ताजे पानी की घटती उपलब्धता आज की सबसे बड़ी समस्या है। पानी का संकट अनुमानों की सीमाओं को तोड़ते हुए दिन प्रतिदिन गंभीर होता जा रहा है। जहां एक ओर शहरी आबादी में हो रही वृद्धि से यहां जलसंकट विकराल रूप लेता जा रहा है वही दूसरी ओर आधुनिक कृषि में पानी की बढ़ती मांग स्थितियों को और स्याह बना रही है। आवश्यकता इस बात की है कि पानी को लेकर वैश्विक स्तर पर कारगार नीतियां बने और उन पर अमल भी हो।
हल के वर्षों में जलवायु परिवर्तन अन्य पर्यावरणीय मसलों को एक तरफ करके सबसे बड़ी वैश्विक समस्या दिखाई पड़ने लगा है। परंतु विश्व भर में पानी की खतरनाक कमी भी उतना ही महत्वपूर्ण मसला है। बल्कि कई मायनों में तो यह और भी बड़ी तात्कालिक चुनौती है। एक दशक पूर्व माना जा रहा था कि सन् 2025 तक विश्व की एक तिहाई आबादी पानी की कमी से जूझेगी। परंतु यह विकट स्थिति तो आज ही आ चुकी है। विभिन्न देशों में रहने वाले 2 अरब लोग पानी की कमी से त्रस्त हैं। अगर यही प्रवृत्ति चलती रही तो सन् 2025 तक दुनिया की दो तिहाई आबादी पानी की कमी झेल रही होगी।
अक्सर कहा जाता है कि इस शताब्दी में पानी की वही स्थिति होगी जो पिछली शताब्दी में खनिज तेल की थी। जिस तरह पिछले दशकों में खनिज तेल को लेकर युद्ध चल रहे हैं आने वाला समय और भी नाटकीय होगा जबकि पानी को लेकर युद्ध लड़े जाएंगे। वैश्विक जल संकट विशेषज्ञ एवं काउंसिल ऑफ कनाडा की सदस्य माउधी बारलो ने अपनी पुस्तक ब्लू कविनन्ट (नीला प्रतिज्ञापत्र) में लिखा है ‘20वीं शताब्दी में वैश्विक जनसंख्या तीन गुनी हो गई लेकिन पानी का उपयोग सात गुना बढ़ गया। सन् 2050 हमारी जनसंख्या में 3 अरब लोग और जुड़ चुके होंगे। मनुष्यों की जल आपूर्ति में 80 प्रतिशत वृद्धि की आवश्यकता होगी। कोई नहीं जानता कि यह पानी कहां से आएगा।’ ताजे शुद्धजल की मांग तेजी से बढ़ रही है। परंतु इसकी आपूर्ति न केवल सीमित है, बल्कि यह घट भी रही है।
जल आपूर्ति में वनों के विनाश एवं पहाड़ियों में भू-स्खलन से काफी कमी आ रही है। भू-गर्भीय जल को बहुत नीचे से खींचकर कृषि एवं उद्योगों में इस्तेमाल करने से इसके स्तर में कमी आ रही है। भू-गर्भीय जल के खनन से भारत, चीन, पश्चिमी एशिया, रुस एवं अमेरिका के अनेक हिस्सों में जलस्तर में गिरावट आई है। उपलब्ध जल में से 70 प्रतिशत का उपयोग खेती में होता है। औद्योगिक कृषि में तो और अधिक पानी की आवश्यकता पड़ती है। एक किलो अनाज के उत्पादन में 3 घन मीटर पानी लगता है जबकि एक किलो गोमांस के लिए 15 घन मीटर पानी की आवश्यकता पड़ती है। क्योंकि गाय के लिए भी अन्न तो उपजाना ही पड़ता है। कई जगह सतह जल के प्रदूषित होने से वह भी मानव उपभोग हेतु उपयुक्त नहीं होता। यदि फिर भी इसका प्रयोग किया जाता है तो स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं खड़ी हो जातीं हैं। विश्व में प्रतिवर्ष 50 लाख व्यक्ति जल जनित बीमारियों से मरते हैं।
जलवायु परिवर्तन ने भी जल आपूर्ति को प्रभावित किया है। ग्लोबल वार्मिंग से ग्लेशियर तेजी से पिघलेंगे और भविष्य में वे दुर्लभ हो जाएंगे। उदाहरण के लिए देखें कि हिमालय के ग्लेशियर भारत, चीन और दक्षिण पूर्व एशिया की अनेक नदियों को जल उपलब्ध कराते हैं। चीन की एकेडमी ऑफ साइंस के याओ तानडोंग का कहना है कि ‘पठार क्षेत्र में बड़े पैमाने पर ग्लेशियरों के सिकुड़ने से इस इलाके में वातावरणीय विप्लव आ जाएगा।’ लंदन में प्रकाशित गार्जियन ने यमन द्वारा पानी की अत्यधिक कमी का सामना करने पर लिखा है, कि देश की राजधानी साना’ अ के बारे में अनुमान है कि सन् 2017 से इस शहर को पानी उपलब्ध नहीं हो पाएगा क्योंकि समीप बह रही नदी से प्रतिवर्ष इसमें आने वाले पानी से चार गुना ज्यादा निकाला जा रहा है। एक तो अकाल के कारण यमन के 21 जलग्रहण क्षेत्रों में से 19 में जलभराव नहीं हुआ और इनसे पहले से ज्यादा पानी निकाल लिया गया। पानी की समस्या इतनी गंभीर है कि सरकार देश की राजधानी स्थानांतरित करने पर विचार कर रही है।
