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राइजिंग टू द काल, 2014
अनुवाद - संजय तिवारी
कर्नाटक में शिमोगा जिले के सागर, शोरभा तालुका और उत्तर कन्नड़ा जिले के सिरसी तालुके के चालीस गाँव को वरदा नदी का विशेष वरदान प्राप्त है। वरदा नदी के कछार पर बसे ये गाँव हर साल बीस से चालीस दिन बाढ़ में डूबे रहते हैं। जाहिर है वरदा के इस वरदान का लाभ गाँव के किसानों को मिलता है। वो धान की खेती करते हैं। लेकिन धान की ये खेती कोई सामान्य किस्म से संभव नहीं है क्योंकि जहाँ इतने लंबे समय तक जल जमाव रहता है वहाँ धान की फसल खराब हो जाती है लेकिन इस इलाके को एक वरदान और है। वह वरदान है धान की एक खास किस्म जो सिर्फ यहीं पैदा होती है। नरगुली बट्टा। एक स्थानीय किसान देवेन्द्रप्पा बताते हैं कि “जब किसी भी धान की फसल में ज्यादा दिनों तक पानी जमा रहता है तो उसका तना नीचे से सड़ने लगता है लेकिन नरगुली बट्टा के साथ ऐसा नहीं होता। जल जमाव के बाद उसका पौधा ऊपर से खराब होना शुरू होता है। पहले पत्ते सड़ते हैं फिर तना। ऐसे में अगर बाढ़ उतरने तक नरगुली बट्टा के तने का एक भी हिस्सा सही सलामत रहता है तो धान की फसल दोबारा जीवित हो जाती है और किसान को अच्छी फसल देती है।”
63 साल के देवेन्द्रप्पा सागर तालुका के येलकुण्डी गाँव में रहते हैं। गहरे पानी में धान रोपने के उनके जुनून ने उन्हें स्थानीय लोगों का हीरो बना दिया है। देवेन्द्रप्पा बताते हैं “सरकार ने हमसे कहा कि हम गोबरा (गोबर की खाद) की जगह सुपर गोबरा (फर्टिलाइजर) का इस्तेमाल करें। ऐसा करने से फसल की पैदावार बढ़ेगी। हमने ऐसा ही किया। लेकिन जब बाढ़ आयी तो सुपर गोबरा की जो भी फसल थी वह बर्बाद हो गयी जबकि गोबरा वाली फसल बची रही। इसके बाद हमने अपनी परम्परा की तरफ देखा और परम्परा में जिस प्रजाति की खेती होती थी उसी की खेती करना शुरू किया।” इसका परिणाम यह हुआ कि आज किसान परम्परागत फसलों की खेती करने से फसल भी अच्छी पाते हैं और ज्यादा लाभ कमाते हैं। जिन किसानों ने अधिक पैदावार की लालच में हाइब्रिड फसलें लगाई थीं वो भी अब परम्परागत धान की तरफ दोबारा लौट रहे हैं।
सहज समृद्धि नामक एक गैर सरकारी संस्था स्थानीय किसानों के साथ मिलकर किसानों की समृद्धि का उपाय कर रही है। सहज समृद्धि अब तक धान के 13 ऐसे प्रकारों की खोज कर चुकी है जो गहरे पानी में भी उगाये जाते रहे हैं। सहज समृद्धि की योजना है कि वह धान के ऐसे और भी प्रकार खोजेगी और उन्हें सूचीबद्ध करेगी ताकि स्थानीय लोग उन किस्मों को फिर से उगाना शुरू कर दें। धान की इन किस्मों का इतना फायदा होने के बाद भी इन किस्मों पर बहुत कम शोध हुआ है। सरकार ने बिना समझे बूझे सिर्फ इन किस्मों को बदलने का ही काम किया है। धारवाड़ कृषि विश्वविद्यालय के वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक टी सुधीन्द्र कुछ समय सिरसी में रह चुके हैं। वे यहाँ धान की इन किस्मों का अध्ययन करने आये थे। वे कहते हैं कि अधिक उत्पादन देनेवाली चावल की किस्मों के साथ इन स्थानीय किस्मों का हाइब्रिड बीज तैयार करने की कोशिश की जा रही है। वो भी यह बात स्वीकार करते हैं कि परम्परात धान की किस्मों में बहुत खासियत है। वे कहते हैं कि धान की इन फसलों की पैदावार भले ही कम हो लेकिन जब सवाल बाढ़ से टकराने का आता है तो धान की ये किस्में बेजोड़ साबित होती हैं।
