राजस्थान में शुष्क क्षेत्र राज्य के पश्चिमी क्षेत्र के 12 जिलों में फैला हुआ है । राज्य का ये क्षेत्र अपनी विषम परिस्थितियों के लिए दूसरे क्षेत्रों से विचित्र है । कम तथा असमान वर्षा (180 से 430 मि.ली.), अधिक तापमान (40 से 48 से.) अधिक वायु गति (60 से 110 कि.मी. प्रति घंटा तक) और अधिक वाष्पोत्सर्जन (1500 से 200 मि.मी. प्रति वर्ष) इत्यादि क्षेत्र को अन्य क्षेत्रों से विभिन्न परिस्थितियों वाला बनाते हैं । विषम जलवायु ही क्षेत्र को यदा-कदा सूखे से ग्रसित रखती है । विषम सूखे की स्थिति में सतही और भू-जल के स्तर में कमी आ जाती है , भूमि कटाव से उपजाऊ भूमि की क्षति होती है व फसल उत्पादन काफी कम हो जाता है तथा अन्न, चारा व पानी की कमी के कारण मानव व पशुओं को जीवन यापन करना कठिन हो जाता है । ऐसी स्थिति में मनुष्य को पशुओं सहित अन्न, चारे एवं पानी के लिए प्रवर्जन करने पर मजबूर होता पड़ता है । अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि पिछले सौ वर्षो में किसी न किसी क्षेत्र में 30 से 55 प्रतिशत वर्षो में मौसमी (मीटीरियोलॉजिकल) सूखा पड़ा है ।
जलवायु विषमताओं के अतिरिक्त शुष्क क्षेत्र में लगभग 58 प्रतिशत भाग में रेत के ऊंचे-ऊंचे टिब्बे फैले हुए हैं, जिनकी ऊंचाई 10 से 40 मीटर तक है, तथा अधिकतर चलायमान हैं । अधिक वायु गति के कारण कृषि योग्य भूमि, रेल, सड़क इत्यादि को बहुत क्षति होती है । क्षेत्र की अधिकतर भूमियां रेतीली हैं, जिनमें जैविक पदार्थ और नाइट्रोजन की कमी के कारण उर्वरा शक्ति बहुत ही कम है । इन भूमियों में चिकनी मिट्टी की कमी से पानी धारण करने की क्षमता भी बहुत कम है तथा भूमि, वायु और जल कटाव के लिए बहुत ही संवेदनशील है ।
शुष्क क्षेत्र में सतही और भू-जल की बहुत कमी है, जिनके परिणामस्वरूप केवल 10.5 प्रतिशत क्षेत्र ही सिंचित है तथा शेष क्षेत्र वर्षा पर निर्भर है । क्षेत्र में वर्षा ही अच्छे पानी का मुख्य स्रोत है तथा शुष्क क्षेत्र में कुल पानी का 89 प्रतिशत भाग वर्षा से ही प्राप्त होता है । वर्षा का अधिकांश भाग (78 से 96 प्रतिशत तक) जून से सितम्बर तक दक्षिणी -पश्चिमी मीनसून द्वारा 10 से 12 दिनों में प्राप्त हो जाता है जिसके कारण अधिकांश पानी भूमि व वनस्पति को क्षति पहुंचाते हुए बह जाता है । भू-जल के 80 प्रतिशत भाग में 2.20 डेसी मोल से अधिक घुलनशील सांद्रता है । ऐसे पानी से सिंचाई करने पर भूमि की गुणवत्ता प्रभावित होती है । भू-जल का स्तर बहुत ही गहरा है तथा अधिक दोहन के कारण प्रति वर्ष जलस्तर 0.2 से 0.8 मी. तक कम हो जाता है ।
इसके अतिरिक्त क्षेत्र में मानव व पशुओं की संख्या बहुत ही तीव्र गति से बढ़ रही है । क्षेत्र की जनसंख्या वर्ष 1951 में 58.7 लाख के मुकाबले वर्ष 2001 में 2.25 करोड़ हो गई है जो अभी तक तीन करोड़ के लगभग पहुंच गई है । इसके परिणामस्वरूप पिछले 20 वर्षो में जनसंख्या घनत्व 64 से बढ़कर 95 मानव प्रति वर्ग कि.मी. हो गया है तथा कृषि भूमि प्रति व्यक्ति सन् 1901 से 6.1 हैक्टर से घटकर वर्ष 2001 में लगभग 1 हैक्टर हो गयी है । इस प्रकार यह शुष्क क्षेत्र दुनिया के शुष्क क्षेत्रों में सबसे अधिक जनसंख्या घनत्व वाला क्षेत्र हो गया है । इसके अतिरिक्त पशुओं की संख्या में बहुत बढ़ोतरी हुई है । 