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राइजिंग टू द काल, 2014
अनुवाद - संजय तिवारी
छह साल का बुल्लू खेलकूद के साथ-साथ एक काम रोज बहुत नियम से करता है। जब भी उसके पिता नाव लेकर आते या जाते हैं तो वह उस नाव की रस्सी को पेड़ से बाँधने खोलने का काम करता है। ऐसा करते हुए उसके पैर भले ही कीचड़ में गंदे हो जाते हैं लेकिन उसे मजा आता है। तटीय उड़ीसा के प्रहराजपुर के निवासी उसके पिता सुधीर पात्रा कहते हैं कि “ऐसा करना उसके अनुभव के लिये जरूरी है। आपको कुछ पता नहीं है कि कब समुद्र आपके दरवाजे पर दस्तक दे दे।”
तटीय उड़ीसा का समुद्री किनारा 480 किलोमीटर लंबा है। राज्य की 36 प्रतिशत आबादी राज्य के नौ तटवर्ती जिलोंं में निवास करती है। ये तटवर्ती जिले जलवायु परिवर्तन के सीधे प्रभाव क्षेत्र में पड़ते हैं। उड़ीसा के क्लाइमेटचैंज एक्शन प्लान 2010-15 के मुताबिक इन पाँच सालोंं के दौरान बंगाल की खाड़ी में औसतन हर साल पाँच चक्रवात आये हैं जिनमें से तीन उड़ीसा के तटवर्ती इलाकोंं तक पहुँचे हैं। राज्य के आपदा प्रबंधन प्राधिकरण का कहना है कि इनमें केन्द्रपाड़ा जिला सबसे ज्यादा प्रभावित होता है। समुद्र में उठने वाले चक्रवात के कारण यहाँ तेज हवाएँ चलती हैं और भारी बारिश होती है। इसके कारण बाढ़ आने का खतरा तो रहता है लेकिन केन्द्रपाड़ा में इतनी बारिश के बाद सूखा भी पड़ता है। कन्सर्व वर्ल्डवाइड द्वारा 2011 में किये गये एक सर्वे के मुताबिक केन्द्रपाड़ा का हर घर बीते पंद्रह सालों में कभी न कभी जलवायु परिवर्तन से प्रभावित हुआ है।
भारतीय मौसम विभाग द्वारा इकट्ठा किये गये बीस साल के आंकड़ों के मुताबिक बीस सालों के भीतर उड़ीसा में ऐसे 80 आपदाएँ आयी हैं जबकि भारी बारिश होने के कारण बाढ़ आई है। बाढ़ के साथ-साथ सूखा भी उड़ीसा में लगातार पड़ता रहता है। उड़ीसा के मौसम विभाग का कहना है कि आने वाले समय में ऐसी आपदाओं में कमी आने की बजाय बढ़ोत्तरी ही होगी। इन आपदाओं के कारण राज्य की गरीबी में भी कोई खास सुधार होने की उम्मीद नहीं है। राज्य में छोटी जोत के किसानों की बहुतायत है और बाढ़ या सुखाड़ के कारण सबसे ज्यादा छोटी जोत के किसान ही प्रभावित होते हैं। ऐसी आपदाओं के कारण उनकी फसलें नष्ट होती हैं और उनके जीवनस्तर में गिरावट आती है। गरीबी उन्मूलन के जितने भी कार्यक्रम जाते हैं उन पर जलवायु परिवर्तन का बढ़ता प्रभाव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर पानी फेर देता है।
कृषि उपज और मछली पालन पर प्रभाव
तटीय उड़ीसा के ज्यादातर इलाकों में चावल की खेती की जाती है। चक्रवात सबसे ज्यादा चावल की खेती को ही नुकसान पहुँचाता है। केन्द्रपाड़ा के निवासी महेश्वर रापट बताते हैं कि “पहले साल में 120 दिन बारिश होती थी, अब साल में नब्बे दिन मुश्किल से बारिश होती है।” बारिश के दिन कम हो गये लेकिन बारिश की मात्रा बढ़ गयी जो कि दोनों ही तरीकों से खेती के लिये नुकसानदायक है। पहले किसान एक मौसम में दो बार धान की फसल ले लेते थे लेकिन अब एक बार से ज्यादा धान की फसल नहीं ले सकते। रापट बताते हैं कि “बारिश के कारण ही मिट्टी का खारापन खत्म हो जाता है क्योंकि बारिश के कारण समुद्र का खारा पानी बह जाता है। लेकिन जब बारिश ही कम हो गयी तो जगह-जगह मिट्टी का यह खारापन भी महीनों बना रहता है जिसके कारण हम खेतों में उतनी धान की खेती नहीं कर पाते जितना पहले कर लेते थे।”
