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इंडिया टुडे, अगस्त 2014

बात आई-गई हो गई और एक दशक का लंबा वक्त बीत गया। पिछले साल की गर्मियों में प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और नगर विकास मंत्री आजम खान ने एक बार फिर बुंदेलखंड के तालाबों के संरक्षण को लेकर दिलचस्पी जाहिर की। कुल 16 तालाबों के संरक्षण के नाम पर 66 करोड़ रुपए जारी किए गए। संरक्षण बनाने के लिए नगरपालिका ने जब अपने रिकॉर्ड खंगाले तो उसमें मुनि तालाब का जिक्र तक नहीं था और वाजपेयी तालाब भी अपनी भौगोलिक सरहद में आधा ही बचा हुआ था।
अवैध कब्जे का सिलसिला
यह कहानी अकेले मुनि तालाब की नहीं है। बांदा के आरटीआई कार्यकर्ता आशीष सागर दीक्षित ने उत्तर प्रदेश सरकार के राजस्व विभाग से तालाबों के पूरे आंकड़े हासिल किए। इनसे पता चलता है कि नवंबर 2013 की खतौनी के मुताबिक, प्रदेश में 8,75,345 तालाब, झील, जलाशय और कुएं हैं। इनमें से 1,12,043 यानी कोई 15 फीसदी जल स्रोतों पर अवैध कब्जा किया जा चुका है। राजस्व विभाग का दावा है कि 2012-13 के दौरान 65,536 अवैध कब्जों को हटाया गया।

शीतलीकरण का काम करते हैं तालाब
इन तालाबों पर अवैध कब्जे हुए कैसे? इसके बारे में राजस्व विभाग की ओर से रटी-रटाई दलीलें दी जाती हैं। आरटीआई के तहत मांगी गई एक जानकारी के जवाब में राजस्व विभाग की ओर से बताया गया है ‘पुरानी आबादी का होना, पक्का निर्माण, पट्टों का आवंटन और विवादों का अदालत में लंबित होना।’ हालांकि तालाबों के खत्म होने की इन सरकारी दलीलों के बहुत आगे भी नहीं ठहरती है।
बुंदेलखंड के चंदेल कालीन (9वीं से 14वीं शताब्दी) तालाबों की डिजाइन और इंजीनियरिंग पर 1980 के दशक में शिद्दत से काम करने वाले इनोवेटिव इंडियन फाउंडेशन (आइआइएफ) के डायरेक्टर सुधीर जैन की सुनिए, ‘‘इस इलाके में एक भी प्राकृतिक झील नहीं है। चंदेलों ने 1,300 साल पहले बड़े-बड़े तालाब बनवाए और उन्हें आपस में खूबसूरत अंडरग्राउंड वाटर चैनल्स के जरिए जोड़ा गया था। उस बेहद कम आबादी वाले जमाने में वे यह काम सिर्फ पीने के पानी के इंतजाम के लिए नहीं किया गया था। वे तो अपने शहरों को 48 डिग्री तापमान से बचाने के भी ऐसा पुख्ता इंतजाम किया करते थे।”
मऊरानीपुर से 50 किलोमीटर पूर्व में आल्हा-ऊदल के शहर महोबा में आज भी चंदेल कालीन विशाल तालाब दिख जाते हैं। इनमें सबसे प्रमुख मदन सागर तालाब के बीच में भगवान शंकर का विशाल अधबना मंदिर है। तालाब चारों तरफ से पहाड़ियों से घिरा है। लेकिन अब बरसात का पानी पहाड़ों से सरसराता हुआ तालाब में नहीं आता। बीच में घनी बस्ती, ऊंची सड़कें और पहाड़ों का पानी बह जाने के लिए नए रास्ते हैं।
तालाबों के साथ यह मजाक राजधानी दिल्ली में भी बदस्तूर जारी है। इस साल फरवरी में दिल्ली सरकार को सौंपी गई सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरनमेंट (सीएसई) की रिपोर्ट के मुताबिक, दिल्ली में 1,012 चिन्हित जल स्रोत हैं। इनमें से 338 पूरी तरह सूख चुके हैं। 107 ऐसे हैं, जिनकी अब पहचान ही नहीं की जा सकती। 70 पर आंशिक और 98 पर पूरी तरह कब्जा हो चुका है। 78 के ऊपर कानूनी तौर पर और 39 के ऊपर गैर-कानूनी तरीके से बुलंद इमारतें तामीर हो चुकी हैं।
तालाब के जिस छोर पर मई यह रिपोर्टर खड़ा था, उस जगह का उपयोग नगरपालिका कूड़ा फेंकने के लिए कर रही है। चारों ओर सूअरों का जमावड़ा लगा रहता है। वे वहीं मलमूत्र का त्याग करते हैं और तालाब किनारे के कीचड़ में वे लोटपोट होते रहते हैं। तालाबों के उद्धार के लिए पिछले साल उत्तर प्रदेश सरकार की तरफ से आमंत्रित विशेषज्ञ समिति के सदस्य रहे जैन कहते हैं, ‘‘महोबा के बाकी तालाब भी अपना वैभव खो रहे हैं।’’बेजोड़ इंजीनियरिंग और डिजाइन की मिसाल
तालाबों की इंजीनियरिंग और डिजाइन पर नजर डालें तो यहां तालाबों की लंबी श्रृंखला है जो एक शहर तक सीमित नहीं बल्कि 100 किमी. के दायरे में पानी की ढाल पर बने कस्बों में फैली है। यानी जब एक शहर के सारे तालाब भर जाएं तो पानी अगले शहर के तालाबों को भरे और इलाके के सारे तालाब भरने के बाद ही बारिश का बचा हुआ पानी किसी नदी में गिरे।
आशीष सागर याद दिलाते हैं, ‘बांदा शहर की परिधि पर 12 तालाब थे। अब खोजने पर भी एक नहीं मिलता है।’ इस कस्बे का बाबू सिंह तालाब तो अब किसी छोटे-से पोखर जैसा दिखता है जो चारों तरफ से पक्के मकानों की बस्ती से जुड़ा हुआ है और सभी घरों से निकलने वाला गंदा पानी इस तालाब में जाता है। बांदा के नवाबों की शान रहे नवाब टैंक में भैंसें लोटती हुई दिख जाती हैं। महोबा जिले में ही बेलाताल कस्बे का चंदेल कालीन बेलासागर आज भी भोपाल के बड़े तालाब से टक्कर लेता दिखता है।
यह तालाब विशाल है और इसका अंदाजा महज इस बात से लगाया जा सकता है कि इसके बीच में जल महल बने हुए हैं और अंग्रेजों ने इससे 3 बड़ी नहरें निकालीं थीं जो आगे जाकर छोटे-छोटे 1,000 तालाबों को पानी देती थीं लेकिन इस ब्रिटिश स्थापत्य की निशानी इन नहरों में पिछले साल तक कूड़ा जमा था और नहरों के फौलादी फाटक जाम हो चुके थे।

