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पाञ्चजन्य, सितम्बर 2006
संत बाबा बलबीर सिंह सीचेवाल जब भी नदी की हालत देखते तो बाकी श्रद्धालुओं की तरह उनका मन भी भारी हो जाता। एक दिन पर्यावरण पर आयोजित सेमिनार के दौरान उन्होंने मन ही मन इस बात का संकल्प लिया कि वे किसी भी कीमत पर काली बेई को पुरानी स्थिति में लाएंगे। उन्होंने अकेले ही सफर शुरू किया था, लोग जुड़ते गए और आज एक बड़ा कारवां बन गया है। गुरूद्वारों में की जाने वाली कारसेवा को उन्होंने नदी के पुनरोद्धार के लिए प्रयोग किया। पिछले लगभग सवा पांच सालों से यह नित्यक्रम बन चुका है। सैकड़ों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं और स्वप्रेरणा से कस्सी, बट्ठल, फावड़ा, गेंती उठाकर श्रमदान में जुट जाते हैं।
भगवा वस्त्र पहने कुदाल-फावड़े की मदद से नदी में से गाद निकालते हुए 45 वर्षीय संत को देखकर अनायास ही मन में भागीरथ नामक उस महामुनी की याद कौंध जाती है जो अपनी साधना के बल पर स्वर्गलोक से गंगा उतार लाए थे। अधपकी दाढ़ी, मजबूत देह, मधुर वाणी, आत्मविश्वास से सराबोर और धुन के पक्के यह महापुरुष कोई और नहीं बल्कि संत बाबा बलबीर सिंह सीचेवाल हैं, जिन्होंने गुरू नानक देव जी के जीवन से जुड़ी गंगा के समान पवित्र नदी काली बेई को एक प्रकार से पुनर्जन्म दिया है। 160 किलोमीटर के प्रवाह मार्ग में गांवों व नगरों के गंदे पानी, आसपास के खेतों में कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग, कीचड़ और जंगली घासफूस के कारण गंदा नाला बन चुकी यह नदी आज एक कमंडलधारी कर्मयोगी संत के संकल्प से सुजलाम्-सुफलाम्, रमणीय सरिता बन चुकी है। स्वयं देश के विकासपुरुष राष्ट्रपति डा. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने संत जी के भागीरथ प्रयासों की भूरी-भूरी प्रशंसा की है।सतलुज व व्यास नदियों से निकलने वाली काली बेई एवं सफेद बेई पंजाब में 160 किलोमीटर का सफर तय कर इन्हीं नदियों में वापस समा जाती हैं। काली बेई होशियारपुर जिले की तहसील मुकेरियां में गांव हिम्मतपुरा के पास से एक छोटी सी धारा के रूप में निकलती है जिसमें इस गांव की बावली के साथ-साथ वधाया गांव की बावली का पानी भी गिरता है। 1870 में अंग्रेजों ने कांझली गांव के पास एक बैराज बना कर इसके पानी को नियंत्रित किया और इस बैराज पर 183 हेक्टेयर मानव निर्मित झील का निर्माण हुआ। व्यास दरिया से शुरू हुई यह नदी कपूरथला जिले के सुल्तानपुर लोधी से होती हुई गांव इलाहीखुर्द के पास व्यास दरिया में समा जाती है।
भक्तिकाल में जन्मे महान समाज सुधारक गुरूनानक देव जी जब अपनी बहन बेबे नानकी के पास सुल्तानपुर लोधी आए तो उन्होंने यहां के नवाब दौलत खान के मोदीखाने में नौकरी की। वे इसी काली बेई के किनारे प्रभु का सुमिरन व ध्यान करते थे। कहते हैं एक दिन उन्होंने नदी में डुबकी लगाई परंतु तीन दिन तक बाहर नहीं निकले। इसी घटना के दौरान उनको आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई और बाहर प्रकट होते ही उन्होंने उच्चारण किया कि 'ना को हिन्दू न को मुसलमान'। उस दिन के बाद से इस एक छोटी सी नदी ने मानव जाति के लिए गंगा के समान पावन नदी का पद पा लिया और पूजनीय हो गई। धार्मिक के साथ-साथ पर्यावरण की दृष्टि से भी इसका विशेष महत्व है। बताया जाता है कि इस नदी व कांझली झील में 58 किस्मों के स्तनधारी जीव, 90 किस्मों के पंछी, 11 किस्मों की मछलियां, 35 तरह के रीढ़विहीन प्राणी पाए जाते हैं। यहां पर 78 किस्मों के स्थानीय पंछियों व 17 किस्मों के प्रवासी पंछियों का सहवास स्थल होने के कारण इस जगह की अन्तर्राष्ट्रीय पहचान बनी है। परंतु पिछले कई दशकों से इस नदी में विभिन्न गांवों व शहरों के गंदे पानी के गिरने से यह नाले का रूप धारण करती जा रही थी। इस नदी में कई बरसाती नाले भी गिरते हैं, परंतु कृषि के लिए जमीन की बढ़ती जरूरतों के चलते बहुत से प्राकृतिक नालों की जमीन पर प्रभावशाली किसान कब्जा कर चुके हैं और वे इन नालों का बहाव रोक चुके हैं।

