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कुरुक्षेत्र, मई 2013
ग्रामसभा ऐसी नोडल एजेंसी के रूप में चिन्ह्ति की जा सकती है जिसे ग्रामीण विकास का एजेंट बनाया जा सकता है। यह संस्था ग्रामीण विकास के तमाम लक्ष्यों व उद्देश्यों को पूरा करने की क्षमता रखती है। इसके लिए हमें पंचायतों में रोजगार केंद्र, सूचना केंद्र, ज्ञान केंद्र की स्थापना करनी होगी। साथ ही कौशल विकास के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रमों के साथ पंचायतों में ग्रामीणों के बीच आजीविका के नए साधन बना सकते हैं। इस दिशा में ईमानदार और बेहतर पहल की जाए तो इसके दूरगामी परिणाम ग्रामीण औद्योगीकरण के रूप में भी सामने आ सकेंगे। भारतीय ग्रामीण समाज सदा से वैश्विक आकर्षण का केंद्र रहा है। इसका सरल, शांत, सामाजिक-आर्थिक जीवनप्राचीन समय से सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक वैज्ञानिकों को आकर्षित करता रहा है। आंद्रे बेते लिखते हैं ‘‘गांव केवल वह स्थान नहीं है, जहां लोग रहते हैं, यह वह अभिकल्पना है जिसमें भारतीय सभ्यता के आधारभूत मूल्य दिखाई देते हैं’’। महात्मा गांधी का मानना था कि सत्य और अहिंसा का बोध केवल गांव के सरल जीवन में ही हो सकता है। उनका कहना था कि भारत की आत्मा गांवों में ही बसती है। भारत ऐसा पहला देश है जहां पर स्थानीय स्वशासन के प्राचीनकालीन प्रमाण मिलते हैं। यहां प्राचीन समय से ही स्थानीय स्वशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी जहां का प्रमुख ग्रामीण होता था। ग्रामीण जीवन और ग्रामसभा का वर्णन वैदिककाल के विभिन्न ग्रंथों में मिलता है।
भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने गांवों के महत्व को व्यापक रूप से रेखांकित किया और स्थानीय स्वशासन तथा सत्ता के विकेंद्रीकरण की वकालत की। भारतीय संविधान के निर्माताओं ने भी इस तथ्य को बखूबी समझा। इसी का नतीजा था कि संविधान के नीति निदेशक तत्वों में अनुच्छेद 40 के अंतर्गत राज्यों को ग्राम पंचायत के गठन का निर्देश दिया गया है। स्वतंत्र भारत में पहली बार 2 अक्तूबर 1959 को राजस्थान के नागौर जिले में पंचायती राज व्यवस्था की नींव डालने के साथ ही इस दिशा में प्रगति की एक महत्वपूर्ण राह खुली। इस व्यवस्था को और भी मजबूत किया 73वें संविधान संशोधन ने जिसमें ग्राम पंचायतों के लिए विशेष प्रावधान किए गए। ग्राम पंचायतों के वर्तमान स्वरूप का श्रेय जाता है 1957 में गठित बलवंत राय मेहता समिति को जिसने त्रिस्तरीय पंचायती संरचना बनाई। देश में पंचायतों को सुदृढ़ व विकसित करने के उपाय सुझाने के लिए समय-समय पर विभिन्न समितियों का गठन किया जाता रहा है और यथासम्भव उनकी सिफारिशों को अमल में लाने का प्रयास भी किया गया है। महत्वपूर्ण समितियां हैं-अशोक मेहता समिति (1977), डॉ. पी.वी.के. राव समिति ( 1985 ) एल.एम. सिंघवी समिति (1986)।
ग्राम पंचायतों के प्रति यह सरकार की गंभीरता ही थी जिसकी वजह से 27 मई, 2004 को अलग पंचायती राजमंत्रालय का गठन कर दिया गया। इसका मकसद था 73वें संविधान संशोधन द्वारा जोड़े गए संविधान के खंड 9 के प्रावधानों के क्रियान्यवयन की बेहतर निगरानी की जा सके। ग्राम पंचायतों को आधुनिक भारतीय लोकतंत्र की रीढ़ कहा जाता है। यह लोकतंत्र की पहली पाठशाला भी है। अतः इसके सफल संचालन, व्यवस्थित कार्यवाही तथा इससे सकारात्मक संदेश जाए इसके प्रति सरकार और आम जन दोनों को हमेशा सचेत प्रयास करना होगा। पंचायतों के सशक्तिकरण के लिए नवगठित पंचायती राज मंत्रालय ने अनेक उपाय किए हैं। संक्षेप में इनका विवरण इस प्रकार है-
