डॉ. दीपक कोहली, उपसचिव, वन एवं वन्य जीव विभाग
पृथ्वी पर विविध प्रकार का जीवन विकसित हुआ है जो मानव के अस्तित्व में आने के साथ ही उसकी आवश्यकताओं को पूर्ण करता रहा है और आज भी कर रहा है । प्रकृति में अनेकानेक प्रकार के पादप एवं जीव-जन्तु हैं जो परिस्थितिक तन्त्र के अनुरूप विकसित एवं विस्तारित हुए हैं और उनका जीवन चक्र क्रमिक रूप से चलता रहता है जब तक पर्यावरण अनुकूल रहता है। जैसे ही पर्यावरण में प्रतिकूलता आती है, पारिस्थितिक चक्र में व्यतिक्रम आने लगता है। जीव-जन्तुओं एवं पादपों पर संकट आना प्रारम्भ हो जाता है । यही कारण है कि वर्तमान विश्व में अनेक जैव प्रजातियाँ विलुप्त हो गई हैं और अनकों संकटग्रस्त हैं। इसी कारण आज जैव विविधता के प्रति विश्व सचेष्ट है और अनेक विश्व संगठन तथा सरकारें इनके संरक्षण में प्रयत्नशील हैं। यह आवश्यक है क्योंकि पारिम्स्थितिक चक्र में जीव एवं पादप आपसी सामंजस्य एवं सन्तुलन द्वार ही न केवल विकसित होते हैं अपितु सम्पूर्ण पर्यावरण को सुरक्षा प्रदान करते हैं ।
यदि इस चक्र में व्यवधान आता है अथवा कुछ जीव विलुप्त हो जाते हैं तो सम्पूर्ण चक्र में बाधा आ जाती है जो पर्यावरण में असन्तुलन का कारण होती है और मानव सहित सम्पूर्ण जीव-जगत के लिए संकट का कारण बनती है । जैव विविधता पर वर्तमान में सर्वाधिक संकट हो रहा है तथा प्रतिवर्ष हजारों प्रजातियाँ विलुप्त होती जा रही हैं । इस कारण जैव विविधता के विविध पक्षों की जानकारी इसके संरक्षण हेतु आवश्यक है ।
जैव विविधता शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग अमेरिकी कीट विज्ञानी इ.ओ विल्सन द्वारा 1986 में ‘अमेरिकन फोरम ऑन बायोलोजिकल डाइवर्सिटी’ में प्रस्तुत रिपोर्ट में किया गया । यह शब्द दो शब्दों अर्थात् ‘और का समूह है जो हिन्दी में भी’ ‘जैव’ तथा ‘विविधता’ द्वारा व्यक्त किया जाता है, जिसका साधारण अर्थ जैव जगत में व्याप्ति विविधता से है । जैव विविधता से आशय जीवधारियों (पादप एवं जीवों) की विविधता से है जो प्रत्येक क्षेत्र, देश, महाद्वीप अथवा विश्व स्तर पर होती है । इसके अन्तर्गत सूक्ष्म जीवों से लेकर समस्त जीव जगत सम्मिलित है ।
जैव विविधता का प्रमुख कारण भौगोलिक पर्यावरण में विविधता है और यह करोडों से हजारों वर्षों की अवधि में चलने वाली अनवरत प्रक्रिया का प्रतिफल है । इस पृथ्वी पर लगभग 20 लाख जैव प्रजातियों का अस्तित्व है और प्रत्येक जीव का पारिस्थितिक तन्त्र में महत्व होता है ।
प्रकृति के निर्माण और इसके अस्तित्व हेतु जैव विविधता की प्रमुख भूमिका है । अतः यदि इसका ह्रास होता है तो पर्यावरण चक्र में गतिसेध आता है और उसका जीवों पर भी विपरीत प्रभाव पडने लगता है । वर्तमान में जैव विविधता के प्रति सचेष्ट होने का कारण जैव विविधता की तीव्र गति से हानि होना है ।
