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योजना, मार्च 1995
मत्स्य उद्योग विश्व के प्राचीनतम उद्योगों में से एक है। मानव सभ्यता के प्रारम्भिक चरण में जब कृषि का विकास नहीं हुआ था मछली मनुष्य के भोजन का महत्त्वपूर्ण अंग मानी जाती थी। कैल्शियम, फास्फोरस, आयोडीन, मैगनीशियम आयोडीन, लोहा और तांबा खनिज तत्त्व मछली में पाये जाते हैं, जो कि भोजन को समृद्ध बनाते हैं, औषधि, खाद, पशु-आहार, तेल, चमड़ा आदि बनाने में मछली का उपयोग किया जाता है।
कृषि पर बढ़ते बोझ को कम करने के लिये मत्स्य उत्पादन तथा प्रति व्यक्ति मछली उपभोग की मात्रा में वृद्धि होना आवश्यक है, जापान व कनाडा में मछली का उपभोग क्रमशः 115 तथा 110 किलोग्राम प्रतिव्यक्ति है जबकि भारत में यह दर मात्र 4 किलोग्राम प्रतिव्यक्ति है।कुल मछली उत्पादन में निरन्तर वृद्धि हो रही है तथा 40 वर्षों में मछली उत्पादन लगभग 6 गुना बढ़ गया है, वर्ष 1991-92 में कुल मछली उत्पादन 41.57 लाख टन रहा है। भारत में फैले विस्तृत समुद्र तट तथा सदा प्रवाहिनी नदियों, झीलों तथा बाँधों के जल भण्डारों को देखते हुए यह उत्पादन अभी बहुत कम है तथा इसमें विकास की पर्याप्त सम्भावना है।
भारत में मछली पालन का कार्य सामान्यतः परम्परागत रूप से मछुआरा जाति के लोगों द्वारा किया जाता है तथा इसका उद्देश्य लघु स्तर पर मत्स्य व्यवसाय करके आजीविका चलाना होता है। यूरोपीय देशों में मछली पकड़ना मनोरंजन का एक साधन भी है। अवकाश के दिनों में लोग देर तक तालाबों अथवा नदी के किनारे बैठे मछली पकड़ने का आनन्द लेते हैं।
स्वच्छ जल की प्रजातियों में से कुछ विशिष्ट मछलियाँ पम्परागत रूप से इस वर्ग के लोगों को अधिक आकर्षित करती है। ट्राउट और महसीर प्रजातियों की अनेक किस्में इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। वे मछलियाँ कम तापमान के क्षेत्रों में विकसित होती हैं, इसलिये इन्हें ठंडे पानी की मछलियाँ कहा जाता है। भारत में कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश में कुमाऊं और गढ़वाल, पूवोत्तर राज्य, राँची, ऊँटी लोनावाला आदि क्षेत्रों में शीत जल मत्स्य की पर्याप्त सम्भावना है।
शीत जल की मछलियों के विकास के लिये जल का तापमान 150 या 200 सेंटीग्रेड से अधिक नहीं होना चाहिए। ट्राउट की भूरी, सफेद, तथा इन्द्रधनुषी किस्में, महसीर और कार्य मछलियाँ मनोरंजन के लिये मछलियाँ पकड़ने वाले यूरोपीय तथा अन्य विदेशी सैलानियों को पर्यटन हेतु आमंत्रित करती हैं। इस प्रकार एक ओर जहाँ शीत जल मत्स्य पालन द्वारा प्रोटीन युक्त भोजन के रूप में मछली प्राप्त होने से कुपोषण नियंत्रण सम्भव है वहीं पर्यटन विकास से आर्थिक उन्नति का मार्ग भी प्रशस्त होता है।
अनुसन्धान
भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद द्वारा मत्स्य अनुसन्धान केन्द्रों का वर्ष 1987 में पुनर्गठन किया गया जिसके फलस्वरूप अलग-अलग परिस्थितियों में विकसित होने वाली मछलियों के उत्पादन एवं विकास सम्बन्धी अनुसन्धान संस्थान गठित किये गए हैं। साफ पानी, खारेपानी, ठंडे पानी तथा तटवर्ती और समुद्री पानी में मछली पालने एवं मछली पकड़ने व इसके प्रसंस्करण के बारे में अनुसन्धान हेतु अलग-अलग संस्थानों की स्थापना की गई है।
राष्ट्रीय शीत जल मत्स्य पालन अनुसन्धान केन्द्र (एल.आर.सी.सी.डब्ल्यू.एफ.) की स्थापना यद्यपि सितम्बर 1987 में हो गई थी किन्तु इसका विधिवत कार्यारम्भ अप्रैल 1988 में हुआ। उत्तर प्रदेश के कुमाऊं क्षेत्र में हल्द्वानी (जनपद नैनीताल) में इसका मुख्यालय है।
पिथैरागढ़ में छेड़ापानी (चम्पावत) तथा नैनीताल में भीमताल में मछली फार्म तथा अनुसन्धान शालाएँ इस केन्द्र के अन्तर्गत कार्य करते हैं। केन्द्र के प्रमुख उद्देश्य हैं-
शीतल जल मछली पालन का पर्वतीय क्षेत्रों में विकास करने के लिये संसाधनों की खोज तथा इसके संरक्षण प्रबन्ध हेतु तकनीक का विकास करना; पर्वतीय क्षेत्र की परम्परागत स्वदेशी तथा विदेशी प्रजातियों की मछलियों के विकास हेतु तकनीकी एवं आर्थिक व्यवहार्यता का अध्ययन करना तथा शीतल जल मछली पालन की तकनीक के हस्तान्तरण के उद्देश्य से शिक्षण, प्रशिक्षण तथा विस्तार कार्यक्रमों का आयोजन कर संस्थागत सलाह सेवा उपलब्ध कराना।
छेड़ापानी स्थिम फार्म में ट्राउट मछली के प्रजनन और विकास के सम्बन्ध में अनुसन्धान कार्य चल रहा है। इसके साथ ही स्थानीय मछली का भी पालन किया जा रहा है। चम्पावत स्थित केन्द्र से ही इस फार्म का संचालन होता है। भीमताल केन्द्र में महसीर प्रजाति के संरक्षण एवं विकास हेतु अध्ययन किया जा रहा है तथा यहाँ विकसित अंडों को नैनीताल क्षेत्र में स्थित विभिन्न प्राकृतिक झीलों में स्थानान्तरण किये जाने की योजना है। खुर्पाताल, गौलानदी तथा पिथौरागढ़ जनपद में ठंडे पानी के एक झरने में भी मत्स्य पालन हेतु जैविक तथा पर्यावरण सम्बन्धी अध्ययन किये गए हैं।
प्रमुख प्रजाति
पर्वतीय क्षेत्रों के शीतल जल भण्डारों में मत्स्य पालन का विकास विदेशी उन्नत प्रजातियों के आगमन के साथ हुआ। ट्राउट, महसीर, कार्य तथा कुछ अन्य प्रजातियों के विकास के लिये प्रयास किये जा रहे हैं। ट्रउट को इंग्लैंड से भारत लाने का सर्वप्रथम प्रयास एफ.जे. मिशेल द्वारा सन 1899 में किया गया, जोकि सफल न हो सका। बाद में इन्हीं महोदय ने दिसम्बर 1905 में श्रीनगर (कश्मीर) के पास हारबान में मत्स्य प्रजनन केन्द्र की स्थापना की, जिसमें भूरे-रंग की ट्राउट मछलियों का विकास किया गया। यही मछली बाद में कश्मीर, हिमाचल, उ.प्र. तथा पूर्वोत्तर राज्यों में विकसित की गई। इनमें ब्राउन ट्राउट यूरोपियन प्रजाति है जबकि रेनबो, ईस्टर्न बुक आदि प्रजातियाँ अमेरिकन हैं।
महसीर शिवालिक पर्वत शृंखला तथा दक्षिण पठार की ठंडी जलवायु के क्षेत्रों में विकसित हो रही है। विदेशी आखेद प्रेमियों की दृष्टि से यह सबसे महत्त्वपूर्ण प्रजाति है। यह एक प्राचीन प्रजाति है तथा अलग-अलग क्षेत्रों में इसके अलग-अलग स्थानीय नाम प्रचलित हैं। गोल्डन महसीर, चॉकलेट महसीर, दकन महसीर आदि इस समूह की कुछ प्रमुख उप-जातियाँ हैं।
