ग्राम गौरव प्रतिष्ठान
जिस तरह पानी फसलों की वृद्धि और हरियाली लाता है ठीक वही सब कुछ महादपुर गांव के लिए सामूहिक सिंचाई संचालन ने किया है। दक्षिण-पूर्वी महाराष्ट्र के यवतमाल जिले के आदिवासी इलाके में स्थित महादपुर गांव के कोलम जनजातियों ने 1993 में पहली बार गेहूं और सब्जियां उगाईं। इससे पहले सिंचाई के लिए पानी नहीं होने से यह सपना ही रह गया था। ग्राम गौरव प्रतिष्ठान और उसके संस्थापक विलास राव सालुंके, जो ‘पानी पंचायत’ के लिए प्रसिद्ध हैं, ने कोलमों को पानी के प्रबंध से अवगत कराया, जिसके फलस्वरुप आज वे समृद्धि की ओर अग्रसर हैं।
महादपुर में अक्सर अकाल आता था। हालांकि यहां सागवान के कुछ जंगल हैं। इस गांव की ज्यादातर जमीन असमतल है और अभी तक वहां खेती कपास, अरहर और ज्वार तक ही सीमित थी। शुष्क मौसम में इस गांव के मजदूर काम की तलाश में बाहर चले जाते हैं। यहां बुनियादी सुविधाएं, जैसे राशन की दुकान और दवाइयां नहीं हैं। इस गांव में इतनी गरीबी है कि लोग सागवान के बहुमूल्य पेडों को काफी सस्ते दामों में बेचने को बाध्य हैं।
दक्षिण-पूर्वी महाराष्ट्र के यवतमाल जिले के आदिवासी इलाके में स्थित महादपुर गांव के कोलम जनजातियों ने 1993 में पहली बार गेहूं और सब्जियां उगाईं। इससे पहले सिंचाई के लिए पानी नहीं होने से यह सपना ही रह गया था। ग्राम गौरव प्रतिष्ठान और उसके संस्थापक विलास राव सालुंके, जो ‘पानी पंचायत’ के लिए प्रसिद्ध हैं, ने कोलमों को पानी के प्रबंध से अवगत कराया, जिसके फलस्वरुप आज वे समृद्धि की ओर अग्रसर हैं। हालांकि गांव के 43 जनजातीय परिवारों के पास औसत जमीन 8 हेक्टेयर के आसपास है, पर वे साल में फसलों की बिक्री से औसतन सिर्फ 3,000 रुपए ही कमा पाते हैं। ग्राम गौरव प्रतिष्ठान के गनपत दालवी कहते हैं, “जब विकास संबंधित कार्यों को शुरु करने के लिए हमने इस गांव का सर्वेक्षण किया, उस वक्त गांव के लोग गरीबी से छुटकारा पाना चाहते थे” । ऐसा नहीं है कि यहां पानी को जमा रखने के उपाय बिल्कुल शून्य। राज्य सरकार ने सन् 1989 में ही 4,000 वर्ग मीटर का एक मिट्टी का बांध बनाया था। दरअसल कोलमों को इसके संचालन और संरक्षण करने के तरीकों का पता नहीं था। आश्चर्यजनक बात तो यह है कि इस बांध में जमा पानी को खेतों की सिंचाई के लिए इस्तेमाल में लाने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया। किसान अनियमित मानसून के सहारे ही जीविका चला रहे थे।
लोगों की लामबंदी भी काफी कठिन थी। सालुंके के अनुसार, “इन जनजातियों के आपसी झगड़े विकास के कार्यों में बाधा डालते हैं”। पर एक बार जब उन्हें विश्वास में ले लिया गया, तो विकास के लक्ष्य को पाने में जरा भी देरी नहीं हुई। सन् 1993 के मार्च के महीने में, प्रारंभिक बैठकों और सर्वेक्षण के बाद काम शुरु हुआ। इस कार्य के लिए मजदूरी का काम 15 कोलम परिवारों ने स्वंय किया। ग्राम गौरव प्रतिष्ठान में कार्यरत, परसुराम दादाजी धोत्री, जिन्होंने कोलमों को इस कार्य में सम्मिलित होने के लिए राजी करवाया था, कहते हैं, “जब हमारे लोगों (कोलमों) को बताया गया कि वे इस जमा किए हुए पानी को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं, तब हमने गड्ढों और पाइपों को स्थापित करने के लिए अपने श्रमिकों को काम पर लगाया”।