एक अनुमान के अनुसार विश्व में प्रतिवर्ष लगभग 10000 से 20000 प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं । इस प्रकार की हानि सम्पूर्ण विश्व के लिए हानिकारक है । अतः इसके समुचित स्वरूप की जानकारी कर इसका संरक्षण करना अति आवश्यक है । जैव विविधता को आनुवांशिक, कार्यिकी के आधार पर तीन वर्गों में विभक्त किया गया है: आनुवंशिक विविधता, प्रजातीय विविधता तथा पारिस्थितिकी
विविधता
(i) आनुवांशिक विविधता - जीवों एवं पादपों में प्रत्येक आनुवांशिक आधार पर अन्तर होता है जो ‘जीन’ के अनेक समन्वय के आधार पर होता है और वही उसकी पहचान होती है, जैसा कि प्रत्येक मनुष्य एक दूसरे से भिन्न होता है । यह आनुवंशिक विविधता प्राजातियों के स्वस्थ विकास के लिए आवश्यक होती है । यदि आनुवंशिकता के स्वरूप में परिवर्तन होता है अथवा ‘जीन’ स्वरूप बिगडता है तो अनेक विकृतियाँ आती हैं और वह प्रजाति समाप्त भी हो सकती है ।प्रजातियों की विविधता का ‘जीन भण्डार’ होता है । उसी से हजारों वर्षों से फसलें और पालतू जानवर विकसित होते हैं । वर्तमान में नई किस्मों के बीज बीमारी मुक्त पौधे एवं उन्नत पशु विकसित किए जा रहे हैं जो आनुवंशिक शोध का प्रतिफल है । किसी भी जाति के सदस्यों में आनुवंशिक भिन्नता जितनी कम होगी उसके विलुप्त होने का खतरा अधिक होगा, क्योंकि वह वातावरण के अनुसार अनुकूलन नहीं कर सकेगी ।
(ii) प्रजातीय विविधता - एक क्षेत्र में जीव-जन्तुओं और पादपों की संख्या वहाँ की प्रजातीय विविधता होती है । यह विविधता प्राकृतिक पारिस्थितिक तन्त्र और कृषि पारिस्थितिक तंत्र दोनों में होती है । कुछ क्षेत्र इसमें समृद्ध होते हैं जैसे कि उष्ण कटिबन्धीय वन क्षेत्र, दूसरी ओर एकाकी प्रकार के विकसित किए गए वन क्षेत्र में कुछ प्रजातियाँ ही होती हैं ।वर्तमान सघन कृषि तन्त्र में अपेक्षाकृत कम प्रजातियाँ होती हैं जबकि परम्पवगत कृषि पारिस्थितिक तंत्र में विविधता अधिक होती है । एक वंश की विभिन्न जातियों के मध्य जो विविधता मिलती है, वह जातिगत जैव विविधता होती है तथा किसी क्षेत्र में एक वश की जातियों के मध्य जितनी भिन्नता होती है, वह जाति स्तर की जैव विविधता होती है ।
(iii) पारिस्थितिक तन्त्र - पारिस्थितिक तन्त्र विविधता-पृथ्वी पर विभिन्न प्रकार के पारिस्थितिक तन्त्र हैं जो विभिन्न प्रकार की प्रजातियों के आवास स्थल हैं । एक भौगोलिक क्षेत्र के विविध पारिस्थितिक तन्त्र हो सकते हैं, जैसे पर्वतीय, घास के मैदान, वनीय, मरुस्थलीय आदि तथा जलीय जैसे नदी, झील, तालाब, सागर आदि । यह विविधता विभिन्न प्रकार के जीवन को विकसित करती है जो एक तन्त्र से दूसरे में भिन्न होते हैं । यही भिन्नता पारिस्थितिक भिन्नता कहलाती है ।
उपर्युक्त जैव विविधता के अतिरिक्त कुछ विद्वान विकसित जैव विविधता तथा सूक्ष्म जीव जैव विविधता का भी वर्णन करते हैं । विकसित जैव विविधता मानवीय प्रयासों से विकसित होती हे जैसे कृषि के विविध स्वरूप, पालतू जानवों की विविधता, वानिकी की विविधता आदि । जबकि सूक्ष्म जीव विविधता में अति सूक्ष्म जीवाणुओं जैसे बैक्टीरिया, वायरस, फॅगस, आदि सम्मिलित हैं जो जैव-रसायन चक्र में महत्वपूर्ण होते हैं । यद्यपि ये दोनों प्रकार उपर्युक्त श्रेणियों में सम्मिलित हैं ।