बार बार आने वाले तूफान, चक्रवात समुद्र को उग्र करते हैं और इसके कारण न सिर्फ अचानक भारी बारिश होती है बल्कि मिट्टी का कटाव भी होता है। जाहिर है, समुद्र के इस उग्र व्यवहार से मनुष्य, पशु और अर्थव्यवस्था सभी बुरी तरह प्रभावित होते हैं। किसानों को नुकसान और परेशानी भी होती है और राज्य सरकार का बजटीय घाटा भी बढ़ता है।
कृषि के साथ-साथ यहाँ मत्स्यपालन न सिर्फ लोगों के खान पान का दूसरा सबसे बड़ा जरिया है बल्कि रोजगार का भी बड़ा साधन है। लेकिन जलवायु परिवर्तन का असर मत्स्य पालन पर भी साफ दिखने लगा है। बार-बार के चक्रवात और अतिवृष्टि के कारण न सिर्फ समुद्र में मछली पकड़ने के लिये जाना मुश्किल हो जाता है बल्कि जमीन पर भी मछली पालन में बाधा आती है।
भुवनेश्वर स्थित रीजनल सेन्टर फॉर डेवलपमेन्ट कोऑपरेशन के कैलाश दास कहते हैं “कृषि और मत्स्य पालन लगभग ठप होते जा रहे हैं जिसके कारण तटीय लोगों की जिन्दगी दूभर होती जा रही है। परम्परागत रूप से तटीय उड़ीसा के निवासी दूसरे हिस्से के निवासियों के मुकाबले ज्यादा समृद्ध समझे जाते रहे हैं लेकिन अब यह क्रम उलट गया है।” बार-बार आने वाले चक्रवात के कारण राहत और बचाव कार्य का बोझ भी लगातार बढ़ता जाता है। हरिहरपुर गाँव के हरिकृष्ण साई कहते हैं कि “अभी हम इकहत्तर में आये चक्रवात के प्रभाव से उबरने की कोशिश कर ही रहे थे कि 81 में फिर से चक्रवात आ गया। इक्यासी के प्रभाव से उबरे नहीं थे कि 99 में फिर चक्रवात आ गया। 99 के प्रभाव से नहीं उबरे थे कि 2013 में फेलिन साइक्लोन आ गया। हम खड़े भी नहीं हो पाते कि चक्रवात हमें फिर गिराकर चला जाता है।”
समाज का संघर्ष
केन्द्रपाड़ा का प्रहराजपुर गाँव हंसुआ नदी के डेल्टा पर बसा हुआ है। गाँव के एक तरफ नदी है तो दूसरी तरफ समुद्र। एक तरफ नदी गाँव को घेरती रहती है तो दूसरी तरफ से समुद्र का चक्रवात समुद्री ज्वारभाटा गाँव की तरफ चढ़े रहते हैं। ऐसे में अस्सी के दशक में गाँव के लोगों ने इस समस्या से निजात पाने का निश्चय किया। प्रहराजपुर के निवासी बलराम विश्वाल बताते हैं कि “हमारे पुरखों ने वन विभाग की मदद से नदी के किनारे एक तटबंध बना दिया और नदी की धारा को बदल दिया। इसके साथ ही उन्होंने उस तटबंध के साथ-साथ सदाबहार (मैंग्रोव) के पौधे लगा दिये। इससे मिट्टी का कटान रोकने में मदद मिल गयी। धीरे-धीरे यही सदाबहार के पौधे सदाबहार जंगल में बदल गये।”
हालाँकि सदाबहार के ये पेड़ मिट्टी का क्षरण रोकने के लिये लगाये गये थे लेकिन बाद में ग्रामवासियों ने महसूस किया कि सदाबहार के दूसरे भी कई फायदे हैं। 1982 में जब चक्रवात आया तो लोगों ने महसूस किया कि इस बार गाँव को लगभग न के बराबर नुकसान हुआ है। इसके बाद ग्रामवासियों ने न सिर्फ तेजी से मैंग्रोव (सदाबहार) के पौधे रोपना शुरू कर दिया बल्कि उन्हें बचाने के कानून भी बनाये। गाँव के वन संरक्षण इकाई के अध्यक्ष रवीन्द्र बेहरा बताते हैं कि “हमने एक पंद्रह सदस्यीय वन संरक्षण समिति का गठन किया और रात में वनों की रखवाली के लिये एक गार्ड नियुक्त किया जिसे हर रात का सौ रूपये दिया जाता था।” इन उपायों का परिणाम सामने है। आज प्रहराजपुर और समुद्र के बीच 40 हेक्टेयर का सदाबहार जंगल खड़ा है।
