बेलू वाटर नामक संस्थान ने कोरसीना बांध परियोजना के लिए 18 लाख रुपये का अनुदान देना स्वीकार कर लिया। इस छोटे बांध की योजना में न तो कोई विस्थापन है न पर्यावरण की क्षति। अनुदान की राशि का अधिकांश उपयोग गांववासियों को मजदूरी देने के लिए ही किया गया। मजदूरी समय पर मिली व कानूनी रेट पर मिली। इस तरह गांववासियों की आर्थिक जरूरतें भी पूरी हुईं तथा साथ ही ऊंचे पहाड़ी क्षेत्र में पानी रोकने का कार्य तेजी से आगे बढ़ने लगा।
जहां एक ओर बहुत महंगी व विशालकाय जल-परियोजनाओं के अपेक्षित लाभ नहीं मिल रहे हैं, वहां दूसरी ओर स्थानीय लोगों की भागेदारी से कार्यान्वित अनेक छोटी परियोजनाओं से कम लागत में ही जल संरक्षण व संग्रहण का अधिक लाभ मिल रहा है। राजस्थान व बुंदेलखंड के जलसंकट ग्रस्त क्षेत्रों में ऐसे कुछ प्रेरणादायक प्रयासों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। कोरसीना पंचायत व आसपास के कुछ गांव पेयजल के संकट से इतने त्रस्त हो गए थे कि कुछ वर्षों में इन गांवों के अस्तित्व का संकट उत्पन्न होने वाला था। दरअसल राजस्थान के जयपुर जिले के दुधू ब्लाक में स्थित यह गांव सांभर झील में नमक बनाता है पर इसका प्रतिकूल असर आसपास के गांवों में खारे पानी की बढ़ती समस्या के रूप में सामने आता रहा है। गांववासियों व वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता लक्ष्मी नारायण ने खोजबीन कर पता लगाया कि पंचायत के पास के पहाड़ों के ऊपरी क्षेत्र में एक जगह बहुत पहले किसी राजा-रजवाड़े के समय एक जल-संग्रहण प्रयास किया गया था।इस ऊंचे पहाड़ी स्थान पर जल-ग्रहण क्षेत्र काफी अच्छा है व कम स्थान में काफी पानी एकत्र हो जाता है। अधिक ऊंचाई के कारण यहां सांभर झील के नमक का असर भी वहां नहीं पहुंचता है। पर अब यह टूट-फूट गया था व बांध स्थल में गाद भर गई थी। काफी प्रयास किया गया कि यहां नए सिरे से पानी रोकने के लिए जरूरी निर्माण कार्य किया जाए। परंतु सफलता नहीं मिली। इस बीच एक सड़क दुर्घटना में लक्ष्मीनारायण जी का देहान्त हो गया। इस स्थिति में पड़ोस के गांवों में कई सार्थक कार्यों में लगी संस्था बेयरफुट कालेज ने यह निर्णय लिया कि लक्ष्मी नारायण के इस अधूरे कार्य को जैसे भी हो अवश्य पूरा करना है। इस बीच बेलू वाटर नामक संस्थान ने कोरसीना बांध परियोजना के लिए 18 लाख रुपये का अनुदान देना स्वीकार कर लिया।
इस छोटे बांध की योजना में न तो कोई विस्थापन है न पर्यावरण की क्षति। अनुदान की राशि का अधिकांश उपयोग गांववासियों को मजदूरी देने के लिए ही किया गया। मजदूरी समय पर मिली व कानूनी रेट पर मिली। इस तरह गांववासियों की आर्थिक जरूरतें भी पूरी हुईं तथा साथ ही ऊंचे पहाड़ी क्षेत्र में पानी रोकने का कार्य तेजी से आगे बढ़ने लगा। जल ग्रहण क्षेत्र का उपचार कर इसकी हरियाली बढ़ाई गई। खुदाई से जो मिट्टी व बालू मिली उसका उपयोग मुख्य बांध