क्षेत्रीय विस्तार के आधार पर जैव विविधता के प्रकार हैं: स्थानीय जैव विविधता, राष्ट्रीय जैव विविधता तथा वैश्विक जैव विविधता . स्थानीय जैव विविधता का विस्तार सीमित होता है । यह छोटे क्षेत्र का भौगोलिक प्रदेश हो सकता है । इस क्षेत्र में मिलने वाले जीवों एवं पादपों की विविधता को स्थानीय जैव विविधता कहते हैं । इस विविधता का कारण क्षेत्र का भौगोलिक स्वरूप होता है । एक ही जलवायु प्रदेश में भी क्षेत्रीय भिन्नता होती है ।जैसे राजस्थान के अरावली, हाड़ौती, मरुस्थली एवं मैदानी क्षेत्र में भी जैव भिन्नता है । मरुस्थली क्षेत्र में, सिंचित और असिंचित क्षेत्रों में जैव विविधता होती है । हाड़ौती में चम्बल क्षेत्र, मुकन्दरा क्षेत्र, वनीय क्षेत्र और कृषि क्षेत्र में जैव विविधता है।
राष्ट्रीय स्तर पर जैव विविधता स्वाभाविक हैं क्योंकि एक देश में उच्चावच, जलवायु, मृदा, जलराशियों, बन आदि में भिन्नता जैव विविधता का कारण होती है । राष्ट्रीय स्तर पर जैव विविधता का अध्ययन इसके संरक्षण में महत्वपूर्ण होता है क्योंकि नीतिगत निर्णय राष्ट्रीय स्तर पर लिये जाते हैं ।
वैश्विक जैव विविधता का सम्बन्ध सम्पूर्ण विश्व से होता है । सम्पूर्ण विश्व के स्थल एवं जलीय भाग पर लाखों प्रजाजियाँ जीवों पादपों एवं सूक्ष्म जीवों की हैं । विश्व स्तर पर विभिन्न बायोम पारिस्थितिक तन्त्र हैं उनमें जैव विविधता अत्यधिक है जो सम्पूर्ण पारिस्थतिक तन्त्र को परिचालित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है ।
जैव विविधता प्रकृति का अभिन्न अंग है और यह पर्यावरण को सुरक्षित रखने तथा पारिस्थितिक तन्त्र को परिचालित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है । आक्सीजन का उत्पादन, कार्बन डॉई-ऑक्साईड में कमी करना, जल चक्र को बनाए रखना, मृदा को सुरक्षित रखना और विभिन्न चक्रों को संचालित करने में इसकी महती भूमिका है ।
जैव विविधता पोषण के पुन: चक्रण, मृदा निर्माण, जल तथा वायु के चक्रण, जल सन्तुलन आदि के लिए महत्त्वपूर्ण है । मानव की अनेक आवश्यकताएँ जैसे भोजन, वस्त्र, आवास, ऊर्जा, औषधि, आदि की पूर्ति में भी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से योगदान देती है, इसी कारण इसका आर्थिक महत्व भी है । जैव विविधता से युक्त प्राकृतिक स्थल सौंदर्यबोध कराते हैं तथा मनोरंजन स्थल के रूप में भी उपयोगी होते हैं ।
सामान्यता जैव विविधता का महत्व निम्न रूपों में हैं:
(i) उपभोगात्मक महत्व- जैव विविधता का प्रत्यक्ष उपयोग लकड़ी, पशु आधार, फल-फूल, जड़ी-बूटियों आदि के लिए होता है इमारती लकड़ी और ईंधन के लिए वनस्पति का उपयोग सदैव से होता रहा है, यद्यपि इसका व्यापारीकरण विनाश का कारण भी बनता है । पशुओं के लिए चारI, शहद, मांस-मछली के लिए तथा औषधि के लिए इनका उपयोग स्थानीय स्तर पर होता रहा है । यद्यपि अत्यधिक उपभोक्तावादी प्रवृत्ति और स्वार्थपरता इसके विनाश का कारण है ।
