संवहनीय खेती : फसल स्वरूप का पानी की उपलब्धता के अनुरूप निर्धारण

Submitted by Hindi on Tue, 12/19/2017 - 16:50
Source
कुरुक्षेत्र, नवम्बर 2017

खेती की समुचित प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल, फसल पश्चात प्रसंस्करण तथा गुणवत्ता में वृद्धि के जरिए मौजूदा पारम्परिक कृषि में सुधार मुमकिन है। इससे खेती न सिर्फ लम्बे समय में संवहनीय बनेगी बल्कि उत्पादन को उपभोक्तावाद से जोड़कर इसे लाभकारी व्यवसाय भी बनाया जा सकेगा। दीर्घकालिक रूप से खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भरता बनाए रखने के लिये धान-गेहूँ रोटेशन प्रणाली की उपज क्षमता और पर्यावरण अनुकूलता में साथ-साथ सुधार लाने में संवहनीय कृषि की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

कृषिभारत की 75 प्रतिशत आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है। वह अब भी कृषि पर ही निर्भर है। देश के कुल क्षेत्रफल का लगभग 43 प्रतिशत हिस्सा कृषि से सम्बन्धित गतिविधियों के लिये इस्तेमाल किया जाता है। वर्ष 2016-17 में भारत का अनुमानित खाद्यान्न उत्पादन 27.5 करोड़ टन था। मगर भारतीय कृषि उत्पादन प्रणाली अब भी चुनौतियों का सामना कर रही हैं। ये चुनौतियाँ भविष्य के संसाधन आधार यानी पारिस्थितिकी को नुकसान पहुँचाए बिना लगातार बढ़ती आबादी की जरूरतों को पूरा करने के लिये खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने की हैं। भारत में कृषि और इससे सम्बन्धित अन्य क्षेत्रों पर ध्यान केन्द्रित करना कई वजहों से महत्त्वपूर्ण है। ये क्षेत्र बढ़ती आबादी को रोजगार और संवहनीय आजीविका मुहैया कराने में अहम भूमिका निभाते रहेंगे। लेकिन भारतीय कृषि पानी की तंगी, प्रति व्यक्ति खेती योग्य जमीन में कमी, खेती के साजो-सामान की बढ़ती कीमतों, कृषि उत्पादों के विपणन नेटवर्क और मूल्य संवर्द्धन के अवसरों के अभाव तथा बाजार मूल्यों में उतार-चढ़ाव जैसी अनेक समस्याओं का सामना कर रही है।

खेती की समुचित प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल, फसल पश्चात प्रसंस्करण तथा गुणवत्ता में वृद्धि के जरिए मौजूदा पारम्परिक कृषि में सुधार मुमकिन है। इससे खेती न सिर्फ लम्बे समय में संवहनीय बनेगी बल्कि उत्पादन को उपभोक्तावाद से जोड़कर इसे लाभकारी व्यवसाय भी बनाया जा सकेगा। धान-गेहूँ फसल प्रणाली भारतीय खाद्य सुरक्षा के लिये रीढ़ की हड्डी है। भारत के खाद्यान्न उत्पादन में 80 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा इन्हीं दो फसलों का है। सिंचाई जल के एक बड़े हिस्से का इस्तेमाल भी इन्हीं फसलों के लिये किया जाता है। लिहाजा, दीर्घकालिक रूप से खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भरता बनाए रखने के लिये धान-गेहूँ रोटेशन प्रणाली की उपज क्षमता और पर्यावरण अनुकूलता में साथ-साथ सुधार लाने में संवहनीय कृषि की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

संवहनीय कृषि का मतलब खेती का ऐसा तौर-तरीका है जो स्थानीय पारिस्थितिकी के अनुरूप हो। इसमें जीवों और उनके पर्यावरण के बीच सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है। आसान शब्दों में कहें तो संवहनीय कृषि वैसी खेती है जिसका लक्ष्य आने वाली पीढ़ियों के लिये संसाधनों के आधार को खतरे में डाले बिना मौजूदा पीढ़ी की जरूरतों को पूरा करना हो। संवहनीयता हासिल करने के लिये एक समग्र और सुनियोजित दृष्टिकोण जरूरी है। संवहनीय कृषि प्रणालियाँ संसाधन का संरक्षण करने वाली, सामाजाकि तौर पर उपयोगी, वाणिज्यिक रूप से प्रतिस्पर्धी और पर्यावरण के नजरिए से दुरुस्त होनी चाहिए। ऐसी प्रणालियों का लक्ष्य मानव स्वास्थ्य और पारिस्थितिकी को नुकसान पहुँचाए बिना गुणवत्तापूर्ण और पोषक भोजन का उत्पादन होता है।

