मानसून पूर्व ही वर्षा वायुमंडल में छोटे पैमाने पर पड़ने वाली भंवरों के कारण होती है। पश्चिम बंगाल में इसे ‘काल वैशाखी’ कहते हैं। आषाढ़, सावन और भादों मानसूनी बारिश के महीने हैं। यह भी देखने में आया है कि जब मानसून की वर्षा एक बार शुरू हो जाती है तो लगभग एक सप्ताह तक चलती है।
मानसून की बरसात कई रूप दिखाती है। जहां यह कृषि के लिए जरूरी है तो कई क्षेत्रों में इसका रौद्र रूप भी दिखता है। देश में सटीक मानसून पूर्वानुमान की दिशा में कई प्रयोग चल रहे हैं। सूखे इलाकों में कृत्रिम वर्षा करवाने की कोशिशें भी जारी हैं। मौसम की तुनक-मिजाजी को देखते हुए देश में कृत्रिम वर्षा विभाग खोलने की घोषणा की जा चुकी है। इसके तहत वैज्ञानिक उन रसायनों पर विस्तृत शोध कार्य करेंगे, जिनका बादलों पर छिड़काव वर्षा लाएगा। वैसे ये प्रयास अमेरिकी वैज्ञानिकों ने भी किए थे। डॉ. विनसेट शोफर ने अमेरिका के स्केनेक्टेडी स्थान पर पहली बार बादलों को बरसने पर मजबूर किया था।
उन्होंने हवाई जहाज से ठोस कार्बन डाई-ऑक्साइड छिड़की, जिसका ताप 75-90 डिग्री सेंटीग्रेड था। इसके गिरते ही चार मील लंबा एक बादल देखते-देखते ओलों में बदल गया और 200 फुट नीचे तक धरती पर बारिश हुई। इससे पहले भी उन्नीसवीं सदी में कृत्रिम वर्षा के प्रयास हुए हैं, पर वह सफल नहीं रहे। हमारे देश में 1952 में कलकत्ता के प्रो़ बनर्जी ने अत्यंत ठंडे जल सिल्वर आयोडाइड और ठोस कार्बन डाई-आक्साइड छिड़क कर पानी बरसाया था। यह छिड़काव गुब्बारों से किया था। गुब्बारों में सिल्वर आयोडाइड के साथ बारूद के ब्लॉक रखे गए थे। उन्हें इस प्रकार व्यवस्थित किया गया था कि एक निश्चित ऊंचाई पर जाकर वे फट जाएं और बादलों में वर्षा के बीज बो दें।
1953 में मद्रास के डॉ. सेतुरमन ने जेनरेटर की मदद से सिल्वर आयोडाइड छिड़का और बादलों को बरसाया। 1955 में वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी अनुसंधान परिषद द्वारा वर्षा और मेघ प्रौद्योगिकी अनुसंधान इकाई की स्थापना की गई थी, जिसने राजस्थान के पाली क्षेत्र में कृत्रिम वर्षा के कई प्रयोग संपन्न किए।
प्लास्टिक के बादल
ये बादल प्लास्टिक की दोहरी दीवार से बने थे। स्याह काले रंग के दस्ताने जैसे ये बादल सूर्य की किरणों को सोख कर धीरे-धीरे फूलते थे। बादल के रूप में आकाश में तैरने लगते थे। रेगिस्तान में उठने वाली गर्म और नम हवा इसके निचले भाग पर संघनित हो जाती है और फिर ऊपर पहुंचते ही यह जल बरस पड़ता है। इस दिशा में अभी परीक्षण जारी है। कृत्रिम वर्षा का सफल परीक्षण सघनन के अत्यंत सरल प्रयोग पर आधारित है। कुछ रसायनों का छिड़काव कर कृत्रिम वर्षा करने में सफलता प्राप्त की जा चुकी है, पर प्लास्टिक के बादलों से बारिश का यह परीक्षण पहला ही है।
बादल चल चुके हैं, बस पहुंच रहे हैं
हमारा देश मानसून से सबसे अधिक प्रभावित होता है। महाकवि कालिदास ने ‘मेघदूत’ में तो मेघों को ही प्रेम का संदेशवाहक बनाया है। मेघदूत में वर्षा आगमन का जो समय बताया है, वह भी आधुनिक कैलेंडर में 15 जून के बाद का ही है। भारत में मानसून का जन्मदाता हिन्द महासागर है। मानसून की उत्पत्ति का मुख्य कारण सूर्य से अलग-अलग मात्र में ऊर्जा प्राप्ति है। सौर ऊर्जा का प्रभाव जल और थल पर अलग-अलग पड़ता है। ऊर्जा का ज्यादातर भाग धरती की सतह की बजाए उसके ऊपर बहने वाली वायु को गरम करता है, जबकि सागर में 200 मीटर की गहराई तक जल ताप बढ़ता है। इस अंतर से ही हवाएं उत्पन्न होती हैं। मानसूनी हवाएं ग्रीष्म और शीत दोनों ऋतुओं में पैदा होती हैं। ग्रीष्म में ये अधिक शक्तिशाली होती हैं। उत्तरी गोलार्ध में ये जून-जुलाई-अगस्त में अधिक प्रभावी होती हैं, जबकि सर्दियों में इनका प्रभाव जनवरी-फरवरी में अधिक होता है। इसके अलावा, दक्षिणी गोलार्ध से आने वाली हवाएं जून माह में उत्तरी गोलार्ध में काफी दूर तक दक्षिण-पूर्वी एशिया में जा पहुंचती है। ये हवाएं ही भारत में सर्दियों का मानसून कहलाती हैं। मोटे तौर पर यूं समझ लें कि हमारे देश में जून से लेकर सितंबर के अंत तक लगभग 125 दिनों तक मानसून की हवाएं चलती हैं।