(ii) उत्पादक महत्व - वर्तमान में जैव तकनीशियन एवं वैज्ञानिक आनुवंशिकता के आधार पर नए-नए पादपों का विकास करने लगे हैं । उच्च उत्पादकता वाले कृषि बीजों का विकास तथा बीमारी प्रतिगेध क्षमता वाले पौधों का विकास कृषि क्षेत्र में क्रान्ति ला रहे हैं ।इसी प्रकार हाइब्रीड पशुओं द्वारा अधिक दूध एवं ऊन आदि प्राप्त किया जाता है । औषधि विज्ञान में प्रगति के साथ अनेक औषधीय पौधों का उपयोग दवाओं के बनाने में हो रहा है । भारतीय चिकित्सा में आयुर्वेद का आधार ही प्रकृति की जड़ी-बूटियाँ हैं ।
वानिकी के माध्यम से वनों से अनेक पदार्थ प्राप्त किये जाते हैं विश्व का 90 प्रतिशत खाद्यान्न 20 पादप प्रजातियों से प्राप्त होता है । जैव विविधता वर्तमान में आर्थिक और औद्योगिक विकास के लिए भी आवश्यक है, अनेक उद्योग विशेषकर फार्मेसी उद्योग इस पर निर्भर है।
(iii) सामाजिक महत्व - जैव विविधता सामाजिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है । विश्व में आज भी अनेक जातियाँ और समुदाय प्राकृतिक वातावरण में सामंजस्य स्थापित कर जीवनयापन करते हैं तथा जैव विविधता का अपनी सीमित आवश्यकताओं के लिए इस प्रकार उपयोग करते हैं कि उनको हानि नहीं पहुँचती ।अनेक क्षेत्रों में जैव विविधता परम्पसगत समुदायों द्वारा ही सुरक्षित है । वे इसका उपयोग भी करते हैं किन्तु इतना कि वे पुन: विकसित हो सकें । इसके साथ उनकी सांस्कृतिक और धर्मिक भावनाएँ भी जुड़ी रहती हैं ।
(iv) नीतिपरक एवं नैतिक महत्व - जैव विविधता को संरक्षित करने में मानव के नैतिक मूल्यों का महत्त्वपूर्ण योग है । सभी धार्मिक ग्रन्थों में जीव जगत की सुरक्षा का सन्देश है और यह माना जाता है कि प्रत्येक जीव का पृथ्वी पर महत्व है और उसे जीने का अधिकार है । भारत में पेड़- पौधों, जंगली जानवरों एवं जीवों को धार्मिक आस्था से इतना अच्छी प्रकार से जोड़ा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति उनकी सुरक्षा करता है ।यहाँ वृक्षों में देवता का वास मानकर पूजा की जाती है. पीपल, बड़, तुलसी, आदि वृक्षों की नियमित पूजा सामान्य है । इसी प्रकार विभिन्न जीवों को देवता का वाहन अथवा प्रिय स्वीकार कर उनको सम्मान देने की यहाँ परम्परा है ।
(v) सौदर्न्यगत महत्व - प्रकृति सदैव से सीदर्न्यपरक रही है और इस सौंदर्य में जैव विविधता की महती भूमिका होती है । वनों से आच्छादित प्रदेश, फूलों से लदे पेड़, पर्वतीय एवं घाटी स्थल हों या समुद्र तटीय क्षेत्र, मरुस्थली प्रदेश हों या झील प्रदेश सभी का अपना सौन्दर्य वहाँ की जैव विविधता से है ।जंगली जीवों से युक्त अभयारण, पक्षियों के क्षेत्र तथा विशेष पादपीय प्रदेश सभी को आकर्षित करते हैं। राष्ट्रीय उद्यान, पक्षी विहार, अभयारण्य, विशेष जानवरों के स्थल जैसे टाईगर, हाथी, चीते, आदि के स्थल हों या सागरीय जीवों के क्षेत्र सभी का सौन्दर्य विशेष होता है । इसी कारण जैव विविधता से युक्त प्रदेश पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र होते हैं ।