प्रशासन ने दीवार हटाई तो तालाब लबालब हो गया, लेकिन इस दौरान इससे जुड़े 1,000 तालाबों पर क्या गुजरी, इसका लेखा-जोखा बाकी है। आधुनिक इंजीनियरिंग ने पुरानी तकनीक के साथ बड़ा भद्दा मजाक किया।
दिल्ली में मिट चुके हैं तालाब
तालाबों के साथ यह मजाक राजधानी दिल्ली में भी बदस्तूर जारी है। इस साल फरवरी में दिल्ली सरकार को सौंपी गई सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरनमेंट (सीएसई) की रिपोर्ट के मुताबिक, दिल्ली में 1,012 चिन्हित जल स्रोत हैं। इनमें से 338 पूरी तरह सूख चुके हैं। 107 ऐसे हैं, जिनकी अब पहचान ही नहीं की जा सकती। 70 पर आंशिक और 98 पर पूरी तरह कब्जा हो चुका है। 78 के ऊपर कानूनी तौर पर और 39 के ऊपर गैर-कानूनी तरीके से बुलंद इमारतें तामीर हो चुकी हैं।
तालाबों की दुनिया में लंबे समय से काम करने वाले अनुपम मिश्र कहते हैं, ‘‘शहर को पानी चाहिए, तालाब नहीं। जमीन की कीमत आसमान पर है। इसी शहर ने तो 10 तालाबों को मिटाकर एयरपोर्ट का टी-3 टर्मिनल बनाया है।’’ यह वही शहर है जहां एक घंटे की बारिश में जल प्रलय जैसा दृश्य उभर आता है और टीवी पर हाहाकार मच जाता है। अनुपम कहते हैं, ‘‘तालाब बाढ़ को रोकते हैं और भूजल के स्तर को बढ़ाने का काम करते हैं।”
एमपी भी अजब-गजब है
दिल्ली में अगर पानी के पुराने स्रोतों के प्रति ऐसी लापरवाही है तो उज्जैन की शिप्रा नदी में पाइपलाइन के जरिए नर्मदा का पानी लाने वाला मध्य प्रदेश भी पीछे नहीं है। भोपाल की बड़ी झील में आज भी पानी हिलोरें मार रहा है, लेकिन 50 से ज्यादा छोटे-बड़े तालाबों में से अधिकांश मिट चुके हैं।


शहर-दर-शहर बदहाली से दो चार होते हुए गंगा बेसिन को पहले जैसा बनाने का ब्लू प्रिंट तैयार कर रहे आईआईटी कानपुर के प्रोफेसर विनोद तारे की बाद याद आती है। वे कहते हैं ‘‘गंगा का मतलब गोमुख से निकली जलधारा नहीं है। इससे जुड़े सारे ग्लेशियर, सारी नदियां, बेसिन का पूरा भूजल और सारे जल स्रोत मिलकर गंगा बनाते हैं। इनमें से एक भी मरा तो गंगा मर जाएगी।’’ गंगा रक्षकों को याद रखना होगा कि कहीं कोई मुनि तालाब उनका इंतजार कर रहा है और कोई मदन सागर अपनी किस्मत पर रो रहा है। अगर गंगा को बचाना है तो हमें अपने ताल, तलैयों और तालाबों को भी बचाना होगा।