सहज समृद्धि के निदेशक जी कृष्ण प्रसाद कहते हैं कि इस इलाके में अधिक उत्पादन देनेवाले सुवर्ण किस्म के कई हाइब्रिड बीज कई बार पेश किये गये लेकिन परिणाम अच्छे नहीं आये। यूपी और बंगाल के बाढ़ क्षेत्रों में इस सुवर्ण किस्म का ट्रायल किया गया लेकिन यहाँ वैसा कोई बड़े स्तर पर ट्रायल नहीं किया गया क्योंकि किसानों ने नया बीज बोने से ही मना कर दिया।” किसान भी इस बात से सहमत नजर आते हैं। देवेन्द्रप्पा कहते हैं “दशकों से कोशिश की जा रही है। एक बार मेरे गाँव में एक व्यक्ति ने ठेके पर जमीन लेकर उन्नत किस्म का पौधा रोपण किया था लेकिन उसकी पूरी फसल ही चौपट हो गयी।” जेनेटिकली मोडिफाइड सुवर्ण किस्म के धान पर अमेरिकी राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट का एकाधिकार है और वह कोशिश कर रही है कि दक्षिण एशियाई देशों में इस किस्म की रोपाई शुरू की जाए।
धान और किसान के सामने संकट
बाढ़ न तो धान के लिये संकट है और न ही किसान के लिये। धान और किसान के सामने संकट है नये धान की किस्म जिसे यह कहकर प्रचारित किया जा रहा है कि बाढ़ वाले क्षेत्र में यह अच्छी पैदावार देगा। कर्नाटक के किसानों की अपनी परम्परा है और उस परम्परा में उन्होंने सदियों में यह टेस्ट किया है कि उनके खेतोंं में धान की कौन सी फसल जिन्दा रह सकती है। बाढ़ सुखाड़ भी परम्परागत खेती ने उन्हें जीवित रखा है लेकिन अब इंटरनेशनल राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट गहरे पानी में धान की नयी किस्म ‘सब1’ को बढ़ावा देने में लगा है। यही यहाँ के किसानों के सामने सबसे बड़ा संकट है कि प्रगति के नाम पर उन्हें बर्बाद करने की साजिश रची जा रही है। उनके पास धान की ऐसी किस्म है जो बाढ़ में भी कभी उनका साथ नहीं छोड़ता और वो अच्छी फसल ले लेते हैं लेकिन अगर कम्पनियाँ इसी तरह दबाव बनाती रहीं तो किसान शायद अपनी परम्परा को बचाकर नहीं रख पायेंगे।
धान और किसान के सामने एक और बड़ा संकट है जल परियोजनाओं का विकास। 2001 में बेथी वरदा नदी लिंक तैयार करने का प्रस्ताव सामने आया था जिसका किसानों ने बहुत विरोध किया। उस विरोध के कारण यह नदी परियोजना सिरे तो नहीं चढ़ी लेकिन अब वरदा नदी पर फिर से एक सिंचाई योजना लाने की कोशिश की जा रही है। किसान इस योजना का भी विरोध कर रहे हैं। किसानों का कहना है कि इस इलाके को एग्रो बायोडाइवर्सिटी संरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया जाए। ऐसा हो जाने पर स्थानीय लोगों को अपनी विरासत बचाने का कानूनी अधिकार हासिल हो जाएगा। कर्नाटक बायोडाइवर्सिटी बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष अनंत हेगड़े कहते हैं कि “इसके लिये प्रस्ताव तैयार किया जा चुका है। और बोर्ड इस इलाके को संरक्षित क्षेत्र घोषित करने के लिये तैयार है।” धारवाड़ विश्वविद्यालय भी इस सम्बंध में एक रिपोर्ट तैयार कर रहा है।