स्थल से नीचे और मेढ़बंदी के लिए भी किया गया ताकि आगे भी कुछ पानी रुक सके। कोरसीना बांध के पूरा होने के एक वर्ष बाद ही इसके लाभ के बारे में स्थानीय गांववासियों ने बताया कि इससे लगभग 50 कुंओं का जलस्तर ऊपर उठ गया। अनेक हैंडपंपों व तालाबों को भी लाभ मिला। कोरसीना के एक मुख्य कुंए से पाईपलाइन अन्य गांवों तक पंहुचती है जिससे पेयजल लाभ अनेक अन्य गांवों तक भी पहुंचता है।
यदि यह परियोजना अपनी पूरी क्षमता प्राप्त कर पाई तो इसका लाभ 20 गांवों, 13874 गांववासियों व खेती-किसानी से जुड़े पशुओं को भी मिल सकता है। इसके अतिरिक्त वन्य जीव-जंतुओं, पक्षियों की जो प्यास बुझेगी वह अलग है। इसी तरह जिला अजमेर के मंडावरिया व पालोना गांवों में भी कम बजट में बहुत से गांववासियों व पशुओं की प्यास बुझाने वाली परियोजनाएं हाल ही में कार्यान्वित हुईं हैं जिनमें बेयरफुट कालेज ने भरपूर सहयोग दिया है। इन दोनों परियोजनाओं का क्रियान्वयन सहयोगी संस्था तिलोनिया शोध एवं विकास संस्थान ने किया है।
वर्षा के जल को संजोने-समेटने के लिए इन परियोजनाओं में मेढ़बंदी की गई, बंधे व चेकडैम बनाए गए। नए तालाब बनाए गए व पुराने तालाबों का जीर्णोद्धार भी किया गया। वेग से बहते हुए पानी को रोकने के लिए उचित स्थानों पर खाईयां बनाई गईं, वृक्षारोपण किया गया। हाल के समय में आर्गेनिक खेती का यथासंभव प्रसार किया गया जिससे मिट्टी की नमी ग्रहण क्षमता बढ़ती है।
बुंदेलखंड के चित्रकूट जिले के पाठा क्षेत्र का नाम तो बार-बार जल-संकट के कारण वर्षों तक चर्चित होता रहा है। हाल के समय में मानिकपुर प्रखंड की तीन पंचायतों में वाटरशेड विकास की तीन परियोजनाओं ने एक नई उम्मीद जगाई है कि सूखी धरती व प्यासे लोगों को राहत देने के सस्ते उपाय भी असरदार व टिकाऊ समाधान दे सकते हैं। ये उपाय मूलतः वर्षा के जल के संग्रहण और संरक्षण पर आधारित हैं। भूमि प्रबंधन ऐसा किया जाता है कि वर्षा का जल तेजी से न बह जाए अपितु जगह-जगह रुकता हुआ, रेंगता हुआ आगे बढ़े और जितना हो सके यहां की धरती में ही समा जाए। खेत का पानी खेत में और गांव का पानी गांव में बच सके, यहां के तालाबों में पानी आए, कुंओं व हैंडपंप का जल-स्तर ऊपर आ जाए व धरती में इतनी आद्रता बनी रहे कि तरह-तरह की हरियाली पनप सके।इटवां पंचायत में इस कार्य के लिए राष्ट्रीय कृषि व भूमि विकास बैंक ने धन दिया तो टिकरिया पंचायत के लिए जिला ग्रामीण विकास एजेंसी ने। मनगवां पंचायत के लिए बजट उपलब्ध करवाया दोराबजी टाटा ट्रस्ट ने। इन तीनों परियोजनों का क्रियान्वयन अखिल भारतीय समाज सेवा संस्थान ने किया। इनमें से एक परियोजना पूर्ण हुई तो शेष दो पर अभी कार्य चल रहा है। अभी तक इन पर लगभग 2 करोड़ रुपए व्यय हुए, जिनमें से 60 प्रतिशत राशि यानि एक करोड़ बीस लाख रुपये सबसे गरीब परिवारों को मजदूरी के रूप में ही मिल गया। साथ में बेहतर जल संरक्षण, कृषि व