पाथर पानी और पक्का पगारा

Submitted by Hindi on Thu, 06/01/2017 - 13:54
Source
राइजिंग टू द काल, 2014

अनुवाद - संजय तिवारी
.जयपुर से करीब दो सौ किलोमीटर दूर करौली जिले का निवेरा गाँव। गाँव के ही किसान मूलचंद कंक्रीट के उस ढाँचे की तरफ इशारा करते हुए बताते हैं “इस पगारा ने मेरा जीवन बदल दिया है, हमेशा के लिये। पंद्रह साल पहले यहाँ एक कच्चा पगारा होता था। लेकिन तब हम उतनी फसल नहीं ले पाते थे जितनी अब ले लेते हैं। अब हम पहले के मुकाबले दो तीन गुना ज्यादा फसल लेते हैं।” मूलचंद मुस्कुराते हुए यह बताना नहीं भूले कि अब तो जब तक अनाज घर में न आ जाए हमें समय नहीं मिलता।

मूलचंद ने फसलोंं की रखवाली के लिये मचान भी बना रखा है ताकि रात में जंगली जानवरों से अपनी फसलोंं की रक्षा कर सकें। मूलचंद का परिवार परम्परागत रूप से खेती नहीं करता था। वो चरवाहे थे और खेतों से उतना ही नाता था जितना पशुओं के चारे के लिये जरूरी होता था या फिर थोड़ी बहुत खेती कर लेते थे। उस समय वहाँ एक कच्चा पगारा होता था। उस पगारा के बारे में मूलचंद ने बताया कि उनके दादा को भी नहीं पता था कि यह पगारा कब बनाया गया था। लेकिन उसी कच्चे पगारे के भरोसे वो सालाना दो टन गेहूँ पैदा कर लेते थे। परंतु जब से पक्का पगारा बन गया उनके गेहूँ की उपज सालाना सात टन हो गयी है।

राजस्थान पानी के लिहाज से सूखा प्रदेश है। 1901 से 2002 के सौ साल का आंकड़ा देखें तो राज्य में 48 बार सूखा पड़ चुका है। आंकड़े बताते हैं कि राजस्थान में सूखा जिले के अनुसार अलग-अलग जिले में अलग समय में पड़ते रहे हैं। करौली जिले के जिस गाँव में हम पगारा देख रहे थे उस गाँव में ही हर पाँच साल के अन्तराल पर एक बार सूखा पड़ता ही है। साल 2071-2100 के बीच अनुमान है कि राजस्थान के तापमान में 2 से 4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होगी। ऐसे में इस बात की संभावना बनती है कि उन रास्तोंं पर चलने की कोशिश की जाए जिससे तापमान में इस संभावित वृद्धि को टाला जा सके, अगर टाला न जा सके तो कम से कम इसके प्रभाव को कुछ कम किया जा सके।

तापमान वृद्धि का दुष्प्रभाव


मौसम में बदलाव जीवन के हर पहलू को प्रभावित करता है। जिस तरह के पूर्वानुमान आज लगाये जा रहे हैं उससे इस बात का अंदेशा बढ़ रहा है कि परिणाम विनाशकारी होंगे। एक तरफ आबादी में वृद्धि दूसरी तरफ अनाज की उपज में कमी होगी। जानवर पालना बहुत मुश्किल काम हो जाएगा क्योंकि जानवरों के लिये चारे की न तो जमीन बचेगी और न चारागाह। ऐसे में कृषि और कृषि पर निर्भर जन जीवन दोनों बुरी तरह प्रभावित होगा।

1999 से 2002 के बीच पड़े गंभीर सूखे के दौरान किये गये एक अध्ययन में यह बात उभरकर सामने आयी थी कि सूखे की सबसे भीषण मार जानवरों पर पड़ती है। सूखे के कारण गायों की संख्या में 29 प्रतिशत, बकरियों की संख्या में 47 प्रतिशत, भेड़ों की संख्या में 53 प्रतिशत और ऊँटों की संख्या में 36 प्रतिशत की कमी दर्ज की गयी। 1981 की तुलना में 2002 में राजस्थान में सूखा प्रभावित गाँवों की संख्या में भी वृद्धि हुई है और सूखा प्रभावित गाँवों की संख्या 23,246 से बढ़कर 41,000 हो गयी थी। सरकार द्वारा जारी किये जा रहे बजट में भी पाँच गुने की बढ़ोत्तरी दर्ज की गयी जो 108 करोड़ से बढ़कर 566 करोड़ हो गया था।

