सूखे को पटकता पाटा

Submitted by Anonymous (not verified) on Thu, 01/01/1970 - 05:30

ललिताबाई अपने पाटा से सब्जी तोड़ती हुईंललिताबाई अपने पाटा से सब्जी तोड़ती हुईंमहाराष्ट्र के सूखा प्रभावित जिलों में सब्जियाँ उगाकर महिलाएं सूखे से लड़ने का एक अनूठा प्रयोग चलाये हुए हैं। दशकों पहले के पाटा पद्धति को अपनाकर वे आज विदर्भ में सूखे को मात दे रही हैं। उत्तर भारत के लोग भी शायद भूले नहीं होंगे ‘बांड़ा’ को, आप जब भी जाइए, कुछ न कुछ मिल ही जाएगा। अपर्णा पल्लवी की एक रिपोर्ट

"बचपन में जब मुझे छिपना होता था, तब मेरी माँ मुझे ढूंढते-ढूंढते हमेशा सबसे पहले खेत किनारे बने "पाटा" में ही आती थी…" एक ठहाके के साथ ललिताबाई मेश्राम (50 वर्षीय) बताती हैं कि बचपन में सहेलियों के साथ इस पाता में हम खेलते-कूदते, मक्के के दानों से गुड़िया बनाते, मूंगफ़ली खाते और खरबूज का स्वाद लेते थे… कई बार हम लोग यहीं सो जाया करते थे…"।

यवतमाल जिले के मेंधला गाँव की ललिताबाई ने चालीस साल के बाद पिछले साल पुनः बचपन के इस "पाटा" को हरा-भरा करने का फ़ैसला किया। उनके खेतों के किनारे चार एकड़ में उन्होंने इसका विकास करना शुरु किया और आज की तारीख में चारों तरफ़ फ़ैले कपास और सोयाबीन के खेतों के बीच उनका "पाटा" रेगिस्तान में नखलिस्तान के रूप में दिखाई देता है। उनका पाटा, लम्बी-लम्बी फ़लियाँ (बरबटी), खेत के किनारे लगे पौधों पर फ़ैली लम्बी खरबूज की बेलों और तिल्ली के पीले फ़ूलों की खुशबू से महकता रहता है। यह "पाटा" पूरे मेश्राम परिवार के लिये रोजाना की सब्जी का एक अक्षय टोकरा है।

सब्जियों से सजा हुआ खेत का यह छोटा सा भाग मेश्राम परिवार के लिये जीवन में एक छोटी खुशी की तरह है। महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके में सूखे, अलाभकारी और असफ़ल खेती, कीड़ों के प्रकोप और भारी ॠणों की वजह से किसानों की आत्महत्या की खबरें सतत आती रहती हैं।

ललिताबाई मेश्राम उन 4000 महिलाओं में से एक हैं जिन्होंने एक साथ आकर यवतमाल इलाके में फ़िर से "पाटा" संस्कृति को शुरु किया, ताकि विदर्भ का यह इलाका खेती संकट के अभिशाप से कुछ मुक्ति पा सके। उत्तर भारत के लोग भी “बांड़ा” संस्कृति भी भूल ही गये हैं। उत्तर भारत में "पाटा" संस्कृति ही “बांड़ा” संस्कृति थी।

परम्परागत रूप से "पाटा" खेती के क्षेत्र में महिलाओं का एक खास क्षेत्र होता है। मुख्य खेतों के किनारे बने एक छोटे भूभाग पर परिवार की महिलाएं, सब्जियाँ, फ़ल और फ़लियाँ उगाती हैं, महिलाएं ही इसे उगाती, संचालित करती और रखरखाव करती हैं, तथा इससे उगने वाली सब्जियों से उनके परिवार का गुजर-बसर हो जाता है।