बांध के नीचे के तरफ एक कुएं को खोदा गया, जिसमें सिर्फ 15 दिन लगे। किराए के 13.6 हेक्टेयर प्लाट पर पाइपों को बिछाया गया। इसके बाद इस काम काम से जुड़े लोगों ने पहली बार 0.8 हेक्टेयर की जमीन पर गेहूं की खेती की, जो हरेक परिवार को बराबर बांटी गई थी। कुछ किसानों ने मूली, साग जैसी सब्जियों को भी लगाया, जिन्हें बची-खुची जमीन पर रोपा गया था।
पानी और जमीन का बंटवारा एक योजनाबद्ध तरीके से किया जाता है। हरेक किसान को गेहूं और सब्जियां उगाने के लिए 0.8 हेक्टेयर प्लाट दिया गया। इसके अतिरिक्त 0.2 हेक्टेयर जमीन मूंगफली की खेती के लिए अलग से दी जाती है। पोथू राम माडवी बताते हैं, “गर्मी के मौसम में उपलब्ध पानी की मात्रा काफी कम होती है। इसी कारण हमने इस व्यवस्था को शुरु किया है। इस बांध से रिसकर नीचे की तरफ बहने वाले पानी को एक नाली के द्वारा कुएं में ले लाया जाता है। इसके लिए 7.5 हॉर्सपावर की बिजली की मोटर इस्तेमाल में लाई जाती है। ऊपरी क्षेत्रों में पानी पाइपों की सहायता से ले जाया जाता था ।
पानr के अधिक मात्रा में उपलब्ध होने से इसकी राशनिंग की जरुरत नहीं पड़ती है। हालांकि धोत्री के अनुसार, जैसे – जैसे और जमीन को इस व्यवस्था के अंतर्गत लाया जा रहा है, पानी की कमी बढ़ती ही जा रही है। इस व्यवस्था के परिणाम भी आने शुरु हो गए हैं। अय्याचिन्नू कुमरे, जिसके पास जंगलों में स्थित 1.6 हेक्टेयर की जमीन है, आज इस सामूहिक तौर पर की जाने वाली सिंचाई की व्यवस्था के कारण काफी अच्छी स्थिति में हैं।
सालुंके के अनुसार, जमीन को उपयोगी बनाने के लिए पानी एक बहुत ही महत्वपूर्ण स्त्रोत है। इन कारणों से पानी का बंटवारा समुदायों में एक बराबर होना चाहिए। वे कहते हैं, “पानी को सामूहिक तौर पर उपयोग में लाना ही होगा”। सालुंके के अनुसार, अगर संचालन ठीक तरह से किया जाए तो पांच लोगों वाले परिवार के लिए 1 हेक्टेयर जमीन काफी होगी। पूरी भूमि का अस्सी प्रतिशत वर्षा के द्वारा की जाने वाली सिंचाई के लिए अलग कर दिया गया है। बाकी को इस व्यवस्था से सींचने का प्रयोजन है। ग्राम गौरव प्रतिष्ठान अब पास के टोले भियाडीफाड में लोगों को संयोजित करने में लगा है। इस पुरवे के लोगों को सामूहिक तौर पर की जाने वाली सिंचाई के लिए तैयार किया जा रहा है। बोथाबाई और उसके दत्तक पुत्र, सूर्य भीमा आठरम, दोनों के पास अब 12 हेक्टेयर जमीन है। दोनो ही इस जमीन को किराए पर देने के लिए राजी हैं। भियाडी नाले से पानी लेने के लिए एक कुआं और एक पंपसेट को तैयार किया जाएगा।
हालांकि सालुंके सिंचाई के लिए जरुरी धन को किसानों में बराबर-बराबर बांटने की बात करते हैं, पर महादपुर में ऐसा नहीं हो रहा है।
जिस तरह पानी फसलों की वृद्धि और हरियाली लाता है ठीक वही सब कुछ महादपुर गांव के लिए सामूहिक सिंचाई संचालन ने किया है। दक्षिण-पूर्वी महाराष्ट्र के यवतमाल जिले के आदिवासी इलाके में स्थित महादपुर गांव के कोलम जनजातियों ने 1993 में पहली बार गेहूं और सब्जियां उगाईं। इससे पहले सिंचाई के लिए पानी नहीं होने से यह सपना ही रह गया था। ग्राम गौरव प्रतिष्ठान और उसके संस्थापक विलास राव सालुंके, जो ‘पानी पंचायत’ के लिए प्रसिद्ध हैं, ने कोलमों को पानी के प्रबंध से अवगत कराया, जिसके फलस्वरुप आज वे समृद्धि की ओर अग्रसर हैं।