(vi) पारिस्थितिक महत्व - विविध प्रजातियों द्वारा पारिस्थितिक तन्त्र परिचालित होता है, इसमें एक जीव दूसरे पर निर्भर रहता है । एक प्रजाति के नष्ट हो जाने से दूसरे जीवों पर भी संकट आ जाता है । उदाहरण के लिए एक वृक्ष का केवल आर्थिक महत्व ही नहीं होता अपितु उस पर अनेक पक्षी एवं सूक्ष्म जीवों का निवास निर्भर करता है और यह मृदा एवं जल के लिए भी महत्वपूर्ण होता है । अतः यदि इसे नष्ट किया जाता है तो इन सभी पर न केवल प्रभाव पड़ेगा अपितु कुछ जीव नष्ट भी हो जाएंगे । उत्पादक, उपभोक्ता एवं अपघटक के रूप में सम्मिलित प्रत्येक पादप एवं जीवों का पारिस्थितिक महत्व होता है ।
विश्व में अत्यधिक जैव विविधता है । इस सम्बन्ध में जीव विज्ञानियों ने अनेक अनुमान लगाए हैं और उनमें पर्याप्त अन्तर भी है । सामान्य अनुमान के आधार पर विश्व में 17.5 लाख प्रजातियाँ वर्णित की गई हैं, और भी अनेकों हो सकती हैं ।सामान्यतया एक प्रजाति समूह में कितनी अधिक विविधता हो बकती है इसके प्रति अनभिज्ञता है । पुष्पी पादप समूह में ही 2,70,000 तथा जीवाणु समूह में 9,50,000 प्रजातियाँ पाई जाती हैं । वर्गीकरण विज्ञानी निरन्तर नवीन प्रजाति एवं उनके समूहीकरण को वर्णित करते हैं । पक्षी, स्तनधारी, मछली, पौधों की प्रजातियों को अधिक वर्णित किया गया है जबकि सूक्ष्म जीवाणुओं, बैक्टीरिया, फंगस आदि का कम । अधिकांशतः जैव विविधता के अनुमान उष्ण कटिक-धीय वर्षा वाले वनों में किए गए शोध पर आधारित हैं ।
विश्व में अनेक क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ वृहत् जैव विविधता देखी जा सकती है । इस प्रकार के क्षेत्रों को ‘वृहत जैव विविधता क्षेत्र’ कहा जाता है । विश्व में 12 देशों को वृहत् जैव विविधता देश के रूप में चिन्हित किया गया है, वे हैं- ब्राजील, कोलम्बिया, इक्वेडोर, पेरु, मेक्सिको, जायरे, मेडागास्कर, चीन, इण्डोनेशिया मलेशिया, भारत और ऑस्ट्रेलिया ।
भारत एक विशाल देश है, जहाँ अत्यधिक भौगोलिक एवं पर्यावरणीय विविधता पाई जाती है । भारत विश्व का क्षेत्रीय विस्तार की दृष्टि से सातवां बड़ा देश है जो उत्तर से दक्षिण 3214 किमी और पूर्व से पश्चिम 2933 किमी. में विस्तृत है । इसके एक ओर हिमालय की सर्वोच्च श्रेणियां हैं तो दूसरी ओर समुद्रतटीय मैदान , नदियों के वृहत् मैदान दक्षिण का पठार, मरुस्थली प्रदेश के अतिरिक्त प्रत्येक वृहत् प्रदेश में भौगोलिक विविधता है । तात्पर्य यह है कि यहाँ अनेक पारिस्थितिक तन्त्र हैं, इसी कारण यह अत्यधिक जैव विविधता क्षेत्र में सम्मिलित किया जाता है।विश्व के सर्वाधिक जैव विविधता के संवेदनशील क्षेत्रों को जैव विविधता तप्त स्थल कहा जाता है । ये ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ जैव विविधता अत्यधिक है किन्तु इनमें जैव विविधता निरन्तर घट रही है, अतः इन स्थलों पर ध्यान देना और संरक्षित करना आवश्यक है ।
