सोच में बदलाव से संभव है स्वच्छ भारत

Submitted by Hindi on Thu, 09/29/2016 - 16:37
Source
दैनिक जागरण, 29 सितम्बर, 2016

.देशभर में स्वच्छता सप्ताह का आयोजन काफी उत्साह के साथ किया जा रहा है। स्वच्छता को लेकर लोगों में जागरूकता बढ़ी है। खुशी की बात है कि स्वच्छता जैसी सामाजिक पहल का आगाज राजनीतिक क्षेत्र से हुआ है। स्वास्थ्य और स्वच्छता राजनीतिक अवधारणा नहीं है, लेकिन इस सन्दर्भ में स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भी महात्मा गाँधी और उनके समर्थक लगातार लोगों को इस दिशा में जागरूक करते रहे। राजनीति शास्त्र की भाषा में इसे ना तो वोट का आधार माना जाता है और ना ही राजनीतिक वैचारिकी। लेकिन फिर भी यह लोगों के बड़े समूह तक यदि सीधे पहुँच रहा है तो यह बेहतर पहल कही जाएगी। एक विकसित समाज की पहचान उसमें स्वास्थ्य और स्वच्छता का स्तर है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम द्वारा मानव विकास सूचकांक के निर्धारण में स्वस्थ जीवन को भी एक संकेतक माना गया है। अर्थात एक मानव के विकास का निर्धारण उसके स्वस्थ जीवन जीने के आधार पर किया जाता है।

भारत सहित दुनिया के कई देश गंदगी की समस्या से जूझ रहे हैं। हालाँकि स्वच्छता की दिशा में भारत सहित तमाम देशों के द्वारा व्यापक प्रयास किये गये हैं। इसके बावजूद वैश्विक आबादी में करीब 40 प्रतिशत लोग साफ सफाई के संकट से जूझ रहे हैं। सफाई एक सीखा हुआ व्यवहार है और प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में हमेशा सीखा हुआ व्यवहार ही करता है। जिस प्रकार समाज में लोग मिलकर अपने मूल्य और प्रतिमान तय करते हैं, उसी प्रकार स्वच्छता और सफाई को भी सामाजिक मूल्य की श्रेणी में लाकर हम स्वच्छ भारत मुहिम को सफल कर सकते हैं। यदि समाज के सभी वर्ग मिलकर ऐसा करते हैं तो यह एक परम्परा और आदत बन जाएगी, जो सामाजिक मूल्य के रूप में लोगों की आदत बन जाएगी और उससे अलग होना संभव नहीं हो पाएगा। प्रसिद्ध समाजशास्त्री ईमाइल दुर्खीम ने समाज में सामाजिक तथ्यों का वर्णन करते हुए बताया था कि ऐसी चीजें जो समाज में एक प्रतिमान और आदर्श के रूप में स्थापित हैं, उनकी अवहेलना करना किसी शख्स के लिये सम्भव नहीं होता। यह ऐसी चीज है जो व्यक्ति पर दबाव डालती है और वह उस कार्य को करने का आदी बन जाता है। यही स्थिति सफाई को लेकर भी होनी चाहिए ताकि लोगों पर यह नैतिक दबाव बन सके।

आज कई समाजों में पंचायतों का प्रभाव है। हरियाणा के कई गाँवों में पंचायतों ने सफाई को लेकर तमाम पहल की है। राज्य के कई जिलों में इस तरह के लक्ष्य तय कर दिये गये हैं ताकि वे जल्द स्वच्छ जिला बन सकें। यह सिद्ध हो चुका है कि मानव अपने स्वभाव तथा अज्ञानता की वजह से सफाई के प्रति ध्यान नहीं दे पाता। ऐसे में हमें व्यक्ति के मनोविज्ञान को समझते हुए उसे प्रेरित करने के उपाय अपनाने की जरूरत है। हालाँकि यह काम सरकार के स्तर पर शुरू कर दिया गया है। जिस प्रकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वच्छता अभियान के लिये अपने 9 दूत या रत्न बनाए उसका भी प्रभाव मनोवैज्ञानिक रूप से लोगों पर पड़ रहा है। यहाँ बड़ी हस्तियों के पीछे-पीछे चलने की प्रवृत्ति दिख रही है। यह एक तरह से समाज के लोगों की इस रुचि को भी दिखाता है कि हम अपनी स्वच्छता के लिये भी विज्ञापन पर निर्भर हैं। आज जरूरत इस मानसिकता को भी बदलने की है।

खुले में शौच की वैश्विक समस्या से निपटने के लिये भी जागरूकता जरूरी है। इसके लिये 19 नवम्बर 2001 को अन्तरराष्ट्रीय सिविल सोसायटी संस्थाओं ने विश्व टॉयलेट संगठन की स्थापना की थी। इसके साथ संयुक्त राष्ट्र महासभा ने भी इस तिथि को विश्व टॉयलेट दिवस के रूप में घोषित किया। तब से लगातार इसे मनाया जा रहा है। स्वच्छता और इससे जुड़ी चुनौतियों से निपटने के लिये भारत ने 1999 में सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान कार्यक्रम शुरू किया था। इसका मूल उद्देश्य ग्रामीण भारत में पूर्ण स्वच्छता लाना था और 2012 तक खुले में शौच की समस्या को खत्म करना था। 1990 के दशक में भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में करीब 90 लाख शौचालयों का निर्माण हुआ। लेकिन इस दौरान ग्रामीण क्षेत्र में शौचालय का उपयोग करने वालों की दर में केवल एक प्रतिशत की वृद्धि हुई।

