लेखक
यह देश-दुनिया जब से है तब से पानी एक अनिवार्य जरूरत रही है और अल्प वर्षा, मरूस्थल, जैसी विषमताएँ प्रकृति में विद्यमान रही हैं- यह तो बीते दो सौ साल में ही हुआ कि लोग भूख या पानी के कारण अपने पुश्तैनी घरों-पिण्डों से पलायन कर गए। उसके पहले का समाज तो हर जल-विपदा का समाधान रखता था। अभी हमारे देखते-देखते ही घरों के आँगन, गाँव के पनघट व कस्बों के सार्वजनिक स्थानों से कुएँ गायब हुए हैं।
बावड़ियों को हजम करने का काम भी आजादी के बाद ही हुआ। हमारा आदि समाज गर्मी के चार महीनों के लिए पानी जमा करना व उसे किफायत से खर्च करने को अपनी संस्कृति मानता था। वह अपने इलाके के मौसम, जलवायु चक्र, भूगर्भ, धरती संरचना, पानी की माँग व आपूर्ति का गणित भी जानता था। उसे पता था कि कब खेत को पानी चाहिए और कितना मवेशी को और कितने में कण्ठ तर हो जाएगा।
वह अपनी गाड़ी को साफ करने के लिए पाईप से पानी बहाने या हजामत के लिए चालीस लीटर पानी बहा देने वाली टोंटी का आदी नहीं था। भले ही आज उसे बीते जमाने की तकनीक कहा जाए, लेकिन आज भी देश के कस्बे-शहर में बनने वाली जन योजनाओं में पानी की खपत व आवक का वह गणित कोई नहीं आँक पाता है जो हमारा पुराना समाज जानता था।
राजस्थान में तालाब, बावड़ियाँ, कुईं और झालार सदियों से सूखे का सामना करते रहे। ऐसे ही कर्नाटक में कैरे, तमिलनाडु में ऐरी, नागालैण्ड में जोबो तो लेह-लद्दाख में जिंग, महाराष्ट्र में पैट, उत्तराखण्ड में गुल, हिमाचल प्रदेश में कुल और जम्मू में कुहाल कुछ ऐसे पारम्परिक जल-संवर्धन के सलीके थे जो आधुनिकता की आँधी में कहीं गुम हो गए और अब आज जब पाताल का पानी निकालने व नदियों पर बाँध बनाने की जुगत अनुतीर्ण होती दिख रही हैं तो फिर उनकी याद आ रही है।
गुजरात के कच्छ के रण में पारम्परिक मालधारी लोग खारे पानी के ऊपर तैरती बारिश की बूँदों के मीठे पानी को ‘विरदा’ के प्रयोग से संरक्षित करने की कला जानते थे। सनद रहे कि उस इलाके में बारिश भी बहुत कम होती है। हिम-रेगिस्तान लेह-लद्दाख में सुबह बर्फ रहती है और दिन में धूप के कारण कुछ पानी बनता है जो शाम को बहता है। वहाँ के लोग जानते थे कि शाम को मिल रहे पानी को सुबह कैसे इस्तेमाल किया जाए।
तमिलनाडु में एक जल सरिता या धारा को कई-कई तालाबों की शृंखला में मोड़कर हर बूँद को बड़ी नदी व वहाँ से समुद्र में बेजा होने से रोकने की अनूठी परम्परा थी। उत्तरी अराकोट व चेंगलपेट जिले में पलार एनीकेट के जरिए इस ‘‘पद्धति तालाब’’ प्रणाली में 317 तालाब जुड़े हैं। रामनाथपुरम में तालाबों की अन्तरशृंखला भी विस्मयकारी है।
पानी के कारण पलायन के लिए बदनाम बुन्देलखण्ड में भी पहाड़ी के नीचे तालाब, पहाड़ी पर हरियाली वाला जंगल और एक तालाब के ‘‘ओने’’ (अतिरिक्त पानी की निकासी का मुँह) से नाली निकालकर उसे उसके नीचे धरातल पर बने दूसरे तालाब से जोड़ने व ऐसे पाँच-पाँच तालाबों की कतार बनाने की परम्परा 900वीं सदी में चन्देल राजाओं के काल से रही है।
