हमारी भारतीय संस्कृति में अन्य प्राकृतिक उपादानों की तरह नदियों का भी अपना एक अलग विशेष महत्व है। वेद पुराणों में नदियों की यशोगाथा विद्यमान है। नदियाँ हमारे लिए प्राणदायिनी माँ की तरह हैं। नदियों के साथ हमारे सदैव से भावनात्मक संबंध रहे हैं औऱ हमने नत-मस्तक होकर उनके प्रति अपनी श्रद्धा व आस्था प्रकट की है। नदियाँ केवल जल-प्रदायिनी एवं मोक्षदायिनी ही नहीं हैं, बल्कि संस्कारदायिनी भी हैं। नदियाँ विश्व की माताओं की तरह हैं। जिस तरह शिशु माँ के सान्निध्य में अँगुली पकड़कर चलना सीखता है। उसी तरह नदियों के बहते जल का वेग हमें जीवन के हर मोड़ पर गतिशील बने रहने का संदेश देता है। माँ के ममत्व से जिस तरह बच्चे तृप्त होते हैं, उसी तरह पावन नदियों का जल ग्रहण कर हम अपनी तृषा की तृप्ति करते हैं। जिस तरह माँ के गोद में बच्चे स्वयं को सुरक्षित व संरक्षित महसूस करते हैं, उसी तरह नदियों के सान्निध्य में हम अपनी सभ्यता व संस्कृति को भी सुरक्षित व संरक्षित बनाए रखने में समर्थ होते हैं। देव-संस्कृति, मानवीय संस्कृति, सृष्टि विकास की संस्कृति एवं लोक संस्कृति भी नदियों के कछारों, तटों एवं सौंधी-सौंधी माटी के बीच ही प्रस्फुटित और विकसित हुई है। संसार की नदियाँ माता तुल्य हैं, इस संबंध में महाभारत के भीष्म पर्व (9/37/8) का यह श्लोक दृष्टव्य है- ‘विश्वस्य मातर सर्वा सर्वाश्चैव महाफलाः’।
महानदी
यदि हम वर्तमान छत्तीसगढ़ एवं पूर्व के दक्षिण कोसल पर दृष्टि डालें तो हमें ज्ञात होता है कि छत्तीसगढ़ नदियों की जल-सम्पदा से परिपूर्ण है और यहाँ छत्तीसगढ़ की गंगा कही जाने वाली महानदी, बस्तर की भाग्य-विधात्री इन्द्रावती, सदानीरा शिवनाथ, सोन, खारून, रेण, अरपा, पैरी, जौंक, हसदो, माड़, ईव, कैलो, शबरी, नारंगी, शंखिनी, डंकनी, कोतरी, संकरी, मनियारी, मदंगा, नर्मदा, गोदावरी आदि अनेक ऐसी नदियाँ हैं, जो छत्तीसगढ़ की भूमि को उर्वरा बनाकर कृषि-संस्कृति को परिपुष्ट बनाती हैं। इन नदियों से संबंधित अनेक जल-प्रपात एवं बाँध छत्तीसगढ़ के धान के कटोरे को सदा सींचते रहते हैं, और छत्तीसगढ़ को विद्युत भी प्रदान करते हैं। छत्तीसगढ़ की महानदी भारत की महान नदियों में से एक है औऱ इसका अपना एक अलग पौराणिक, आध्यात्मिक, व्यापारिक आर्थिक एवं सांस्कृतिक इतिहास है। महानदी के उद्गम के संबंध में कतिपय पौराणिक आख्यान व जन-श्रुतियाँ भी प्रचलन में हैं। महानदी का उल्लेख महाभारत के भीष्म पर्व 9/34, मार्कण्डेय पुराण 57/22, वामन पुराण 13/26, पद्म पुराण 83/48 में उपलब्ध होता है।