1956 में 1.34 करोड़ से बढ़कर 1997 में 2.86 करोड़ हो गई है । ऐसी स्थिति में सभी के लिए अनाज, चारा एवं पानी की आपूर्ति करना कठिन कार्य होगा । एक अनुमान के अनुसार 2021 तक क्षेत्र में 26.7 लाख टन अनाज , 10.7 लाख टन दालें एवं 1.50 लाख टन खाद्य तेल की आवश्यकता होगी । इसके अतिरिक्त प्रत्येक वर्ष लगभग 2.2 करोड़ टन सूखे चारे एवं 4.2 करोड़ टन हरे चारे की आवश्यकता है, जबकि वर्तमान में सूखे चारे का 64 प्रतिशत एवं हरे चारे का लगभग 20 प्रतिशत भाग ही उपलब्ध है । इन परिस्थितियों में कृषि उत्पादन में स्थायित्व को प्राप्त कर ही भविष्य की चुनौतियों से निपटा जा सकता है । यह कामयाबी केवल उन्नत तकनीकों के विकास एंव अंगीकरण से ही प्राप्त की जा सकती है । शुष्क क्षेत्र में पिछले लगभग 50 वर्षो से काजरी ने कृषि स्थायित्व और क्षेत्र की संपन्नता के लिए विभिन्न क्षेत्रों में अनेक अनुसंधान किये हैं तथा तकनीकों को विकसित करके टिकाऊ उत्पादन प्राप्त करने के लिए अथव प्रयास किये हैं ।
यों हुआ फसल सुधार
शुष्क क्षेत्र में परंपरागत विधियों से खेती करने और अनेक जीवीय व अजीवीय कारणों से सभी फसलों की औसत उपज बहुत ही कम है । औसत उपज को अधिक बढ़ाने के लिए संस्थान ने विभिन्न पहलुओं पर उन्नत तकनीकें विकसित की हैं । विभिन्न परिस्थियों में वर्षानुसार फसल, घास एवं वृक्ष लगाने की अनुशंसा की गयी है तथा फसलों से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए अनेक उन्नत तकनीकें विकसित की गयी हैं ।
जरूरत उन्नत किस्मों की
शुष्क क्षेत्र में फसलों से अधिक पैदावार प्राप्त करने में फसल की पकने की अवधि का बहुत बड़ा योगदान होता है क्योंकि शुष्क क्षेत्र में फसल उगाने के लिए 10 से 12 सप्ताह का समय मिलता है । इस अवधि में जो फसलें पक जाती हैं, उनसे अच्छी पैदावार प्राप्त हो जाती है । अन्यथा देरी से पकने वाली फसलों में नमी की कमी के कारण फसल अच्छी तरह से पक नहीं पाती । परिणामस्वरूप पैदावार कम होती है । इसी को ध्यान में रखते हुए संस्थान ने बाजरे की सी.जेड.पी. 9802 व सीजेड.पी-आई सी. 923 किस्म विकसित की है । ये संकुल किस्में हैं तथा 75 से 85 दिनों में पक जाती हैं एवं दाने व चारे, दोनों की अच्छी पैदावार प्राप्त होती है । इन किस्मों द्वारा 10 से 15 क्विं. प्रति हैक्टर दाने की उपज प्राप्त हो जाती है ।
मोठ की काजरी मोठ-1, काजरी मोठ-2 व काजरी मोठ-3 किस्में 65 से 57 दिनों में पक जाती हैं । इन किस्मों से 6 से 8 क्विं. प्रति हैक्टर तक बीज की उपज प्राप्त हो जाती है । ग्वार की मारू ग्वार किस्म जो 85 से 90 दिनों में पक जाती है तथा 8 से 10 क्विं. प्रति हैक्टर तक बीज की उपज प्राप्त हो जाती है ।
इसके अतिरिक्त विभिन्न फसलों की अनेक उन्नतशील किस्मों को इस क्षेत्र के लिए चिन्हित किया है, जिनमें बाजरे की एचएचबी 67, आरएचबी 121, पूसा 222 व एमएच 169 प्रमुख हैं तथा मोठ की आर एम ओ-40, आर एम ओ 435 व आर एम ओ 225, ग्वार की आर जी सी 936 व आर जी सी 1001, मूंग की के 851, आर एम जी 62 व आर एम जी 268, तिल की टी सी 25 व आर टी 46 किस्में सम्मिलित हैं । इन किस्मों के द्वारा स्थानीय किस्मों की अपेक्षा 50 से 57 प्रतिशत तक अधिक पैदावार प्राप्त हो जाती है ।
