सूखे का डर

Submitted by admin on Sun, 04/27/2014 - 10:27
Source
जनसत्ता, 26 अप्रैल 2014

औद्योगिक इकाइयां ढेर सारा पानी इस्तेमाल करती हैं और फिर उसे विषैला बना कर छोड़ देती हैं। कीटनाशकों और तरह-तरह के रसायनों के घुलते जाने से आसानी से उपलब्ध पानी का भी एक खासा हिस्सा अनुपयोगी हो जाता है। फिर, पानी के बाजारीकरण ने भी जल संकट को और तीव्र बनाया है। इसने पानी को अब एक उत्पाद के रूप में मानने की धारणा को बढ़ावा दिया है। पर पानी हर इंसान की जरूरत है, चाहे उसकी कोई क्रय-शक्ति हो या न हो। वह पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों की भी जरूरत है।

भारतीय मौसम विभाग की भविष्यवाणी हर बार सही साबित नहीं हुई है। यह बात लंबी अवधि के बारे में की गई भविष्यवाणियों पर अधिक लागू होती है। पिछले साल मानसून के पहले आ जाने और देश के कई हिस्सों में बरसात की सामान्य अवधि बीत जाने के बाद भी बने रहने और फिर इस साल गर्मी की शुरुआत से पूर्व जब-तब हुई बारिश का पूर्वानुमान वह नहीं लगा पाया था।

ज्यादा पीछे जाएं तो पूर्वानुमानों के गलत निकलने के बहुत-से उदाहरण मिल जाएंगे। लेकिन इन अनुभवों के बावजूद, मौसम विभाग की इस साल सामान्य से कुछ कम बारिश होने की चेतावनी को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। इसलिए कि उसने संबंधित आंकड़ें इकट्ठा करने और उनका विश्लेषण करने की अपनी क्षमता बढ़ाई है और अब सोलह मानकों पर आधारित बरसात संबंधी अध्ययन के ऐसे मॉडल को उसने अपनाया है जो दुनिया भर में सबसे वैज्ञानिक माना जाता है।

दूसरे, जिस अल नीनो प्रभाव के बढ़ने का हवाला हमारे मौसम विभाग ने दिया है, उसके बारे में मौसम के अध्ययन से वास्ता रखने वाली कई अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां पहले ही संकेत दे चुकी हैं। भारतीय मौसम विभाग का कहना है कि इस साल दक्षिण पश्चिम मानसून सामान्य से कुछ कमजोर रहेगा, जिसके चलते पंचानवे फीसद ही बरसात होने की संभावना है।

यह अनुमान पूरी वर्षा ऋतु के बारे में है, जो कि जून से सितंबर के बीच होती है। यो पांच फीसद की कमी कोई ज्यादा नहीं लगती, पर देश में जमीन की नमी की सालाना जरूरत का सत्तर फीसद दक्षिण पश्चिम मानसून ही पूरा करता है। इसलिए ताजा भविष्यवाणी ने सूखे का अंदेशा पैदा किया है। अल नीनो प्रभाव बारिश वाले बादलों के बनने में बाधक होता है, जिसके चलते पिछले बारह वर्षों में तीन बार देश को सूखे का सामना करना पड़ा है। इस बार उस हद तक सूखा पड़े या नहीं, हालात से निपटने की तैयारी रहनी चाहिए।

हमारे देश में साठ फीसद लोग गांवों में रहते हैं और अगर बरसात सामान्य से कम हो, तो उनकी आर्थिक स्थिति पर बुरा असर पड़ता है। महंगाई बढ़ सकती है, विकास दर भी प्रभावित होगी। लेकिन सूखे का मामूली अंदेशा भी बहुत डरावना लगता है तो इसलिए कि हमने पानी को बचाने और सहेजने के तकाजे की परवाह करना छोड़ दिया है।

पानी की बर्बादी रोजाना हर तरफ दिखती है। नदियां और दूसरे जल-स्रोत दिनोंदिन और प्रदूषित होते जा रहे हैं। दशकों से ऐसी कृषि प्रणाली की बढ़ावा दिया जाता रहा है जिसमें पानी की बेहिसाब खपत होती है। इससे भूजल का अंधाधुंध दोहन होता है और फलस्वरूप देश के बहुत सारे इलाकों में धरती के नीचे का जल भंडार खाली होता जा रहा है।

औद्योगिक इकाइयां ढेर सारा पानी इस्तेमाल करती हैं और फिर उसे विषैला बना कर छोड़ देती हैं। कीटनाशकों और तरह-तरह के रसायनों के घुलते जाने से आसानी से उपलब्ध पानी का भी एक खासा हिस्सा अनुपयोगी हो जाता है। फिर, पानी के बाजारीकरण ने भी जल संकट को और तीव्र बनाया है।

इसने पानी को अब एक उत्पाद के रूप में मानने की धारणा को बढ़ावा दिया है। पर पानी हर इंसान की जरूरत है, चाहे उसकी कोई क्रय-शक्ति हो या न हो। वह पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों की भी जरूरत है। प्रकृति पर हमारा वश नहीं है। पर पानी को सहेजने और इस्तेमाल करने का विवेक फले-बढ़े तो बारिश में कुछ कमी कोई खास परेशानी का सबब नहीं बन पाएगी।