रियो सम्मेलन ने दुनिया को निराश किया

Submitted by Hindi on Thu, 07/05/2012 - 10:08
Source
नेशनल दुनिया, 27 जून 2012

रियो सम्मेलन ने 1992 में वहां आयोजित पृथ्वी सम्मेलन का ही एक तरह से अनुसरण किया है। पृथ्वी सम्मेलन एक प्रकार से जैव विविधता, जलवायु परिवर्तन और गरीबी उन्मूलन के नाम पर सिर्फ वैचारिक बहस ही बनकर रह गया था। परिणाम और बेहतर निष्कर्ष से नितांत दूर था। ठीक ऐसा ही रियो में भी हुआ। सबसे दुखद यथार्थ यह है कि पिछले बीस सालों में दुनिया में बहुत से पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक बदलाव हुए हैं लेकिन इसके बाद भी रियो में कोई उचित निष्कर्ष नहीं निकाला जा सका।

बांग्लादेश का द डेली स्टार कहता है कि दुनिया के टिकाऊ और हरित विकास का रास्ता तलाशने दुनिया के तमाम देशों के प्रतिनिधि ब्राजील के रियो द जेनेरो में एकत्रित हुए। लेकिन तीन दिन के विचार-मंथन के बाद भी वे बहुत बड़ी सफलता नहीं पा सके। काल बनकर सामने खड़ी समस्याओं के समाधान पर वे आम सहमति नहीं बना सके। बड़े पर्यावरण समूहों ने स्म्मेलन में पारित प्रस्तावों की निंदा की है। ‘भविष्य जो हम चाहते हैं’ शीर्षक से तैयार दस्तावेज में समस्याओं को दूर करने के लिए कोई व्यापक सुझाव नहीं पेश किए जा सके हैं। पर्यावरणविदों ने सामुद्रिक और वायुमंडलीय प्रदूषण दूर करने और खाद्य सुरक्षा की दिशा में इसे अपर्याप्त बताया है। वर्तमान में दुनिया की जनसंख्या 7 अरब है जो 2050 में बढ़कर 9 अरब हो जाएगी।

पर्यावरण का तेजी से क्षरण हो रहा है। गरीब और अमीर वर्ग के रहन-सहन के स्तर का अंतर भी बढ़ता जा रहा है। पर इन समस्याओं पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। पर्यावरणविदों के अलावा लैटिन अमेरिका के लोगों ने इस दस्तावेज को एक प्रकार से सतत् विकास और हरित अर्थव्यवस्था के नाम पर विकासशील देशों के खनिज संपदा का शोषण करने का महज एक जरिया ही बताया है। दरअसल, रियो सम्मेलन ने 1992 में वहां आयोजित पृथ्वी सम्मेलन का ही एक तरह से अनुसरण किया है। पृथ्वी सम्मेलन एक प्रकार से जैव विविधता, जलवायु परिवर्तन और गरीबी उन्मूलन के नाम पर सिर्फ वैचारिक बहस ही बनकर रह गया था।

परिणाम और बेहतर निष्कर्ष से नितांत दूर था। ठीक ऐसा ही रियो में भी हुआ। सबसे दुखद यथार्थ यह है कि पिछले बीस सालों में दुनिया में बहुत से पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक बदलाव हुए हैं लेकिन इसके बाद भी रियो में कोई उचित निष्कर्ष नहीं निकाला जा सका। अनुमान है कि तब से आज तक 30 करोड़ हेक्टेयर प्राकृतिक जंगल का विनाश किया जा चुका है। दुनिया की आबादी करीब 1.6 अरब बढ़ गई है। गैस उत्सर्जन में करीब 50 फीसदी की बढ़ोतरी हो चुकी है। इसके बाद भी दुनिया के देश ऊर्जा उत्पादन में बढ़ोतरी के लिए प्राकृतिक संपदा का दोहन करने के लिए एक जुट हैं। दुनिया की तमाम अर्थव्यवस्थाओं में लगातार विस्तार हो रहा है और प्राकृतिक संपदा का दोहन जारी है।

इन तमाम विपरीत हालात के बाद भी रियो का दस्तावेज निराश करता है। इसमें पर्यावरण, सामाजिक अवस्था और आर्थिक व्यवस्था किसी के लिए भी कुछ नहीं है। आशा है कि दुनिया के देश इन ज्वलंत समस्याओं की गंभीरता देखते हुए समाधान के लिए सितंबर 2013 में कोई परिणामदायक कदम उठाएंगे। रियो में तो दुनिया को कठिन परिस्थितियों में बेहतर परिणाम देने का अवसर खो दिया गया।