मिररकार्प और स्केल कार्य भारत के सभी पर्वतीय प्रदेशों में भारी मात्रा में विकसित हुई है तथा इसकी लोकप्रियता में पिछले कुछ वर्षों में तेजी से वृद्धि हुई है। लेदर कार्य भी कुछ स्थानों पर विकसित हो रही है। अतिरिक्त भारतीय दशाओं के अनुकूल कुछ अन्य प्रजातियों का विकास भी वैज्ञानिकों के द्वारा किया गया है।
विकास की सम्भावना
राष्ट्रीय शीत जल मत्स्य अनुसन्धान केन्द्र की स्थापना के बाद ठंडे पानी की मछलियों के विकास सम्बन्धी अनुसन्धान एवं विकास कार्यों को बढ़ावा मिला है किन्तु अनुसन्धान एक दीर्घकालिक प्रक्रिया है। मात्र छह वर्ष की अवधि में विशेष परिणामों की आशा नहीं की जा सकती। वैज्ञानिक प्रयोगों की सफलता के बाद ही इसके लिये औद्योगिक स्वरूप का सही आकलन किया जा सकता है।
उद्योग के रूप में शीत जल मत्स्य उद्योग दो प्रकार से महत्त्वपूर्ण सिद्ध हो सकता है। सामान्य मत्स्य उद्योग की भाँति इसके उत्पादन का विक्रय करके अतिरिक्त लाभ प्राप्त किया जा सकता है। पर्वतीय क्षेत्रों में जहाँ कृषि उत्पादन अपेक्षित स्तर का नहीं हो पाता है मछली उत्पादन अधिक लाभकर सिद्ध हो सकता है। तालाब के किनारे अतिरिक्त क्षेत्र में फूलों अथवा फलों की खेती भी लागत को कम करने में सहायक सिद्ध हो सकती है। मनोरंजन अथवा खेल के रूप में शीत जल की मछलियाँ पर्यटन विकास में सहायक हो सकती हैं।
उत्तरी भारत अथवा दक्षिणी पठार के पर्वतीय क्षेत्र अपनी नैसर्गिक छटा और मनमोहक दृश्यावलियों के लिये विख्यात है। विदेशी तथा भारतीय पर्यटक इन स्थानों पर सैर-सपाटे और छुट्टी बिताने के लिये आते हैं। मत्स्य आखेट के लिये ट्राउट और महसीर मछलियाँ इन पर्यटकों को आकर्षित करती हैं। वे दोनों ही ठंडे पानी में पाई जाने वाली प्रजातियाँ हैं। इनका विकास करके विभिन्न झरनों, झीलों तथा नदियों में छोड़ा जा रहा है। पर्यटकों की संख्या तथा उनके निवास की अवधि बढ़ने से परिवहन, होटल, सजावटी सामान, फोटोग्राफी आदि व्यवसायों को भी लाभ मिलता है। स्थानीय प्रशासन की भी आमदनी बढ़ती है। इस प्रकार शीत जल मत्स्य उद्योग पर्यटन विकास में सहयोग दे सकता है।
ठंडे जल की मछलियों की विकास दर सामान्य जल की मछलियों की अपेक्षा कम होती है अतः व्यावसायिक रूप से यह उद्योग मेदानी क्षेत्रों की तुलना में कम लाभप्रद है। मौसमी परिवर्तनों, अतिवृष्टि तथा बीमारी आदि के कारण मछलियों की जीवन दर अपेक्षित दर से कम हो जाती है जो कि लाभ को कम कर देती है। फिर भी अपनी विशिष्टताओं के कारण शीत जल मत्स्य उद्योग के विकास की पर्याप्त सम्भावनाएँ हैं। निकट भविष्य में विदेशी उन्नत मछलियों के अंडों के विभिन्न जलाशयों में स्थानान्तरण के बाद दोहरे लाभ वाले इस उद्योग के पर्वतीय क्षेत्रों के विकास का माध्यम बन जाने की पूर्ण आशा है।
लेखक, वाणिज्य विभाग, राजकीय महाविद्यालय, लोहाघाट में प्रवक्ता हैं।