सफेदे पर बहस

Submitted by admin on Fri, 02/12/2010 - 11:55
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नवचेतन प्रकाशन
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नवचेतन प्रकाशन
सफेदा एकदम सीधे तने वाले पेड़ों में से एक है। लेकिन उसके बारे में जो बहस उठी है, वह सीधी नहीं है।

देश के इस कोने से उस कोने तक सब जगह वन विभाग को इस पेड़ से बड़ा प्यार है। लगभग 5 लाख हेक्टेयर जमीन में विदेशी पेड़ लग चुके हैं और उनमें 80 प्रतिशत पेड़ सफेदे के हैं। उसके आलोचक बड़ी तल्खी से उसे पर्यावरण का खलनायक कहते हैं। क्योंकि उससे भूमिगत पानी की सतह सूखती जाती है, मिट्टी सत्वहीन बनती है, उसके नीचे दूसरा कोई पौधा उगता नहीं और आसपास के खेतों में भी खेती मुश्किल हो जाती है।

कर्नाटक में ‘रैयत संघ’ के सदस्यों ने चिकमंगलूर जिले की सरकारी जमीन और नर्सरियों में लगे सफेदे के लंबे पेड़ो-पौधों को उखाड़ फेंक दिया है। इस शक्तिशाली संघ ने सरकार को चेतावनी दी है कि सफेदा लगाना वह तुरंत बंद करे।

अगस्त 1983 में बंगलुरू से 30 किलोमीटर दूर होसकोटे तालुका में मया संद्रा के आसपास सफेदे के बागों का निरिक्षण करने पर्यावरण वालों का एक दल गया था। जिसमें श्री सुंदरलाल बहुगुणा, कर्नाटक उच्च न्यायालय के भूतपूर्व न्यायाधीश श्री चंद्रशेखर और प्रो बीवी. कृष्णमूर्ति थे। दौरे के बाद श्री बहुगुणा ने कहा, “सफेदे के पेड़ों से संभावित खतरों के बारे में मेले मन में कोई शंका नहीं रही, इसलिए सफेदे के पौधों को उखाड़ कर उस जगह कोई दूसरा उपयोगी पेड़ लगाने का अगर कोई व्यापक आंदोलन खड़ा होता है तो मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी।”

साफ लुटेरा


दल ने अपने दौरे के बाद विस्तार से लोगों को बताया, “सफेदे के पेड़ से जो पत्ते जमीन पर गिरते हैं, उनमें जरा भी नमी नहीं रहती। पत्तों का ढेर लग जाता है और चाहे जितनी घनी बारिश होवे सूखे के सूखे रहते हैं। उस जमीन में घास-पात उग नहीं पाती, गाय-बैल, भेड़-बकड़ी आदि कोई जानवर चरने नहीं जाते। इसलिए जैविक चीजें वहां सड़-गल नहीं पातीं।” मिट्टी को कोई पोषक तत्व नहीं मिलता, न वनस्पति तत्व जुटता है। पानी सतह की मिट्टी बेजान हो जाती है और जमीन कड़ी रेतीली नजर आने लगती है। ऊपरी सतह के नीचे भी सूक्ष्म जीव राशि रह नहीं जाती।

“इसका कारण यह बताया जाता है कि सफेदे की जड़ो से एक प्रकार का जहरीला रासायनिक तत्व रिसता है जो सभी सूक्ष्म जीव-जंतुओं को खत्म करता है। जहां पर ये पेड़ 10 साल से ज्यादा खड़े रह जाते हैं, बड़े पेड़ काटने पर दूसरी साखें फूटती रहती हैं, वहां इनकी जड़े इतनी गहरी और चौड़ी फैल जाती हैं कि दुबारा खेती करने के लिए जड़ें खोदकर साफ करना बहुत महंगा पड़ेगा। कोई भी साफ देख सकता है कि सफेदे के बागों के आसपास कुएं और तालाब सूख गए हैं।

किसान इस बारे में पिछले 20 वर्षों का अनुभव सुनाते हैं। सफेदे के पेड़ जहां खड़े हैं, उनके बगल के रागी के खेत में उससे लगती 30 से 50 फुट चौड़ी पट्टी में फसल बिलकुल नहीं उगती है और उससे आगे आगे की 30 से 50 फुट चौड़ी पट्टी में फसल बिलकुल कमजोर रहती है। सफेदे के किनारे से 60 से 100 फुट दूर पर ही ठीक पैदावार देखने को मिलती है। ऊपरी मिट्टी रेतीली हो जाती है, खेत रासायनिक तत्वों से खराब होता है, चारों ओर पानी की किल्लत बढ़ती है और पेड़ के बढ़ने के साथ जड़ें फैलती जाती हैं। उन्हीं सब कारणों से सफेदे के नीचे की जमीन को हमेशा के लिए छोड़ देना पड़ता है। महाराष्ट्र में भी यही दृश्य देखने को मिलता है। जीवन के मूल आधार भूमि और जल स्रोत स्थायी रूप से बिगड़ते हैं, खत्म हो जाते हैं।”

लेकिन दूसरे पक्ष की भी अपनी दलीलें है। निजी पेड़ लगाने वाले किसान और वन विभाग वाले सफेदे को बहुत पसंद करते हैं और उसे एक वरदान मानते हैं क्योंकि वह सूखे की हालत में भी पैदा होता है, पशु उसे चर नहीं पाते। बढ़िया पनपता है, अच्छा दाम मिलता है। पर्यावरण वाले भी सफेदे के हिमायती हैं जैसे श्री के उल्हास कारंत। वे कहते हैं, “यह जो आक्षेप है कि बंगाल के सूखे का कारण सफेदा है, उन पेड़ों की छाया नहीं मिलती, और घास-पात के अभाव से हजारों पशु मर गए, सब बेबुनियाद है कि “सफेदा गुजरात के किसानों के लिए बिलकुल वरदान सिद्ध हुआ है।”