बिन मानसून सब सून

Submitted by admin on Tue, 07/16/2013 - 10:22
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योजना, जुलाई 2012
मानसून मात्र गर्मी की तपिश से राहत दिलाने का ही नाम नहीं है। यह तो संपूर्ण ऋतु चक्र का आधार और जीवन को जीवंत करती सच्चाई है। लंबे समय से पपड़ाई, प्यासी धरती, मुरझाई और कुम्हलाए, अलसाए जीवों को गति देने का सहारा है मानसून। मानसून लरजा-गरजा तो पौं बारह, रूठा तो सब गुड़ गोबर। इधर वैज्ञानिक ने बादलों को बरबस बरसाने की दिशा में भी एक महत्वपूर्ण सफलता प्राप्त की है। प्रस्तुत है मानसून से जुड़े ऐसे ही रोचक पहलुओं का शोधपरक वैज्ञानिक विश्लेषण

कुछ समय पूर्व भारतीय मौसम विभाग द्वारा मानसून पूर्वानुमान का विशिष्ट मॉडल तैयार किया गया। इस मॉडल में 16 क्षेत्रीय और भौगोलिक स्थल, समुद्र वायुमंडलीय नमूनों का प्रयोग किया जाता है, जो देश की मानसूनी वर्षा के साथ भौतिक रूप से संबंधित है। मॉडल का प्रत्येक नमूना एक निश्चित समय और मानसून पूर्व दिए गए प्रेक्षणों पर आधारित होता है। मॉडल के पूर्वानुमान की त्रुटि में लगभग 4 प्रतिशत कम-ज्यादा की आशंका है। वर्षा मानसून ऋतु के दौरान होने वाली घटनाओं से भी प्रभावित होती है, जिसका पूर्वाभास दीर्घावधि पूर्वानुमान तैयार करने के समय पूरी तरह से नहीं भी हो पाता है। हमारा देश मानसून से सबसे अधिक प्रभावित होता है। महाकवि कालिदास ने मेघदूत में तो मेघों को ही प्रेम का संदेशवाहक बनाया है। मेघदूत में वर्ष आगमन का जो समय बताया गया है, वह आधुनिक कैलेंडर में भी 15 जून के बाद का ही है। सौर ऊर्जा का प्रभाव जल और थल पर अलग-अलग पड़ता है। ऊर्जा का ज्यादातर भाग धरती की सतह की बजाय उसके ऊपर बहने वाली वायु को गरम करता है, जबकि सागर में 200 मीटर की गहराई तक जल ताप बढ़ता है। इस अंतर से ही हवाएं उत्पन्न होती है। मानसूनी हवाएं ग्रीष्म और शीत दोनों ऋतुओं में पैदा होती हैं। ग्रीष्म में ये अधिक शक्तिशाली होती है। उत्तरी गोलार्द्ध में ये जून-जुलाई अगस्त में अधिक प्रभावी होती है, जबकि सर्दियों में इनका प्रभाव जनवरी-फरवरी में अधिक होता है। इसके अलावा, दक्षिणी गोलार्द्ध से आने वाली हवाएं जून माह में उत्तरी गोलार्द्ध काफी दूर तक दक्षिण पूर्वी एशिया में जा पहुंचती है। ये हवाएं ही भारत में सर्दियों का मानसून कहलाती है। मोटे तौर पर यों समझ लें कि हमारे देश में जून से लेकर सितंबर के अंत तक लगभग 125 दिनों तक मानसून की हवाएं चलती हैं।

भू-मध्यरेखा के निकट बहुत कम दाब का क्षेत्र तैयार होता है, जो डबल-ट्रफ यानी दोहरी द्रोणी कहलाता है। मानसून आरंभ होने से पहले डबल ट्रफ का उत्तरी क्षेत्र उत्तर पूर्व को रवाना हो जाता है और इस तरह उत्तर-पश्चिमी भारत, पाकिस्तान सऊदी अरब आदि क्षेत्रों के ऊपर कम दबाव की स्थिति पैदा हो जाती है। उत्तर पूर्व की ओर बढ़ने के साथ ही दक्षिण गोलार्द्ध से आने वाली हवाएं भारत की ओर मुड़ जाती हैं और मानसून का रूप धारण कर दक्षिण पश्चिम दिशा की ओर वर्षा की फुहारें लाती हैं। मई से मानसूनी हवाएं श्रीलंका और अंडमान-निकोबार जा पहुंचती है। जून का पहला सप्ताह खत्म होते-होते वे भारत के दक्षिण भाग में जा पहुंचती हैं। उनकी दो दिशाएं बन जाती हैं। एक तो अरब सागर में दक्षिण पश्चिम, दूसरी बंगाल की खाड़ी से दक्षिण हमारे देश में 70 फीसदी वर्षा अरब सागर से आने वाली हवाओं से ही होती है, जो जून के पहले सप्ताह में केरल के तट पर पहुंचती हैं और फिर उत्तर-पूर्व की दिशा में बढ़ती हुई जून के मध्य तक मुंबई जा पहुंचती है। लगभग इसी समय मध्य प्रदेश के पूर्वी भाग और सौराष्ट्र में भी पहुंचती है। जुलाई के पहले-दूसरे सप्ताह तक मानसून दिल्ली पहुंचता है। 15 जुलाई के बाद यह कश्मीर पहुंचकर छुट-पुट वर्षा करता है।