महानदी को पहले चित्रोत्पला गंगा कहा जाता था। इसके अलावा वायु पुराण में इसे ‘नीलोत्पला’ भी कहा गया है। पौराणिक ग्रन्थों में नर्मदा, सोन और महानदी का ऋक्ष पर्वत से उद्गम होना उल्लेखित है, किन्तु जब हम सिंहावा पर्वत श्रेणियों पर दृष्टि दौड़ाते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि महानदी का उद्गम स्थल सिंहावा पर्वत श्रेणियों से 21-15 उत्तरी अक्षांश तथा 81-59 पूर्व देशान्तर में समुद्र सतह से 434 मीटर ऊपर स्थित है। महानदी की लम्बाई 965.5 किमी. है। सिंहावा की ऊँची पर्वत श्रेणियाँ 1500 से 2230 फीट तक मिलती हैं। यह भारत की एक मात्र ऐसी नदी है, जिसे महानदी नाम से संबोधित किया गया है। यह नदी अपने उद्गम स्थल से विशाल रूप में प्रवाहित होती है। कहा जाता है कि इस नदी के उद्गम स्थल में अथाह जल-कोष था और यहां के जल-मार्ग से नौकायें आया-जाया करती थीं। महानदी सिंहावा पर्वत से निकलकर काँकेर चरामा से पुनः उत्तर पूर्व की ओर बहती हुई रायपुर जिले के बलौदा बाजार की उत्तरी सीमा में पहुँचकर और यहाँ से पूर्वाभिमुख होकर रायपुर, बिलासपुर की सीमा का निर्माण करती हुई पद्मपुर के दक्षिण से होते हुए उड़ीसा राज्य में प्रवेश करती है और सम्बलपुर, सोनपुर और कटक होते हुए बंगाल की खाड़ी में समाहित हो जाती है।
महानदी का नाम पैरी संगम के बाद चित्रोत्पला होने का राजिम महात्म्य में स्पष्ट उल्लेख है। रिजर्ड जैकिन्स के अनुसार 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ में महानदी का नाम चित्रोत्पला अस्तित्व में था। कनिंघम के अनुसार महाभारतकालीन शासक चित्रवाहन या उसकी पुत्री चित्रोत्पलावती के नाम के आधार पर महानदी का नाम चित्रोत्पला पड़ गया। राजिम महात्म्य में यह भी उल्लेख मिलता है कि महानदी का पैरी अर्थात् प्रितोद्धारिणी के संगम के पूर्व का नाम उत्पलेश है और चित्रोत्पला उसके बाद का नाम है। डॉ. विष्णु सिंह ने अपने राजिम नामक ग्रन्थ में उल्लेख किया है कि सोमेश्वर देव वर्मन के महदा ताम्रपत्र में महानदी का नाम चित्रोत्पला अंकित है। ऐतिहासिक भूगोल के पृष्ठ 54 में अंकित है कि इस एक नदी की धारा दो भागों में विभाजित थी, जो भिन्न-भिन्न नामों से जानी जाती थी। पं. तुलसीप्रसाद शर्मा ने उल्लेख किया है कि गणेश घाट सिंहावा में भगवान का जलहरी चित्र अंकित है, जिसे भगवान श्रीराम ने स्वयं स्थापित किया था। इसके ऊपर पानी बहने से इसका नाम चित्रोत्पला पड़ा। गणेशघाट पर गणेश जी की मूर्ति होने के कारण इसे गणेशघाट कहा जाने लगा।
महानदी का उद्गम स्थल सिंहावा किसी समय ऋषि-मुनियों की तपश्चर्या का केंद्र था और इस पर्वत पर सप्त ऋषियों ने कठोर तप किया था। श्रृंगी ऋषि, अगस्त ऋषि, मुचकुन्द ऋषि, अंगिरा ऋषि, लोमश ऋषि, शरभंग ऋषि, कंक ऋषि आदि ने अपने आश्रम बनवाये थे और यह पर्वत धार्मिक एवं आध्यात्मिक चेतना का प्रमुख केन्द्र था।