यह जान लेना जरूरी है कि धरती पर इंसान का अस्तित्व बनाए रखने के लिए पानी जरूरी है तो पानी को बचाए रखने के लिए बारिश का संरक्षण ही एकमात्र उपाय है। यदि देश की महज पाँच प्रतिशत जमीन पर पाँच मीटर औसत गहराई में बारिश का पानी जमा किया जाए तो पाँच सौ लाख हेक्टेयर जमीन पर पानी की खेती की जा सकती है। इस तरह औसतन प्रति व्यक्ति 100 लीटर पानी प्रति व्यक्ति पूरे देश में दिया जा सकता है।
और इस तरह पानी जुटाने के लिए जरूरी है कि स्थानीय स्तर पर सदियों से समाज की सेवा करने वाली पारम्परिक जल प्रणालियों को खेाजा जाए, उन्हें सहेजने वाले, संचालित करने वाले समाज को सम्मानित किया जाए और एक बार फिर समाज को ‘पानीदार’ बनाया जाए। यहाँ ध्यान रखना जरूरी है कि आंचलिक क्षेत्र की पारम्परिक प्रणालियों को आज के इंजीनियर शायद स्वीकार ही नहीं पाएँ सो जरूरी है कि इसके लिए समाज को ही आगे किया जाए।
जल संचयन के स्थानीय व छोटे प्रयोगों से जल संरक्षण में स्थानीय लोगों की भूमिका व जागरुकता दोनों बढ़ेगी, साथ ही इससे भूजल का रिचार्ज तो होगा ही जो खेत व कारखानों में पानी की आपूर्ति को सुनिश्चित करेगा।
बावड़ियों को हजम करने का काम भी आजादी के बाद ही हुआ। हमारा आदि समाज गर्मी के चार महीनों के लिए पानी जमा करना व उसे किफायत से खर्च करने को अपनी संस्कृति मानता था। वह अपने इलाके के मौसम, जलवायु चक्र, भूगर्भ, धरती संरचना, पानी की माँग व आपूर्ति का गणित भी जानता था। उसे पता था कि कब खेत को पानी चाहिए और कितना मवेशी को और कितने में कण्ठ तर हो जाएगा।
वह अपनी गाड़ी को साफ करने के लिए पाईप से पानी बहाने या हजामत के लिए चालीस लीटर पानी बहा देने वाली टोंटी का आदी नहीं था। भले ही आज उसे बीते जमाने की तकनीक कहा जाए, लेकिन आज भी देश के कस्बे-शहर में बनने वाली जन योजनाओं में पानी की खपत व आवक का वह गणित कोई नहीं आँक पाता है जो हमारा पुराना समाज जानता था।
राजस्थान में तालाब, बावड़ियाँ, कुईं और झालार सदियों से सूखे का सामना करते रहे। ऐसे ही कर्नाटक में कैरे, तमिलनाडु में ऐरी, नागालैण्ड में जोबो तो लेह-लद्दाख में जिंग, महाराष्ट्र में पैट, उत्तराखण्ड में गुल, हिमाचल प्रदेश में कुल और जम्मू में कुहाल कुछ ऐसे पारम्परिक जल-संवर्धन के सलीके थे जो आधुनिकता की आँधी में कहीं गुम हो गए और अब आज जब पाताल का पानी निकालने व नदियों पर बाँध बनाने की जुगत अनुतीर्ण होती दिख रही हैं तो फिर उनकी याद आ रही है।
गुजरात के कच्छ के रण में पारम्परिक मालधारी लोग खारे पानी के ऊपर तैरती बारिश की बूँदों के मीठे पानी को ‘विरदा’ के प्रयोग से संरक्षित करने की कला जानते थे। सनद रहे कि उस इलाके में बारिश भी बहुत कम होती है। हिम-रेगिस्तान लेह-लद्दाख में सुबह बर्फ रहती है और दिन में धूप के कारण कुछ पानी बनता है जो शाम को बहता है। वहाँ के लोग जानते थे कि शाम को मिल रहे पानी को सुबह कैसे इस्तेमाल किया जाए।