ताकि धरती न हो बांझ
शुष्क क्षेत्र की अधिकतर भूमियों की उर्वरा शक्ति बहुत ही कम है । अतः अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए उचित पोषक प्रबंधक बहुत ही आवश्यक है । प्रयोगों द्वारा ज्ञात हुआ है कि क्षेत्र एवं भूमि की स्थिति को ध्यान में रखते हुए सभी फसलों में समन्वित पोषक प्रबंधन बहुत ही लाभदायक व प्रभावी है । सभी फसलों में पोषक तत्वों की आधी मात्रा कार्बनिक खाद (जिसमें गोबर, कम्पोस्ट एवं मिंगनी की खाद) के साथ-साथ आधी मात्रा रासायनिक उर्वरकों एवं बीज को जैव उर्वरक (राइजोबियम या एजेटोबैक्टर एवं पी एस बी) से उपचारित करने पर सभी फसलों की औसत उपज में संतोषजक वृद्धि हुई है तथा अधिक लाभ भी प्राप्त हुआ है ।
प्यासी धरती पानी मागें
शुष्क क्षेत्र में पानी की कमी को देखते हुए उचित जल प्रबन्ध बहुत ही आवश्यक है । सतही एवं भू-जल की अधिक से अधिक क्षमता बढ़ाने में उचित जल प्रबन्ध का महत्वपूर्ण स्थान है । वर्षा के पानी को भूमि की सतह एवं अधोसतह से विभिन्न विधियों द्वारा एकत्रित किया जाता है । अधोसतह में वर्षा जल को एकत्रित करने के लिए अन्तः पंक्ति एकत्रिकरण और अन्तः क्षेत्र एकत्रिकरण विधियां अपनाई गई हैं । अन्तः पंक्ति विधि में 30 से 40 सें.मी. व्यास के 15 सें.मी. गहरे कूंडे बनाये जाते हैं । इन कूंडो में क्षेत्र पट्टी से वर्षा जल एकत्रित होकर कूंड में फसल के लिए अधिक समय तक नमी प्रदान करता है । अन्तः क्षेत्र पद्धति में फसल उगाने वाली पट्टियों के बाद बैंच बनाई जाती है तथा बाद में फिर पट्टी बनाई जाती है, इस प्रकार एक दिशा मे 1.5 मीटर का कैचमेन्ट और दोनों तरफ 3 मीटर चौड़े क्षेत्र से पानी एकत्रित किया जाता है तथा एकत्रित नमी द्वारा फसलों से अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है ।
वर्षा जल के अपधावन के रूप में होने वाली क्षति को रोकने के लिए वर्षा जल को तालाब, जलाशय, खडिन एवं टांकों में एकत्रित किया जाता है । संस्थान द्वारा उन्नत किस्म के टांकों का डिजाइन तैयार किया गया है तथा घरों की छत से भी इन टांकों में पानी एकत्रित करने की विधि विकसित की गई है । टांके के चारों और केचमैंट क्षेत्र से पानी एकत्रित कर यह पानी फलदार वृक्षों की सिंचाई करने, पशुओं एवं मनुष्यों के पीने के काम भी लिया जा सकता है, टांका ऊपर से ढका होने कारण पानी की वाष्पोत्सर्जन द्वारा कम क्षति होती है तथा स्वच्छता भी बनी रहती है ।
खडिन पद्धति बहुत ही प्रभावी है । जलग्रहण के निचले क्षेत्रों में पानी को एकत्रित किया जाता है । खडिन में रबी में सरसों, चना, गेहूं की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है, काजरी ने जल ग्रहण क्षेत्र में खडिन से चने की 18 से 20 क्विटल प्रति. हैक्टर तक पैदावार प्राप्त की है । इसी प्रकार से कम वर्षा की स्थिति में खरीफ ऋतु में बाजरा व चारे वाली फसलों जैसे ज्वार को सफलतापूर्वक उगाया गया है तथा हरे चारे की 100 क्विंटल प्रति हैक्टर तक उपज प्राप्त की गई है ।