भू-मध्य रेखा के निकट बहुत कम दाब का क्षेत्र तैयार होता है, जो डबल-ट्रफ यानी दोहरी द्रोणी कहलाता है। मानसून आरंभ होने से पहले डबल ट्रफ का उत्तरी क्षेत्र उत्तर-पूर्व को रवाना हो जाता है और इस तरह उत्तर-पश्चिम भारत, पाकिस्तान, सऊदी अरब आदि क्षेत्रों के ऊपर कम दबाव की स्थिति पैदा हो जाती है। उत्तर पूर्व की ओर बढ़ने के साथ ही दक्षिण गोलार्ध से आने वाली हवाएं भारत की ओर मुड़ जाती हैं और मानसून का रूप धारण कर दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर वर्षा की फुहारें लाती हैं। मई में मानसूनी हवाएं श्रीलंका और अंडमान-निकोबार जा पहुंचती हैं। जून का पहला सप्ताह खत्म होते-होते वे भारत के दक्षिण भाग में जा पहुंचती हैं। उनकी दो दिशाएं बन जाती हैं। एक तो अरब सागर में दक्षिण-पश्चिम, दूसरी बंगाल की खाड़ी से दक्षिण। हमारे देश में 70 फीसदी वर्षा अरब सागर से आने वाली हवाओं से ही होती है, जो जून के पहले सप्ताह में केरल के तट पर पहुंचती है और फिर उत्तर-पूर्व की दिशा में बढ़ती हुई जून के मध्य तक मुंबई जा पहुंचती है। लगभग इसी समय मध्य प्रदेश के पूर्वी भाग और सौराष्ट्र में भी पहुंचती है। जुलाई के पहले-दूसरे सप्ताह तक मानसून दिल्ली पहुंचता है। 15 जुलाई के बाद यह अंतत: कश्मीर पहुंच कर छुट-पुट वर्षा करता है।
मानसून पूर्व ही वर्षा वायुमंडल में छोटे पैमाने पर पड़ने वाली भंवरों के कारण होती है। पश्चिम बंगाल में इसे ‘काल वैशाखी’ कहते हैं। आषाढ़, सावन और भादों मानसूनी बारिश के महीने हैं। यह भी देखने में आया है कि जब मानसून की वर्षा एक बार शुरू हो जाती है तो लगभग एक सप्ताह तक चलती है। एक अनुमान के अनुसार मानसूनी वर्षा के एक सामान्य दिन में करीब 7 हजार 5 सौ टन करोड़ भाप हमारे पश्चिमी तट से उड़ कर देश के विभिन्न स्थानों में प्रवेश करती है। अब अगर मैदानी क्षेत्रों का कुल क्षेत्रफल 15 लाख वर्ग कि.मी. माना जाए तो पुष्टि होती है कि वर्षा ऋतु में हर दिन पूरे क्षेत्र में 1.7 सें.मी़ वर्षा होती है। यानी एक दिन में लगभग ढाई हजार करोड़ टन भाप पानी में बदलती है।
पूर्वानुमान का विशिष्ट भारतीय मॉडल
कुछ समय पूर्व भारतीय मौसम विभाग द्वारा मानसून पूर्वानुमान का विशिष्ट मॉडल तैयार किया गया। इस मॉडल मंढ 16 क्षेत्रीय और भौगोलिक स्थल, समुद्र वायुमंडलीय नमूनों का प्रयोग किया जाता है, जो देश की मानसूनी वर्षा के साथ भौतिक रूप से संबंधित है। मॉडल का प्रत्येक नमूना एक निश्चित समय और मानसून पूर्व दिये गये प्रेक्षणों पर आधारित होता है। मॉडल के पूर्वानुमान की त्रुटि में लगभग 4 प्रतिशत कम-ज्यादा की आशंका है। वर्षा मानसून ऋतु के दौरान होने वाली घटनाओं से भी प्रभावित होती है, जिसका पूर्वाभास मई से दीर्घावधि पूर्वानुमान तैयार करने के समय पूरी तरह से नहीं भी हो पाता।
देश का मौसम विज्ञान विभाग तीन बड़े भागों के लिए दीर्घावधि पूर्वानुमान मॉडल तैयार करने में प्रयत्नशील रहा है। इन मॉडलों के अच्छे प्रमाणों से प्रोत्साहित होकर मौसम विभाग ने तीन भागों के लिए मानसून वर्षा का पूर्वानुमान करने का प्रयास किया है। ये तीन भाग उत्तर पश्चिम भारत (उत्तर प्रदेश, हरियाणा, चंडीगढ़ और दिल्ली, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, राजस्थान सहित), प्रायद्वीप भाग (गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु और लक्षद्वीप सहित) और उत्तर-पूर्वी भारत (अंडमान निकोबार द्वीप समूह, मिजोरम, त्रिपुरा, सिक्किम, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और बिहार सहित) है। स्वनिर्मित पूर्वानुमान मॉडल, जो कि तीन भागों के लिए बनाये गये हैं, सांख्यिकी और गणितीय पद्धतियों जैसे पावर रिगरेस, न्यूरल नेटवर्क तथा डायनामिक स्टोकास्टिक ट्रांसफर पद्धतियों पर आधारित हैं। इनमें से न्यूरल नेटवर्क मॉडल से प्राप्त परिणाम पिछले कुछ वर्षो में बेहतर होने के नाते तीन बड़े भागों का इस वर्ष का पूर्वानुमान इसी मॉडल के आधार पर बनाया गया है।