विश्व के प्रमुख जैव विविधता के तप्त स्थल हैं: भू-मध्य सागरीय बेसिन, केरीबियन द्वीप समूह, मेडागास्कर क्षेत्र, सुण्डा लैण्ड (इण्डोनेशिया), वालेसी, पोलीनेशिया, माइक्रोनेशिया (प्रशान्त महासागरीय द्वीपों का समूह), कैलीफोर्निया, मध्य अमेरिका, उष्ण कटिबन्धीय ऐण्डीज, मध्य चिली, ब्राजील एवं अटलांटिक वन क्षेत्र, गिनी तट, केप क्षेत्र, काकेशस, पश्चिमी घाट, द.प चीन का पर्वतीय क्षेत्र, इण्डी-बर्मा, द.प ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड । उपुर्यक्त सभी क्षेत्रों में अनेक प्रजातियाँ संकटग्रस्त हैं और अनेक विलुप्त भी हो चुकी हैं । विश्व जैव विविधता के संरक्षण के लिए इन क्षेत्रों पर सर्वाधिक ध्यान देना आवश्यक है। इन प्रमुख क्षेत्रों के अतिरिक्त प्रत्येक देश/प्रदेश में इस प्रकार के स्थल हो सकते हैं, उन्हें चिन्हित करना और इनके संरक्षण के उपाय करना आवश्यक है।
यह सर्वविदित तथ्य है कि जैव विविधता संकटग्रस्त है और इसका निरन्तर क्षरण होने से विलोपन भी ही रहा है। विश्व संरक्षण एवं नियन्त्रण केन्द्र के अनुसार लगभग 88,000 पादप एवं 2000 जन्तु प्रजातियों पर यह खतरा मंडरा रहा है। प्रति 100 वर्ष लगभग 20 से 25 स्तनधारी एवं पक्षी विलुप्त हो रहे हैं। इसके अतिरिक्त 24 प्रतिशत जन्तु एवं 12 प्रतिशत पक्षी प्रजातियाँ विश्व स्तर पर खतरे में हैं। इस प्रकार क्षरण अधिकांशतः मानवीय क्रियाओं द्वारा है। कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि प्रति वर्ष 4000 से 17000 प्रजातियाँ समाप्त हो रही हैं। इनके आँकड़ों की सत्यता पर न जाकर यह देखना आवश्यक है कि किस प्रकार इनका संरक्षण किया जाए। इनमें जो जातियाँ लुप्त हो चुकी हैं उनके सम्बन्ध में केवल जानकारी जुटायी जा सकती है, जबकि संकटग्रस्त एवं सम्भावित संकटग्रस्त जातियों को बचाने के लिए विश्वव्यापी एवं देशव्यापी योजना बनाना आवश्यक है। क्यों जैव विविधता विलुप्त होती है अथवा इसके क्षरण/संकटग्रस्त होने के क्या कारण हैं ? जैव विविधता का क्षरण किसी एक कारण से न होकर अनेक कारणों के सम्मिलित प्रभाव के कारण होता है।
संक्षेप में जैव विविधता विलोपन के निम्न कारण हैं:
(i) आवास स्थलों का विनाश - मानव जनसंख्या में वृद्धि तथा विकास के साथ-साथ जीवों के प्राकृतिक आवास समाप्त होते जाते हैं जो जैव विविधता क्षति का प्रमुख कारण है । मानव अधिवास अर्थात् ग्राम एवं नगर्से का बसाव और फैलाव, सड़कों का निर्माण, उद्योगों का विकास, कृषि क्षेत्रों का विस्तार, खनिज, खनन बाँधों का निर्माण आदि कार्यों से वन क्षेत्र अथवा अन्य जीव आवासीय क्षेत्रों को हानि पहुँचती है । एक बड़े बाँध के निर्माण से हजारों हेक्टेयर भूमि जलमग्न हो जाती है और वहाँ स्थित पादप, पशु-पक्षी तथा अन्य जीव-जन्तुओं का विनाश हो जाता है ।इसी प्रकार खनिज खनन पूर्णतया जीव आवासों को नष्ट कर देता है । आवास स्थलों का विनाश लगभग 36 प्रतिशत जैव विविधता के विनाश का कारण रहा है । UNEP और ICUN की रिपोर्ट के अनुसार उष्ण कटिबन्धीय एशिया में वन्य जीवों के 65 प्रतिशत आवास नष्ट हो चुके हैं ।