नमी बनाए रखने के प्रयास
शुष्क क्षेत्र में अधिक तापमान व वायु की गति होने के कारण नमी शीघ्र ही सूख जाती है । नमी की क्षति को रोकने के लिए बिछावन को प्रयोग में लाने के लिए अनेक अनुसंधान किये गये हैं । घास की बिछावन द्वारा मूंग, मोठ व ग्वार की पैदावार 20 प्रतिशत तक अधिक प्राप्त की गई है । इसी प्रकार पोलीथीन की बिछावन तथा बाजरे की बिछावन से पानी उपयोगी बिना बिछावन के अधिक प्राप्त हुई ।
सिंचाई की उन्नत विधियां
पानी की क्षति को कम करने एवं उपयोगिता बढ़ाने के लिए सिंचाई की विभिन्न विधियों पर प्रयोग किये गये हैं । प्रयोगों द्वारा ज्ञात हुआ है कि फुव्वारा विधि के प्रयोग से गेहूं की पैदावार चेक बेसिन (क्यारी) विधि की अपेक्षा 33 से 37 प्रतिशत अधिक हुई ।
बूदं-बूदं विधि द्वारा 30 से 50 प्रतिशत तक पानी की बचत की जा सकती है । बूंद-बूंद विधि लवणीय पानी द्वारा सिंचाई करने में भी प्रभावी है । 3 से 10 घुलनशील लवणता वाले पानी द्वारा आलू व टमाटर की अच्छी उपज प्राप्त की गई है । लवणीय पानी द्वारा लगातार सिंचाई करने से लवण भूमि की निचली सतह में पहुंच जाते हैं जिससे लवणों का हानिकारक प्रभाव कम हो जाता है । बूंद-बूंद सिंचाई विधि द्वारा रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से पोषक तत्वों की उपयोग क्षमता अधिक पायी गई है ।
खरपतवार रहें काबू में
शुष्क क्षेत्र में नमी एवं पोषक तत्व फसल उत्पादन के प्रमुख घटक हैं । खरपतवार फसलों के साथ नमी व पोषक तत्वों के लिए प्रतिस्पर्धा कर फसल उपज को कम कर देते हैं । प्रयोगों से ज्ञात हुआ है कि मूंग व ग्वार में एलाक्लोर नामक खरपतवारनाशी के प्रयोग से 100 प्रतिशत से अधिक तक पैदावार प्राप्त की गई है । इसी प्रकार मोठ में फ्लूक्लोरालीन 0.75 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर की दर छिड़काव करने के बाद 30 दिन पश्चात् एक गुड़ाई करने से फसल की पैदावार दो बार गुड़ाई करने के लगभग बराबर प्राप्त की गई है । जीरे में खरपतवारों की प्रतिस्पर्धा द्वारा पोषक तत्व एवं जल उपयोगिता क्षमता बहुत अधिक पैदावार प्राप्त करने के लिए फसल 25 से 35 दिनों तक खरपतवारों से मुक्त रहनी चाहिये । जीरे में खरपतवारों रहित फसल की पैदावार 418 कि.ग्रा. प्राप्त हुई, जबकि सम्पूर्ण फसल अवधि तक क्षेत्र को खरपतवार ग्रसित रखने पर केवल 151 कि.ग्रा. ही उपज प्राप्त की गई ।
मोठ की फसल से खरपतवार नियन्त्रण के लिए फ्लूक्लोरालीन खरपतवारनाशी के छिड़काव के बाद हाथ से गुड़ाई करने पर सबसे अधिक उपज व लाभ प्राप्त किया गया है । फसल से खरपतवार नियन्त्रण के लिए लघु उपकरण, जिससे कम कीमत की उन्नतशील कस्सी और खरपतवार नियंत्रण मशीन सम्मिलित हैं, का उपयोग लाभकारी है ।
समस्या पपड़ी की
शुष्क क्षेत्र की भूमियों में अधिक सिल्ट होने के कारण यदि बुआई के बाद और फसल उगने से पहले वर्षा हो जाये तथा तेज धूप और हवा के कारण खेत सूख जायें तो भूमि की ऊपरी सतह पर सख्त परत (पपड़ी) बन जाती है, जिसके कारण कुछ फसलों जिनमें बाजरा व तिल प्रमुख हैं, पौधे उग नहीं पाते हैं । इस कारण खेत में पौधों की संख्या कम हो जाती है । यदि कुछ पौधे उग भी जाते हैं तो उनकी वृद्धि एवं विकास अच्छी प्रकार नहीं हो पाता तथा फसल उपज बहुत कम हो जाती है । कृषकों को फसलों की बुआई बार-बार करनी पड़ती है । इस समस्या से निजात पाने के लिए प्रयोगों द्वारा ज्ञात हुआ है कि गोबर की खाद 10 टन प्रति हैक्टर की दर से कूंड में प्रयोग करने से परत (पपड़ी) द्वारा होने वाली फसल की क्षति को बचाया जा सकता है ।