इसलिये इनमें सिंथेटिक उर्वरकों, कीटनाशकों, वृद्धि नियंत्रकों और पशु चारा एडिटिव का इस्तेमाल नहीं किया जाता। ये प्रणालियाँ भूमि की उर्वरता और उत्पादकता बनाए रखने के लिये फसल चक्रण, फसल अवशिष्टों, पशु उर्वरकों, फलियों, हरी खादों, जैविक कचरों, समुचित मैकेनिकल खेती और खनिज वाली चट्टानों पर निर्भर रहती हैं। कृषि उत्पादकता बरकरार रखने के लिये निम्नलिखित तरीके हैं-

संरक्षण कृषि, ऑर्गेनिक खेती, समेकित पोषण प्रबंधन प्रणाली और खेत अवशिष्ट प्रबंधन के जरिए मिट्टी का प्रबंधन।

सिंचाई के सही तरीके, सूक्ष्म सिंचाई, जीवनरक्षक सिंचाई, गीली घास के इस्तेमाल, एंटी ट्रांसपेरेंट इत्यादि सक्षम जल संसाधन प्रबंधन तकनीकों का उपयोग।

फसल प्रबन्धन में सही समय पर रोपनी, उपयुक्त फसलों और किस्मों को रोटेशन में लगाना, अन्तर फसल, मिश्रित फसल तथा समेकित कीट प्रबन्धन इत्यादि शामिल हैं।

खेती यानी फसलों और फसल प्रणालियों की संवहनीयता मुख्य तौर से स्वीकार्य गुणवत्ता वाले पानी की पर्याप्त उपलब्धता पर निर्भर करती है। भारतीय कृषि में पानी की माँग को पूरा करने का प्राथमिक स्रोत वर्षा है। देश में सालाना 1085 मिलीमीटर वर्षा होती है। यह वर्षा लगभग 4 करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी के बराबर है। भारत में वर्षा का लगभग तीन-चौथाई हिस्सा दक्षिण-पश्चिमी मानसून से आता है। उत्तर-पूर्वी मानसून का योगदान 3 प्रतिशत से भी कम है। वर्षा का बाकी हिस्सा मानसून-पूर्व और पश्चात की गतिविधियों से आता है।

 

तालिका-1 : भारत में मौसम के हिसाब से वार्षिक वर्षा वितरण

वर्षा का प्रकार

समय

परिमाण (मिमी)

वार्षिक वर्षा में प्रतिशत हिस्सा

मानसून पूर्व

मार्च-मई

112.8

10.4

दक्षिण-पश्चिमी मानसून

जून-सितम्बर

799.6

73.7

मानसून पश्चात

अक्टूबर-दिसम्बर

144.3

13.3

उत्तर-पूर्वी मानसून

जनवरी-फरवरी

028.2

02.6

कुल

1085*

100.0

 

कुल सालाना वर्षा- 1085 मिमी (दीर्घकालिक औसत, 1950 से 1994)

वर्षा के वितरण और इसकी उपलब्धता में क्षेत्रीय असमानता के निर्धारण में विद्यमान स्थितियों और आगे बढ़ते मानसून के मार्ग के महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। सालाना वर्षा के औसत को आधार मानें तो देश के 30 प्रतिशत क्षेत्र में 750 मिमी से कम, 42 प्रतिशत में 750 से 1150 मिमी तक और 20 प्रतिशत में 1150 से 2000 मिमी तक वर्षा होती है। सिर्फ आठ प्रतिशत क्षेत्र में सालाना 2000 मिमी से अधिक बारिश होती है। इस तरह 70 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र में 750 मिमी से अधिक वर्षा होती है। केन्द्रीय जल आयोग के आँकड़ों के अनुसार वर्षा से प्राकृतिक प्रवाह तथा नदियों और झरनों में पिघलते बर्फ के रूप में देश में जल संसाधन क्षमता 18.69 करोड़ हेक्टेयर मीटर है। भौगोलिक स्थिति की सीमाओं तथा स्थान और समय के लिहाज से संसाधन के असमान वितरण के कारण इस 18.69 करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी में से सिर्फ 11.23 करोड़ हेक्टेयर मीटर का लाभकारी इस्तेमाल किया जा सकता है।

