जलवायु परिवर्तन खेती के लिए बड़ी चुनौती

Submitted by Editorial Team on Wed, 07/10/2019 - 10:52
Source
गांव कनेक्शन, 07-13 जुलाई 2019

जलवायु परिवर्तन से फसलों पर प्रभाव पड़ रहा है। जलवायु परिवर्तन से फसलों पर प्रभाव पड़ रहा है।

फसल उत्पादन के फेल होने, फसल की उत्पादकता कम होने, खड़ी फसलों का नुकसान होना, नये फसली कीटों और बदलते खेती के तरीके की वजह से खेती में नुकसान उठाना पड़ता है। महाराष्ट्र, जो हाल-फिलहाल फिलहाल भयंकर सूखे से गुजर रहा है। किसान बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन कृषि के लिए सबसे बड़ा खतरा है। जलवायु परिवर्तन से मतलब है कि जलवायु की अवस्था में काफी समय के लिए बदलाव। जलवायु परिवर्तन प्राकृतिक आंतरिक बदलावों या बाहरी कारणों जैसे ज्वालामुखियों में बदलाव या इंसानों की वजह से जलवायु में होने वाले बदलावों से माना जाता है।

जलवायु परिवर्तन मनुष्य की ओर से

संयुक्त राष्ट्र ने जलवायु परिवर्तन पर हाल में बड़े स्तर पर एक सम्मेलन का आयोजन किया था। सम्मेलन का विषय था जलवायु परिवर्तन मनुष्य की ओर से। इसमें जलवायु परिवर्तन के प्राकृतिक कारणों में अंतर बताने की कोशिश की है। इस सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन को इस तरह से परिभाषित किया गया कि जलवायु परिवर्तन सीधे-सीधे मानव जनित कारणों पर निर्भर रहता है। पूरे वातावरण पर प्रभाव पड़ता है। भारत में ग्रामीण क्षेत्रों के किसान ‘संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलन’ की वैज्ञानिक शब्दावली नहीं समझते हैं।  वह सबसे पहले जलवायु परिवर्तन से दो-चार होते हैं। जलवायु सीधे तौर पर उनके जीवनयापन और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा पर प्रभाव डालता है।

इस साल दक्षिण-पश्चिम मानसून की शुरुआत भी देरी से हुई है। इससे किसान भी परेशान हैं। सामान्य मानसून के बावजूद देश के कई राज्य सूखे का सामना कर सकते हैं। नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, बारिश की अनियमितता और नहरों की सिंचाइ्र पर विश्वास नहीं किया जा सकता है। कई किसानों ने भूजल का अत्याधिक दुरूपयोग करना शुरू कर दिया है। वर्ष 1950-51 से लेकर 2012-13 के बीच शुद्ध सिंचित क्षेत्र में नहर की हिस्सेदारी 39.8 प्रतिशत से घटकर 23.6 प्रतिशत हो गई है, जबकि भूजल स्रोत 28.7 प्रतिशत से बढ़कर 62.4 प्रतिशत हो गई है।

पश्चिम सिक्किम जिले के हीपटेल गांव के इलायची के किसान तिल बहादुर छेत्री बताते हैं, ‘जब मैं नौजवान था और अब 92 साल के होने के बाद तक यहां की जलवायु में काफी तरह के बदलाव आए हैं। सर्दी के मौसम में गर्मी और सूखा होने लगा है। मानसून के सीजन में भी गिरावट दिखने लगी है’। कई फलों के पेड़ जंगल से गायब हो चुके हैं। नए-नए कीट फसलों पर हमला कर रहे हैं। इन पेस्ट्स की वजह से छेत्री बताते हैं कि उनकी खुद की पूरी फसल भी कीटों वजह से खराब हो गई। इंटरगोवमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेंट चेंज की क्लाइमेंट चेंज 2014  की रिपोर्ट में विस्तार से फसलों पर जलवायु परिवर्तन से पड़ने वाले प्रभाव को दिखाया गया है।