इस योजना के तहत उन जिलों को अनुदान दिया जाता है जो विकेन्द्रीकृत, सहभागी तथा समग्र नियोजन प्रक्रिया को बढ़ावा देने की शर्तों को पूरा करते हैं। इस योजना का उद्देश्य है विकास का अंतर मिटे तथा पंचायती राज संस्था को सशक्त किया जाए। इस योजना के द्वारा मिले अनुभव से ज्ञात होता है कि इसने निर्धारित उद्देश्यों को पूरा करने में बेहतर कार्य किया है। इस योजना के तहत 272 जिले शामिल किए गए हैं।
भारत तीव्र आर्थिक विकास के साथ विश्व की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर अग्रसर है। किंतु इस विकास के साथ-साथ असमानताएं भी उसी के अनुरूप बढ़ रही हैं खास कर ग्रामीण क्षेत्रों में। ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी, बेरोजगारी, असमानता के साथ कृषि क्षेत्र में पिछड़ापन लगातार एक चुनौती बनती जा रही है। तीव्र आर्थिक विकास का लाभ ग्रामीण क्षेत्र तक पहुंचाने का सशक्त माध्यम पंचायती राज संस्था है। इसे ध्यान में रखते हुए 2007 में ग्रामीण व्यापार केंद्र योजना शुरू की गई। यह चार पी (पब्लिक, प्राइवेट, पंचायत पार्टनरशिप) से निर्मित एक आदर्श योजना है। इस योजना का उद्देश्य रोजगार के साधनों में वृद्धि के साथ गैर-कृषिगत कार्यों से आय के स्रोत निर्मित करना, ग्रामीण रोजगार को बढ़ावा देकर ग्रामीण विकास को गति देना है। आरम्भ में इस योजना में 35 जिलों का चयन किया गया। इस योजना को दो तरह से लाभ मिलेगा-पहला ग्रामीण विकास और दूसरा ग्राम पंचायतों का सशक्तिकरण।
इसके तहत विकेन्द्रीकृत डाटा बेस एवं नियोजन, पंचायती बजट निर्माण व लेखाकर्म, केंद्र व राज्यों की योजनाओं का क्रियान्यवयन और निगरानी, आम जन केन्द्रित विशिष्ट सेवाएं, आई. टी. सेवाओं को प्रदान करने आदि काउद्देश्य है। इसके तहत सभी पंचायतों को आरम्भ के तीन वर्षों के लिए 4500 करोड़ की लागत से कम्प्यूटरिंग सुविधाएं प्रदान करने की योजना है। यह योजना पंचायतों को अधिक पारदर्शी, जवाबदेह युक्त और आधुनिक बनाने की क्षमता रखती है।
ग्राम पंचायत संस्था सम्पूर्ण नागरिकों की सहभागिता को प्रोत्साहित करती है। देखा गया है कि पंचायती राज संस्था में महिलाओं की भागीदारी काफी कम रही है। इसे ध्यान में रखते हुए 2009 में पंचायती राज मंत्रालय की ओर से 110वां संविधान संशोधन विधेयक लाया गया जोकि त्रिस्तरीय पंचायती राज संस्था में सीटें और अध्यक्ष के पद महिलाओं के लिए आरक्षित करता है। वर्तमान में देखे तो 28.18 लाख निर्वाचित प्रतिनिधियों में 36.87 प्रतिशत महिलाएं हैं। हालांकि जागरुकता और महिला शिक्षा के प्रसार से इस दिशा में हमें लगातार उत्साहजनकनतीजे देखने को मिल रहे हैं। सरकार के विभिन्न कार्यक्रमों, योजनाओं आदि में नारी सशक्तिकरण के अनुकूल प्रयासों से भी इसमें काफी प्रगति देखी जा रही है।
पंचायती राज मंत्रालय इन उपायों के अलावा पंचायतों के सशक्तिकरण और विकास के लिए अन्य तरीकों और योजनाओं के द्वारा भी प्रयास कर रहा है। इन प्रयासों में प्रमुख हैं- पंचायतों विशेषकर ग्रामसभाओं के सशक्तिकरण हेतु आवश्यक नीतिगत, वैधानिक व कार्यक्रम परिवर्तन, पंचायतों में अधिक कार्यकुशलता, पारदर्शिता व जवाबदेही सुनिश्चित एवं सुव्यवस्थित करने के लिए बेहतर प्रणाली व प्रक्रिया को बढ़ावा देना वजागरुकता फैलाने के विशिष्ट उपाय आदि। इसके अलावा विभिन्न सरकारी योजनाओं, कार्यक्रमों के क्रियान्यवयन, निगरानी सीधे ग्राम पंचायतों को सौंप दी गई है जैसे मनरेगा, इंदिरा आवास योजना आदि।