इसमें से 6.9 करोड़ हेक्टेयर मीटर सतही और 4.33 करोड़ हेक्टेयर मीटर भूमिगत जल संसाधन है। इस 11.23 करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी का इस्तेमाल सिंचाई तथा घरेलू और औद्योगिक उद्देश्यों के लिये किया जा सकता है। इस तरह सिंचाई के वास्ते पानी की उपलब्धता अपर्याप्त रहेगी। इसलिये पानी के इस्तेमाल की दक्षता बढ़ाना महत्त्वपूर्ण है। अगर भारत को खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर रहना है तो पानी की हर बूँद को बचाना होगा। कृषि की संवहनीयता के लिये पानी का इस्तेमाल बेहद सूझबूझ के साथ करने की जरूरत है।

कृषि में संवहनीय जल प्रबन्धन का मकसद परिमाण और गुणवत्ता दोनों के लिहाज से पानी की उपलब्धता और जरूरत में सन्तुलन कायम करना है। यह सन्तुलन स्थान और समय के दायरे में तथा तार्किक खर्च और स्वीकार्य पर्यावरणीय प्रभाव के साथ होना चाहिए। जल माँग प्रबन्धन में अधिक ध्यान सिंचाई के समयबद्धता पर दिया गया है। सिंचाई कब हो और इसमें कितने पानी का इस्तेमाल किया जाए, इस सवाल को महत्त्वपूर्ण माना गया है। इसमें सिंचाई के तरीके की भूमिका गौण है। सिंचाई कितनी और कब-कब की जाए यह फसल विकास के चरणों, पानी की तंगी के प्रति फसल को संवेदनशीलता, जलवायु की स्थिति तथा जमीन में जल की उपलब्धता जैसे मानदंडों पर निर्भर करता है। लेकिन सिंचाई कितने अन्तराल पर हो, यह इसकी पद्धति पर निर्भर करता है।

इसलिये सिंचाई की समय-सारिणी और इसकी पद्धति दोनों आपस में जुड़े हैं। कृषि उत्पादन को अधिकतम-स्तर तक ले जाने और जल संरक्षण का यही एकमात्र तरीका है। सिंचाई प्रणाली की संवहनीयता में इसी से सुधार लाया जा सकता है। ज्यादातर मामलों में खेत के स्तर पर सिंचाई की समय-सारिणी कितनी प्रभावी होगी, यह किसान के कौशल पर निर्भर करता है। सिंचाई की समय-सारिणी बनाने के तौर-तरीकों में बहुत फर्क होता है तथा उपयुक्ता और प्रभावोत्पादकता के सम्बन्ध में उनकी विशिष्टताएँ अलग-अलग होती हैं। भूमिजल मापन, इसके भंडार के अनुमान, फसल विकास के महत्त्वपूर्ण चरणों और पौधा तनाव के संकेतकों के आधार पर विभिन्न तरीकों को अपनाते हुए सिंचाई के समय और परिमाण का निर्धारण किया जाता है। इस प्रक्रिया में सामान्य नियमों से लेकर बेहद जटिल मॉडलों का सहारा लिया जा सकता है।

फसल उत्पादन में पानी की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। इसलिये नमी की कमी की स्थिति में वैसी संवहनीय फसल प्रणाली अपनाई जानी चाहिए जिसमें जमीन की आर्द्रता का कुशलता से इस्तेमाल करते हुए भूमिगत जल का अधिकतम संरक्षण सम्भव हो। ज्यादातर खुष्क क्षेत्रों में परम्परागत फसलों और फसल संरचनाओं में इन पहलुओं का ध्यान नहीं रखा जाता है। नतीजतन सामान्य और इससे अधिक बारिश के समय सिर्फ सन्तोषजनक उत्पादन होता है। लेकिन असामान्य वर्षा या नमी की कमी की स्थिति में फसल नाकाम रहने या उपज बहुत कम होने की वजह से किसानों की आर्थिक स्थिति अस्थिर हो जाती है। इसलिये फसलों, उनकी किस्मों और फसल प्रणालियों के चुनाव और उनके प्रबन्धन में वर्षा की विभिन्न स्थितियों में पानी के ज्यादा-से-ज्यादा कुशलतापूर्वक इस्तेमाल का लक्ष्य रखा जाना चाहिए। किसी औसत किसान के लिये आज की जरूरत विभिन्न परिपक्वता काल वाली फसलें, फसल छतरी और ज्यादा उपज क्षमता वाली फसल प्रणाली है। इस लिहाज से लाल चना, ग्वार, फ्रेंच बीन, अरंडी, कंगनी, मूँगफली, बाजरा, रागी, सरसों और सूरजमुखी की एकल फसल प्रणाली सबसे अनुकूल है। मगर मृदा और जल संरक्षण, भूमिगत पानी के पूर्ण इस्तेमाल तथा भूमि की उर्वरता बनाए रखने के लिये मिट्टी की प्रकृति, कुल वर्षा और क्षेत्र में बारिश की शुरुआत के समय को ध्यान में रखते हुए कई फसल प्रणालियाँ सम्भव हैं।

