फतेहपुर के ग्रामीण फ्लोराइड के शिकार

Submitted by bipincc on Fri, 12/18/2009 - 18:59
बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी

उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद और कानपुर के बीच बसे फतेहपुर जिले की जमीन खेती के दृष्टि से काफी उपजाऊ मानी जाती है। इस जिले का एक छोर गंगा के तट पर तो दूसरा छोर यमुना के तट पर है। दो नदियों के बीच बसे होने के कारण फतेहपुर जिले में भूजल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। इसी क्षेत्र में धार्मिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण क्षेत्र है ‘भिटौरा विकासखंड’ जो कि ठीक गंगा के किनारे बसा हुआ है। पुराणों के अनुसार इस स्थान पर महर्षि भृगु ने लम्बे समय तक तप किया था। इसी कारण काफी समय तक इस गांव को ‘भृगु थौरा’ नाम से जाना जाता था, जो बाद में ‘भिटौरा’ हो गया। इस जगह गंगा की धारा उत्तरवाहिनी हो गई है,इसलिए इस इलाके को धार्मिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। लेकिन इस क्षेत्र के कुछ इलाकों में भूजल में फ्लोराइड की मात्रा इतनी ज्यादा हो चुकी है कि लोग दूषित जल पीकर अपंग बन रहे हैं। जिले के कुल 13 विकास खंडों में से एक भिटौरा की ग्राम पंचायत औढ़ेरा का भूजल फ्लोराइड से बुरी तरह प्रभावित है। सन 2001 की जनगणना के अनुसार कुल 1620 लोगों की आबादी वाले औढ़ेरा ग्राम पंचायत के मजरे चैहट्टा में तीन दर्जन से ज्यादा लोग फ्लोराइड की अधिकता वाले पेयजल के सेवन से स्थाई रूप से अपंग हो चुके हैं।

इस समस्या का पता करीब एक साल पहले तब लगा जब इस गांव में काफी लोग हड्डियों के टेढ़ेपन और विकलांगता के शिकार होने लगे। पहले मीडिया जागा फिर प्रशासन की नींद खुली। प्रशासन ने फुरती दिखाते हुए जल स्रोतों के पानी का परीक्षण करवाया और निष्कर्ष के तौर पर बताया कि गांव के भूजल में फ्लोराइड की अधिकता है। उस समय तक पूरा गांव पेयजल के लिए भूजल पर ही निर्भर था। इसके बाद प्रशासन ने फिर फुरती दिखाई और गांव के हरेक हैंडपंप के बगल में बोर्ड लगाकर लिखवा दिया ‘पानी पीने योग्य नही’। इसके बाद जिलाधिकारी ने गांव की प्रधान सियासती देवी को निर्देश दिया कि पंचायत के बजट पर नगरपालिका फतेहपुर से टैंकरों से जलापूर्ति कराया जाय। टैंकरो से गांव को जलापूर्ति का खर्च प्रतिमाह करीब 23 हजार रुपये बैठता है। इस तरह पंचायत ने दो महीने तक किसी तरह जल आपूर्ति की, और इसके बाद बजट के अभाव में अपने हाथ खड़े कर दिए। जब साफ पेयजल की आपूर्ति बंद हो गई तो ‘प्यासा क्या न करता’ की तर्ज पर ग्रामीण फिर से उसी दूषित जल को पीने को बाध्य हो गए।

इस समस्या का पता करीब एक साल पहले तब लगा जब इस गांव में काफी लोग हड्डियों के टेढ़ेपन और विकलांगता के शिकार होने लगे। पहले मीडिया जागा फिर प्रशासन की नींद खुली। प्रशासन ने फुरती दिखाते हुए जल स्रोतों के पानी का परीक्षण करवाया और निष्कर्ष के तौर पर बताया कि गांव के भूजल में फ्लोराइड की अधिकता है। उस समय तक पूरा गांव पेयजल के लिए भूजल पर ही निर्भर था। इसके बाद प्रशासन ने फिर फुरती दिखाई और गांव के हरेक हैंडपंप के बगल में बोर्ड लगाकर लिखवा दिया ‘पानी पीने योग्य नही’। इसके बाद जिलाधिकारी ने गांव की प्रधान सियासती देवी को निर्देश दिया कि पंचायत के बजट पर नगरपालिका फतेहपुर से टैंकरों से जलापूर्ति कराया जाय। टैंकरो से गांव को जलापूर्ति का खर्च प्रतिमाह करीब 23 हजार रुपये बैठता है। इस तरह पंचायत ने दो महीने तक किसी तरह जल आपूर्ति की, और इसके बाद बजट के अभाव में अपने हाथ खड़े कर दिए। जब साफ पेयजल की आपूर्ति बंद हो गई तो ‘प्यासा क्या न करता’ की तर्ज पर ग्रामीण फिर से उसी दूषित जल को पीने को बाध्य हो गए। लगातार पूरी आबादी को विकलांगता की ओर ले जा रही इस समस्या के स्थायी समाधान के प्रति प्रशासन पूरी तरह गैर संजीदा हो चुका है। अब उन परिवारों पर किसी को तरस भी नहीं आ रहा है जो पूरी तरह विकलांग और अपाहिज होकर बिस्तर पर पड़े रहने को मजबूर हैं। धीरे धीरे फ्लोराइड का जहर पानी के जरिए प्यासे ग्रामीणों की नसों में फैलकर पूरे गांव की आबादी को अपाहिज बना रहा है।

सूत्रों के अनुसार इस इलाके में आस पास के कई गांव धीरे धीरे इस समस्या से ग्रस्त हो रहे हैं। इसके बावजूद प्रशासन ने अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया है। अगर प्रशासन ने इस समस्या का जल्द कोई स्थायी निदान नहीं किया तो कुल 4152 वर्ग किमी में फैले प्राकृतिक रूप से समृद्ध जिले की स्थिति पकड़ से बाहर हो जाएगी। सवाल यह है कि यदि गांव में टैंकर से पानी आपूर्ति की कुल सलाना लागत करीब पौने तीन लाख रुपये ही बैठती है तो करोड़ो रुपये खर्च करके मूर्ति लगवाने वाली राज्य सरकार सैकड़ों लोगों की जान बचाने के लिए सलाना पौने तीन लाख भी खर्च क्यों नहीं कर सकती?

  •   * बिपिन चन्द्र चतुर्वेदी

 

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