पगारा की पद्धति


बारिश का एक स्वभाविक परिणाम होता है माटी की कटान। पानी बहेगा तो अपने साथ माटी को भी बहाकर ले जाएगा। यहीं पर राजस्थान की वह सदियों पुरानी तकनीकि सबसे ज्यादा काम आती है जिसे पगारा कहते हैं। पगारा न सिर्फ पानी को रोकता है बल्कि माटी के कटान को भी रोक लेता है जिसके कारण उपजाऊ मिट्टी बहकर दूर नहीं जा पाती है। गौरव संस्था के कार्यकर्ता करण सिंह बताते हैं कि पगारा माटी और पानी दोनों को रोक लेता है।

फोटो साभार : जितेन्द्र/सीएसई करण सिंह की संस्था गौरव को यह सारा क्रेडिट जाता है कि उन्होंने परम्परागत पगारा पद्धति को पुनर्जीवित किया और उसमें समय के मुताबिक सुधार करके दोबारा से लोगों के बीच लोकप्रिय बनाया। करण सिंह की संस्था शुरुआत में सवाई माधोपुर में तालाब और झील बनाने का काम कर रही थी ताकि सूखा प्रभावित इलाकों में पानी की समस्या को दूर किया जा सके। लेकिन वो चाहते थे कि और भी कोई सटीक और परंपरागत पद्धति पर काम करें जोकि किताबी ज्ञान से ज्यादा प्रायोगिक विज्ञान पर आधारित हो। ऐसे ही वक्त में उन्होंने करोली जिले के ही खजूरा गाँव में उन्होंने कच्चा पगारा बनाते हुए लोगों को देखा। पगारा से वो बहुत प्रभावित हुए।

पगारा के कारण रुका हुआ पानी और मिट्टी अत्यंत उपजाऊ जमीन में तब्दील हो जाती है। इस जमीन पर खेती करने के लिये किसी प्रकार के फर्टिलाइजर की जरूरत नहीं रह जाती है। बिना किसी खाद के अच्छी फसल पैदा होती है जो किसी भी प्रकार से हानिकारिक केमिकल से मुक्त होती है। करण सिंह कहते हैं कि ऐसे में हमने सोचा कि अगर पक्का कंक्रीट का पगारा बना दिया जाए तो वह ज्यादा फायदेमंद और स्थाई होगा। लेकिन क्योंकि वो बाहरी थे इसलिये लोग उनके बताये रास्ते पर प्रयोग करने को जल्दी से तैयार नहीं थे। ऐसे में 2006 में जाकर चौबे गाँव के राम सिंह और श्रीपत गुर्जर आगे आये और उन्होंने नये तरह से पगारा बनाने के लिये गाँव वालोंं के साथ करण सिंह की मीटिंग कराने के लिये तैयार हो गये।

गाँव वालों से बैठक तय हुई तो उसमें एक से एक बातें निकलकर सामने आयी। गाँव के कुछ किसानों ने बताया कि कैसे इस इलाके में पगारा का इतिहास बहुत पुराना है। उन्होंने एक किस्सा बताया कि कोई तीन चार सौ साल पहले लोध समुदाय के लोग पगारा पद्धति का उपयोग करते थे।

जंगली इलाकों में आज भी पुराने पगारा के अवशेष मौजूद हैं। पत्थरों पर जो कलाकृतियाँ बनायी गयी हैं उन पर भी पगारा के चित्र उकेरे गये हैं। लेकिन मुश्किल ये है कि इन अवशेषों को कहीं सूचीबद्ध नहीं किया जा सका है।

इसलिये जब किसानों के साथ हमारी पहली बैठक हुई तब भी किसानों को इस बात पर भरोसा नहीं हो रहा था कि सीमेंट की पक्की चुनाई वाला पगारा कामयाब हो पायेगा। गाँव वालों ने साफ कहा कि हमें ग्राम गौरव के इस प्रस्ताव पर भरोसा नहीं है। अल्बाती गाँव के हलाकू पटेल कहते हैं “जब उन्होंंने हमें संपर्क किया तो हम सशंकित थे। हम अपनी रोजमर्रा की दिनचर्या में इतने व्यस्त थे कि हमें यह सब सोचने का मौका ही नहीं मिलता था। हमने अभाव को स्वीकार कर लिया था। हमें डर था कि कहीं जो थोड़ी बहुत पैदावार है, वह भी न खत्म हो जाए।”