 

तालिका - 2 : वर्षा की शुरुआत पर आधारित फसल स्वरूप

वर्षा की शुरुआत का समय

लगाई जाने वाली फसलें

जून का दूसरा पखवाड़ा

बाजरा, मूँगफली, सूरजमुखी, अरंडी, अरहर

जुलाई का पहला पखवाड़ा

बाजरा, अरंडी, अरहर

जुलाई का दूसरा पखवाड़ा

सूरजमुखी, अरंडी, अरहर

अगस्त का पहला पखवाड़ा

सूरजमुखी, अरंडी, अरहर

अगस्त का दूसरा पखवाड़ा

सूरजमुखी, अरंडी, अरहर

सितम्बर का पहला पखवाड़ा

फसल के रूप में रबी ज्वार

 

फसल प्रणाली कृषि और जलवायु के कारकों पर निर्भर करती है। लेकिन दोहरी फसल, अंतर-फसल और मिश्रित फसल प्रणालियों को अपनाना निःसंदेह फायदेमंद है। इन प्रणालियों से जमीन के इस्तेमाल की कुशलता में वृद्धि होती है। खुष्क भूमि क्षेत्रों में दोहरी फसल प्रणाली ज्यादा लाभकारी और किफायती होती है। वास्तव में इस तरह के क्षेत्रों के लिये अलग-अलग परिपक्वता काल, फसल छतरी और अधिक उत्पादन की क्षमता वाली फसल प्रणाली आज की जरूरत है।

 

तालिका - 3 : खुष्क भूमि खेती में दोहरी फसल प्रणाली

खरीफ

रबी

वर्षा सिंचित

बाजरा/कोदो/धान/ज्वार

अलसी/मसूर/सफेद सरसों

सोयाबीन/हरा चना/काला चना

कुसुम/रबी ज्वार

सूरजमुखी

काबुली चना

सीमित सिंचाई

बाजरा

काबुली चना, कुसुम

ज्वार/मक्का/धान

सूरजमुखी/मसूर

ज्वार

काबुली चना/गेहूँ/सरसों/सूरजमुखी

सोयाबीन

काबुली चना/गेहूँ/सूरजमुखी

हरा चना/काला चना

कुसुम/रबी ज्वार

सूरजमुखी

काबुली चना

अरहर/ग्वारफली

काबुली चना

 

फसल प्रणाली का लक्ष्य खेती में कार्य-कुशलता को बढ़ाना है ताकि उपलब्ध भौतिक संसाधनों से पैदावार के लाभों में इजाफा किया जा सके। वर्षा से सिंचाई की स्थिति में फसलों और फसल प्रणालियों का चयन मिट्टी की गहराई और जड़ के क्षेत्र में जमीन में नमी की मौजूदगी पर भी निर्भर करता है। फसल सुविधाएँ ज्यादा लम्बे समय तक उपलब्ध होने से अन्तर-फसल, मिश्रित फसल और दोहरी फसल या क्रमिक फसल की सुविधा मिलती है। अन्तर-फसल से मिट्टी की उर्वराशक्ति बढ़ाने, जमीनी नमी को बनाए रखने, खरपतवारों, कीटों और रोगों को घटाने, सालभर चारा उपलब्ध कराने और अतिरिक्त धन हासिल करने में मदद मिलती है।

 

तालिका 4 : मिट्टी की गहराई और नमी के आधार पर फसलें और फसल प्रणालियाँ

मिट्टी की गहराई

उपलब्ध नमी (मिमी)

फसल काल (दिन)

फसल/फसली प्रणाली

उथली

100 से कम

90 से कम

बाजरा, ज्वार, सोयाबीन, दलहन और कोदो की एकल फसल

मध्यम

100-150

150

सोयाबीन, ज्वार/बाजरा/सोयाबीन/मक्का/अरंडी+अरहर की एकल फसल

गहरी

200 से अधिक

180 से ज्यादा

धान-तिलहन/दलहन, कपास + सोयाबीन, ज्वार/मक्का-काबुली चना, अरहर आधारित फसल प्रणाली

 

