शहरीकरण की कीमत

Submitted by editorial on Sun, 07/01/2018 - 12:54
Source
अमर उजाला, 26 जून, 2018

पेड़ बचाएँपेड़ बचाएँ दिल्ली के हाईकोर्ट ने राजधानी में अगली सुनवाई तक पेड़ों की कटाई पर रोक लगा दी है। एक आवासीय परिसर के लिये हजारों पेड़ों को काटने की जरूरत शहरीकरण की अन्धाधुन्ध दौड़ का नतीजा है, जिसकी कीमत चुकाने के लिये हमें तैयार रहना चाहिए।

बढ़ते शहरीकरण के कारण पर्यावरण को लेकर कैसा टकराव बढ़ रहा है, इसकी एक झलक राजधानी दिल्ली में देखी जा सकती है, जहाँ एक बड़ी आवासीय परियोजना की राह में आड़े आ रहे 16,500 पेड़ों की कटाई पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने फौरी तौर पर रोक लगाई है। नेशनल बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन कॉरपोरेशन (एनबीसीसी) और सीपीडब्ल्यूडी को इस परियोजना की जिम्मेदारी दी गई है, जिसके कारण दक्षिणी दिल्ली की तकरीबन आधा दर्जन कॉलोनियों में स्थित हजारों पेड़ प्रभावित होंगे।

यह कोई पहली बार नहीं हो रहा है, जब इस तरह की आवासीय परियोजना के लिये पेड़ काटने पड़ें। दरअसल होता यह है कि जितने पेड़ काटे जाते हैं, उसके समुचित अनुपात में पौधारोपण कर पर्यावरण को होने वाले नुकसान की भरपाई की जाती है। यह बात सैद्धान्तिक तौर पर तो ठीक लगती है, व्यावहारिक रूप में अमूमन ऐसा कम ही नजर आता है। इसी मामले में सुनवाई के दौरान जजों ने एनबीसीसी से पूछा है कि क्या किसी एक आवासीय परिसर के लिये दिल्ली में इतने बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई सही होगी? कैग की रिपोर्ट बताती है कि वनीकरण के मामले में दिल्ली का रिकॉर्ड अच्छा नहीं रहा है।

2015 से 2017 के बीच राजधानी में 13,018 पेड़ों को गिराने की इजाजत माँगी गई थी, जिसके एवज में 65,090 पौधे रोपे जाने थे, लेकिन सिर्फ 21,048 पौधे ही रोपे गये, यानी 67 फीसदी की कमी। इसके बावजूद हकीकत यह भी है कि राजधानी दिल्ली और उससे सटे क्षेत्रों में जिस तरह से आबादी का दबाव बढ़ रहा है, वहाँ आवासीय परियोजनाओं के साथ ही आधारभूत संरचना की जरूरतें भी बढ़ रही हैं। पर्यावरण को लेकर लोगों में जागरुकता का होना अच्छी बात है, जैसा कि दक्षिणी दिल्ली के लोगों ने पेड़ों के साथ चिपककर एहसास कराया है। मगर जिस चिपको आन्दोलन की उन्होंने याद दिलाई है, उसकी भावनाओं और समर्पण को भी समझना होगा।

वास्तव में 1970 के दशक में उत्तराखण्ड का चिपको आन्दोलन सिर्फ जंगल और पर्यावरण ही नहीं, बल्कि अस्तित्व को बचाने का संघर्ष था। दिल्ली में जो हो रहा है, वह विकास के विरोधाभास का उदाहरण है। यह शहरीकरण की अन्धाधुन्ध दौड़ का नतीजा है, जिसकी कीमत चुकाने के लिये हमें तैयार रहना चाहिए।