महादपुर में अक्सर अकाल आता था। हालांकि यहां सागवान के कुछ जंगल हैं। इस गांव की ज्यादातर जमीन असमतल है और अभी तक वहां खेती कपास, अरहर और ज्वार तक ही सीमित थी। शुष्क मौसम में इस गांव के मजदूर काम की तलाश में बाहर चले जाते हैं। यहां बुनियादी सुविधाएं, जैसे राशन की दुकान और दवाइयां नहीं हैं। इस गांव में इतनी गरीबी है कि लोग सागवान के बहुमूल्य पेडों को काफी सस्ते दामों में बेचने को बाध्य हैं।
दक्षिण-पूर्वी महाराष्ट्र के यवतमाल जिले के आदिवासी इलाके में स्थित महादपुर गांव के कोलम जनजातियों ने 1993 में पहली बार गेहूं और सब्जियां उगाईं। इससे पहले सिंचाई के लिए पानी नहीं होने से यह सपना ही रह गया था। ग्राम गौरव प्रतिष्ठान और उसके संस्थापक विलास राव सालुंके, जो ‘पानी पंचायत’ के लिए प्रसिद्ध हैं, ने कोलमों को पानी के प्रबंध से अवगत कराया, जिसके फलस्वरुप आज वे समृद्धि की ओर अग्रसर हैं। हालांकि गांव के 43 जनजातीय परिवारों के पास औसत जमीन 8 हेक्टेयर के आसपास है, पर वे साल में फसलों की बिक्री से औसतन सिर्फ 3,000 रुपए ही कमा पाते हैं। ग्राम गौरव प्रतिष्ठान के गनपत दालवी कहते हैं, “जब विकास संबंधित कार्यों को शुरु करने के लिए हमने इस गांव का सर्वेक्षण किया, उस वक्त गांव के लोग गरीबी से छुटकारा पाना चाहते थे” । ऐसा नहीं है कि यहां पानी को जमा रखने के उपाय बिल्कुल शून्य। राज्य सरकार ने सन् 1989 में ही 4,000 वर्ग मीटर का एक मिट्टी का बांध बनाया था। दरअसल कोलमों को इसके संचालन और संरक्षण करने के तरीकों का पता नहीं था। आश्चर्यजनक बात तो यह है कि इस बांध में जमा पानी को खेतों की सिंचाई के लिए इस्तेमाल में लाने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया। किसान अनियमित मानसून के सहारे ही जीविका चला रहे थे।
ग्राम गौरव प्रतिष्ठान का आगमन
ग्राम गौरव प्रतिष्ठान के कार्यकर्त्ताओं के आने से हालात में काफी बदलाव आया। इन कार्यकर्त्ताओं ने बोथाबाई बीमा आठरम, एक विधवा, जो बगल के टोले में रहती है, से सहायता के तौर पर बांध के निचले हिस्से के 13.6 हेक्टेयर की जमीन को किराए पर लगाने के लिए संपर्क किया। बोथाबाई ने तुरंत ही अपनी हामी भर दी, क्योंकि उसे मिल रहे किराए का दोगुना धन देने का प्रस्ताव कार्यकर्त्ताओं ने रखा था ।लोगों की लामबंदी भी काफी कठिन थी। सालुंके के अनुसार, “इन जनजातियों के आपसी झगड़े विकास के कार्यों में बाधा डालते हैं”। पर एक बार जब उन्हें विश्वास में ले लिया गया, तो विकास के लक्ष्य को पाने में जरा भी देरी नहीं हुई। सन् 1993 के मार्च के महीने में, प्रारंभिक बैठकों और सर्वेक्षण के बाद काम शुरु हुआ। इस कार्य के लिए मजदूरी का काम 15 कोलम परिवारों ने स्वंय किया। ग्राम गौरव प्रतिष्ठान में कार्यरत, परसुराम दादाजी धोत्री, जिन्होंने कोलमों को इस कार्य में सम्मिलित होने के लिए राजी करवाया था, कहते हैं, “जब हमारे लोगों (कोलमों) को बताया गया कि वे इस जमा किए हुए पानी को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं, तब हमने गड्ढों और पाइपों को स्थापित करने के लिए अपने श्रमिकों को काम पर लगाया”।
बांध के नीचे के तरफ एक कुएं को खोदा गया, जिसमें सिर्फ 15 दिन लगे। किराए के 13.6 हेक्टेयर प्लाट पर पाइपों को बिछाया गया। इसके बाद इस काम काम से जुड़े लोगों ने पहली बार 0.8 हेक्टेयर की जमीन पर गेहूं की खेती की, जो हरेक परिवार को बराबर बांटी गई थी। कुछ किसानों ने मूली, साग जैसी सब्जियों को भी लगाया, जिन्हें बची-खुची जमीन पर रोपा गया था।