भारत के प्रमुख फसल स्वरूप


भारत के फसल स्वरूप में बड़ा बदलाव आया है। एक बड़े क्षेत्र में अनाज के बजाय गैर-अनाज फसलों को बोया जाने लगा है। बेशक हरितक्रान्ति के शुरुआती दशक में कुल कृषि क्षेत्र में अनाज की खेती के हिस्से में थोड़ी बढ़ोत्तरी हुई थी। लेकिन इसके बाद अनाजों के क्षेत्र और इसके हिस्से में लगातार कमी आई है। अनाजों और दालों के क्षेत्र में कमी आने का सबसे ज्यादा फायदा खासतौर से तिलहन को हुआ है। बड़े क्षेत्र में खाद्यान्नों की खेती से साबित होता है कि भूमि की उत्पादकता तकनीकी सम्भावनाओं के अनुरूप नहीं बढ़ी है। फसल स्वरूप में महत्त्वपूर्ण बदलावों के बावजूद उच्च मूल्य वाली वाणिज्यिक फसलों की ओर गमन बहुत कम रहा है। नतीजतन फसल उत्पादन में विकास पर इसका प्रभाव नगण्य है। भारत में मिट्टी, जलवायु और वर्षा के वितरण में काफी विभिन्नताएँ हैं। लिहाजा हम बड़ी संख्या में अलग-अलग फसल स्वरूपों को अपना सकते हैं। सिंचाई के लिये पानी उपलब्ध होने की स्थिति में खेती की गतिविधियाँ बारहों महीने चलती रहती हैं। हर फसल स्वरूप के अपने फायदे और कमजोरियाँ हैं जिनका संक्षेप में जिक्र नीचे किया गया है-

धान-आधारित फसल स्वरूप


धान-आधारित फसल स्वरूप देश में काफी लोकप्रिय है। इसमें धान के साथ बारी-बारी से लगाई जाने वाली फसलों में गेंहूँ, तिलहन, दलहन तथा कभी-कभार मक्का और सब्जियाँ शामिल हैं। देश के विभिन्न हिस्सों में धान पर आधारित कई फसल प्रणलियाँ प्रचलित हैं। कई जगह धान के बाद फिर से इसी फसल को लगाया जाता है। अनेक स्थानों पर धान के बाद अन्य अनाजों, दलहन, तिलहन, सब्जियों और रेशे वाली फसलों की खेती की जाती है। धान-आधारित फसल प्रणालियों में तराई और पर्वतीय फसलें शामिल हो सकती हैं। अब तक ज्यादातर लोग एक फसल पर ही ध्यान केन्द्रित करते रहे हैं। वे इस तथ्य को नज़रअंदाज़ करते हैं कि हर फसल एक वृहद फसली प्रणाली का हिस्सा भर है। भारत में धान-आधारित निम्नलिखित फसल प्रणालियाँ अपनाई जाती हैं-

धान-गेहूँ प्रणाली


धान-गेहूँ प्रणाली ज्यादातर उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, बिहार, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश में 1.1 करोड़ हेक्टेयर से ज्यादा क्षेत्र में अपनाई गई है। देश में पिछले कुछ वर्षों में इस फसल प्रणाली के जबर्दस्त विकास के बावजूद इन फसलों की उत्पादकता में गतिरोध की रिपोर्टें आई हैं। इनके उत्पादन में गिरावट की आशंका के बीच इनकी संवहनीयता को लेकर संदेह पैदा हो गया है। मिट्टी से पोषक तत्वों का अन्धाधुन्ध दोहन, भूमि में पोषकों का असन्तुलन, पोषक तत्वों के असर और भूमिगत जल में कमी, रोगों और कीटों में वृद्धि, सित्ती (फेलेरिस माइनर) में बढ़ोत्तरी, उत्तर-पश्चिमी मैदानों में खेती में काम आने वाली सामग्री के इस्तेमाल की दक्षता में कमी, पूर्वी और मध्य भारत में उर्वरकों का कम प्रयोग, किस्मों के समुचित सम्मिलन का अभाव, धान के पौधारोपण के सही समय पर मजदूरों की किल्लत तथा फसल अवशिष्ट प्रबन्धन जैसे मुद्दे धान-गेहूँ प्रणाली की संवहनीयता के लिये चुनौती हैं।