ग्राम गोधनी की 60 वर्षीया पुंजाभाई भगत यादों में खोते हुए बताती हैं कि "रोजाना शाम ढले मेरी माँ खेत पर बने इस पाटा में आती थीं और खाना बनाने के लिये सब्जियाँ तोड़कर घर ले जाती थीं, कभीकभार हमारा नाश्ता भी इसी पाटा में हो जाता था। ख़ेतों में काम करने वाले घर के पुरुषों को भी इस पाटा से कुछ न कुछ खाने-चबाने को मिल ही जाता था। इस पाटा से हमें साल के आठ महीने लगातार ताजी सब्जियाँ, फ़ल मिलते रहते हैं, जबकि मुख्य खेत से दालें, तेलबीज आदि निकलता ही है। पाटा में लगाने वाली सब्जियाँ भी मौसम के अनुसार हम बदलते रहते थे…इस पाटे से हमें पौष्टिक भोजन मिलता रहता है"।

एक अलाभकारी संस्था "दिलासा" की कार्यकर्ता विजया तुलसीवार कहती हैं… "लेकिन यह सब कुछ एक दशक पहले की बात है, खेती के तेजी से बढ़ते व्यवसायीकरण और कथित हरित क्रांति के चलते पाटा रखने की यह परम्परा धीरे-धीरे समाप्त हो गई…"। उनका संगठन परम्परागत खेती के तरीकों, साधनों और ज्ञान को पुनर्जीवित करने की दिशा में काम कर रहा है। "दिलासा" द्वारा किये गये एक सर्वे के मुताबिक सन 2005 में भी प्रति 15 परिवारों में पाटा की परम्परा कायम थी। एक और पिछड़े गाँव महदापुर की सतीबाई कुमरे के अनुसार, मेरे गाँव और पड़ोस के लालगुडा के 260 परिवारों में से सिर्फ़ 3 के पास पाटा बचे हैं, लेकिन भीषण सूखे और वस्तुओं के चढ़ते दामों के दौरान पाटा ही परिवार की भूख मिटाने के काम आता है। इस इलाके में सबसे पहले पाटा संस्कृति को शुरु करने में इन्हीं दोनो गाँवों की महिलाओं की भूमिका महत्वपूर्ण रही। "हमारे पास बीज भी नहीं थे… तीन परिवारों के पास सात विभिन्न प्रजातियों के बीज थे, जबकि एक समय हमारे पास कम से कम 16 से 18 सब्जियों, फ़लों के बीज उपलब्ध रहते थे। फ़िर अगली समस्या आई, ज़मीन की कमी…"। "…पिछले दशक में खेती के व्यावसायिक हो जाने की वजह से महिलाओं के परम्परागत पाटा के लिये खेतों में जगह छोड़ने का रिवाज खत्म हो गया था। इस इलाके में अधिकतर किसानों के पास औसतन 2 एकड़ ज़मीन है, और वे ज़मीन का कुछ हिस्सा पाटा के लिये नहीं छोड़ना चाहते थे, जिससे कि उन्हें पूरे खेत में नकद फ़सल उगाने का मौका मिले…" सतीबाई कुमरे आगे जोड़ती हैं।

"दिलासा" की तुलसिवार जी ने झारी जमनी गाँव में आसपास के 31 गाँवों की महिलाओं की एक बैठक बुलाई। इन महिलाओं ने अपने पास उपलब्ध विभिन्न बीजों को एकत्रित किया, और 2006-2007 में उन्हें पाँच एकड़ पाटा मे बोकर उसे कई गुना कर लिया। ज़मीन की कमी वाली समस्या के हल के लिये महिलाओं ने अपने परिवार में पतियों से बात करके प्रत्येक दो एकड़ वाले हर खेत में कम से कम तीन झुर्रियाँ (नालियाँ अथवा मेड़) की जगह देने का वायदा ले लिया। दो एकड़ के खेत में तीन मेड़ कुल खेत की ज़मीन का मात्र 2-3 प्रतिशत ही होता है, ऐसे में किसानों को भी अपनी फ़सल में कमी अथवा व्यावसायिक नुकसान होने की सम्भावना नहीं दिखी, और वे राजी हो गये। काफ़ी ज़द्दोज़हद के बाद 750 महिलाओं ने अपने गाँवों में 11 किस्मों की सब्जियों के बीज अपने-अपने पाटा में लगाये, मेश्राम परिवार भी उसमें से एक था।