विश्व की सबसे बड़ी व महत्वाकांक्षी परियोजना महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना 2006 में शुरू की गई थी। इसके 6 साल बाद भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों की तस्वीर आज काफी बदल चुकी है। आंकड़ों के मुताबिक प्रति वर्ष औसतन एक- चैथाई परिवारों ने इस योजना से लाभ लिया है। यह योजना वास्तविक सामाजिक समावेशन की दिशा में भी कारगर साबित हुई है। इसके द्वारा कुल किए गए कामों में 51 प्रतिशत अनुसूचित जाति-जनजाति, 47 प्रतिशत महिलाओं को कार्य दिया गया है। निश्चित रूप से इस कार्यक्रम ने ग्रामीणों की सामाजिक-आर्थिक दशा सुधारने के रूप में अपनी पहचान बनाई है। पंचायती राज संस्था के माध्यम से क्रियान्वित और संचालित होने के कारण इसने ग्रामसभा के सशक्तिकरण में भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर महती भूमिका निभाई है। योजना की निगरानी के लिए ग्रामसभा को यह अधिकार दिया गया है कि वह इसमें होने वाले कामकाज, और व्यय का हिसाब ले। इसने ग्रामसभा के अधिकारों को जमीनी हकीकत का रूप दिया है।
पंचायती राज संस्था आज भारतीय लोकतंत्र का आधार बनी हुई है तो केवल इसलिए क्योंकि यह स्थानीय स्वशासी निकाय है। पंचायत के सभी वयस्क नागरिक ग्रामसभा के सदस्य होते हैं और वे अपना प्रतिनिधि खुद चुनते हैं। इसके लिए ग्रामीण क्षेत्रों में काफी जागरुकता देखने को मिल रही है। पंचायत प्रतिनिधि ग्रामीण सांसद है तो ग्रामसभा ग्रामीण संसद। ग्रामीण स्वशासन और नीति निर्माण के क्षेत्र में इन्हें तमाम अधिकार दिए गए हैं। इसके साथ ही ग्रामीणों में इसके प्रति जागरुकता भी बढ़ रही है। किन्तु इसके अलावा कुछ समस्याएं भी विद्यमान हैं जो इसके मार्ग में बाधक बनी हुई हैं। इन समास्याओं की चुनौतियों से निबटे बिना हम वास्तविक स्वशासन का लाभ नहीं ले सकेंगे। इन समस्याओं या चुनौतियों को निम्न बिन्दुओं के रूप में देखा जा सकता है -
प्रायः देखने में आता है कि पंचायती राज व्यवस्था की महत्वपूर्ण इकाई ग्रामसभा की नियमित बैठकें नहीं हो पाती हैं। इसमें होने वाले विचार-विमर्श, नीति निर्माण, कार्य योजनाएं आदि बनाने के लाभों से इसी कारण हम वंचित रह जाते हैं। 73वें संविधान संशोधन के द्वारा ग्रामसभा को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई है। अनुच्छेद 243 ( क ) के द्वारा ग्रामसभा को शक्ति व कार्य की जिम्मेदारी सौंपने के लिए राज्य सरकारों कोउत्तरदायित्व सौपा गया है। साथ ही संविधान की 11वीं अनुसूची में 29 विषयों की सूची पंचायतों को दी गई जिन पर योजना बनाने, क्रियान्वयन करने तथा मूल्यांकन करने की शक्ति ग्रामसभा के हाथ में आ गई। परन्तु समस्या यह है कि ग्रामसभा की नियमित बैठकें ही नहीं हो पाती हैं। इस वजह से न कोई सर्वस्वीकृत योजना बन पाती है और न ही उस पर सामूहिक रूप से विचार-विमर्श ही हो पाता है। ग्रामसभा की बैठक न होने के पीछे कई कारण हैं, सबसे पहले तो सभी लोगों तक इसकी सूचना ही नहीं पहुंच पाती है। दूसरे, अधिकतर लोग इसके प्रतिउदासीन भी होते हैं। तीसरे, ग्रामसभा की बैठकों में शामिल होने के लिए अधिकांश पंचायतों में ग्रामीणों को दूर तक जाना होता है और इसमें पूरा एक दिन लग जाता है। लोग अपनी मजदूरी छोड़ कर इसमें जाना पसंद नहीं करते।
इस समस्या के समाधान के लिए हमें ग्रामीणों में इसके प्रति जागरुकता लानी होगी। ग्रामसभा के पदाधिकारियों पर इसकी बाध्यता सौंपी जानी चाहिए, साथ ही उनके लिए प्रशिक्षण भी जरुरी है। इससे वे समुचित तरीके से ग्रामसभा की बैठकें सुनिश्चित करने के साथ ही उचित व जरुरी मुद्दों को चिन्ह्ति कर उस पर चर्चा करा सकेंगे। ग्रामसभा की प्रत्येक बैठक से ऐसे निष्कर्ष निकालने के प्रयास किए जाने चाहिए ताकि मजदूरी छोड़ कर आए लोगों को इससे संतुष्टि मिले। साथ ही यदि सम्भव हो तो मनरेगा के किसी एक कार्यदिवस को ग्रामसभा कीबैठक के लिए निर्धारित किया जा सकता है जिससे काफी मजदूरों को अपनी मजदूरी छोड़ने की जरुरत न होगी।
