सन्थाल परगना का राजमहल अंचल बिहार-झारखंड में ईस्ट इंडिया कम्पनी के औपनिवेशिक शासन के अन्तर्गत आनेवाले सबसे पहले क्षेत्रों में था। पलासी की लड़ाई (1757) के करीब छः साल बाद, राजमहल से छः मील दक्षिण गंगा के किनारे स्थित ऊधवा नाला की लड़ाई में मेजर एडम्स की कमान में कम्पनी की सेना ने मीर कासिम की सेना को निर्णायक शिकस्त देकर इस क्षेत्र में औपनिवेशिक शासन का आगाज किया था। 5 सितम्बर, 1763 की इस लड़ाई में मीर कासिम की करीब 40,000 की सेना के लगभग 15,000 सैनिक मारे गए थे। सन्थाल परगना के उत्तरी और भागलपुर तथा मुँगेर के दक्षिणी इलाकों के विस्तृत अंचल को तब जंगलतरी (अथवा जंगल तराई) के नाम से जाना जाता था। यह पहाड़िया जनों का वास स्थान था। यह पूरा क्षेत्र उन दिनों ‘अशान्त, उपद्रवग्रस्त’ क्षेत्र था। कम्पनी शासकों के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती पहाड़िया जनों को ‘शान्त’ करना और उन्हें कम्पनी शासन के मातहत लाना था। 1772 में वारेन हेस्टिंग्स ने कैप्टन ब्रुक को इस अशान्त जंगलतरी का सैनिक गवर्नर नियुक्त किया। 1774 में उनका स्थान कैप्टन जेम्स ब्राउन ने लिया और 1779 ई. में भागलपुर के कलेक्टर के रूप में ऑगस्टस क्लीवलैंड इस क्षेत्र के प्रभारी बने।
1772 से 1780 तक जंगलतरी एक जिला था। इस जिले में जामताड़ा और गंगा तथा राजमहल पहाड़ी के बीच संकरे समतली इलाके को छोड़कर (आज का) पूरा सन्थाल परगना, हजारीबाग का खड़गडीहा, मुँगेर का दक्षिणी गिद्धौर, भागलपुर का दक्षिण खड़गपुर का क्षेत्र शामिल था। 1780 तक पाकुड़ का महेशपुर (सुल्तानाबाद ) परगना राजशाही प्रमंडल का हिस्सा था। ( राजशाही अब बंगलादेश में है।) पहाड़िया क्षेत्र को व्यवस्थित करने के क्रम में 1781 में क्लीवलैंड इस क्षेत्र को भागलपुर जिले के अन्तर्गत ले आए। 1780 से 1855 के बीच सन्थाल परगना का वर्तमान क्षेत्र दो जिलों में बँटा था। राजमहल, पाकुड़, दुमका और गोड्डा का क्षेत्र भागलपुर जिले का अंग था और देवघर-जामताड़ा क्षेत्र बीरभूम जिले का। 1855 के सन्थाल हूल (विद्रोह) के बाद 1855 के एक्ट XXXVII के तहत इन सारे क्षेत्रों को मिलाकर सन्थाल परगना जिले का निर्माण किया गया। दुमका या नया दुमका इस नए जिले का मुख्यालय बना। यह जिला भागलपुर प्रमण्डल के अन्तर्गत था। बाद में सन्थाल परगना प्रमण्डल बना। दुमका प्रमण्डलीय मुख्यालय बना और पाकुड़, साहबगंज, गोड्डा, जामताड़ा, देवघर इसके जिले बने। बाद में सन्थालपरगना प्रमण्डल बना।
दुमका प्रमण्डलीय मुख्यालय बना और पाकुड़, साहबगंज, गोड्डा, जामताड़ा, देवघर इसके जिले बने। महेशपुर और पकुड़िया पाकुड़ जिले में पड़ता है। महेशपुर का क्षेत्रफल 162.20 वर्गमील है। इसमें कृषि योग्य भूमि 32608 हेक्टेयर है। जबकि पकुड़िया प्रखण्ड का कुल क्षेत्रफल 67018.19 हेक्टेयर है। सिंचित भूमि नाम मात्र है। पेयजल के लिए इन दोनो प्रखण्डों की 20 फीसदी आबादी बांसलोई और ब्राह्मणी