अन्तःफसलीय पद्धति का विकास
शुष्क क्षेत्र में कम वर्षा व इसकी असमानता के कारण मिश्रित खेती का प्रचलन बहुत ही अधिक है । मिश्रित खेती में बारे बाजरे (55-60 प्रतिशत लगभग), मूंग (15 प्रतिशत) मोठ (15 प्रतिशत), ग्वार (10 प्रतिशत) व तिल (5 प्रतिशत लगभग) के बीजों को मिश्रित कर उगाया जाता है । विषम मौमस के कारण फसल नहीं होने के डर तथा घर की आवश्यकता पूर्ति करने के लिए अधिकतर भाग में मिश्रित खेती की जाती है, लेकिन इस खेती में अनेक प्रकार के नुकसान भी हैं जैसे निराई-गुड़ाई की समस्या, उचित संख्या में पौधों का न होना, अच्छी प्रकार से पादप सुरक्षा न कर पाना तथा कटाई एंव मंड़ाई में कठिनाई इत्यादि । इस प्रणाली में सुधार कर अन्तःफसल प्रणाली विकसित की गई है जिसके द्वारा मिश्रित खेती एवं केवल एक ही फसल की खेती की अपेक्षा अधिक उपज प्राप्त की गई है । बाजरे की दो पंक्तियो के मध्य ग्वार, मूंग व मोठ की फसल उगाने से केवल बाजरे की फसल उगाने की अपेक्षा बिना उपज प्रभावित किये क्रमशः 381, 381 व 458 कि.ग्रा. अधिक उपज प्राप्त की गई । इसी तरह बाजरे व ग्वार की 1:1 पंक्ति से बुआई करने पर मिश्रित खेती से अधिक उपज प्राप्त की गई ।
वर्षा के आधार पर शुष्क क्षेत्र में फसल पद्धति | ||
वर्षा क्रम (मि.मी.) | फसलें उगाने का समय(हफ्तों में) | फसल पद्धति |
< 150 | < 6 | वृक्ष व झाड़ी |
150-250 | 6-8 | घास |
250-300 | 8-10 | कम अवधि वाली दलहनी फसलें |
300-400 | 10-12 | बाजरा एवं कम अवधि वाली दलहनी फसलें |
समन्वित पोषक प्रबंधन का ग्वार की उपज व शुद्ध लाभ पर प्रभाव | |||
उपचारक | उपज (कि.ग्रा / हैक्टर) बीज भूसा | शुद्ध लाभ (रूपये/ हैक्टर) | |
बिना खाद व उर्वरक | 547 | 1277 | 0 |
10 कि.ग्रा. नाइट्रोजन + 20कि.ग्रा फास्फोरस | 663 | 1475 | 1640 |
20 कि.ग्रा. नाइट्रोजन +40 कि.ग्रा फास्फोरस | 731 | 1592 | 2398 |
10 कि.ग्रा. नाइट्रोजन +20 कि.ग्रा फास्फोरस+ जैव उर्वरक (राइजोबियम पी एस बी) | 710 | 1555 | 2430 |
घास बिछावन द्वारा दालों की उपज पर प्रभाव | |||
उपच | बीज की औसत उपज (कि.ग्रा. /है.) | ||
मूंग | मोठ | ग्वार | |
बिछावन रहित | 140 | 210 | 380 |
बिछावन सहित | 390 | 400 | 650 |
खरपतवार नियंत्रण का मोठ की उपज व शुद्ध लाभ पर प्रभाव | |||
उपचारक | उपज (कि.ग्रा./ हैक्टर) | शुद्ध लाभ (रूपये / हैक्टर) | |
बीज | भूसा | ||
अनियंत्रित | 319 | 575 | 2363 |
एक गुड़ाई हाथ द्वारा | 476 | 890 | 3976 |
फ्लूक्लोरालीन १.० कि.ग्रा./ हैक्टर | 445 | 827 | 3659 |
फलूक्लोरालीन ०.७५ कि.ग्रा./ हैक्टर + एक गुड़ाई हाथ द्वारा | 543 | 953 | 4890 |
फसल प्रणाली में सुधार