(ii) आवास विखण्डन - प्रारम्भ में प्राकृतिक आवास स्थल विस्तृत क्षेत्रों में फैले हुए थे जिससे जीवों जैसे वन्य जीव, पक्षियों तथा अन्य जीवों को स्वक्ट विचरण करने का अवसर मिलता था । अब इनका विखण्डन हो रहा है, कहीं रेल मार्ग तो कहीं सड़क, नहर या पाइप लाइन द्वारा ।आवास विखण्डन से भूमि का स्वरूप परिवर्तित हो रहा है, वाहनों आदि के गुजरने से प्रदूषण अधिक हो रहा है तथा दुर्घटनाओं में भी जीव मारे जा रहे हैं । आवास विखण्डन के फलस्वरूप अनेक जीवों के प्राकृतिक स्थल भी बँट जाते हैं, उनमें पृथकता होने लगती है जो जैव विविधता को हानि पहुँचाते हैं ।
(iii) कृषि एवं वानिकी की परिवर्तित प्रवृत्ति - कृषि की पद्धति और प्रारूप में परिवर्तन भी जैव विविधता को हानि पहुँचा रहा है । पहले विभिन्न प्रकार की फसलों को क्रम से उगाया जाता था जिससे भूमि की क्षमता, फसलों की कीट प्रतिसेधक क्षमता बनी रहती थी । अब अधिकांशतः व्यापारिक प्रवृत्ति के कारण एकाकी फसल की प्रकृति हो गई । साथ ही अत्यधिक ग्रसायनिक उर्वरकों का उपयोग तथा कीटनाशकों के प्रयोग से कृषि क्षेत्र के सूक्ष्म जीवों का विनाश हो रहा है । जो न केवल कृषि अपितु पर्यावरण को भी हानि पहुँचा रहा है ।इसी प्रकार वनीय क्षेत्रों में व्यापारिक उपयोग हेतु एकाकी वृक्षों का रोपण किया जा रहा है । अनेक प्राकृतिक स्थलों में यूकेलिप्टिस, विदेशी बबूल लगाया जा रहा है. वन क्षेत्रों को समाप्त कर विभिन्न प्रकार से कृषि करना भी जैव विविधता क्षरण तथा अन्त में प्रजाति विलुप्तीकरण का कारण है ।
(iv) नवीन प्रजातियों का प्रभाव - स्थानीय प्रजातियाँ जो सदियों से वहाँ पनप रही हैं उनके स्थान पर नवीन प्रजातियों को लाना भी जैव विविधता पर आक्रमण है और इसको हानि पहुँचा रहा है । जैसे चकत्ते वाला हिरण को अण्डमान-निकोबार द्वीपों में ब्रिटिश द्वार लाया गया जो वहाँ के वन पादपों एवं खेतों को निरन्तर हानि पहुँचा रहा है ।इसी प्रकार विदेशी पौधों का आगमन स्थानीय पौधों को हानि पहुँचा रहा है । इसका प्रत्यक्ष उदाहरण यूकेलिप्टिस का भारत में विस्तृत क्षेत्रों पर सेपण है जिसने स्थानीय वनस्पति को समाप्त कर दिया है
(v) व्यापारिक उपयोग हेतु अति शोषण - अनेक प्रजातियों का इतना अधिक शोषण किया गया है कि वे संकटग्रस्त हो गई हैं अवैध शिकार और तस्करी अनेक जीवों के न केवल संकट का कारण अपितु विलुप्त होने का कारण भी है । शेर, चीता, हाथी, का शिकार उनकी खाल, बाल, दाँत, हड्डियों आदि के लिए किया जाता है ।अनेक फर वाले जानवर, साँप तथा पक्षियों को मास जाता है या जिन्दा पकड़ कर तस्करी की जाती है । यह कार्य स्थानीय एवं प्रादेशिक स्तर पर नहीं अपितु अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर होता है । अनेक जल जीवों का अत्यधिक शोषण हो रहा है इस प्रकार अनेक पादपों का अतिशय शोषण होने से वे समाप्त हो रहे हैं । अनेक दुर्लभ औषधीय पौधों को निर्दयता से समाप्त किया जा रहा है । वर्तमान में अवैध शिकार, तस्करी तथा अतिशोषण जैव विविधता को सर्वाधिक हानि पहुँचा रहा है ।