प्रायः पंचायतों के जनप्रतिनिधि सर्वस्वीकार्य नहीं भी हो सकते हैं चूंकि यह एक छोटी इकाई है अतः इस प्रकार कीअस्वीकार्यता के ज्यादा प्रभाव दिखते हैं। यह लोगों में आपसी रंजिशों को बढ़ावा देने के साथ ही विकास कार्यों को भी प्रभावित करता है। देखा गया है कि यदि पंचायत प्रतिनिधि में कोई अनुसूचित जाति/जनजाति का या महिला है जो अपने गुण या आरक्षण की वजह से चुना जाता है तो समाज का एक या कुछ वर्ग उसे नापसंद करते हैं। यहां वर्ग संघर्ष तक की नौबत आ जाती है। अधिकांश जगहों पर ग्रामसभा की बैठकें न होने के पीछे यह भी एक कारण होता है। लोकतंत्र में सर्वस्वीकार्यता शब्द एक अपवाद है। यहां बहुमत के आधार लागू होते हैं। अतः जरुरी है कि समाज के लोग इसे समझे। इसके लिए शिक्षा और जागरुकता बढ़ाने के उपाय सही कदम होंगे।
ग्राम पंचायतों में आज भ्रष्टाचार विभिन्न रूपों में इस संस्था को कमजोर करने का काम कर रहा है। पंचायत चुनाव के दौरान ही हमें इसके प्रथम दर्शन होते हैं जहां पैसों और अनुचित साधनों से चुनाव जीतने की कोशिश होती है। इस प्रकार की प्रवृत्ति लगातार बढ़ती जा रही है। भ्रष्टाचार के कई मामले मनरेगा, इंदिरा आवास योजना और अन्य कल्याणकारी योजनाओं में भी पंचायतों के माध्यम से आने लगे हैं। भ्रष्टाचार के साथ इस संस्था पर से लोगों का विश्वास खत्म होने लगे इसके पूर्व हमें सचेत हो जाना होगा, अन्यथा स्वशासन और लोकतांत्रिकव्यवस्था की इस महत्वपूर्ण संस्था को हम खो देंगे।
भ्रष्टाचार एक ऐसी बीमारी बन गई है जो भारतीय अर्थव्यवस्था सहित सभी तरह की संस्था में कमोबेश प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रवेश करती जा रही है। भ्रष्टाचार कोई नवीन समस्या भी नहीं है। इसका रूप हमें भारतीय इतिहास के विभिन्न कालखंडों में भी देखने को मिलता है। चूंकि इसकी जड़ इतिहास में भी है अतः इसे अचानक खत्म करने की आशा नहीं की जा सकती है। क्योंकि कानून और दंड व्यवस्था तो काफी सारे है। बस उसकाक्रियान्यवयन सही से नहीं हो पाता, क्योंकि क्रियान्वयन करने वाला भी इस बीमारी से ग्रसित हो जाता है। इसे समाप्त करने के लिए हमें दीर्घकालीन और संरचनात्मक उपाय करने होंगे। इसके लिए हमारी शैक्षणिक गुणवत्ता को सुधारने के साथ ही नैतिक मूल्यों को पोषित करने वाली सामाजिक योजनाओं और नीतियों को बढ़ावा देना होगा। इसके अलावा निगरानी और सोशल ऑडिट जैसे प्रयासों में भागीदारी बढ़ानी होगी।
इन सबके अलावा अन्य कई तरह की समस्याएं भी हैं जो महत्वपूर्ण न होते हुए भी व्यापक प्रभावकारी हैं। पंचायतों के सशक्तिकरण, जन जागरुकता व बेहतर शिक्षा के माध्यम से इन समस्याओं को खत्म किया जा सकता है। वर्तमान में पंचायतों के सशक्तिकरण के सरकारी प्रयास सराहनीय हैं। इसे और बढ़ाने के लिए इसमें तकनीकी विशेषज्ञता और प्रबंधकीय क्षमता को शामिल करना होगा ताकि अधिकतम लाभ लिया जा सके।
ग्रामसभा ऐसी नोडल एजेंसी के रूप में चिन्ह्ति की जा सकती है जिसे ग्रामीण विकास का एजेंट बनाया जा सकता है। यह संस्था ग्रामीण विकास के तमाम लक्ष्यों व उद्देश्यों को पूरा करने की क्षमता रखती है। इसके लिए हमें पंचायतों में रोजगार केंद्र, सूचना केंद्र, ज्ञान केंद्र की स्थापना करनी होगी। साथ ही कौशल विकास के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रमों के साथ पंचायतों में ग्रामीणों के बीच आजीविका के नए साधन बना सकते हैं। इस दिशा में ईमानदार और बेहतर पहल की जाए तो इसके दूरगामी परिणाम ग्रामीण औद्योगीकरण के रूप में भी सामने आ सकेंगे।