रवीन्द्र बेहरा इस सदाबहार के जंगल का फायदा बताते हुए कहते हैं कि 1999 के चक्रवात में दस हजार लोग मारे गये थे लेकिन इस जंगल की वजह से हमारे जान माल को कोई खास नुकसान नहीं हुआ। गाँव में एक कच्ची दीवार गिरने से दो लोग मारे गये थे। इसी तरह 2013 के चक्रवात फेलिन के दौरान भी जब राज्य में हजारों एकड़ फसलें नष्ट हो गयी और बड़े पैमाने पर जान माल का नुकसान हुआ तब भी हमारे गाँव में इस सदाबहार के जंगल ने हमारी रक्षा की। गाँव के दो सौ घरों में डेढ़ से ज्यादा घर सुरक्षित बचे रहे।
बीते तीस सालों से सदाबहार के जंगल प्रहराजपुर की बार-बार रक्षा करते आ रहे हैं। “लेकिन परिस्थितियाँ पहले जैसी दोबारा कभी नहीं हो पाती।” फेलिन चक्रवात में अपना घर गँवा चुके सुधीर पात्रा बताते हैं कि “हम बच तो जाते हैं लेकिन हमें नहीं पता आगे क्या होने वाला है। समुद्र पहले से अब बहुत उग्र हो गया है। हम सिर्फ एक काम कर सकते हैं कि पहले से ज्यादा तैयारी रखो, ताकि अगली बार भी अपना बचाव कर सको।” सुधीर पात्रा की इस तैयारी का फायदा तो है। दिल्ली स्कूल आफ इकोनॉमिक्स के एक अध्ययन में इस बात की पुष्टि होती है कि सदाबहार के जंगलों के कारण 1999 में आये चक्रवात में बहुत से लोगों की जान माल की रक्षा हुई। अगर ये मैंग्रोव (सदाबहार) के जंगल न होते तो 35 प्रतिशत अधिक लोगों को जान गँवानी पड़ जाती। सदाबहार के जंगलों ने एक कवच की तरह चक्रवात से गाँवों की रक्षा की।
प्रहराजपुर में मैंग्रोव की सफलता देखकर आस-पास के गाँवों ने भी सदाबहार के जंगल लगाने शुरू कर दिये। आरसीडीसी के सुरेश बिसोयी बताते हैं कि “मैंग्रोव के ये जंगल चक्रवात से बचाने के साथ-साथ लकड़ी, शहद और फल भी उपलब्ध कराते हैं जो आपत्तिकाल के दिनों में लोगों की बहुत मदद करता है।” इसके फायदों की वजह से ही जहाँ सदाबहार के जंगल खत्म होते जा रहे थे वहीं राज्य में अब मैंग्रोव के जंगल फिर से लौट आये हैं। 1944 में राज्य में 30,766 हेक्टेयर सदाबहार के जंगल थे जो 1999 में गिरकर 17,900 हेक्टेयर रह गया। लेकिन अब फिर से सदाबहार के जंगलों का दायरा बढ़ा है और 2011 में यह 22,200 हेक्टेयर हो गया था।
परम्परागत तालाबों का उन्नयन
सदाबहार के जंगल लगाने के साथ-साथ केन्द्रपाड़ा के निवासी एक और काम कर रहे हैं। वे अपने परम्परागत तालाबों को पुनर्जीवित कर रहे हैं। तटवर्ती उड़ीसा के इलाकों में परम्परागत रूप से तालाब पहले से मौजूद रहे हैं। राज्य में तालाब के रूप में 10 लाख 18 हजार हेक्टेयर जमीन पहले से चिन्हित हैं। राज्य के 8 लाख 34 हजार मछुआरों में 6 लाख 61 हजार मछुआरे ऐसे हैं जो जमीन पर मौजूद जलस्रोतोंं में ही मछली पकड़ने का काम करते हैं लेकिन इसके बावजूद भी 20 लाख 59 हजार टन मछली पालन की संभावना के बाद भी राज्य में 10 लाख 33 हजार टन ही सालाना मछली का उत्पादन हो पाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि ज्यादातर परम्परागत तालाब या तो नष्ट हो गये हैं या फिर अब उनका इस्तेमाल नहीं होता है। राज्य में परम्परागत तालाबों के मौजूद होने का एक कारण लोगों का घर निर्माण भी था। रीजनल सेन्टर फॉर डेवलपमेन्ट कोऑपरेशन के कैलाश दास बताते हैं “लोग मिट्टी के घर बनाते थे। जहाँ से मिट्टी निकालते थे वह जगह तालाब के रूप में विकसित हो जाती थी। फिर इस तालाब के पानी का घर के काम काज में इस्तेमाल करते थे। इसके अलावा अलग से भी तालाब बनाये जाते थे।”