हलाकू पटेल अपनी कहानी बताते हुए कहते हैं कि हमारा मुख्य जीवन चरवाहे का था। हम अपने जानवरों के साथ दक्षिण पश्चिम की तरफ चराने के लिये जाते थे। लेकिन अस्सी के दशक के आखिर तक जंगल कम होने लगे। अब जो जंगली जानवर थे वो जंगलों से निकलकर हमारे जानवरों पर हमला करने लगे थे। उन दिनों मारवाड़ के चरवाहे भी अपनी भेड़ बकरियों के साथ वहाँ आते थे। ऐसे में एक दिन हमारा उनके साथ झगड़ा हो गया। इसी के बाद हमने जीवन-यापन के लिये वैकल्पिक तरीकों के बारे में सोचना शुरू कर दिया। जब तक हम जानवरों पर निर्भर थे तब तक घी दूध के बदले में अनाज का प्रबंध हो जाता था लेकिन जब खेती किसानी की तरफ आये तो इतना खेत ही नहीं था कि सालभर जीवन-यापन हो पाता। दो एकड़ जमीन थी जिसमें मुश्किल से एक टन गेहूँ पैदा होता था। हालात ऐसे हो गये थे कि जानवरों को चारा मिलना भी मुश्किल हो गया था। बटाई वाली व्यवस्था भी लगभग खत्म हो गयी थी। इसलिये उस बैठक के बाद मैंने तय किया कि यह खतरा मैं उठाऊँगा और जैसा ये लोग कह रहे हैं वैसा ही पगारा बनवाऊँगा।” अब हलाकू पटेल मुस्कुराते हुए कहते हैं कि “मुझे खुशी है कि मैंने यह खतरा उठाया।”

पक्का पगारा बन जाने के बाद हलाकू पटेल के गेहूँ की पैदावार तीन गुना हो गयी। उसी साल अल्बाती गाँव के दो किसानों रामजी लाल और रामस्वरूप ने भी पक्का पगारा बनवाया था। ग्राम गौरव ने इसके बाद गाँव-गाँव जाकर पक्का पगारा बनाने का अभियान शुरू किया। पक्का पगारा के साथ-साथ पानी सहेजने के दूसरे तरीकों का भी इस्तेमाल शुरू किया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि करौली की पथरीली जमीन पर नये खेत तैयार होने लगे। अकेले निवेरा में 80 हेक्टेयर खेती की नयी जमीन तैयार हुई। फसलों को भी बार-बार पानी देने की जरूरत नहीं रही। एक बार पानी देने के बाद भी फसल अच्छी आती है। इसका कारण ये है कि अब करीब सालभर मौसम में नमी बनी रहती है।

संस्था और समाज का मिलन


पक्का पगारा बनाने के लिये यहाँ संस्था और समाज का मिलन हुआ। कुछ काम संस्था ने किया और कुछ काम समाज ने। संस्था दक्ष कारीगर और सीमेन्ट का खर्च उठाती तो समाज पत्थर, लेबर और बालू इत्यादि के खर्चे अपने ऊपर ले लेता। एक पक्का पगारा बनाने का औसत खर्च उस समय 80 हजार रूपये बैठता था। इसमें संस्था और समाज दोनों ने आधा-आधा भार वहन कर लिया। क्योंकि पगारा को हर साल देखभाल की जरूरत पड़ती है इसलिये देखभाल का यह जिम्मा समाज ने अपने ऊपर ले लिया है।

पक्का पगारा का प्रयोग पथरीली जमीन पर इतना सफल रहा कि आज आस-पास के कई जिलों में पक्का पगारा बन रहा है। ग्राम गौरव के पास पक्का पगारा बनाने के लिये इतनी जगहों से आमंत्रण आये कि जिसे वो पूरा नहीं कर सकते थे। सरकार का इस काम में कोई सीधा दखल तो नहीं था लेकिन अब मनरेगा के तहत स्थानीय पंचायत और समाज मिलकर ऐसी जगहों पर पक्का पगारा बना रहे हैं जो पथरीली हैं।