शुष्क क्षेत्र में बाजरा प्रमुख अनाज वाली फसल है लेकिन एक ही खेत में लगातार बाजरे की फसल लेने से चौथे वर्ष बाजरे की पैदावार 79 प्रतिशत तक कम हो जाती है । संस्थान में फसलों से अधिक पैदावार प्राप्त करने के लिए फसल प्रणाली में सुधार कर 5 वर्षों तक लगातार बाजरा लेने की अपेक्षा तीन वर्षों तक ग्वार व दो वर्षों तक बाजरे की फसल उगाने पर 27 प्रतिशत कार्बनिक कार्बन की अधिक मात्रा पाई गई । इसी तरह फास्फोरस की 48 प्रतिशत अधिक मात्रा पाई गई । लगातार बाजरा उगाने की अपेक्षा ग्वार-बाजरा-ग्वार उगाने से चौथे वर्ष 39 प्रतिशत दाने की अधिक पैदावार प्राप्त की गई ।
कीट व्याधियों पर काबू
विभिन्न फसलों में लगने वाले कीट और बीमारियों के नियंत्रण के लिए संस्थान में अनेक शोध किये गये हैं, जिसमें जैविक नियंत्रण को प्राथमिकता दी गई है । मूंग व मोठ में कीट नियंत्रण के लिए नीम की गोलियां, नीम पाउडर व नीम तेल का छिड़काव बहुत प्रभावी पाया गया है । ग्वार, मूंग व मोठ फसलों के बीज को मरुसेना नामक फफूंदनाशक से उपचारित करने पर बीमारियों का प्रकोप बहुत कम हो जाता है ।
फसल विविधीकरण
शुष्क क्षेत्र में विषम परिस्थितियों के होते हुए भी किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए प्रयास किये गये हैं । विभिन्न औषधीय फसलों सोनामुखी, ग्वारपाठा, मेहन्दी की खेती कर पारंपरिक फसलों की अपेक्षा अधिक लाभ प्राप्त किया गया है । सोनामुखी के बचे तनों का घोल बनाकर छिड़काव करने से बाजरा व गेहूं की उपज में संतोषजनक वृद्धि प्राप्त की गई है ।
उद्यानिकी फसलों की सफलताएं
मरुक्षेत्र मे आमदनी, रोजगार, लकड़ी, फल व चारा प्रदान करने में उद्यानिकी वृक्ष, मुख्यतः बेर बहुत प्रभावी पाया गया है । संस्थान ने अधिक उपज प्राप्त करने के लिए बेर की उन्नत किस्में जिनमें सेब, गोला व मुंडिया प्रमुख हैं, विकसित की हैं । इन किस्मों से फल की उपज 20 से 40 क्विंटल / हैक्टर तक प्राप्त हो जाती है तथा बेर को पानी की भी बहुत कम आवश्यकता होती है । इसके अतिरिक्त अधिक उपज करने के लिए बेर की दो पंक्तियों में दलहनी फसलों जैसे मूंग, मोठ व ग्वार को सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है । बेर के साथ मूंग उगाने पर 2800 रुपये तक प्रति हैक्टर की अतिरिक्त आमदनी प्राप्त की गई है ।
बेर के अतिरिक्त शुष्क क्षेत्र में आंवला, अनार, खजूर, बेल व गूदा इत्यादि फलदार वृक्ष सफलतापूर्वक उगाये जा सकते हैं । आंवले की कृष्णा व कंचन, अनार की जालोर बेदाना, बेल की धारा रोड व खजूर की फैजाबादी एवं काजरी सलैक्शन-10 किस्में शुष्क क्षेत्र के लिए उपयुक्त पायी गई हैं ।
बाजरे के उत्पादन पर लगातार तीन वर्षों के पश्चात फसल पद्धति का प्रभाव | ||
फसल चक्र | उपज (कि.ग्रा. /हैक्टर) | |
दाना | भूसा | |
पड़त-बाजरा-पड़त | 340 | 1680 |
बजारा-बाजारा-बाजरा | 380 | 1760 |
मूंग-बाजरा-मूंग | 440 | 1900 |
ग्वार-बाजरा-ग्वार | 530 | 1980 |
पड़त-मूंग-मूंग | 560 | 1940 |
पड़त-ग्वार-ग्वार | 530 | 1940 |
मूंग-मूंग-मूंग | 630 | 2200 |
ग्वार-ग्वार-ग्वार | 680 | 2320 |
कृषि उद्यानिकी द्वारा मूंग की खेती से आर्थिक लाभ | |||||
उपचारक
| वर्षा (मि.मी.) | बेर के फल की पैदावार (कि.ग्रा./है.) | मूंग की पैदावार (कि.ग्रा./ है) | कुल लाभ (रु. /है.) | शुद्ध आर्थिक लाभ (रु. /है.) |