स्वच्छता के अभाव के कारण होने वाली बीमारियों के मद्देनजर केन्द्र सरकार ने स्वच्छ भारत अभियान के जरिये देश को खुले में शौच से मुक्त करने का लक्ष्य तय किये जिसे 2019 तक पूरा किया जाना है। इसके सम्बन्ध में एक कार्ययोजना बनाई गई है जिसके तहत व्यक्तिगत, सामूहिक और सामुदायिक शौचालयों का निर्माण करके तथा ग्राम पंचायतों के माध्यम से ठोस एवं तरल कचरा प्रबंधन के जरिये गाँवों को स्वच्छ रखने पर जोर है। पेय जल और स्वच्छता मंत्रालय ने भी 2012 से 2022 के दौरान ग्रामीण स्वच्छता और सफाई कार्यनीति तैयार की है। इसका मुख्य प्रयोजन निर्मल भारत की संकल्पना को साकार करने की रूपरेखा प्रदान करना और एक ऐसा परिवेश बनाना है जो स्वच्छ तथा स्वास्थ्यकर है। ग्रामीण क्षेत्रों में इसे प्राप्त करने के लिये विभाग ने कई कार्यनीति बनाई हैं।

प्रधानमंत्री ने स्वच्छता का जो संदेश दिया, वह एक नई बात नहीं थी, लेकिन इसने देश में एक आंदोलन का रूप ले लिया। स्वच्छता एक आदर्श समाज की पहली शर्त है। इसके अनुरूप आज समाज में जन चेतना का निर्माण हो रहा है और यह एक सामाजिक आंदोलन का रूप ले रहा है। अब जरूरी यह है कि साफ सफाई को लेकर समाज के सोच के ढर्रे में बदलाव आए। इसके बिना हम अपने परिवेश से गंदगी नहीं हटा सकते।

स्वच्छ भारत अभियान शुरू किया गया है जिसकी कुछ चुनौतियाँ हैं। समाज को यह समझना होगा कि हमें भारत को स्वच्छ बनाना है और यह कार्य केवल झाड़ू लगाने मात्र से संभव नहीं है। इसके लिये समाज की सामूहिक चेतना में परिवर्तन आना जरूरी है। बेपरवाह लोगों को सफाई के बारे में जागरूक करना होगा, वरना सफाई करने वालों से अधिक संख्या गंदगी फैलाने वालों की है। हम यह देखते हैं कि जहाँ भी गंदगी फैलाने पर दंडात्मक व्यवस्था है, वहाँ डर की वजह से लोग गंदगी नहीं फैलाते। लेकिन जहाँ दंड का प्रावधान नहीं है, वहाँ लोग गंदगी फैलाने से बचते हैं। इसका उदाहरण दिल्ली मेट्रो रेल है। यहाँ थूकने पर 200 रुपये के जुर्माने का प्रावधान हैं। इसलिये मेट्रो स्टेशनों पर गंदगी फैलाने की कोई हरकत देखने को नहीं मिलती है। लेकिन वहीं भारतीय रेलवे में इस तरह की व्यवस्था नहीं होने के कारण वहाँ गंदगी का अम्बार लगा होता है। यह हमारी दोहरी मानसिकता का परिचायक है। क्या हम केवल डर से गंदगी को फैलाते या रोकते हैं?

हम सिंगापुर एवं अन्य देशों का उदाहरण देखते हैं कि वहाँ पर भी गंदगी फैलाने पर भारी जुर्माना लगता है, इसकी वजह से ऐसे देशों में अधिक सफाई है। लोगों को इस दिशा में सोच बदल लेने की जरूरत है, तभी स्वच्छ भारत की परिकल्पना साकार हो सकती है। साथ ही यदि स्वच्छता के साथ हम अपने स्वास्थ्य की तुलना कर सकते हैं तो ही इसके प्रति जागरूक होंगे। जब हम स्वच्छ रहते हैं, अपने परिवेश को गंदा नहीं करते तो इससे रोग पैदा करने वाले बैक्टीरिया का विनाश होता है और बीमारी पैदा करने वाले जीवाणु नष्ट हो जाते हैं। इससे हमारा स्वास्थ्य सही रहता है और हम बीमार कम पड़ते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट बताती है कि यदि भारत की आबादी प्रतिदिन खाना खाने के पहले साबुन से अपना हाथ धोना शुरू कर दे तो करीब 50 फीसदी बीमारियों को खत्म किया जा सकता है। इस संदर्भ में वर्ष 2008 में स्टॉकहोम में आयोजित वार्षिक जल सप्ताह के दौरान लोगों को जागरूक करने के लिये व्यापक स्तर पर जागरूकता अभियान चलाया गया था और प्रति वर्ष 15 अक्टूबर को ग्लोबल हैंड वाशिंग डे मनाया जाने लगा। शुरू में इसको स्कूली बच्चों के बीच 70 से अधिक देशों में चलाया गया।

देश में सफाई के लिये लोगों को जागरूक करना होगा ताकि सोच बदले। सभी को अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी, तभी एक स्वच्छ समाज और स्वच्छ भारत का निर्माण संभव हो पाएगा।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)