मानसून पूर्व भी वर्षा वायुमंडल में छोटे पैमाने पर पड़ने वाली भंवरों के कारण होती है। पश्चिम बंगाल में इसे ‘काल वैशाखी’ कहते हैं। आषाढ़ सावन और भादो मानसूनी बारिश के महीने हैं। यह भी देखने में आया है कि जब मानसून की वर्षा एक बार शुरू हो जाती है तो लगभग एक सप्ताह तक चलती है। एक अनुमान के अनुसार मानसूनी वर्षा के एक सामान्य दिन में करीब 7 हजार 5 सौ टन करोड़ भाप हमारे पश्चिमी तट से उड़कर देश के विभिन्न स्थानों में प्रवेश करती है। अब अगर मैदानी क्षेत्रों का कुल क्षेत्रफल 15 लाख वर्ग किमी माना जाए तो पुष्टि होती है कि वर्षा ऋतु में हर दिन पूरे क्षेत्र में 1.7 सेमी वर्षा होती है। यानी एक दिन में लगभग ढाई हजार करोड़ टन भाप पानी में बदलती है।

पूर्वानुमान का विशिष्ट भारतीय मॉडल


कुछ समय पूर्व भारतीय मौसम विभाग द्वारा मानसून पूर्वानुमान का विशिष्ट मॉडल तैयार किया गया। इस मॉडल में 16 क्षेत्रीय और भौगोलिक स्थल, समुद्र वायुमंडलीय नमूनों का प्रयोग किया जाता है, जो देश की मानसूनी वर्षा के साथ भौतिक रूप से संबंधित है। मॉडल का प्रत्येक नमूना एक निश्चित समय और मानसून पूर्व दिए गए प्रेक्षणों पर आधारित होता है। मॉडल के पूर्वानुमान की त्रुटि में लगभग 4 प्रतिशत कम-ज्यादा की आशंका है। वर्षा मानसून ऋतु के दौरान होने वाली घटनाओं से भी प्रभावित होती है, जिसका पूर्वाभास दीर्घावधि पूर्वानुमान तैयार करने के समय पूरी तरह से नहीं भी हो पाता है।

देश का मौसम विज्ञान विभाग तीन बड़े भागों के लिए दीर्घावधि पूर्वानुमान मॉडल तैयार करने में प्रयत्नशील रहा है। ये तीन भाग हैं उत्तर-पश्चिम भारत (उत्तर प्रदेश, हरियाणा, चंडीगढ़ और दिल्ली, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, राजस्थान), प्रायद्वीप भाग (गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल तमिलनाडु और लक्षद्वीप) और उत्तर-पूर्वी भारत (अंडमान-निकोबार द्वीप समूह, मिजोरम, त्रिपुरा, सिक्किम, पश्चिम बंगाल, ओडिशा और बिहार)। स्वनिर्मित पूर्वानुमान मॉडल, जोकि तीन भागों के लिए बनाए गए हैं, सांख्यिकी और गणितीय पद्धितियों जैसे पावर रिगरेस, न्यूरल नेटवर्क तथा डायनॉमिक, स्टोकास्टिक ट्रांसफर पद्धतियों पर आधारित है। इनमें से न्यूरल नेटवर्क मॉडल से प्राप्त परिणाम पिछले कुछ वर्षों में बेहतर होने के नाते तीन बड़े भागों का इस वर्ष का पूर्वानुमान इसी मॉडल के आधार पर बनाया गया है।

प्लास्टिक के बादल


ये बादल प्लाटिक की दोहरी दीवार से बनते हैं। स्याह काले रंग के दस्ताने जैसे ये बादल सूर्य की किरणों को सोख कर धीरे-धीरे फूलते हैं और बादल के रूप में आकाश में तैरने लगते हैं। रेगिस्तान में उठने वाली गर्म और नम हवा इसके निचले भाग पर संघनित हो जाती है और फिर ऊपर पहुंचते ही यह जल बरस पड़ता है। इस दिशा में अभी परीक्षण जारी है। कृत्रिम वर्षा का सफल परीक्षण संघनन के अत्यंत सरल प्रयोग पर आधारित है। कुछ रसायनों का छिड़काव कर कृत्रिम वर्षा करने में सफलता प्राप्त की जा चुकी है, पर प्लास्टिक के बादलों से बारिश का यह परीक्षण पहला ही है।