जलवायु परिवर्तन के आंकड़े देखें तो उत्तर कर्नाटक में बारिश में वृद्धि हो रही है। 1901 से 2008 के आंकड़े बताते हैं कि साल भर में अलग अलग मानसून सीजन में इस इलाके की बारिश में 10 से 50 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई है। इसके कारण वरदा नदी के इलाके में बाढ़ की स्थिति पहले से नाजुक हुई है। अब उतने लंबे समय तक बाढ़ का पानी तो नहीं जमा रहता लेकिन पानी की मात्रा बढ़ गयी है। इसके कारण जंगलों में कमी आ रही है और बाढ़ का दायरा बढ़ रहा है। देवेन्द्रप्पा बताते हैं कि पहले जहाँ बाढ़ का पानी नहीं चढ़ता था, अब वहाँ भी बाढ़ का पानी चढ़ जाता है। इसके कारण भी किसान गहरे पानी में पैदा होनेवाले धान की किस्म के प्रति आकर्षित हो रहे हैं। “देवेन्द्रप्पा बताते हैं कि खुद उनकी जमीन पर अब वे गहरे पानी में पैदा होनेवाले धान की खेती बढ़ा रहे हैं क्योंकि अब बाढ़ का दायरा बढ़ गया है जिसमें सामान्य धान की किस्में जिन्दा नहीं रह पाती हैं।”
बनवासी गाँव के निवासी हलप्पा केरुडी की भी कुछ ऐसी ही कहानी है। वे कहते हैं कि पहले गाँव में 613 एकड़ खेत पर बाढ़ वाले धान की खेती की जाती थी। अब यह रकबा बढ़ गया है क्योंकि बाढ़ का दायरा बढ़ता जा रहा है। वे बताते हैं कि एक बार में लंबे समय की बाढ़ आने के बजाय अब किसी-किसी साल दो बाढ़ छोटे-छोटे समय के लिये आती है। इसके कारण गहरे पानी में पैदा होनेवाले धान की किस्मों की मांग बढ़ गयी है क्योंकि यह बाढ़ के पानी में जिन्दा रहने की क्षमता रखता है। बनवासी के सरपंच एस एल गणेश बताते हैं कि “बाढ़ वाले धान की किस्मों की मांग बढ़ रही है। लगातार दूसरी किस्मों में हो रहे नुकसान के कारण आस-पास के इलाकों में धान की बाढ़ वाली किस्मों की मांग बढ़ती जा रही है।”
स्थानीय ग्रामीणों का कहना है कि अनियमित बारिश के कारण फसलों पर कीटों का हमला भी बढ़ रहा है लेकिन एक बार फिर स्थानीय किस्में ही इससे लड़ने में सक्षम साबित हो रही हैं। हलप्पा केरुडी बताते हैं कि इन कीटों के कारण कुछ फसल का नुकसान तो परंपरागत किस्मों का भी होता है लेकिन नयी किस्मों की तो पूरी की पूरी फसल ही चौपट हो जाती है।
उन्नत किस्म उन्नत फायदे
यहाँ यह बात भी ध्यान देने लायक है कि धान की जो परम्परागत किस्में हैं उनकी पैदावार कम है और वो पकने में भी ज्यादा समय लेती हैं लेकिन इसके बावजूद भी वो स्थानीय पर्यावरण के बिल्कुल अनुकूल हैं। बाढ़ में पैदा होनेवाली स्थानीय धान की किस्में एक एकड़ पर औसत 1.5 से 1.8 टन की पैदावार देती हैं जो कि राज्य की औसत धान की पैदावार 2.5 से 4 टन से कम है। लेकिन बाढ़ के पानी में उनके जिन्दा रहने की क्षमता उनको इस इलाके में असाधारण किस्म बना देती है। धान की नेरगुली, कारी बट्टा और कारी जेद्दू किस्मों की स्थानीय इलाकों में भारी मांग है। ये खाने में स्वादिष्ट और पौष्टिक हैं। मसलन नेरगुली लाल चावल होता है और सुगंधित भी। इसलिये इसकी गोवा और केरल में भारी मांग रहती है। इसी तरह कारी बट्टा चावल औषधीय इस्तेमाल में आता है।
