाँतों पर पीले धब्बे पड़ जाते हैं वे असल में बचपन में नारियल का तना चबाने की वजह से होते हैं। दूसरी जगहों में इसके पीछे मिथकीय धारणाओं से लेकर अनुवांशिकीय वजहें तक सुनने को मिलीं। इसलिये एक नजरिया इन मान्यताओं को तोड़ते हुए सामान्य शब्दों में इस रोग की जानकारी देना है। इन स्थानीय धारणाओं से छुटकारा पाने के लिये सामाजिक वक्ताओं, बुजुर्गों, शिक्षकों और चिकित्सकों की मदद लेने की जरूरत होगी। लम्बे अन्तराल में, मान्यताओं में इस बदलाव की वजह से बाहरी हस्तक्षेप और उन्मूलन की प्रक्रियाओं को लागू करना आसान हो जाएगा।
2. क्लासिकल एंड ओपरेंट कंडीशनिंग- लक्षणों के प्रकार पर आश्रित होते हुए यहाँ क्लासिकल एंड ओपरेंट कंडीशनिंग की तकनीकों को लागू करने का अवसर है। कुछ इलाकों में फ्लोराइड की वजह से गैस की अधिक परेशानी रहती है। गैस की ये परेशानियाँ बहुत अल्प काल में खत्म हो सकती हैं। इस बात के भी प्रमाण मिले हैं कि फ्लोराइड का सेवन रोक देने से एनीमिया में कुछ महीने में आराम मिल जाता है। लेकिन इसके लिये परीक्षण की अतिरिक्त आवश्यकता होती है और यह भी कि लोगों का भरोसा उस परीक्षण में हो। तत्काल लक्षण बताने वाले गैस्ट्रिक जैसे रोगों का समाधान क्लासिकल कंडीशनिंग जैसे उपाय के तौर पर इस्तेमाल किए जा सकते हैं, वहीं एनीमिया, जोड़ों के दर्द और हड्डियों का भुरभुरापन में बदलाव ओपरेंट कंडीशनिंग के संचार सिद्धान्त के रूप में इस्तेमाल किये जा सकते हैं।
3. सेल्फ कंट्रोल एंड सेल्फ रिन्फोर्समेंट- इस तरीके को लागू करना काफी मुश्किल है, यह मरीज को प्रेरित करने पर बल देता है कि वह खुद नियन्त्रित होकर इन उपायों को अपनाए। बाद में ऐसे व्यक्ति को जो भले ही आबादी का छोटा सा हिस्सा ही क्यों न हो उन्हें मॉडल की तरह पेश करना चाहिए ताकि उन्हें दूसरे लोग अपना सकें। इसे मॉडलिंग बेस्ड कम्युनिकेशन कहते हैं (जिसमें किसी शुरुआती उपयोगकर्ता के सफल उदाहरण को दिखाकर दूसरों को प्रेरित किया जाता है)। ऐसे प्रयास किसी व्यक्ति या परिवार पर लागू करने को काफी सक्रिय होना चाहिये और रिलेप्स मैनेजमेंट में भी सक्षम होना चाहिए।
4. सोशल कम्युनिकेशन- ग्रामीण इलाकों में जहाँ हम फ्लोरोसिस उन्मूलन के उपायों को लागू करने की इच्छा रखते हैं, विचारों को बारी-बारी से विभिन्न माध्यम की मदद से समाज तक पहुँचाना महत्त्वपूर्ण हो जाता है। इसे सोशल कम्युनिकेशन का नाम देकर पूरी रणनीति को पूरे समाज पर लागू करना चाहिए, किसी व्यक्ति विशेष पर नहीं। इसका मकसद सामाजिक व्यवहार में बदलाव लाना होगा और लोगों को इस बात के लिये प्रेरित करना होगा कि वे एकजुट होकर समस्या का समाधान कर सकें। ऊपर बताई गई तकनीक का प्रयोग सामाजिक नज़रिए से करना चाहिए, वैकल्पिक निर्देश और समाज के साथ संवाद जारी रखना चाहिए।
3.5 अपेक्षित व्यवस्था सम्बन्धी बदलाव
उन्मूलन कार्यक्रम को ताकत देने के लिये बड़े पैमाने पर व्यवस्थागत बदलाव जरूरी होते हैं। ऐसे कई बदलावों का लक्ष्य भविष्य के लिये निर्धारित करना होगा-
1. इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि स्वास्थ्य सेवी फ्लोरोसिस की जाँच शुरू करें।
2. फ्लोरोसिस की पहचान के लिये जाँच की सुविधा विकसित की जानी चाहिए।
3. मेडीसीन कॉलेज में फ्लोरोसिस के बारे में विस्तार से पढ़ाया जाना चाहिए।
4. फ्लोराइड हटाने वाले फिल्टर तैयार किये जाने चाहिए और इसकी बड़े पैमाने पर उपलब्धता सुनिश्चित की जानी चाहिए।
5. उच्च फ्लोराइडयुक्त उत्पाद (टूथपेस्ट, माउथवाश आदि) पर चेतावनी होनी चाहिये और इसे प्रिस्क्रिप्शन पर ही उपलब्ध कराया जाना चाहिए।
6. उन खाद्यों में जिनमें अधिक फ्लोराइड प्राकृतिक रूप से हो उन पर भी चेतावनी होनी चाहिए।
इन बदलावों के लिये हमें सरकारी नीति, मेडिकल कौंसिल, उद्योग, एकेडमीशिया और नागरिक समाज के सम्मिलित मदद की जरूरत होगी। ऐसे बदलाव छोटे स्तर पर उन्मूलन के प्रयासों में मददगार तो होंगे ही साथ ही लम्बी अवधि में ज्यादा प्रभावी साबित होंगे।
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