धान-धान प्रणाली


धान-धान असम, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल की नमी वाली तटीय पारिस्थितिकी में सिंचित भूमि पर लोकप्रिय फसल प्रणाली है। इसका कुल विस्तार 60 लाख हेक्टेयर से अधिक का है। धान-धान प्रणाली की उत्पादकता को बनाए रखने की राह में मुख्य चुनौतियाँ मिट्टी की गुणवत्ता में गिरावट, सूक्ष्म पोषकों की कमी, नाइट्रोजन के इस्तेमाल की कम दक्षता, पोषक तत्वों के उपयोग में असंतुलन, पौधारोपण के नाजुक समय में मजदूरों की अनुपलब्धता, एशिनोक्लोआ क्रसगेली जैसे अवांछित खरपतवारों में बढ़ोत्तरी और इनके नियंत्रण के समुचित उपायों का अभाव है।

धान-तिलहन/दलहन प्रणाली


खाद्य सुरक्षा और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लिये धान-तिलहन/दलहन को सबसे महत्त्वपूर्ण फसल प्रणाली माना जा सकता है। इस प्रणाली के तहत सर्दियों में मुख्यतौर पर सरसों, अलसी, मूँगफली, मसूर और मटर उगाया जाता है। पूर्वी और दक्षिणी भारत में इसके बाद धान बोया जाता है। इस फसल प्रणाली में सभी पारिस्थितिकियों में धान की उपज संतोषजनक रहती है। लेकिन विभिन्न पारिस्थितिकियों में तिलहन/दलहन की उपज में काफी फर्क देखा गया है। मगर इस प्रणाली में धान और तिलहन/दलहन की ज्यादा पैदावार वाली समुचित किस्में लगाकर और बेहतर उत्पादन प्रौद्योगिकी को अपनाते हुए वांछित उत्पादकता सुनिश्चित की जा सकती है। वास्तव में इस प्रणाली में धान और तिलहन/दलहन की पैदावार दोगुना किए जाने की सम्भावना मौजूद है। आमतौर पर इसमें मध्यम या कम समय की ज्यादा पैदावार वाली धान की किस्मों के साथ तिलहन/दलहन की फसल लेना सम्भव है। तिलहन/दलहन की फसल मार्च तक खेत में रहती है।

इस प्रणाली की उत्पादकता को बढ़ाने के लिये गर्मियों में एक और फसल लगाई जा सकती है। सूखा, वर्षा का असमान वितरण, सुनिश्चित सिंचाई के क्षेत्र की कमी, लाल बलुई और दोमट मिट्टी में रिसाव की वजह से नाइट्रोजन का क्षय इस फसल प्रणाली की उत्पादकता को सीमित करता है। पौधा रोपण में देरी, उच्च उत्पादकता वाली किस्मों का कम क्षेत्र में रोपा जाना, समयबद्ध खरपतवार, रोग और कीट नियंत्रण पर ध्यान नहीं दिया जाना तथा अच्छे बीजों की अपर्याप्त आपूर्ति की बाधाएँ भी हैं। इसके अलावा साक्षरता की कमी, सीमान्त और आदिवासी किसानों का अधिक अनुपात, खेत में मवेशी चराने की प्रथा तथा क्षेत्र के किसानों की जोखिम लेने की कम क्षमता भी उत्पादकता को प्रभावित करती है।

बाजरा-आधारित फसल प्रणाली


बाजरा कई अन्य अनाजों की तुलना में सूखे की स्थिति का ज्यादा अच्छी तरह सामना कर सकता है। इसलिये कम वर्षा और हल्की मिट्टी वाले क्षेत्रों में इसकी खेती को प्राथमिकता दी जाती है। भारत में बाजरे की खेती 1.24 करोड़ हेक्टेयर भूमि पर होती है। इसमें राजस्थान का हिस्सा 46 लाख हेक्टेयर है। महाराष्ट्र, गुजरात और उत्तर प्रदेश को मिलाकर 46 लाख हेक्टेयर से ज्यादा जमीन पर बाजरे की खेती की जाती है। इसकी खेती के 66 प्रतिशत क्षेत्र में दक्षिण-पश्चिमी मानसून के एक से चार महीनों में प्रतिमाह 10 से 20 सेंटीमीटर बारिश होती है।