वरदा नदी घाटी के येलकुण्डी इलाके में जहाँ बाढ़ का पानी 30 से 35 दिन तक जमा रहता है वहाँ किसान नेरगुली, कारी बट्टा और नेती बट्टा किस्मों का उत्पादन करते हैं। देवेन्द्रप्पा बताते हैं कि ऐसे इलाकों में हम नरगुली धान की फसल लगाते हैं जो कि 45 दिन तक बाढ़ के पानी में जीवित रहने की क्षमता रखता है। इस किस्म की उत्पादन तो कम है लेकिन जहाँ धान की कोई दूसरी फसल पैदा ही नहीं हो सकती वहाँ इसे पैदा करने में क्या हर्ज है? इसी तरह जहाँ बाढ़ का पानी 20 दिन के आस-पास रहता है वहाँ किसान कारी बट्टा की खेती करते हैं। बाढ़ का पानी उतर जाने के बाद भी इस फसल को पानी की जरूरत नहीं रहती है। लेकिन अगर ऐसा लगता है कि इस साल बाढ़ का पानी ज्यादा समय रुकेगा और बारिश भी लगातार होती रहती है तो हम नेति बट्टा धान की किस्म लगाते हैं। यह देर से पैदा किये जाने वाला किस्म है और बारिश बाढ़ के बाद भी अच्छी फसल देकर जाता है। जहाँ बाढ़ का प्रभाव कम है वहाँ पर दूसरी धान की किस्मों की खेती की जाती हैं जिसमें प्रमुख हैं रत्नाचुड़ी, डोबली बट्टा और येदिकुनी। ये किस्में पंद्रह दिन के बाढ़ को झेल सकती हैं। खेत की उर्वरा शक्ति को बनाये रखने के लिये धान की फसल तैयार हो जाने के बाद इन खेतों में किसान फलियों की खेती करते हैं। इससे जमीन की उर्वरा शक्ति बनी रहती है और फर्टिलाइजर का प्रभाव कम हो जाता है ताकि अगले सीजन में फिर से धान की अच्छी फसल ली जा सके।
धान की इन स्थानीय किस्मों के फायदे को देखते हुए अब किसान खुद इनका संरक्षण करने में जुट गये हैं। जी कृष्ण प्रसाद कहते हैं कि धान की इन किस्मों के प्रति एक बेहतर नजरिया परिस्थितियों को बदल सकता है। जी कृष्ण प्रसाद कहते हैं कि “उड़ीसा में धान की ऐसी किस्में हैं जो बाढ़ के पानी से भी ऊपर जाकर जिन्दा रहती हैं लेकिन जैसे ही पानी उतरता है फसल गिर जाती है। नरगुली की किस्म इस मामले में अनोखी है। यह पानी में डूब जाने के बाद भी नष्ट नहीं होती और पानी उतरने के बाद पूरा फसल देती है। यही इसकी खासियत है।” इसलिये सहज समृद्धि के साथ मिलकर स्थानीय किसान खुद ही बीज बैंक बना रहे हैं और इन किस्मों का संरक्षण कर रहे हैं।
देवेन्द्रप्पा ने अपने दादा से जो कुछ सीखा था, वह अपनी आने वाली पीढ़ी को सिखा रहे हैं कि कैसे बीजों का संरक्षण और संवर्धन किया जाता है। वो कहते हैं अच्छी खेती के लिये अच्छे बीज का होना जरूरी है। इसी से इन दुर्लभ किस्मों को बचाया जा सकता है। सहज समृद्धि इन किसानों की हर तरह से मदद कर रहा है। न सिर्फ खेती करने में बल्कि फसल की खरीदारी भी वह बाजार से ऊँची कीमत देकर करता है ताकि ज्यादा से ज्यादा किसान इस परम्परागत धान की खेती करें। बाजार में जहाँ धान 18-19 रुपये किलो खरीदा जाता है वहीं सहज समृद्धि किसानों से उनका यह धान 35 रुपये किलो में खरीदता है। यह सब प्रयास इसलिये किया जा रहा है कि गहरे पानी में पैदा होने वाले धान की इन किस्मों को बचाया और बढ़ाया जा सके।