क्यों डरते हैं बिजली से हम


तेज बरसात के साथ कड़कती बिजली भय पैदा करती है, इस विषय को अपने शोध का आधार बनाते हुए अमरीका की सुप्रसिद्ध यौन विशेषज्ञा डॉ. जूडी कुरियांसी बताती हैं कि कड़कती बिजली से जब भय पैदा होता है तो अक्सर महिला या तो पुरुष साथी के नजदीक आ जाती हैं या फिर उनसे लिपट जाती हैं। इसी श्रृंखला में कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के डॉ. स्टुअर्ट की रिपोर्ट बताती हैं कि अचानक कोई धमाका, झटका या शोर महिलाओं में भय पैदा कर देता है और वह अनजाने ही पुरुष साथी से लिपट जाती हैं। बरसात में कड़कती बिजली इसी का माध्यम बनती है। रिपोर्ट के अनुसार पुरुषों में अचानक महिला साथी का स्पर्श रोमांच पैदा कर देता है, जो यौन रसायनों का स्राव पैदा करता है।

इसी प्रकार के परीक्षणों में ऑक्सीटोन, एड्रोनेलिन, जैसे रसायनों का स्राव तीव्र पाया गया है। इसमें दो राय नहीं कि गर्मी दूरिया बढ़ाती हैं और बरसात में मन प्रफुल्ल हो उठता है।

सुकून देता है बरसात


रिमझिम बारिश, बरसात में नहाई धरती सौंधी-सौंधी खुशबू देने लगती है। यूनिवर्सिटी ऑफ पीटर्सबर्ग की रोचक शोध रिपोर्ट बताती है कि यह गंध मानव मस्तिष्क में तत्काल बदलाव ले आती है। रिपोर्ट के अनुसार, यह महक न केवल मनः स्थिति को बदल देती है बल्कि हमें सुकून देकर बेचैन कर डालती है। चिकित्सीय रिपोर्ट बताती है कि हमारे मस्तिष्क में इस गंध को पहचानने वाले न्यूरांस होते हैं, जिन्हें बरसात की गंध छेड़ जाती है। इसी संदर्भ में यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन की रिपोर्ट उल्लेखनीय है, जिसके अनुसार गर्मी में निकले पसीने की गंध दुर्गंध देती है, जबकि बरसात में भीगे देह का गंध आनंददायी होता है।

बरबस बरसेंगे बदरा


मौसम की तुनकमिजाजी को देखते हुए देश में कृत्रिम वर्षा विभाग खोलने की घोषणा की जा चुकी है। इसके तहत वैज्ञानिक उन रसायनों पर विस्तृत शोध कार्य करेंगे, जिनका बादलों पर छिड़काव वर्षा लाएगा। वैसे यह प्रयास अमरीकी वैज्ञानिकों ने भी किया था। डॉ. विनसेट शोफर ने अमरीका के स्केनेक्टेडी में पहली बार बादलों को बरसने पर मजबूर किया था। उन्होंने आकाश में हवाई जहाज से ठोस कार्बन डाइऑक्साइड का छिड़काव किया, जिसका ताप 75-90 डिग्री सेंटीग्रेड था। इसके गिरते ही चार मील लंबा एक बादल देखते-देखते ओलों में बदल गया और 200 फुट नीचे तक धरती पर बारिश हुई। इससे पहले भी उन्नीसवीं सदी में कृत्रिम वर्षा के प्रयास हुए हैं, पर सफल नहीं रहे। हमारे देश में 1952 में कोलकाता के प्रो. बनर्जी ने अत्यंत ठंडे जल सिल्वर आयोडाइड और ठोक कार्बन डाइऑक्साइड छिड़कर पानी बरसाया था। यह छिड़काव गुब्बारों से किया गया था। गुब्बारों में सिल्वर आयोडाइड के साथ बारूद के ब्लॉक रखे गए थे। उन्हें इस प्रकार व्यवस्थित किया गया था कि एक निश्चित ऊंचाई पर जाकर वे फट जाएं और बादलों में वर्षा के बीज बो दें। 1953 में मद्रास के डॉ. सेतुरमन ने जेनरेटर की मदद से सिल्वर आयोडाइड छिड़काव और बादलों को बरसाया। 1955 में वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी अनुसंधान परिषद द्वारा वर्षा और मेघ प्रौद्योगिकी अनुसंधान इकाई की स्थापना की गई थी, जिसने राजस्थान के पाली क्षेत्र में कृत्रिम वर्षा के कई प्रयोग संपन्न किए।

(लेखक भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद में प्रधान संपादक एवं तकनीकी अधिकारी हैं

ई-मेल ; kuldeep328@gmail.com)