समूचे देश में बाजरे के साथ लगभग 40 बड़ी फसल प्रणालियाँ देखी जाती हैं। खरीफ में बाजरे की खेती दलहन, मूँगफली, तिलहन, कपास, तम्बाकू और चारे के साथ एकल, मिश्रित और अन्तर-फसल के रूप में की जाती है। रबी मौसम में इसे गेहूँ, काबुली चना और सरसों के साथ लगाया जाता है। पोषकों का जरूरत से ज्यादा दोहन, मिट्टी की घटती उर्वरता, उर्वरकों के इस्तेमाल में असन्तुलन, पोषक तत्वों का घटता प्रभाव, भूमिगत जल के स्तर में गिरावट तथा रोगों, कीटों और खरपतवारों में बढ़ोत्तरी से इस प्रणाली की संवहनीयता प्रभावित होती है। किसान इस प्रणाली में बाजरे की जगह कोई ज्यादा लाभकारी फसल लगाने की जरूरत महसूस करने लगे हैं। यह परिवर्तन खेती की कई स्थितियों में सिर्फ भूमि की उर्वरता के लिये ही नहीं बल्कि आर्थिक दृष्टिकोण से भी महत्त्वपूर्ण साबित हो सकता है।

मक्का-गेहूँ प्रणाली


देश के उत्तरी पर्वतीय हिस्सों में मक्का खरीफ की प्रमुख फसल है। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश और बिहार जैसे उत्तरी राज्यों में भी काफी बड़े क्षेत्र में इसकी खेती होती है। मक्का-गेहूँ प्रणाली हर वर्ष प्रति हेक्टेयर 10 टन से ज्यादा खाद्यान्न उत्पादन में सक्षम है। पालमपुर में मक्का-गेहूँ प्रणाली की अधिकतम उत्पादन क्षमता हर वर्ष प्रति हेक्टेयर 14.21 टन दर्ज की गई है। यह प्रणाली ज्यादातर वर्षा-सिंचित क्षेत्रों में अपनाई जाती है। इसलिये वर्षा की अनिश्चितता से यह सबसे ज्यादा प्रभावित होती है। किसान आमतौर पर कम उपज वाली परम्परागत किस्में लगाते हैं। अनिश्चित वर्षा के अलावा खरपतवारों की मौजूदगी और पोषकों की कमी इस प्रणाली के सामने सबसे बड़ी चिन्ताएँ हैं।

गन्ना-गेहूँ प्रणाली


गन्ने की खेती लगभग 34 लाख हेक्टेयर में की जाती है। गन्ने की पैदावार का 68 प्रतिशत क्षेत्र उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और बिहार में है। गन्ना-रातून-गेहूँ सबसे महत्त्वपूर्ण फसल क्रम है। असम के जोरहाट, शिवसागर और सोनितपुर, महाराष्ट्र के अहमदनगर और कोल्हापुर तथा कर्नाटक के बेलगाम जिले में भी इस प्रणाली का उपयोग बढ़ रहा है। बड़े क्षेत्र में गन्ना-गेहूँ प्रणाली को अपनाने वाले अन्य राज्य हरियाणा, पंजाब, मध्य प्रदेश और राजस्थान हैं। इस प्रणाली में आने वाली समस्याएँ दोनों फसलों की देर से रोपनी, पोषकों का असन्तुलित और अपर्याप्त इस्तेमाल, गन्ने में नाइट्रोजन के इस्तेमाल की कम क्षमता, खराब अंकुरन के कारण रातून की उत्पादकता में कमी तथा गन्ने में ट्राईएंथिमा पार्टुलैकेस्ट्रम और साइप्रस रोटंडस का प्रकोप शामिल है। गन्ने की ठूँठ इसके बाद की गेहूँ की फसल के लिये खेतों की जुताई में परेशानी पैदा करती है और इनका प्रबंधन सही ढंग से किया जाना चाहिए। अधिकतर किसान गन्ने में सिर्फ नाइट्रोजन का इस्तेमाल करते हैं इसलिये फास्फोरस और पोटैशियम का उपयोग सीमित होता है। फास्फोरस, पोटैशियम, सल्फर और सूक्ष्म पोषकों की कमी से सीधे तौर पर और अन्य पोषकों से सम्पर्क के कारण इस प्रणाली की उत्पादकता घटती है।