नदी पर निर्भर है। शेष आबादी प्राकृतिक नालों झरनों और तालाबों पर। सरकारी चापाकलों में जानवर बँधे दिखते हैं, क्योंकि भूगर्भ का जलस्तर काफी नीचे चला गया है। खराब हुए चापाकलों को कभी ठीक नहीं कराया गया। गाँव के उपमुखिया अभिषेक सिंह और सत्यनारायण सिंह उर्फ लाल्लू दा कहते हैं कि- ''1972-73 में सोलापटिया महेशपुर में पानी निकालने के लिए कुँआ बनवाया गया। पम्प हाउस बने, आॅपरेटर और अन्य स्टॉफ नियुक्त किए गए। यह काम लघु सिंचाई के अन्तर्गत हुए। लेकिन सफल नहीं हो पाया।'' कारण चाहे जो रहा हो। अधिकारियों ने इसे सूखे मन से बनाया या फिर योजना लूट खसोट के हिस्से चढ़ गई। उस समय यह योजना लघु सिंचाई योजना के कार्यालय अमरापाड़ा के अधीन था। इसके देख-रेख के लिए अभियन्ता, कार्यपालक अभियन्ता और कनीय अभियन्ता जैसे अधिकारी नियुक्त हुए।
बाद में महेशपुर प्रखण्ड के बीचों-बींच बहने वाली बांसलोई नदी के दोनो किनारे बासमती से लेकर नुड़ाय गाँव तक उद्वह सिंचाई योजना के केन्द्र कुकुरमुत्तों की तरह उगे हुए हैं। अशोक कुमार सिंह की माने तो महेशपुर प्रखण्ड में 20 उद्भव सिंचाई योजनाएँ हैं। बासमती, सोलापटिया, धोवन्ना, आवापुर, जगदीशपुर, बाबूपुर, इंगलिस कठसल्ला, लुड़ाई में ये योजानाएँ हैं। सत्यनारायण सिंह उर्फ लाल्टू दा कहते हैं कि लचर व्यवस्था रहने के कारण सफलीभूत नहीं हो पाई है। इन योजनाओं से 40 एकड़ में पटवन का लक्ष्य रखा गया था। लेकिन एक एकड़ में भी पटवन नहीं हो सका है। प्रखण्ड मुख्यालय से 10 किलोमीटर की दूरी पर पगला वियर योजना है जो पगला नदी को बाँधकर एक नहर के जरिए किसानों को सिंचाई हेतु पानी मुहैया कराने के लिए बनी वह आज तक सफल नहीं हो सकी। हर साल नहर की मिट्टी कटाई के नाम पर राशि खर्च होती है। इस राशि का बंदरबांट होता आया है। आज के दिन तो सब ठप्प-सिर्फ ऑफिस टीप-टॉप।
दरअसल में झारखण्ड बनने के पूर्व और बाद सरकारी महकमें की कार्य प्रणाली में कोई सुधार नहीं हुआ है। किसानों ने चाइना पम्प लगाकर खेती के लिए सिंचाई का काम करते हैं। यह पाँच एच.पी का मोटर है। इसकी विशेषता 900 फीट तक पानी पहुँचाने की है। साथ ही इसका उपयोग थ्रेसर और अन्य कामों में करते हैं। यहाँ ट्राइवल रूरल डेवलपमेंट प्रोजेक्ट का फायदा बांसलोई के दक्षिणी क्षेत्र के कुछ तटीय इलाकों में हुआ। यहाँ गैर आदिवासी समुदाय के लोग अधिक हैं। बांसलोई , ब्राह्मणी, पगला नदियों के किनारे हरी-भरी फसल नदियों के पानी के उपायोग का नतीजा है जो प्राचीन 52 पहाड़ों के राज, महेशपुर राज का नतीजा है। सरकारी प्रयास का सफलता बहुत कम है। दरअसल में ये पहाड़ पहाड़िया और सन्थाल आदिवासियों के लिए नहीं हैं, पूरे उत्तर भारत की सदानीरा नदियों के प्राण हैं। गंगा हिमालय से निकलती है, लेकिन लम्बी दूरी तय करने के बाद वह तरो-ताजा होती है तो राजमहल पहाड़ियों से ये पहाड़ जंगल और वर्षा के आधार हैं। ये जंगल बांसलोई, ब्राह्मणी, पगला, गुमानी, मोर, तोरई जैसी नदियों पूरे साल पानी से भरे रखने में मदद करती रही हैं। जंगलों की कटाई का असर इन नदियों पर भी पड़ा है। वैसे ये दामिन क्षेत्र के जीवन आधार हैं।