मूंग | 210 | - | 600 | 4800 | - |
मूंग + बेर | 210 | 800 | 160 | 7680 | 2800 |
वनों के साये में खेत
शुष्क क्षेत्र में वानिकी वृक्षों का विशेष रूप से सूखे में महत्वपूर्ण भूमिका है । इन वृक्षों को फसलों के साथ उगाकर अधिक लाभ भी प्राप्त किया जा सकता है । चारे, ईधन, इमारती लकड़ी तथा फल देने के अतिरिक्त भूमि की उर्वराशक्ति बढ़ाने, भूमि को कटाव से बचाने तथा सूक्ष्म जलवायु बनाये रखने में वृक्ष बहुत ही महत्वपूर्ण हैं । क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण वृक्ष खेजड़ी है जिसको शुष्क क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण वृक्ष खेजड़ी है जिसको शुष्क क्षेत्र का कल्पतरु भी कहा जाता है । इस वृक्ष से चारे, ईधन, लकड़ी व फल के अतिरिक्त इसके साथ मूंग, मोठ, ग्वार व बाजरे की फसलों को उगाकर अधिक पैदावार की गई है । इसके अतिरिक्त रोहिड़ा, जिसे मारवाड का सागवान कहा जाता है, को कृषि वानिकी के लिए उपयुक्त वृक्ष चिन्हित किया है ।
वानिकी वृक्षों को खेत के चारों ओर लगाकर हवा की गति कम करके मृदा नुकसान कम करने की तकनीक विकसित की गयी है । प्रयोगों द्वारा ज्ञात हुआ है कि वृक्षों को खेत के चारों ओर तीन पंक्तियां जिसमें बीच की पंक्ति में बड़ा पेड़ जैसे सिरस तथा एक पंक्ति में अधिक टहनियों वाला पेड़ जैसे इजराइली बबूल (अकेसिया टोरटिलीस) व बिलयती बबूल, लगाने से वायु की गति 20-40 प्रतिशत और मृदा नुकसान 76 प्रतिशत तक कम हुआ है ।
सफलता टिब्बा स्थिरीकरण की
शुष्क क्षेत्र में अधिकतर भूमि रेत के टिब्बे के रूप में है । ये टिब्बे अधिक वायु की गति होने के कारण चलायमान हो जाते हैं तथा इसमें रेत द्वारा दूसरे क्षेत्रों, सड़कों, रेल मार्ग, पानी के संसाधन इत्यादि बहुत प्रभावित होते हैं । काजरी ने टिब्बों के स्थिरीकरण के लिए तकनीक विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । इन तकनीकों में छोटे वृक्षों द्वारा हवा की गति को कम करने की 5 मीटर चैस बोर्ड या 5 मीटर समांतर पट्टी तकनीक तथा घास, झाड़ी एवं वृक्ष लगाकर टिब्बों को स्थिर करने की तकनीक विकसित की है । छोटी झाड़ियां जैसे खींप, पाला, सीनीयां व मुराठ, वृक्षों में जंगली बबूल, बिलायती बबूल, खेजड़ी, कुमुट एवं घासों में सेवन, धामण व अंजन की टिब्बे स्थिरीकरण के लिए उपयुक्त पाया गया है ।
और मिला भरपूर घास उत्पादन
शुष्क क्षेत्र में प्रायः सूखा पड़ता रहता है । वर्षा कम होने के कारण फसलें उगाना असंभव हो जाता है । ऐसी स्थिति में घासीय फसलें सबसे लगभदायक होती हैं । काजरी द्वारा अंजन घास की काजरी -75 किस्म विकसित की गयी है । इस किस्म द्वारा 70 क्विंटल प्रति हैक्टर तक हरे चारे की उपज प्राप्त की जा सकती है । धामन घास की उपज प्राप्त की जा सकती है । धामन घास की काजरी-76, जिसकी 40 क्विंटल प्रति हैक्टर तक हरे चारे की उपज प्राप्त की जा सकती है, विकसित की गयी है । इनके अतिरिक्त कम वर्षा में होने वाले (200 मि.मी.) सेवण की काजरी 30-5 किस्म विकसित की है । इसके द्वारा 90 क्विंटल प्रति हैक्टर तक हरे चारे की उपज प्राप्त की जा सकती है । इन घासों को चारागाह में लगाकर उनको विकसित करने में बहुत बड़ा योगदान रहा है ।