कपास-गेहूँ प्रणाली


कपास की खेती पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की जलोढ़ तथा आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु और कर्नाटक की काली मिट्टी में होती है। कपास की कम समय में होने वाली किस्मों की उपलब्धता से कपास-गेहूँ प्रणाली उत्तर में प्रभावी हो गई है। कपास का 70-80 प्रतिशत क्षेत्र इसी प्रणाली के तहत आता है। मध्यवर्ती क्षेत्र में भी जहाँ कहीं सिंचाई उपलब्ध है वहाँ कपास-गेहूँ प्रणाली ही प्रयोग में लाई जा रही है। इस प्रणाली में एक प्रमुख समस्या कपास की कटाई के बाद गेहूँ लगाने में देरी की है। कपास के ठूंठों की वजह से गेहूँ के लिये खेत की जुताई ठीक तरह से नहीं हो पाती। कपास की ज्यादा फसल देने वाली किस्मों में डोडा कीट और व्हाइट फ्लाई लगने का खतरा रहता है। इनके नियंत्रण पर होने वाले ऊँचे खर्च की वजह से खेती असंवहनीय हो जाती है। कपास में नाइट्रोजन इस्तेमाल की खराब क्षमता प्रणाली की उत्पादकता को घटाती है। कपास के पौधों के बीच की बड़ी दूरी का उपयोग करने के लिये अन्तर-फसलन की समुचित प्रौद्योगिकी विकसित किए जाने की जरूरत है। कम समय में तैयार होने वाली और बीटी किस्मों से कपास-गेहूँ प्रणाली को देश के ज्यादातर हिस्सों में बनाए रखने में मदद मिली है।

फली-आधारित फसल प्रणाली


फली वाली फसलों में आमतौर पर दलहन और तिलहन शामिल हैं। ये फसलें विभिन्न फसल स्वरूपों के अनुकूल होती हैं। बड़ी संख्या में दलहन और तिलहन की कम समय में तैयार होने वाली किस्मों के विकास में हाल की प्रगति से उन्हें सिंचित फसल क्रम में शामिल करना सम्भव हो गया है। मध्य प्रदेश में अरहर/सोयाबीन-गेहूँ की, गुजरात, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में मूँगफली-गेहूँ की तथा आन्ध्र प्रदेश और कर्नाटक में मूँगफली-ज्वार की फसल प्रणालियाँ लोकप्रिय हैं। लेकिन फली-आधारित फसल प्रणाली में पैदावार बढ़ाने की प्रौद्योगिकी में अब तक कोई बड़ी सफलता नहीं मिली है। दलहन की फसलें प्रतिकूल मौसम, पानी के भराव तथा मिट्टी की खराब गुणवत्ता से बहुत प्रभावित होती हैं जिसकी वजह से उनकी उपज बहुत अस्थिर रहती है। ज्यादातर फलियों में रोग और कीट प्रतिरोधक क्षमता की कमी, कम उपज, फूल गिरने की समस्या, अनिश्चित विकास तथा उर्वरक और पानी के असर में कमी की परेशानियाँ होती हैं। प्रणाली की पोषकों की जरूरत का निर्धारण फली फसलों की नाइट्रोजन स्थिरीकरण क्षमता के आधार पर करना पड़ता है।

उपसंहार


कृषि प्रौद्योगिकी को पैदावार पर आधारित रखने के बजाय लाभोन्मुख संवहनीय खेती की ओर ले जाए जाने की जरूरत है। संवहनीय कृषि के विकास के लिये स्थितियाँ ज्यादा अनुकूल होती जा रही हैं। कुशल जलदोहन प्रौद्योगिकियों को बढ़ावा देने तथा उनके अनुरूप फसल और फसल प्रणालियों के चयन से पानी के संरक्षण और उसके बेहतर उपयोग को बल मिलेगा। इससे गरीब किसानों को अपनी फसलों की उत्पादकता को बढ़ाने में मदद मिलेगी। इससे जल-बहुल क्षेत्रों में पानी के स्रोतों के संवहनीय उपयोग के साथ ही लाखों सूक्ष्म अर्थव्यवस्थाएँ तैयार होंगी। जल संरक्षण की कम खर्चीली प्रौद्योगिकियों से पानी की तंगी वाले क्षेत्रों में सबसे गरीब तबके भी सिंचाई-आधारित कृषि को अपनाने में सक्षम बनेंगे।

लेखक परिचय


डॉ. वाई.एस. शिवे और डॉ. टीकम सिंह
लेखक द्वय क्रमशः भा.कृ.अ.सं., नई दिल्ली में कृषि विज्ञान विभाग में प्रमुख वैज्ञानिक एवं प्रोफेसर और कृषि अनुसंधान विभाग में वरिष्ठ वैज्ञानिक हैं। ई-मेल : ysshivay@hotmail.com, ई-मेल : tiku_agron@yahoo.co.in