पानी की कमी विवाद का कारण बनती जा रही है। खासकर तब जबकि पानी के स्त्रोत, जैसे बड़ी नदियां एक से ज्यादा देशों में बहती हो। ऊपर के देश नीचे बहने वाले पानी की मात्रा को नियंत्रित कर देते हैं। अफ्रीका में 50 नदियां एक से ज्यादा देशों में बहतीं हैं। पापुलेशन रिपोर्ट के अनुसार नील, जाम्बेजी, नाइगर और वोल्टा नदी बेसिन में विवाद प्रारंभ हो चुके हैं। इसी के साथ मध्य एशिया के अराल समुद्री बेसिन में तुर्कमेनिस्तान, उजबेकिस्तान, कजाकिस्तान और तजाकिस्तान के मध्य अंतरराष्ट्रीय जल विवाद प्रारंभ हो गया है। क्योंकि ये सभी देश अमुदरिया और सीरदरिया नदियों के पानी पर ही जिंदा हैं।
मध्यपूर्व में भी जल समाप्त हो रहा है। इस परिस्थिति में विवाद की संभावनाएं बढ़ती जा रही हैं। स्टीवन सोलोमन ने अपनी नई पुस्तक ‘वाटर’ में नील नदी के जल संसाधनों को लेकर मिस्त्र एवं इथियोपिया के मध्य उपजे विवाद के बारे में लिखा है। वे लिखते हैं ‘दुनिया के सबसे विस्फोटक राजनीतिक क्षेत्र जिसमें इजराइल, फिलीस्तीन, जोर्डन एवं सीरिया शामिल हैं, में दुर्लभ जल संसाधनों के नियंत्रण एवं बटवारे के लिए बेचैनी है। क्योंकि यहां तो बहुत पहले सबके लिए शुद्ध जल अनुपलब्ध हो चुका था। पश्चिमी अमेरिका में भी ऐसे किसान जो अपनी फसलों की सिंचाई के लिए अतिरिक्त पानी चाहते हैं, को शहरी इलाकों के घरों एवं अन्य नगरीय क्षेत्रों में पानी की बढ़ती मांग की वजह से विरोध सहना पड़ रहा है। भारत में भी कर्नाटक एवं आंध्रप्रदेश के मध्य कृष्णा नदी का जल दोनों प्रदेशों के विवाद का कारण बना हुआ है।
पानी के घटते स्त्रोतों के मध्य पानी का वितरण भी विवाद का विषय बन गया है। बारलो ने अपनी पुस्तक में पानी के निजीकरण की नीति की विवेचना की है। कुछ समय पूर्व तक पानी सरकारी प्राधिकारियों के सीधे नियंत्रण में था। पश्चिमी देशों में सर्वप्रथम जल का निजीकरण हुआ और बाद में विश्व बैंक के ऋण एवं परियोजनाओं द्वारा इसे विकासशील देशों में भी फैला दिया गया। इससे लोगों की पानी तक पहुंच पर विपरीत प्रभाव पड़ा एवं अनेक देशों में नागरिक समूहों ने पानी को सार्वजनिक वस्तु एवं पानी को मानव अधिकार का दर्जा देने के लिए संघर्ष भी शुरु कर दिया है।
उपरोक्त सभी विषयों को जलवायु परिवर्तन जितनी ही गंभीरता से लेना चाहिए क्योंकि पानी प्रत्येक के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है और इसकी कमी मानवीय स्वास्थ्य एवं वैश्विक राजनीति दोनों को ही प्रभावित करेगी। सोलोमन का कहना है कि ‘वैश्विक राजनीतिक फलक पर जिनके पास पानी है और जिनके पास नहीं है, के मध्य नया विस्फोटक क्षेत्र उभरा है। यह तेल समस्या की गंभीरता को भी पार कर चुका है। यह वैश्विक राजनीति को उस मोड़ पर ले आया है जिस पर हमारी सभ्यता का भविष्य टिका है। अतः पानी को एक समस्या के रूप में मान्यता मिलनी चाहिए तथा इसके निराकरण को वैश्विक एवं राष्ट्रीय एजेंडे में सर्वोच्च स्थान मिलना चाहिए। (सप्रेस/थर्ड वर्ल्ड नेटवर्क फीचर्स)