आज देश आंतरिक उग्रवाद से भी प्रभावित है। ग्रामसभा की इस दिशा में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। अशांत क्षेत्रों में रोजगार, कैरियर काउंसलिंग, ज्ञान केंद्र, सूचना केंद्र के माध्यम से यह विचलित युवाओं को सामाजिक सहभागिता में जोड़ सकता है। ग्रामीण क्षेत्रों के विकास की मजबूत प्रतिबद्धता के साथ ग्राम पंचायत नक्सलवाद जैसी समस्या से भी कारगर ढंग से निपटने में बेहतर हथियार साबित हो सकती है। इसके लिए हमें ग्रामीण विकास के लिए पंचायतों को नोडल एजेंसी बनाने के प्रति सचेत प्रयास करने होंगे। आज यह सिद्ध करना कठिन नहीं है कि पंचायतों के सशक्तिकरण के साथ समग्र ग्रामीण विकास को सुनिश्चित किया जा सकता है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)
भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने गांवों के महत्व को व्यापक रूप से रेखांकित किया और स्थानीय स्वशासन तथा सत्ता के विकेंद्रीकरण की वकालत की। भारतीय संविधान के निर्माताओं ने भी इस तथ्य को बखूबी समझा। इसी का नतीजा था कि संविधान के नीति निदेशक तत्वों में अनुच्छेद 40 के अंतर्गत राज्यों को ग्राम पंचायत के गठन का निर्देश दिया गया है। स्वतंत्र भारत में पहली बार 2 अक्तूबर 1959 को राजस्थान के नागौर जिले में पंचायती राज व्यवस्था की नींव डालने के साथ ही इस दिशा में प्रगति की एक महत्वपूर्ण राह खुली। इस व्यवस्था को और भी मजबूत किया 73वें संविधान संशोधन ने जिसमें ग्राम पंचायतों के लिए विशेष प्रावधान किए गए। ग्राम पंचायतों के वर्तमान स्वरूप का श्रेय जाता है 1957 में गठित बलवंत राय मेहता समिति को जिसने त्रिस्तरीय पंचायती संरचना बनाई। देश में पंचायतों को सुदृढ़ व विकसित करने के उपाय सुझाने के लिए समय-समय पर विभिन्न समितियों का गठन किया जाता रहा है और यथासम्भव उनकी सिफारिशों को अमल में लाने का प्रयास भी किया गया है। महत्वपूर्ण समितियां हैं-अशोक मेहता समिति (1977), डॉ. पी.वी.के. राव समिति ( 1985 ) एल.एम. सिंघवी समिति (1986)।
ग्राम पंचायतों के प्रति यह सरकार की गंभीरता ही थी जिसकी वजह से 27 मई, 2004 को अलग पंचायती राजमंत्रालय का गठन कर दिया गया। इसका मकसद था 73वें संविधान संशोधन द्वारा जोड़े गए संविधान के खंड 9 के प्रावधानों के क्रियान्यवयन की बेहतर निगरानी की जा सके। ग्राम पंचायतों को आधुनिक भारतीय लोकतंत्र की रीढ़ कहा जाता है। यह लोकतंत्र की पहली पाठशाला भी है। अतः इसके सफल संचालन, व्यवस्थित कार्यवाही तथा इससे सकारात्मक संदेश जाए इसके प्रति सरकार और आम जन दोनों को हमेशा सचेत प्रयास करना होगा। पंचायतों के सशक्तिकरण के लिए नवगठित पंचायती राज मंत्रालय ने अनेक उपाय किए हैं। संक्षेप में इनका विवरण इस प्रकार है-
पिछड़ा क्षेत्र अनुदान कोष
इस योजना के तहत उन जिलों को अनुदान दिया जाता है जो विकेन्द्रीकृत, सहभागी तथा समग्र नियोजन प्रक्रिया को बढ़ावा देने की शर्तों को पूरा करते हैं। इस योजना का उद्देश्य है विकास का अंतर मिटे तथा पंचायती राज संस्था को सशक्त किया जाए। इस योजना के द्वारा मिले अनुभव से ज्ञात होता है कि इसने निर्धारित उद्देश्यों को पूरा करने में बेहतर कार्य किया है। इस योजना के तहत 272 जिले शामिल किए गए हैं।
ग्रामीण व्यापार केंद्र