झारखण्ड के मुख्यमन्त्री रघुवर दास सन्थाल परगना दौरे के क्रम में पाकुड़ आये हुए थे। पाकुड़ में मुख्यमन्त्री द्वारा की गई घोषणाओं की महेशपुर में जोरदार चर्चा हो रही थी। प्रदीप कुमार सिंह 'फेलू दा' कहते हैं कि - पेयजल के संकट को दूर करने के लिए हर जिले को एक-एक करोड़ दिये गये हैं। सन्थाल परगना में लम्बित सिंचाई परियोजनाओं की बाधा दूर करने व चेक डैम, कुएँ तथा तालाबों को बरसात के पहले पूरा कराने हेतु जिला उपायुक्तों को आदेश दिये गये हैं। पाकुड़ जिला सहित महेशपुरराज में बिजली आपूर्ति दुरुस्त कर दी जायेगी...। गाँव के बुजुर्ग अवकाश प्राप्त कर्मचारी सत्यनारायण सिंह लक्खू दा का कहना है कि-,'बिजली वाली बात तो ठीक है। सरकार जोर लगायेगी तो हो जायेगा, पर सिंचाई योजनाओं का क्या?
हमारे महेशपुर में ही करोड़ों रुपये खर्च कर बांसलोई नदी पर बासमती से लेकर जगहों पर लिफ्ट इरीगेसन की योजना शुरू की गई। कुएँ बने, पम्प हाउस बने, इंजीनियर से लेकर ऑपरेटर, नाईट गार्ड, खलासी तक की बहाली हुई। जेनेरेटर लगे, बिजली कनेक्शन हुआ। कहीं कारगर नहीं हुई। पीने के पानी की समस्या अलग। एक तो पानी में आयरन की अधिक मात्रा बीमारी का सबब, दूसरे इस गर्मी के मौसम में पानी का लेवल एकदम नीचे।' बांसलोई नदी, नदी क्या, बस यूँ कहें कि बालू का ढेर! चैत में 'सावन' की मेहरबानी से इधर-उधर जल की महीन रेखाएँ जरूर खिंच गई हैं। गोड्डा के बाँस पहाड़ से निकलकर पछवारा, सिलंगी, कुसकिरा से महेशपुर होते हुए बांसलोई नदी मुरारई (प.बं) पार कर भागीरथी में मिलती है। कभी यह सन्थाल परगना की 'लाईफ लाईन' कहलाती थी। जिले में सुखाड़ व अल्पवृष्टि की सम्भावना को देखते हुए सरकार ने पेयजल के लिए पाकुड़ जिला को दो करोड़ रुपये आवंटित किया है। यह राशि उपायुक्त के माध्यम से पेयजल व स्वच्छता विभाग को भेजी जाएगी। यह राशि नलकूप लगाने, छोटा व बड़ा बोरिंग करने तथा कुआँ बनाने में खर्च किए जाएँगे। जिले को अब तक 167.15 करोड़ राशि उपलब्ध करा दी गई है।
पेयजल व स्वच्छता विभाग वैसे इलाके को चिह्नित करने में जुटी है जहाँ पानी चार मीटर नीचे चल गया है। वहाँ नए सिरे से पेयजल की व्यवस्था होगी। सरकार की ओर से उपलब्ध राशि में 30.70 लाख की लागत से नलकूप लगाने की योजना है। वहीं राइजर पाइप (सड़ा हुआ पाइप) को बदलने के लिए करीब 98.59 लाख खर्च किया जाना है। इसके अलावा आवश्यकता पड़ने पर छोटा व बड़ा बोरिंग किया जाएगा। कुआँ का भी निर्माण कराया जाना है। यह सारा काम सांसद व क्षेत्रीय विधायक के अनुशंसा के आधार पर किया जाना है। दूसरी ओर पेयजल व स्वच्छता विभाग जिले के सभी प्रखण्डों में सर्वे का काम शुरु कर दिया है। विभाग वैसे स्थल का चयन करेंगे जहाँ पानी चार मीटर नीचे चला गया है।