पाटा की उपज बेहतरीन रही -


पाटा की उपजपाटा की उपजशुरुआत में इन छोटे-छोटे पाटे में कम उपज होने की वजह से महिलाओं का आत्मविश्वास डगमगाने लगा, एक महीने के लिये पूरे परिवार की ज़रूरतों के मुताबिक सब्जियाँ ही पाटा से मिल पाती थीं, लेकिन स्थिति में जल्दी ही सुधार हुआ। ललगुदा गाँव की सुगन्धा अतराम कहती हैं कि अब हमें जुलाई से नवम्बर तक सब्जियों पर खर्च करने की आवश्यकता नहीं होती। इन चार महीनों में हम बहुत सब्जियाँ खाते हैं। करेला, लौकी, सेम फ़ली आदि के अलावा अतराम परिवार ने इस पाटा में 15 किलो मूंग, 11 किलो उड़द, 6 किलो मोठ का भी उत्पादन कर लिया। इससे उत्साहित होकर उन्होंने अपने खेत से 50 किलो मूंग और 30 किलो मटर 350 किलो मक्का उपजाया। "पाटा" के पुनरागमन की वजह से इस इलाके के महिलाएं परम्परागत पकवान, सब्जियाँ और फ़लों की ओर वे वापस लौटीं। तिल्ली, जुवार की लाहियाँ, आदि उगाने की वजह से अब वे साल भर उसके लड्डू बना सकती हैं। सामान्यतः इनकी कीमत बहुत अधिक होने की वजह से सिर्फ़ त्योहारों पर ही तिल्ली के लड्डू बनाये जाते थे, लेकिन पिछले दो साल से लगभग हर परिवार ने पाटा से 4-5 किलो तिल प्राप्त किये, और पूरी सर्दियों में उन्होंने लड्डू का मजा लिया।

लालगुडा और महदापुर गाँवों की महिलाओं ने हिसाब लगाया कि पाटा में उगाई गई सब्जियों-फ़लों की वजह से उन्हें पिछले साल लगभग 3000 से 5000 रुपये की बचत हुई, और सबसे बड़ी बात तो यह कि अब परिवार के सदस्यों को अधिक पौष्टिक भोजन मिल जाता है और सारा परिवार बेहद खुश है। इस सारी योजना का सबसे प्रमुख पहलू यह है कि पाटा की वजह से खेत की मुख्य फ़सल को कोई नुकसान या कमी नहीं है, पाटा की जगह के कारण जो नुकसान होता है वह उर्वरकों में बचत में बराबर हो जाता है, क्योंकि पाटा से हमें चारा और खाद दोनों ही मिल जाते हैं।

शुरुआती सफ़लता से उत्साहित होकर तुलसिवार ने विभिन्न बीजों के 4000 पैकेट आसपास के 180 गाँवों में बाँटे हैं, जिन्हें जुलाई (खरीफ़ की फ़सल) के दौरान लगाया जाता है। पूरे जिले में खेतों पर लगभग 8000 पाटा का निर्माण हो चुका है। बारिश कम होने पर भले ही मुख्य फ़सल कम आये, अथवा असफ़ल हो जाये, लेकिन महिलाओं को भरोसा है कि वे अच्छी मात्रा में सब्जियाँ, फ़ल, चारा, मक्का आदि उगा लेंगी, जो उनके परिवार की जरूरतों को कुछ हद तक पूरा कर देगा। जिन लोगों ने पिछले साल खेत में पाटा बनाया था, अब इस साल उन्होंने उसका क्षेत्रफ़ल बढ़ा दिया है। सतीबाई के अनुसार, उन्हें अपने पति का पूरा समर्थन मिला और अब उनके पास तीन पाटा हो गये हैं, जिसमें से एक पर वे नये-नये प्रयोग भी कर सकती हैं। वे आगे कहती हैं, "…बड़ा अच्छा लगता है, परिवार भी खुश है सभी को भरपूर सब्जियाँ मिल रही हैं, मेरी बेटी और उसकी सहेलियाँ पाटा पर खेलने चली जाती हैं, और मुझे अपना बचपन याद आ जाता है…"।