इन्हीं चुनौतियों को स्वीकार किया संत बाबा बलबीर सिंह सीचेवाल ने। वे जब भी नदी की हालत देखते तो बाकी श्रद्धालुओं की तरह उनका मन भी भारी हो जाता। एक दिन पर्यावरण पर आयोजित सेमिनार के दौरान उन्होंने मन ही मन इस बात का संकल्प लिया कि वे किसी भी कीमत पर काली बेई को पुरानी स्थिति में लाएंगे। उन्होंने अकेले ही सफर शुरू किया था, परंतु लोग जुड़ते गए और आज एक बड़ा कारवां बन गया है। गुरूद्वारों में की जाने वाली कारसेवा को उन्होंने नदी के पुनरोद्धार के लिए प्रयोग किया। पिछले लगभग सवा पांच सालों से यह नित्यक्रम बन चुका है। सैकड़ों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं और स्वप्रेरणा से कस्सी, बट्ठल, फावड़ा, गेंती उठा कर श्रमदान में जुट जाते हैं। ये कारसेवक नदी से गाद, जलबूटी, झाड़फूस निकालते हैं और इसके किनारे पक्के करते हैं। एक कारसेवक बलजिंद्र सिंह बताते हैं कि यह कोई आसान काम नहीं है क्योंकि सदियों से किसी ने इसकी सफाई नहीं की है, जिसके कारण यहां कई तरह के बिच्छु, सांप, कई जहरीले कीड़े मकोड़े निकलते हैं जो कई बार कारसेवकों को दंश मार चुके हैं। इन कारसेवकों को कई उन किसानों व ग्रामीणों के विरोध का भी सामना करना पड़ा जिन्होंने काली बेई की खाली पड़ी जमीनों पर कब्जा किया हुआ है। इसके बावजूद यह कारसेवा निरंतर जारी है। संत सीचेवाल खुद इस काम का निरीक्षण व संचालन करते हैं और कारसेवकों को दिशानिर्देश देते हैं। इसी कारसेवा के कारण उनको विभिन्न गांवों में सड़कें और पगडंडियां तक बनवानी पड़ीं। कई गांवों में सीवेज प्रणाली बनवाई और कई जलस्रोतों का पुनरोद्धार किया।
कठिन डगर के राही

निर्मल कुटिया के संत
सिख पंथ के दसवें गुरू गुरूगोबिंद सिंह जी भक्ति और शक्ति के प्रतीक थे और मानते थे कि ज्ञान के अभाव में ही उस समय भारतीय समाज का पतन हुआ। उन्होंने लोगों को दोबारा प्राचीन ज्ञान से जोड़ने के लिए कुछ सिखों को वेदों, शास्त्रों, उपनिषदों, ग्रंथों व संस्कृत भाषा का अध्ययन करने के लिए काशी भेजा ताकि वे सिख सनातन ज्ञान में पारंगत हो कर देश के बाकी हिस्सों में इसका प्रचार-प्रसार कर सकें। कालांतर में यही सिख निर्मले सिख कहलाए। जालंधर जिले के सुल्तानपुर लोधी के पास सीचेवाल गांव में इस संप्रदाय की कुटिया है जिसका संचालन संत बाबा बलबीर सिंह सीचेवाल करते हैं। 1962 में जन्मे संत जी ने कालेज की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी और संत बाबा अवतार सिंह की सेवा में लग गए। उनके देहावसान के बाद बाबा बलबीर सिंह जी कुटिया के संचालक बने। अपने कार्य के बल पर आज वे विश्व के अग्रणी पर्यावरण प्रेमियों के पंक्ति में आ खड़े हुए हैं। उनका संदेश है- 'आओ, हम ईश्वर की बनाई प्रकृति से प्यार करें और उसके साथ एकसार हो कर चलें। नदियों, दरियाओं को साफ सुथरा रखें, हवा को प्रदूषित न होने दें। जिस दिन हम अपने दरियाओं को साफ रखने में सफल हो गए, हमें बोतलबंद पानी की जरूरत नहीं पड़ेगी।'
पतितपावनी गंगा को भी जरूरत है संत बलबीर जैसे भागीरथ की