भारत तीव्र आर्थिक विकास के साथ विश्व की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर अग्रसर है। किंतु इस विकास के साथ-साथ असमानताएं भी उसी के अनुरूप बढ़ रही हैं खास कर ग्रामीण क्षेत्रों में। ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी, बेरोजगारी, असमानता के साथ कृषि क्षेत्र में पिछड़ापन लगातार एक चुनौती बनती जा रही है। तीव्र आर्थिक विकास का लाभ ग्रामीण क्षेत्र तक पहुंचाने का सशक्त माध्यम पंचायती राज संस्था है। इसे ध्यान में रखते हुए 2007 में ग्रामीण व्यापार केंद्र योजना शुरू की गई। यह चार पी (पब्लिक, प्राइवेट, पंचायत पार्टनरशिप) से निर्मित एक आदर्श योजना है। इस योजना का उद्देश्य रोजगार के साधनों में वृद्धि के साथ गैर-कृषिगत कार्यों से आय के स्रोत निर्मित करना, ग्रामीण रोजगार को बढ़ावा देकर ग्रामीण विकास को गति देना है। आरम्भ में इस योजना में 35 जिलों का चयन किया गया। इस योजना को दो तरह से लाभ मिलेगा-पहला ग्रामीण विकास और दूसरा ग्राम पंचायतों का सशक्तिकरण।
ई-गवर्नेंस परियोजना
इसके तहत विकेन्द्रीकृत डाटा बेस एवं नियोजन, पंचायती बजट निर्माण व लेखाकर्म, केंद्र व राज्यों की योजनाओं का क्रियान्यवयन और निगरानी, आम जन केन्द्रित विशिष्ट सेवाएं, आई. टी. सेवाओं को प्रदान करने आदि काउद्देश्य है। इसके तहत सभी पंचायतों को आरम्भ के तीन वर्षों के लिए 4500 करोड़ की लागत से कम्प्यूटरिंग सुविधाएं प्रदान करने की योजना है। यह योजना पंचायतों को अधिक पारदर्शी, जवाबदेह युक्त और आधुनिक बनाने की क्षमता रखती है।
महिला आरक्षण
ग्राम पंचायत संस्था सम्पूर्ण नागरिकों की सहभागिता को प्रोत्साहित करती है। देखा गया है कि पंचायती राज संस्था में महिलाओं की भागीदारी काफी कम रही है। इसे ध्यान में रखते हुए 2009 में पंचायती राज मंत्रालय की ओर से 110वां संविधान संशोधन विधेयक लाया गया जोकि त्रिस्तरीय पंचायती राज संस्था में सीटें और अध्यक्ष के पद महिलाओं के लिए आरक्षित करता है। वर्तमान में देखे तो 28.18 लाख निर्वाचित प्रतिनिधियों में 36.87 प्रतिशत महिलाएं हैं। हालांकि जागरुकता और महिला शिक्षा के प्रसार से इस दिशा में हमें लगातार उत्साहजनकनतीजे देखने को मिल रहे हैं। सरकार के विभिन्न कार्यक्रमों, योजनाओं आदि में नारी सशक्तिकरण के अनुकूल प्रयासों से भी इसमें काफी प्रगति देखी जा रही है।
अन्य उपाय
पंचायती राज मंत्रालय इन उपायों के अलावा पंचायतों के सशक्तिकरण और विकास के लिए अन्य तरीकों और योजनाओं के द्वारा भी प्रयास कर रहा है। इन प्रयासों में प्रमुख हैं- पंचायतों विशेषकर ग्रामसभाओं के सशक्तिकरण हेतु आवश्यक नीतिगत, वैधानिक व कार्यक्रम परिवर्तन, पंचायतों में अधिक कार्यकुशलता, पारदर्शिता व जवाबदेही सुनिश्चित एवं सुव्यवस्थित करने के लिए बेहतर प्रणाली व प्रक्रिया को बढ़ावा देना वजागरुकता फैलाने के विशिष्ट उपाय आदि। इसके अलावा विभिन्न सरकारी योजनाओं, कार्यक्रमों के क्रियान्यवयन, निगरानी सीधे ग्राम पंचायतों को सौंप दी गई है जैसे मनरेगा, इंदिरा आवास योजना आदि।
मनरेगा की महती भूमिका
विश्व की सबसे बड़ी व महत्वाकांक्षी परियोजना महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना 2006 में शुरू की गई थी। इसके 6 साल बाद भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों की तस्वीर आज काफी बदल चुकी है। आंकड़ों के मुताबिक प्रति वर्ष औसतन एक- चैथाई परिवारों ने इस योजना से लाभ लिया है। यह योजना वास्तविक सामाजिक समावेशन की दिशा में भी कारगर साबित हुई है। इसके द्वारा कुल किए गए कामों में 51 प्रतिशत अनुसूचित जाति-जनजाति, 47 प्रतिशत महिलाओं को कार्य दिया गया है। निश्चित रूप से इस कार्यक्रम ने ग्रामीणों की सामाजिक-आर्थिक दशा सुधारने के रूप में अपनी पहचान बनाई है। पंचायती राज संस्था के माध्यम से क्रियान्वित और संचालित होने के कारण इसने ग्रामसभा के सशक्तिकरण में भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर महती भूमिका निभाई है। योजना की निगरानी के लिए ग्रामसभा को यह अधिकार दिया गया है कि वह इसमें होने वाले कामकाज, और व्यय का हिसाब ले। इसने ग्रामसभा के अधिकारों को जमीनी हकीकत का रूप दिया है।