गेहूं और मक्के की उत्पादकता पर भी प्रभाव

वर्ष 2014 की इस रिपोर्ट में गेहूं और मक्के की खेती पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों सहित भारत के अन्य क्षेत्रों में भी जलवायु परिवर्तन से पड़ने वाले प्रभावों की बात कही गई है। उष्णकटिबंधीय और और अधिक तापमानी क्षेत्रों में 30वीं सदी के बाद तापमान में दो डिग्री सेल्सियस के इजाफा से नकारात्मक प्रभाव पड़ने की संभावना है। इससे गेहूं और मक्के की उत्पादकता पर भी प्रभाव पड़ेगा। इंटरनेशनल क्राप रिसर्च इंस्टीट्यूट के रिसर्च स्कॉलर ओम प्रकाश घिमिरे कहते हैं, बढ़ते तापमान की वजह से चावल और गेहूं के उत्पादन पर तगड़ा प्रभाव पड़ता है। जैसे-जैसे तापमान में इजाफा होगा। वैश्विक स्तर पर चावल और गेहूं के उत्पादन में भी करीब 6 से 10 प्रतिशत की गिरावट होने की संभावना है’।

दिन में बढ़े हुए तापमान के मुकाबले रात में बढ़े हुए तापमान से चावल के उत्पादन पर ज्यादा प्रभाव पड़ता है। बड़े हुए तापमान के कारण खड़ी फसलों में कीड़े और बीमारी लगने की संभावना ज्यादा पाई जाती है। इन कीटों से भारी मात्रा में फसलों का नुकसान होता है। रिपोर्ट में यह भी बात निकलकर सामने आई कि तापमान में इजाफे से अनाज की गुणवत्ता में कमी आती है। महाराष्ट्र के खड़ेविलेज के मनोज लक्ष्मणराव पाटिल कहते हैं कि हर मौसम में हम अपनी फसलों को खो देते हैं, उत्पादकता में गिरावट आती है। जलवायु परिवर्तन पर खेती में सरकारी प्रयोग शायद ही कभी जरूरतमंद किसानों तक पहुंचते हैं। लगभग हर साल फसल उत्पादकता में गिरावट आती है। पाटिल ने बताया, पिछले साल फरवरी में ओलावृष्टि ने मेरी खड़ी रबी फसल को बर्बाद कर दिया था। फिर खरीफ की कपास की फसल गुलाबी बालवार्म कीट ने खराब कर दी। सूखे की वजह से मैं इस साल की शुरुआत में रबी की फसल नहीं कर पाया और अब तक खरीफ की फसल की बुवाई नहीं की है क्योंकि मानसून आने में देरी हो रही है’।

देश की अर्थव्यवस्था पर प्रभाव

वर्ष 2018 में हुए आईएमडी के अध्ययनकर्ता चेतावनी देते हैं कि भारतीय क्षेत्र में जलवायु में परिवर्तन, विशेष रूप से दक्षिण पश्चिमी मानसून के दौरान, कृषि उत्पादन, जल संसाधन प्रबंधन और देश की अर्थव्यवस्था पर भी महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा। कृषि क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न चुनौतियों का सामना करने के लिए, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने 2010-11 में जलवायु परिवर्तन कुषि पर एक राष्ट्रीय परियोजना की शुरुआत की। इस परियोजना का उद्देश्य सुधार प्रबंधन तकनीकों के विकास और प्रयोगों से जलवायु परिवर्तन के लिए फसलों, पशुधन और मत्स्य पालन के उत्पादन को बढ़ाना है। इसके साथ ही इसका उद्देश्य कृषि में जोखिम उठाने की क्षमता को भी आगे बढ़ाने की है। सूखा, गर्मी और बाढ़ से बचाने वाली फसलों की किस्मों को बढ़ावा देना। मृदा स्वास्थ्य में सुधार, पानी की बचत की तकनीकों को अपनाना, मौसम संबंधी कृषि-सेवाएं को सेवाओं को 100 जिलों के एक-एक पंचायत में से प्रभावी रूप से लागू करने की सरकार की कोशिश है।