महानदी की उत्पत्ति के संबंध में जन-श्रुति है कि एक बार सिंहावा के ऋषि-मुनियों ने गंगा-स्नान करने की योजना बनाई और इस यात्रा में उन्होंने श्रृंगी ऋषि को भी शामिल करना चाहा, किन्तु श्रंगी ऋषि योग साधना में लीन होने के कारण इस यात्रा में शामिल नहीं हो सके। गंगा-स्नान कर जब ऋषि-समूह वापिस आया तो उन्होंने अपने साथ लाये गंगा जल को श्रंगी ऋषि का ध्यान भंग हुआ तो उनका पाँव पास में रखे कमण्डल से टकरा गया और कमण्डल में भरा गंगा जल कमण्डल के लुढ़क जाने से सिंहावा पर्वत की ऊँचाई से नीचे तक गिरता चला गया और गणेश घाट तक पहुँच गया। गणेशघाट बड़ा ही रमणीक स्थल है। इस स्थल पर महानदी की चौड़ाई सबसे कम है। महानदी अपने प्रवाह के साथ-साथ देव-संस्कृति एवं पुरातात्विक सम्पदा को भी उद्घाटित करती चली है। गणेश घाट में एक विशाल प्रस्तर में गणेश जी की मूर्ति अवस्थित है, जिसकी नियमित पूजा-अर्चना की जाती है। यहाँ अन्य देवी-देवताओं की भी मूर्तियाँ हैं, जिनमें एक चतुर्भुज हनुमान जी की भी मूर्ति है। कहा जाता है कि गणेश घाट के ऊपर किसी तपस्वी का आश्रम था। यहाँ के लोक-जीवन में मोकला माँझी की गाथा भी प्रचलित है। (कर्णेश्वर धाम महिमा पृष्ठ 10) डॉ. नरेश सिंह बघेल।
महानदी के प्रवाह से संबंधित एक किम्वदन्ती है कि श्रृंगी ऋषि का पाँव कमण्डल में लगने से गंगा जी कुपित हो उठी थीं और वे बड़े वेग के साथ प्रवाहित होने लगीं। सिंहावा से बहने वाली धारा को महामाया कहा गया, जो पूर्व में फरसिया गांव तक पहुँच गईं। फरसिया में महामाया का भव्य मंदिर है। श्रृंगी ऋषि को महानदी अर्थात महामाया का उसी दिशा में निरंतर प्रवाहित होना शुभ नहीं लगा और उन्होंने महानदी को समझाया कि वे क्रोधित होकर नहीं, बल्कि शान्त भाव से बहें और अपने बहने की दिशा परिवर्तित कर दें। इससे उन्हें मान-सम्मान व यश प्राप्त होगा औऱ उनका लोक-मंगलकारी स्वरूप सामने आएगा। अतः श्रृंगी ऋषि के आग्रह पर महानदी को वापिस आना पड़ा। उनके वेग को देखकर श्रृंगी ऋषि को लगा कि कहीं ऐसा न हो कि यह नदी क्रोध में आकर सिंहावा पर्वत को ही कहीं न बहा ले जावे? अतः उन्होंने महानदी को प्रवाहित होने की दिशा का ज्ञान कराया। श्रृंगी ऋषि के परामर्श से महानदी पश्चिम दिशा में दुधावा, कांकेर, रुद्री, गंगरेल, डोंगाघाट से राजिम की ओर प्रवाहित हुई। महानदी का सीता नदी एवं बालुका (बाल्मीकि) नदी से मिलन सिंहावा पर्वत के निकट ही हो गया था और महानदी इन दोनों नदियों की जल-राशि को भी स्वयं में समाहित कर अपने गन्तव्य की औऱ बढ़ चली थी। महानदी अपने बाँधों को समेटे हुये ग्रामों के डुबान की भी कथा कहते हुए चलती हैं। देवखूँट ग्राम आज दुधावा बाँध के कारण डुबान में आ गया है। आज से लगभग सौ साल पूर्व यह देवखूँट गाँव एक पावन गाँव के रूप में विख्यात था। यहाँ नदी के ऊपर चार मन्दिर थे। दो बड़े मन्दिर थे। इनमें से एक मन्दिर से छोटा सा शिलालेख है, जिसके ऊपर वाघराज अंकित हैं। वाघराज 12वीं-13वीं शताब्दी में काँकेर का राजा था। सिंहावा का एक ग्राम साँकरा है। यहाँ की भूमि अच्छी उर्वरा है और यहाँ दो फसलें ली जा सकती हैं। इस उर्वरा भूमि का सिंचन महानदी ही करती है। यहाँ एक प्राचीन किला भी है।