हरियाली में प्रगति का लाभ तो इन तीन वाटरशेडों के सभी दस हजार लोगों को कम या अधिक मिला। खेती-किसानी के पशुओं के साथ अन्य जीव जंतुओं को भी वर्ष भर प्यास बुझाने के स्रोत मिले। दूसरे शब्दों में, तकनीकी कुशलता, सावधानी व ईमानदारी से खर्च हो तो जितने बजट में किसी महानगर के पॉश इलाकों में एक फ्लैट मिलता है, उतने धन में दस हजार गांववासियों व पांच हजार पशुओं की प्यास बुझाने के साथ कृषि उत्पादन बढ़ाने की महत्वपूर्ण उपलब्धि हो सकती है।
वर्षा के जल को संजोने-समेटने के लिए इन परियोजनाओं में मेढ़बंदी की गई, बंधे व चेकडैम बनाए गए। नए तालाब बनाए गए व पुराने तालाबों का जीर्णोद्धार भी किया गया। वेग से बहते हुए पानी को रोकने के लिए उचित स्थानों पर खाईयां बनाई गईं, वृक्षारोपण किया गया। हाल के समय में आर्गेनिक खेती का यथासंभव प्रसार किया गया जिससे मिट्टी की नमी ग्रहण क्षमता बढ़ती है। श्री या एस.आर.आई. खेती की नई तकनीक अपनाई गई जिसमें उचित दूरी पर पौध लगाने व खरपतवार से हरी खाद बनाने जैसे उपायों से उत्पादन बढ़ाने के साथ पानी की बचत भी संभव है।
हालांकि इन जल परियोजनाओं का क्रियान्वयन मुख्य रूप से कम वर्षा व सूखे के वर्षों में हुआ है तो भी जल संरक्षण-संग्रहण का कार्य इतनी सावधानी व दक्षता से किया गया कि कुंओं का जल-स्तर बढ़ने के साथ-साथ कृषि उत्पादन बढ़ने की नई संभावनाएं भी उत्पन्न हुईं। जल व नमी के अभाव में बंजर पड़ी जमीन पर भी अब फसल लहलहाने लगी। मनगवां वाटरशेड में वर्ष 2007 में जहां खरीफ में मात्र 3 प्रतिशत कृषि भूमि जोती जाती थी, वहां वर्ष 2011 में 30 प्रतिशत भूमि जोती गई। जहां 2007 में रबी फसल 47 प्रतिशत भूमि पर बोई गई, वहां वर्ष 2011 में 90 प्रतिशत भूमि पर रबी की खेती हुई। वर्ष 2007 में इस वाटरशेड में 6170 किग्रा. धान का उत्पादन हुआ, वहां वर्ष 2011 में यहां 52081 किग्रा. धान उत्पादन हुआ। इस दौरान गेहूं का उत्पादन 112610 किग्रा. से 495750 किग्रा. तक जा पंहुचा। इसी तरह तिल, चने, सरसों व सब्जी के उत्पादन में तेज वृद्धि हुई।
जहां पहले सूखे व जल संकट की मार से लोग कृषि से विमुख हो रहे थे, वहां अब बेहतर व अधिक खेती करने की इच्छा तेज हो रही है। इस कारण पास के वनों से लकड़ी एकत्र कर या काट कर बेचने की मजबूरी भी कम हुई है। इससे भी पर्यावरण की रक्षा हुई। खनन के क्षेत्रों की ओर मजदूरों का पलायन कम हुआ। इस तरह की छोटी परियोजनाओं का बड़ा सबक यह है कि हमें जल संकट हल करने के लिए ऐसी परियोजनाओं पर निर्भर होना जरूरी नहीं है जिससे बहुत विस्थापन होता हो या अनेक पर्यावरणीय दुष्परिणाम होते हों। ऐसी परियोजनाओं पर भी निर्भर होना जरूरी नहीं है जो बहुत महंगी हों व जिनके अनिश्चित लाभ बहुत देर से मिलें। ऐसी कम बजट के टिकाऊ तौर-तरीके उपलब्ध हैं जो विस्थापन के संकट व पर्यावरणीय दुष्परिणामों के बिना जल संकट के समाधान की राह दिखाते हैं।