तमिलनाडु में एक जल सरिता या धारा को कई-कई तालाबों की शृंखला में मोड़कर हर बूँद को बड़ी नदी व वहाँ से समुद्र में बेजा होने से रोकने की अनूठी परम्परा थी। उत्तरी अराकोट व चेंगलपेट जिले में पलार एनीकेट के जरिए इस ‘‘पद्धति तालाब’’ प्रणाली में 317 तालाब जुड़े हैं। रामनाथपुरम में तालाबों की अन्तरशृंखला भी विस्मयकारी है।
पानी के कारण पलायन के लिए बदनाम बुन्देलखण्ड में भी पहाड़ी के नीचे तालाब, पहाड़ी पर हरियाली वाला जंगल और एक तालाब के ‘‘ओने’’ (अतिरिक्त पानी की निकासी का मुँह) से नाली निकालकर उसे उसके नीचे धरातल पर बने दूसरे तालाब से जोड़ने व ऐसे पाँच-पाँच तालाबों की कतार बनाने की परम्परा 900वीं सदी में चन्देल राजाओं के काल से रही है।
देश की महज पाँच प्रतिशत जमीन पर पाँच मीटर औसत गहराई में बारिश का पानी जमा किया जाए तो पाँच सौ लाख हेक्टेयर जमीन पर पानी की खेती की जा सकती है। इस तरह औसतन प्रति व्यक्ति 100 लीटर पानी प्रति व्यक्ति पूरे देश में दिया जा सकता है। और इस तरह पानी जुटाने के लिए जरूरी है कि स्थानीय स्तर पर सदियों से समाज की सेवा करने वाली पारम्परिक जल प्रणालियों को खेाजा जाए, उन्हें सहेजने वाले, संचालित करने वाले समाज को सम्मानित किया जाए और एक बार फिर समाज को ‘पानीदार’ बनाया जाए।
वहाँ तालाबों के आन्तरिक जुड़ावों को तोड़ा गया, तालाब के बन्धान फोड़े गए, तालाबों पर कालोनी या खेत के लिए कब्जे हुए, पहाड़ी फोड़ी गई, पेड़ उजाड़ दिए गए। इसके कारण जब जल देवता रुठे तो पहले नल, फिर नलकूप के टोटके किए गए। सभी उपाय जब हताश रहे तो आज फिर तालाबों की याद आ रही है।यह जान लेना जरूरी है कि धरती पर इंसान का अस्तित्व बनाए रखने के लिए पानी जरूरी है तो पानी को बचाए रखने के लिए बारिश का संरक्षण ही एकमात्र उपाय है। यदि देश की महज पाँच प्रतिशत जमीन पर पाँच मीटर औसत गहराई में बारिश का पानी जमा किया जाए तो पाँच सौ लाख हेक्टेयर जमीन पर पानी की खेती की जा सकती है। इस तरह औसतन प्रति व्यक्ति 100 लीटर पानी प्रति व्यक्ति पूरे देश में दिया जा सकता है।
और इस तरह पानी जुटाने के लिए जरूरी है कि स्थानीय स्तर पर सदियों से समाज की सेवा करने वाली पारम्परिक जल प्रणालियों को खेाजा जाए, उन्हें सहेजने वाले, संचालित करने वाले समाज को सम्मानित किया जाए और एक बार फिर समाज को ‘पानीदार’ बनाया जाए। यहाँ ध्यान रखना जरूरी है कि आंचलिक क्षेत्र की पारम्परिक प्रणालियों को आज के इंजीनियर शायद स्वीकार ही नहीं पाएँ सो जरूरी है कि इसके लिए समाज को ही आगे किया जाए।
जल संचयन के स्थानीय व छोटे प्रयोगों से जल संरक्षण में स्थानीय लोगों की भूमिका व जागरुकता दोनों बढ़ेगी, साथ ही इससे भूजल का रिचार्ज तो होगा ही जो खेत व कारखानों में पानी की आपूर्ति को सुनिश्चित करेगा।