नगरी के पास महानदी के डुबान में हजार वर्ष पुराने विष्णु एवं शिव मंदिर के अवशेष मिले हैं, जो यहाँ की पुरातात्विक समृद्धि की पुष्टि करते हैं। महानदी, नगरी मुख्यालय से लगभग 30 किमी. दूर दक्षिण-पूर्व दिशा में सघन वनों से आच्छादित दुर्गम पहाड़ियों के बीच से प्रवाहित होती है। देवखूँट के विष्णु व शिव मन्दिर के पुरावशेष वर्षों से जल-निमग्न थे और केवले शिव के मन्दिर का शीर्षस्थ भाग ही बाहर दिखलाई पड़ता था। यहाँ प्राचीन समय की ईंटें भी बिखरी मिली हैं, जो यह संकेत देती हैं कि यहाँ ईंट का मन्दिर था। मन्दिर के शिवलिंग के जलहरी न होकर एकहरी शिवलिंग है, जो मंदिर की प्राचीनता इंगित करता है। बिखरी पुरातात्विक सामग्री में उमामहेश्वर की अत्यंत कलात्मक प्रतिमा मिली है। इस प्रतिमा में शिव व पार्वती चतुर्भुजी हैं औऱ अपने आयुधों व वाहनों के साथ सुसज्जित हैं। इस प्रतिमा में शिव का समस्त परिवार विद्यमान है।
यहाँ विष्णु मन्दिर के पुरावशेष के साथ गरुड़ासन्न लक्ष्मी नारायण की प्रतिमा की प्राप्त हुई। इस प्रतिमा में गरुड़ को मानवाकृति रूप में अपने दोनों हाथों से विष्णु व लक्ष्मी को उठाकर उड़ते हुये दिखाया गया है। विष्णु के हाथों में गदा, शंख, चक्र हैं और वे अभय मुद्रा में हैं। लक्ष्मी जी के हाथों में चक्र, पदम्, शंख है और वे वरद मुद्रा में हैं। पुरातत्त्वविद् डॉ. हेमू यदु का मानना है कि इतनी कलात्मक मूर्ति अन्यत्र कहीं मिलना दुर्लभ है, वे इस प्रतिमा को नवीं-दसवीं शती ईस्वी की मानते हैं। यहाँ कुछ अन्य प्रतिमायें भी मिली हैं, जिन्हें देखकर अनुमान होता है कि ये प्रतिमायें दो भिन्न-भिन्न काल-खण्डों की प्रतिमायें हैं।
महानदी के तट पर इस प्रकार की बिखरी पुरातात्विक साम्रगी को शासन द्वारा सुरक्षित रखकर संरक्षित किया जाना चाहिए क्योंकि ये पुरातात्विक अवशेष न केवल महानदी के उद्गम सिंहावा नगरी की ही अस्मिता के परिचायक हैं, बल्कि महानदी के तट पर पोषित देव-संस्कृति के उद्घाटक भी हैं।
महानदी अपनी सहायक नदियों के साथ अनेक बाँधों को स्वयं में संजोये हुए है, जो इस क्षेत्र की व्यापक कृषि-भूमि को सिंचित करते हुए यहाँ की कृषि-संस्कृति के विकास में अपना बहुमूल्य अवदान प्रदान कर रहे हैं। सौंढूर जलाशय रबी एवं खरीफ दोनों ही फसलों को सिंचित करता है।
माड़मसिल्ली जलाशय की प्रसिद्धि सायफन सिस्टम के कारण है। दुधावा बाँध का जल-ग्रहण काफी व्यापक है और जहाँ तक दृष्टि जाती है तो बस जल ही जल दृष्टिगत होता है। यहाँ चाँदनी रात में सैलानियों के लिए एक मनमोहक दृश्य दिखलाई पड़ता है और यह स्थान पर्यटन की दृष्टि से अच्छी संभावनायें स्वयं में छिपाये हुए है। रूद्री बैराज का भी अपना महत्त्व व विशेषता है। अंग्रेजों ने सन् 1913-14 के आसपास नहर में जल प्रदाय करने के उद्देश्य से महानदी पर रूद्री बैराज का निर्माण कराया था। इससे पूर्व माड़मसिल्ली का ही जल प्रदाय होता था, किन्तु इस बैराज के बन जाने से दुधावा जलाशय, सोंढूर जलाशय, गंगरैल जलाशय का जल भी नहरों को उपलब्ध होने लगा है। यह नया रूद्री बैराज भी लोगों के आकर्षण का केंद्र है।