इस तरह वृद्धि का एक ऐसा सकारात्मक चक्र शुरू हो जाएगा जो आम खुशहाली को बढ़ाएगा। मौजूदा अर्थव्यवस्थाओं के संकट का बड़ा कारण यह है कि मुनाफे का सबसे बड़ा हिस्सा उद्योगपति और उसके मैनेजरों के पास के पास चला जाता है और श्रम करनेवालों को उसका नगण्य हिस्सा मिलता है। इससे अर्थव्यवस्था का संतुलन खत्म हो जाता है। गाड़ी के एक तरफ ज्यादा बोझ पड़ता है, तो वह पलटने के कगार पर आ जाती है।
समान योग्यता वाले दो व्यक्तियों में एक को रोजगार मिला हुआ है और दूसरा बेरोजगार है- यह एक ऐसा अन्याय है जिसे बेकारी कहते हैं। क्या इस अन्याय के लिए वह आदमी खुद जिम्मेदार है जो पूरी कोशिश करने के बाद भी अपने लिए रोजगार नहीं खोज पाता है? एक जमाने में, जब अर्थव्यवस्था पर किसी का नियंत्रण नहीं था, रोजगार की कोई कमी नहीं थी। कृषि-आधारित समाज व्यवस्था में कोई बेकार नहीं होता। अगर किसी की प्रवृत्ति काम करने की नहीं है या कोई कला, लेखन या पहलवानी में रुचि लेता है, तो उसका खर्च पूरा परिवार उठाता है। जब से औद्योगिक व्यवस्था आई है, रोजगार का मामला प्राकृतिक नहीं रहा। यानी कितना रोजगार होगा, किस किस्म का रोजगार होगा, यह अर्थव्यवस्था तय करती है। चूंकि इस व्यवस्था में रोजगार का मामला जीवन-मरण का हो जाता है, इसलिए राज्य को यह जिम्मेदारी दी गई है कि वह अर्थव्यवस्था का स्वरूप जनहित के आधार पर तय करे। जहां पांच-सात प्रतिशत से ज्यादा बेकारी है, वहां मानना होगा कि अर्थव्यवस्था और राज्य, दोनों फेल कर गए हैं।
ऐसा ही एक अन्याय है, समान श्रम, परंतु असमान वेतन। आजकल मैं जहां काम करता हूं, वहां तीन तरह के ड्राइवर हैं। एक तरह के ड्राइवर वे हैं जिनकी नौकरी पक्की है। इनका वेतन लगभग पंद्रह हजार रुपए महीना है। इन्हें मकान भत्ता, चिकित्सा भत्ता तथा अन्य सुविधाएं भी मिलती हैं। दूसरी कोटि के ड्राइवर अस्थाई नियुक्ति पर हैं। इन्हें लगभग सात हजार रुपए मिलते हैं, कोई भत्ता नहीं। दोनों की ड्यूटी की अवधि समान है। तीसरी कोटि का ड्राइवर विश्वविद्यालय द्वारा नियुक्त नहीं है। वह ठेकेदार की गाड़ी चलाता है। ठेकेदार ने विश्वविद्यालय को अपनी गाड़ी किराए पर दी हुई है। इस गाड़ी का ड्राइवर चार हजार रुपए पाता है, किसी प्रकार का भत्ता नहीं। ड्यूटी चौबीस घंटे की। तीनों प्रकार के ड्राइवर एक ही काम करते हैं यानी विश्वविद्यालय के अधिकारियों और अतिथियों को ले जाना-ले आना। पर तीनों की आर्थिक हैसियत अलग-अलग है। ऐसा क्यों होना चाहिए? इसे क्यों सहन किया जाना चाहिए?