पानी और जमीन का बंटवारा एक योजनाबद्ध तरीके से किया जाता है। हरेक किसान को गेहूं और सब्जियां उगाने के लिए 0.8 हेक्टेयर प्लाट दिया गया। इसके अतिरिक्त 0.2 हेक्टेयर जमीन मूंगफली की खेती के लिए अलग से दी जाती है। पोथू राम माडवी बताते हैं, “गर्मी के मौसम में उपलब्ध पानी की मात्रा काफी कम होती है। इसी कारण हमने इस व्यवस्था को शुरु किया है। इस बांध से रिसकर नीचे की तरफ बहने वाले पानी को एक नाली के द्वारा कुएं में ले लाया जाता है। इसके लिए 7.5 हॉर्सपावर की बिजली की मोटर इस्तेमाल में लाई जाती है। ऊपरी क्षेत्रों में पानी पाइपों की सहायता से ले जाया जाता था ।
पानr के अधिक मात्रा में उपलब्ध होने से इसकी राशनिंग की जरुरत नहीं पड़ती है। हालांकि धोत्री के अनुसार, जैसे – जैसे और जमीन को इस व्यवस्था के अंतर्गत लाया जा रहा है, पानी की कमी बढ़ती ही जा रही है। इस व्यवस्था के परिणाम भी आने शुरु हो गए हैं। अय्याचिन्नू कुमरे, जिसके पास जंगलों में स्थित 1.6 हेक्टेयर की जमीन है, आज इस सामूहिक तौर पर की जाने वाली सिंचाई की व्यवस्था के कारण काफी अच्छी स्थिति में हैं।
सालुंके के अनुसार, जमीन को उपयोगी बनाने के लिए पानी एक बहुत ही महत्वपूर्ण स्त्रोत है। इन कारणों से पानी का बंटवारा समुदायों में एक बराबर होना चाहिए। वे कहते हैं, “पानी को सामूहिक तौर पर उपयोग में लाना ही होगा”। सालुंके के अनुसार, अगर संचालन ठीक तरह से किया जाए तो पांच लोगों वाले परिवार के लिए 1 हेक्टेयर जमीन काफी होगी। पूरी भूमि का अस्सी प्रतिशत वर्षा के द्वारा की जाने वाली सिंचाई के लिए अलग कर दिया गया है। बाकी को इस व्यवस्था से सींचने का प्रयोजन है। ग्राम गौरव प्रतिष्ठान अब पास के टोले भियाडीफाड में लोगों को संयोजित करने में लगा है। इस पुरवे के लोगों को सामूहिक तौर पर की जाने वाली सिंचाई के लिए तैयार किया जा रहा है। बोथाबाई और उसके दत्तक पुत्र, सूर्य भीमा आठरम, दोनों के पास अब 12 हेक्टेयर जमीन है। दोनो ही इस जमीन को किराए पर देने के लिए राजी हैं। भियाडी नाले से पानी लेने के लिए एक कुआं और एक पंपसेट को तैयार किया जाएगा।
सामूहिक हक
ग्राम गौरव प्रतिष्ठान ने इन दोनों गांवों में कृषि के विकास से संबंधित कार्यक्रमों को शुरु करने का निश्चय किया है। सालुंके के अनुसार, जमीन को उपयोगी बनाने के लिए पानी एक बहुत ही महत्वपूर्ण स्त्रोत है। इन कारणों से पानी का बंटवारा समुदायों में एक बराबर होना चाहिए। वे कहते हैं, “पानी को सामूहिक तौर पर उपयोग में लाना ही होगा”। सालुंके के अनुसार, अगर संचालन ठीक तरह से किया जाए तो पांच लोगों वाले परिवार के लिए 1 हेक्टेयर जमीन काफी होगी। पूरी भूमि का अस्सी प्रतिशत वर्षा के द्वारा की जाने वाली सिंचाई के लिए अलग कर दिया गया है। बाकी को इस व्यवस्था से सींचने का प्रयोजन है। मिट्टी और पानी के संरक्षण के लिए यह व्यवस्था काफी उपयोगी है। इससे टिकाऊ हरियाली और वन्य जीवन को तैयार करने में भी मदद मिलेगी।हालांकि सालुंके सिंचाई के लिए जरुरी धन को किसानों में बराबर-बराबर बांटने की बात करते हैं, पर महादपुर में ऐसा नहीं हो रहा है।