तटीय उड़ीसा में ‘परिवर्तन’
अब परम्परागत तालाबों को पुनर्जीवित करने के लिये परिवर्तन हो रहा है। रीजनल सेन्टर फॉर डेवलपमेन्ट कोऑपरेशन कन्सर्न वर्ल्डवाइड के साथ मिलकर तालाबों को पुनर्जीवित कर रहे हैं और मछली पालन, चावल की खेती के लिये कैसे इस्तेमाल किया जाए इसके उपाय सुझा रहे हैं। तालाब के किनारे वर्मी कम्पोस्ट भी तैयार किया जा रहा है और साग सब्जी की खेती भी की जा रही है। 2011 में शुरू की गयी यह पूरी परियोजना परिवर्तन के नाम से चलाई जा रही है। कन्सर्न वर्ल्डवाइड की श्वेता मिश्रा बताती हैं “परम्परागत ज्ञान और आधुनिक विज्ञान के मेल जोल से यह काम किया जा रहा है। तालाब के किनारे खेती से खारे पानी के प्रभाव को कम करने में मदद मिलती है और वर्मी कम्पोस्ट मिट्टी की उर्वरा शक्ति को बनाकर रखती है। तालाब के पानी से मछली पालन के साथ-साथ सब्जियों की खेती भी हो जाती है। इसके साथ ही बत्तख पालन भी करवाया जाता है जो कि तटीय इलाकों में मुर्गियों के मुकाबले ज्यादा अनुकूल होती हैं। इस तरह संयुक्त प्रयास से किसानों को कम निवेश से अधिकतम लाभ अर्जित होता है। अगर आपदा के समय एक फसल नष्ट हो जाती है तो बाकी दूसरे साधनों से वह अपना जीवन-यापन कर सकता है।”
परिवर्तन की सफलता
इन्क्रिया गाँव के किसान रमेश चंद्र बताते हैं कि “दो साल पहले हमारे गाँव से लोगों ने पलायन करना शुरू कर दिया था। खेती और मछली पालन दोनों लगभग खत्म हो गये थे। सामाजिक कारणों में आस-पास के गाँव में कोई मजदूरी करना नहीं चाहता था इसलिए लोग पलायन कर रहे थे। दो साल पहले हमने अपने सामुदायिक तालाब को पुनर्जीवित किया। इसमें मछली पालन शुरू किया और आस-पास सब्जी की खेती की।” दो साल बाद जब उन्होंने मछली बेची तो 12 हजार रुपये की आय हुई। इस पैसे से उन्होंने सबसे पहले चक्रवात से बचने के लिये एक सामुदायिक आश्रय बनवाया। इसके साथ ही सब्जी बेचने के लिये अलग से शेड डलवाया ताकि सब्जियों के तैयार होने पर वहाँ बैठकर लोग सब्जी बेच सकें।
रमेश चंद्र कहते हैं कि “पहले मछली पालन हमारे लिये आय का दूसरा बड़ा स्रोत होता था। मछली पालन से हमने महसूस किया कि यह कृषि से ज्यादा फायदेमंद है। सामुदायिक तालाब के फायदे को देखकर चार और लोगों ने अपने निजी तालाब बनवा लिये।”
इसी तरह जूनापागरा गाँव के अशोक कुमार दास हैं। अशोक कुमार दास को 99 के चक्रवात में भारी नुकसान हुआ था। उनकी फसल और घर सब बर्बाद हो गये थे। उन्हें चालीस हजार रूपये का अनुदान दिया गया ताकि वो तालाब बना सकें। उन्होंने तालाब बनवाया और उसमें मछली पालन के साथ-साथ धान और सब्जियों की खेती भी शुरू की। अब वो संयुक्त रूप से सालाना 50 से 70 हजार रुपया कमा लेते हैं। उन्होंने अपने पुराने कच्चे घर की जगह पक्का घर बनवा लिया है जो चक्रवात में कच्चे घर के मुकाबले ज्यादा सुरक्षित है। वो कहते हैं “अब मैं ज्यादा सक्षम तरीके से चक्रवात से लड़ सकता हूँ।” अशोक कुमार दास का मॉडल इतना सफल रहा कि आस-पास के दो सौ से ज्यादा किसानों ने इसी मॉडल को अपना लिया है।