इस बारे में अर्थशास्त्र क्या कहता है? मुश्किल यह है कि आधुनिक अर्थशास्त्र यह बताता ही नहीं कि किसी का वेतन किस आधार पर निर्धारित होना चाहिए। वह यह भी नहीं कहता कि समान काम के लिए समान वेतन होना चाहिए। आधुनिक अर्थशास्त्र के पास सबसे बड़ा सिद्धांत है मांग और पूर्ति का। श्रमिक और पूंजीपति के बीच प्रतिद्वंद्विता चलती है और जो जीतता है, उसकी बात मान ली जाती है। भारत में चूंकि श्रम की मांग कम है और पूर्ति ज्यादा, इसलिए वेतन नियोक्ता ही तय करता है। यह उसकी भुगतान क्षमता से भी निर्धारित होता है। यदि वह स्वयं कम कमाता है, तो अपने मजदूर को भी कम देगा। जो अधिक कमाता है, वह अधिक देगा।
इस सिलसिले में पत्र-पत्रिकाओं में लिखने वाले लेखकों का अनुभव स्थिति पर कुछ प्रकाश डाल सकता है। बहुत-से अखबार अपने लेखकों को पारिश्रमिक नहीं देते। उनके मालिकों से यह सवाल किया जाता है कि जब आप मशीन, कागज का दाम और जमीन का किराया बाजार भाव से देते हैं, तो लेखक से ही मुफ्त में क्यों लिखवाना चाहते हैं? क्या वह बाजार से बाहर है? क्या उसकी आर्थिक आवश्यकताएं नहीं हैं? लेकिन इन प्रश्नों का कोई जवाब नहीं मिलता, क्योंकि जवाब देने की मजबूरी नहीं है। लिखना है तो लिखिए, वरना चलते बनिए। स्पष्ट है कि अखबार का उत्पादन करने के लिए भौतिक चीजों के दाम बाजार के जिस नियम से तय होते हैं, वही नियम लेखक पर भी लागू किया जाता है। आदमी को वस्तु बना देना- यह मनुष्यता की अवमानना नहीं है तो क्या है?
मानव श्रम को एक अलग वर्ग की चीज मानना इसलिए आवश्यक है कि जो यह श्रम देता है, उसकी आर्थिक आवश्यकताएं होती हैं और ये आवश्यकताएं प्रत्येक श्रमिक की एक जैसी होती हैं। इसलिए उसका पारिश्रमिक मांग और पूर्ति के आधार पर नहीं, बल्कि उसकी जरूरतों से तय होना चाहिए। पारिश्रमिक इतना होना चाहिए जिससे वह और उसका परिवार शालीन जीवन बिता सके। समान वेतन के सिद्धांत के पीछे काम कर रही मान्यता यही है। इसलिए किसी भी अच्छे समाज में नियम यह होना चाहिए कि जिस तरह उत्पादन करने वालों को दूसरी चीजें, जैसे मशीन, जमीन, ईंधन आदि, एक ही भाव से खरीदनी पड़ती हैं, वैसे ही उन्हें श्रम भी एक ही भाव से खरीदना पड़ेगा। आखिर वह उत्पादन का एक केंद्रीय अंग है।
उसके बिना उत्पादन हो ही नहीं सकता। फिर कम वेतन देकर उसकी बेइज्जती क्यों की जाए? उसे आर्थिक कष्ट में क्यों डाला जाए? कोई भी मानवीय कानून व्यवस्था इसकी इजाजत नहीं दे सकती। जो व्यवस्था इसकी इजाजत देती है, उसे मानवीय नहीं कहा जा सकता। इसलिए सरकार के लिए सिर्फ न्यूनतम वेतन तय कर देना काफी नहीं है, उसे मानक वेतन तय करना चाहिए। मानक वेतन की मांग यह होगी कि प्रत्येक ड्राइवर को बराबर वेतन मिलना चाहिए, क्योंकि सभी ड्राइवर एक ही काम करते हैं। जॉन रस्किन का कहना था कि अगर इस नियम को स्वीकार कर लिया जाए, तो इसका सर्वश्रेष्ठ परिणाम यह होगा कि प्रत्येक क्षेत्र में अकुशल श्रमिक अपने आप छंट जाएंगे और कुशल मजदूरों को ही काम मिलेगा।
इस व्यवस्था पर एक आपत्ति यह हो सकती है कि तब वस्तुएं महंगी हो जाएंगी। यानी एक वर्ग की सभी वस्तुएं एक ही कीमत पर बिकने लगेंगी। लेकिन यह तो अच्छा ही होगा, क्योंकि तब वस्तुएं अपनी असली कीमत पर बिकेंगी और सबकी क्वालिटी में सुधार होगा। सभी मजदूरों को समान काम के लिए समान वेतन मिलने से यह भी होगा कि मजदूरों की क्रय शक्तिबढ़ेगी जिससे बाजार मांग में इजाफा होगा। इसको पूरा करने के लिए उत्पादन ज्यादा होगा, जिससे नए रोजगार पैदा होंगे। इस तरह वृद्धि का एक ऐसा सकारात्मक चक्र शुरू हो जाएगा जो आम खुशहाली को बढ़ाएगा। मौजूदा अर्थव्यवस्थाओं के संकट का बड़ा कारण यह है कि मुनाफे का सबसे बड़ा हिस्सा उद्योगपति और उसके मैनेजरों के पास के पास चला जाता है और श्रम करनेवालों को उसका नगण्य हिस्सा मिलता है। इससे अर्थव्यवस्था का संतुलन खत्म हो जाता है। गाड़ी के एक तरफ ज्यादा बोझ पड़ता है, तो वह पलटने के कगार पर आ जाती है।