बढ़ती गर्मी और बारिश का बदलता पैटर्न

वर्ष 2013 में भारतीय मानसून विभाग ने भारत में राज्य स्तरीय जलवायु परिवर्तन नाम से एक मोनोग्राफ निकाला था। इसमें जलवायु परिवर्तन मद्देनजर 1951 से लेकर 2010 तक के मानसून विभाग के डेटा और साल भर में बदलते तापमान और बारिश के ट्रेंड का विश्लेषण किया गया था। मोनोग्राफ के अनुसार राज्य स्तर पर साल भर में औसतन अधिकतम तापमान आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, सिक्किम और तमिलनाडु में लगातार बढ़ता हुआ दिखा। वार्षिक औसतन तापमान में सबसे ज्यादा इजाफा हिमाचल प्रदेश में दर्ज किया गया। हिमाचल प्रदेश के तापमान में 0.06 डिग्री की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई। वहीं गोवा में 0.04 डिग्री के साथ दूसरे स्थान पर हैं। इसके साथ ही मणिपुर, मिजोरम और तमिलनाडु में 0.03 डिग्री के तापमान में इजाफा दर्ज किया गया है।

साल भर में होने वाली और औसतन बारिश में भी कमी दर्ज की गई है। छत्तीसगढ, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, सिक्किम और उत्तर प्रदेश में आईएमडी की रिपोर्ट के अनुसार साल भर में होने वाली बारिश में कमी दर्ज की गई। सबसे ज्यादा बारिश में कमी मेघालय और अंडमान-निकोबार में दर्ज की गई है। वर्ष 1951 से 2010 के बीच उत्तर प्रदेश में साल भर में होने वाली बारिश में 4.42 डिग्री की कमी रिकार्ड की गई। पिछले साल आईएमडी के वैज्ञानिकों की मासिक नामक पत्रिका में छपी रिपोर्ट में 1901 से 2013 के बीच होने वाली वार्षिक सीजनल बारिश का विभिन्न जिलों में विश्लेषण और मौसम संबंधी उप विभाजन का भी विश्लेषण किया था। वर्ष 1961 से लेकर 2013 में होने वाले वार्षिक बारिश के ट्रेंड का भी विश्लेषण किया गया था। वर्ष भर में होने वाली बारिश के ट्रेंड का विश्लेषण करने पर शोधकर्ता पाते हैं कि 1961 से 2013 के बीच 64 जिलों में साल भर में औसतन बारिश में इजाफा दर्ज किया गया। वहीं 85 जिलों में साल भर साल भर में होने वाली बारिश में कमी दर्ज की गई। वर्ष 2018 में हुए अध्ययन के अनुसार उत्तर प्रदेश के सबसे ज्यादा जिलों में साल भर में होने वाली बारिश में कमी आई है। आगरा, फिरोजाबाद, गोरखपुर, कानपुर, मथुरा उन्नाव में सबसे कम बारिश हुई इै।

जलवायु परिवर्तन कृषि के लिए सबसे बड़ा खतरा है। जलवायु परिवर्तन कृषि के लिए सबसे बड़ा खतरा है।

महाराष्ट्र के खड़ेविलेज के मनोज लक्ष्मणराव कहते हैं, ‘लगता है भगवान हमसे नाराज है। अब बारिश समय पर नहीं आती है, जब बारिश होती है तो इतनी भयानक होती है कि फसल से लेकर जमीन की पहली परत को बर्बाद कर देती है। हर साल में बेमौसम तूफान खड़ी रबी की फसल को बर्बाद कर देता है।’ बारिश के बदलते पैटर्न और एक्सट्रीम वेदर की बढ़ती घटनाएं एक देश के लिए बड़ी चिंता है जिस देश क पानी और अनाज की सुरक्षा खतरे में है। भारत के लगभग 61 प्रतिश वर्षा आधारित कृषि पर निर्भर हैं। 52 प्रतिशत हिस्सा असिंचित और वर्षा आधारित है। साथ ही भारत वर्षा आधारित खेती में विश्व में पहले स्थान पर है। उपज और मूल्य में भी भारत पहले नंबर पर है। नीति आयोग में दर्ज आंकड़ों के अनुसार जितना दाल, तिलहन और काॅटन पूरे देश में उत्पादित होता है। उसमें से 80 प्रतिशत दाल, 73 प्रतिशत तिलहन और 80 प्रतिशत काॅटल की फसल वर्षा पर आधारित है।