पंचायती राज संस्था आज भारतीय लोकतंत्र का आधार बनी हुई है तो केवल इसलिए क्योंकि यह स्थानीय स्वशासी निकाय है। पंचायत के सभी वयस्क नागरिक ग्रामसभा के सदस्य होते हैं और वे अपना प्रतिनिधि खुद चुनते हैं। इसके लिए ग्रामीण क्षेत्रों में काफी जागरुकता देखने को मिल रही है। पंचायत प्रतिनिधि ग्रामीण सांसद है तो ग्रामसभा ग्रामीण संसद। ग्रामीण स्वशासन और नीति निर्माण के क्षेत्र में इन्हें तमाम अधिकार दिए गए हैं। इसके साथ ही ग्रामीणों में इसके प्रति जागरुकता भी बढ़ रही है। किन्तु इसके अलावा कुछ समस्याएं भी विद्यमान हैं जो इसके मार्ग में बाधक बनी हुई हैं। इन समास्याओं की चुनौतियों से निबटे बिना हम वास्तविक स्वशासन का लाभ नहीं ले सकेंगे। इन समस्याओं या चुनौतियों को निम्न बिन्दुओं के रूप में देखा जा सकता है -
ग्रामसभा की बैठकों का अभाव
प्रायः देखने में आता है कि पंचायती राज व्यवस्था की महत्वपूर्ण इकाई ग्रामसभा की नियमित बैठकें नहीं हो पाती हैं। इसमें होने वाले विचार-विमर्श, नीति निर्माण, कार्य योजनाएं आदि बनाने के लाभों से इसी कारण हम वंचित रह जाते हैं। 73वें संविधान संशोधन के द्वारा ग्रामसभा को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई है। अनुच्छेद 243 ( क ) के द्वारा ग्रामसभा को शक्ति व कार्य की जिम्मेदारी सौंपने के लिए राज्य सरकारों कोउत्तरदायित्व सौपा गया है। साथ ही संविधान की 11वीं अनुसूची में 29 विषयों की सूची पंचायतों को दी गई जिन पर योजना बनाने, क्रियान्वयन करने तथा मूल्यांकन करने की शक्ति ग्रामसभा के हाथ में आ गई। परन्तु समस्या यह है कि ग्रामसभा की नियमित बैठकें ही नहीं हो पाती हैं। इस वजह से न कोई सर्वस्वीकृत योजना बन पाती है और न ही उस पर सामूहिक रूप से विचार-विमर्श ही हो पाता है। ग्रामसभा की बैठक न होने के पीछे कई कारण हैं, सबसे पहले तो सभी लोगों तक इसकी सूचना ही नहीं पहुंच पाती है। दूसरे, अधिकतर लोग इसके प्रतिउदासीन भी होते हैं। तीसरे, ग्रामसभा की बैठकों में शामिल होने के लिए अधिकांश पंचायतों में ग्रामीणों को दूर तक जाना होता है और इसमें पूरा एक दिन लग जाता है। लोग अपनी मजदूरी छोड़ कर इसमें जाना पसंद नहीं करते।
इस समस्या के समाधान के लिए हमें ग्रामीणों में इसके प्रति जागरुकता लानी होगी। ग्रामसभा के पदाधिकारियों पर इसकी बाध्यता सौंपी जानी चाहिए, साथ ही उनके लिए प्रशिक्षण भी जरुरी है। इससे वे समुचित तरीके से ग्रामसभा की बैठकें सुनिश्चित करने के साथ ही उचित व जरुरी मुद्दों को चिन्ह्ति कर उस पर चर्चा करा सकेंगे। ग्रामसभा की प्रत्येक बैठक से ऐसे निष्कर्ष निकालने के प्रयास किए जाने चाहिए ताकि मजदूरी छोड़ कर आए लोगों को इससे संतुष्टि मिले। साथ ही यदि सम्भव हो तो मनरेगा के किसी एक कार्यदिवस को ग्रामसभा कीबैठक के लिए निर्धारित किया जा सकता है जिससे काफी मजदूरों को अपनी मजदूरी छोड़ने की जरुरत न होगी।
स्वीकार्यता का अभाव
प्रायः पंचायतों के जनप्रतिनिधि सर्वस्वीकार्य नहीं भी हो सकते हैं चूंकि यह एक छोटी इकाई है अतः इस प्रकार कीअस्वीकार्यता के ज्यादा प्रभाव दिखते हैं। यह लोगों में आपसी रंजिशों को बढ़ावा देने के साथ ही विकास कार्यों को भी प्रभावित करता है। देखा गया है कि यदि पंचायत प्रतिनिधि में कोई अनुसूचित जाति/जनजाति का या महिला है जो अपने गुण या आरक्षण की वजह से चुना जाता है तो समाज का एक या कुछ वर्ग उसे नापसंद करते हैं। यहां वर्ग संघर्ष तक की नौबत आ जाती है। अधिकांश जगहों पर ग्रामसभा की बैठकें न होने के पीछे यह भी एक कारण होता है। लोकतंत्र में सर्वस्वीकार्यता शब्द एक अपवाद है। यहां बहुमत के आधार लागू होते हैं। अतः जरुरी है कि समाज के लोग इसे समझे। इसके लिए शिक्षा और जागरुकता बढ़ाने के उपाय सही कदम होंगे।