(vi) प्रदूषण - मृदा, जल और वायु प्रदूषण पारिस्थितिकी चक्र को प्रभावित करता है और इसका प्रभाव जैव विविधता पर पड़ता है । प्रदूषण अनेक जीवों और पादपों को समाप्त कर देता है । अनेक प्रकार के हानिकारक रसायन जिनका प्रयोग कीटनाशकों के लिए होता है । उदाहरण के लिए अमेरिका कृषि क्षेत्र मिसीसीपी नदी द्वारा मैक्सिको की खाड़ी में जो रसायन गिरते हैं उनसे लगभग 7,700 वर्ग मील के क्षेत्र में मृत क्षेत्र बन गया है जहाँ 20 मीटर गहराई तक ऑक्सीजन समाप्त हो गई है उससे समस्त जल जीव मर जाते हैं।
यह किसी एक क्षेत्र की कहानी नहीं अपितु समस्त क्षेत्रों की है। केवलादेव उद्यान, भरतपुर (राजस्थान) में सरसों में कीटनाशकों के अवशिष्ट अधिक पाये जाते हैं तथा कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान में डीडीटी. जैसे खतरनाक कीटनाशक अनेक जीवों की मृत्यु का कारण हैं। समुद्र में तेल का रिसाव तथा उद्योगों का रसायन नदी, झीलों में वहाँ के जीवों के लिए घातक है। विभिन्न प्रकार के प्रदूषण में निरन्तर वृद्धि हो रही है जो जैव विविधता के लिए संकट है।
(vii) वैश्विक जलवायु परिवर्तन - विश्व की जलवायु में परिवर्तन आ रहा है। ओजोन परत की विरलता तथा हरित गृह प्रभाव से विश्व के तापमान में वृद्धि हो रही है। यही नहीं अपितु वनोश्वन, विभिन्न गैसों का उत्सर्जन, अम्लीय वर्षा भी जलवायु तन्त्र को प्रभावित कर रहा है। जलवायु परिवर्तन का सीधा प्रभाव विभिन्न प्रजातियों पर होता है, वे नवीन परिस्थितियों से सामंजस्य न कर पाने के कारण विलुप्त होने लगती हैं। विश्व तापमान में वृद्धि से जीवों का स्थानान्तरण होता है। द्वीपीय क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन का प्रभाव अधिक होता है। जलवायु परिवर्तन केवल जीवों को ही नहीं अपितु पादपों को भी प्रभावित करता है। इससे फसल क्रम एवं फसल उत्पादन भी प्रभावित होता है।
(viii) प्राकृतिक आपदाएँ - प्राकृतिक आपदाएं जैसे ज्वालामुखी विस्फोट, भूकम्प, भू-स्खलन भी जीव जगत को हानि पहुंचती हैं। इसी प्रकार बाढ़, सूखा, आगजनी तथा महामारी भी जैव विविधता को हानि पहुंचाते हैं। वनों में लगने वाली आग से अनेक जीव-जन्तु एवं पादप नष्ट हो जाते हैं, कभी- कभी इस प्रकार की आग विस्तृत क्षेत्रों में लगती है जिससे जैव विविधता को नुकसान पहुंचता है।
तात्पर्य यह है कि वर्तमान में हम जैव विविधता विलोपन के संकट से जूझ रहे हैं, इसका संरक्षण प्राथमिकता के आधार पर होना चाहिए।
डॉ. दीपक कोहली
उपसचिव, वन एवं वन्य जीव विभाग,
5 / 104 , विपुल खंड, गोमती नगर, लखनऊ- 226010
(मोबाइल- 9454410037)
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