रविंदर सिंह जामवाल जम्मू के सूखाग्रस्त इलाके गांव को कांडी कहते हैं। वहां की खरीफ और रबी की फसल पूरी तरह से बारिश पर निर्भर है। उन्होंने कहा कि इससे पहले ठंड के मौसम में बारिश दिसंबर से शुरू हो जाती थी। दो-तीन दिन लगातार हल्की बारिश होती थी। जिसे वहां की स्थानीय भाषा में झारी बोलते थे। अब वैसी बारिश बहुत कम देखने को मिलती है। यह रबी के फसलों पर सीधे तौर पर प्रभाव डालती है। अरविंद सिंह जो वरिष्ठ वैज्ञानिक हैं और ऑल इंडिया रिसर्च प्रोजेक्ट साइंस के काॅर्डिनेटर। वे कहते हैं, जम्मू के सूखाग्रस्त किसान सबसे पहले अनियमित बारिश से दो-चार होते हैं। वहां के ज्यादातर किसानों के पास इस जलवायु परिवर्तन और उससे कृषि पर पड़ने वाले प्रभाव से निपटने का कोई तरीका नहीं है।

तापमान का असर

सही तापमान और अनियमित बारिश पर इंटरनेशनल क्राॅप रिसर्च इंस्ट्टीयूट के रिसर्च स्काॅलर ओम प्रकाश घिमिरे कहते हैं, ‘अनियमित बारिश से बंजर जमीन और सिंचित भूमि के इतर वर्षा आधारित भूमि पर ज्यादा प्रभाव पड़ता है। बीज बोने के मौसम के शुरुआती चरण में बारिश से खेतों में बीज लगाने में देरी होती है। इससे कुल उत्पादित पौधों में कमी आती है। गेहूं में देर से बुवाई सीजन के दौरान फसलों में उच्च तापमान से पैदा होने वाले जोखिम को बढ़ावा दे सकती हैं। जिससे फसल में भी तापमान का तनाव पैदा होगा। इससे गेहूं का उत्पादन भी प्रभावित होगा।’

गेहूं की देरी से बुवाई देर से सीजन के दौरान उच्च तापमान के जोखिम को जन्म दे सकती है, जिससे फसल में तापमान का तनाव होता है। आर्थिक सर्वेक्षण 2018 में देश में खरीफ और रबी की फसल के मौसम में औसत तापमान और औसत वर्षा में बदलाव दर्ज किया गया था। यह दिखाता है कि 1970 और अंतिम दशक के बीच खरीफ वर्षा में औसतन 26 मिलीमीटर और रबी में 33 मिलीमीटर की गिरावट आई थी। इस दौरान औसत वर्षा में लगभग 86 मिलीमीटर की गिरावट आई थी। इसी अवधि के दौरान, 0.45 डिग्री सेल्सियस और 0.63 डिग्री सेल्सियस का इजाफा हुआ था। घिमिरे ने चेतावनी देते हुए कहा, ‘अलियमित बारिश और उच्च तापमान से चावल और गेहूं की उपज को 80 प्रतिशत तक कर सकता है।’ 

नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, अनाज दाल, खाद्य तेल, सब्जियों और फलों की वार्षिक मांग में 1.3 प्रतिशत, 3 प्रतिशत, 3.5 प्रतिशत, 3.3 प्रतिशत और 5 प्रतिशत का इजाफा हो रहा है। जलवायु परिवर्तन विशेषज्ञों के अनुसार पहले से ही 43 प्रतिशत देश सूखे का सामना कर रहा है और इस साल दक्षिण-पश्चिम मानसून की शुरुआत भी देरी से हुई है। इससे किसान भी परेशान हैं। सामान्य मानसून के बावजूद देश के कई राज्य सूखे का सामना कर सकते हैं। नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, बारिश की अनियमितता और नहरों की सिंचाइ्र पर विश्वास नहीं किया जा सकता है। कई किसानों ने भूजल का अत्याधिक दुरूपयोग करना शुरू कर दिया है। वर्ष 1950-51 से लेकर 2012-13 के बीच शुद्ध सिंचित क्षेत्र में नहर की हिस्सेदारी 39.8 प्रतिशत से घटकर 23.6 प्रतिशत हो गई है, जबकि भूजल स्रोत 28.7 प्रतिशत से बढ़कर 62.4 प्रतिशत हो गई है।

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