भ्रष्टाचार
ग्राम पंचायतों में आज भ्रष्टाचार विभिन्न रूपों में इस संस्था को कमजोर करने का काम कर रहा है। पंचायत चुनाव के दौरान ही हमें इसके प्रथम दर्शन होते हैं जहां पैसों और अनुचित साधनों से चुनाव जीतने की कोशिश होती है। इस प्रकार की प्रवृत्ति लगातार बढ़ती जा रही है। भ्रष्टाचार के कई मामले मनरेगा, इंदिरा आवास योजना और अन्य कल्याणकारी योजनाओं में भी पंचायतों के माध्यम से आने लगे हैं। भ्रष्टाचार के साथ इस संस्था पर से लोगों का विश्वास खत्म होने लगे इसके पूर्व हमें सचेत हो जाना होगा, अन्यथा स्वशासन और लोकतांत्रिकव्यवस्था की इस महत्वपूर्ण संस्था को हम खो देंगे।
भ्रष्टाचार एक ऐसी बीमारी बन गई है जो भारतीय अर्थव्यवस्था सहित सभी तरह की संस्था में कमोबेश प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रवेश करती जा रही है। भ्रष्टाचार कोई नवीन समस्या भी नहीं है। इसका रूप हमें भारतीय इतिहास के विभिन्न कालखंडों में भी देखने को मिलता है। चूंकि इसकी जड़ इतिहास में भी है अतः इसे अचानक खत्म करने की आशा नहीं की जा सकती है। क्योंकि कानून और दंड व्यवस्था तो काफी सारे है। बस उसकाक्रियान्यवयन सही से नहीं हो पाता, क्योंकि क्रियान्वयन करने वाला भी इस बीमारी से ग्रसित हो जाता है। इसे समाप्त करने के लिए हमें दीर्घकालीन और संरचनात्मक उपाय करने होंगे। इसके लिए हमारी शैक्षणिक गुणवत्ता को सुधारने के साथ ही नैतिक मूल्यों को पोषित करने वाली सामाजिक योजनाओं और नीतियों को बढ़ावा देना होगा। इसके अलावा निगरानी और सोशल ऑडिट जैसे प्रयासों में भागीदारी बढ़ानी होगी।
इन सबके अलावा अन्य कई तरह की समस्याएं भी हैं जो महत्वपूर्ण न होते हुए भी व्यापक प्रभावकारी हैं। पंचायतों के सशक्तिकरण, जन जागरुकता व बेहतर शिक्षा के माध्यम से इन समस्याओं को खत्म किया जा सकता है। वर्तमान में पंचायतों के सशक्तिकरण के सरकारी प्रयास सराहनीय हैं। इसे और बढ़ाने के लिए इसमें तकनीकी विशेषज्ञता और प्रबंधकीय क्षमता को शामिल करना होगा ताकि अधिकतम लाभ लिया जा सके।
ग्रामसभा ऐसी नोडल एजेंसी के रूप में चिन्ह्ति की जा सकती है जिसे ग्रामीण विकास का एजेंट बनाया जा सकता है। यह संस्था ग्रामीण विकास के तमाम लक्ष्यों व उद्देश्यों को पूरा करने की क्षमता रखती है। इसके लिए हमें पंचायतों में रोजगार केंद्र, सूचना केंद्र, ज्ञान केंद्र की स्थापना करनी होगी। साथ ही कौशल विकास के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रमों के साथ पंचायतों में ग्रामीणों के बीच आजीविका के नए साधन बना सकते हैं। इस दिशा में ईमानदार और बेहतर पहल की जाए तो इसके दूरगामी परिणाम ग्रामीण औद्योगीकरण के रूप में भी सामने आ सकेंगे।
आज देश आंतरिक उग्रवाद से भी प्रभावित है। ग्रामसभा की इस दिशा में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। अशांत क्षेत्रों में रोजगार, कैरियर काउंसलिंग, ज्ञान केंद्र, सूचना केंद्र के माध्यम से यह विचलित युवाओं को सामाजिक सहभागिता में जोड़ सकता है। ग्रामीण क्षेत्रों के विकास की मजबूत प्रतिबद्धता के साथ ग्राम पंचायत नक्सलवाद जैसी समस्या से भी कारगर ढंग से निपटने में बेहतर हथियार साबित हो सकती है। इसके लिए हमें ग्रामीण विकास के लिए पंचायतों को नोडल एजेंसी बनाने के प्रति सचेत प्रयास करने होंगे। आज यह सिद्ध करना कठिन नहीं है कि पंचायतों के सशक्तिकरण के साथ समग्र ग्रामीण विकास को सुनिश्चित किया जा सकता है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)