सौर ऊर्जा ने दी गरमाहट
शुष्क क्षेत्र में सूर्य के अधिक समय तक रहने की अवधि के कारण यह क्षेत्र सौर ऊर्जा के लिए महत्वपूर्ण है । काजरी ने सौ ऊर्जा के प्रयोग के लिए अनेक तकनीक विकसित की हैं, जिनमें सौर ऊर्जा चालित बहुउद्देशीय उपकरण जैसे पानी गर्म करने, खाना तथा चारा पकाने, आसूत जल बनाने व शुष्क संयंत्रों का विकास सम्मिलित है । इसके अतिरिक्त सौर ऊर्जा आधारित मोमबत्ती तथा पालिश निर्माण के लिए उपकरण विकसित किये गये हैं । संस्थान द्वारा सौर ऊर्जा द्वारा बूंद-बूंद सिंचाई के लिए पम्प तथा कीटनाशी छिड़काव करने के यंत्र भी विकसित किये गये हैं ।
सुरक्षित रहा पशुधन
शुष्क क्षेत्र की आर्थिकी में पशुपालन का महत्वपूर्ण स्थान है । काजरी ने पशुओं के उत्पादन व गुणवत्ता बढ़ाने के लिए सराहनीय कार्य किया है । गायों में थारपारकर नस्ल के उचित प्रबंधन के लिए तकनीक विकसित की है । पशुओं को संतुलित चारा एवं दाना प्रदान करने के लिए चारे की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए खनिज तत्वों से युक्त पशु आहार बट्टि का विकसित की है । इन बट्टियों से दुधारू पशुओं के दूध में आशातीत वृद्धि पाई गई है । दुग्ध उत्पादन एवं गुणवत्ता बढ़ाने के लिए तुम्बे की खल मिला पशु आहार तैयार करने की तकनीक भी विकसित की गई है । इसके अतिरिक्त चारागाह विकास एवं प्रबंधन तकनीकों द्वारा घास की उपज एवं गुणवत्ता बढ़ाने में सराहनीय कार्य किया गया है । पशुओं को अधिक तापमान के प्रभाव से बचाने के लिए उन्नत किस्म के पशुगृह बनाने की तकनीक भी विकसित की गई है । क्षेत्र के लिए सबसे उपयोगी पशु भेड़ की अधिक उत्पादन देने वाली मारवाड़ी व मगरा तथा बकरी की खरबतरसर नस्लों की पहचान की गई है ।
बात उत्पाद की
शुष्क क्षेत्र में उगाये जाने वाली विभिन्न फसलों, वन एवं फल वृक्षों और औषधीय पौधों से अधिक लाभ एवं रोजगार प्राप्त करने के लिए मूल्य संवर्धन प्रक्रिया के लिए अनेक तकनीकें विकसित कर उत्पाद बनाये गये हैं, फलवृक्षों जैसे बेर, अनार, आंवला, बेल से रस, शर्बत, जैसे अचार उत्पाद बनाने के लिए तकनीकियां विकसित की जाती हैं । इसी प्रकार औषधीय पौधों ग्वारपाठा से जैल एवं कैंडी बनाने की तकनीक विकसित की गई है । विभिन्न फसलों जिसमें मूंग, मोठ लोबिया से मंगोड़ी, पापड़, नमकीन, स्नैक्स इत्यादि बनाने के लिए विभिन्न तकनीकों का प्रयोग किया गया है । बकरी के दूध से पनीर व आइसक्रीम बनाने की तकनीक विकसित की गई है । कुमुट भी लाभकारी वृक्ष पाया गया है, इससे चारे, लकड़ी व फल के अतिरिक्त संस्थान ने इथोफोन के इंजेक्शन लगाकर प्रति पौधे से पांच गुणा तक अधिक गोंद पाने में सफलता प्राप्त की है ।
यों पहुंचते हैं जन-जन तक
संस्थान द्वारा विकसित की गई तकनीकों को किसानों तक पहुंचाने के लिए विभिन्न माध्यमों जैसे प्रदर्शन, प्रकाशन, रेडियो, टेलीविजन, प्रशिक्षण एवं किसान मेला आदि का प्रयोग किया जाता है । उन्नत तकनीकें कृषि विज्ञान केन्द्रों एवं कृषि तकनीक सूचना केन्द्र (एटिक) द्वारा भी प्रसारित एवं प्रचारित की जाती हैं । किसानों के क्षेत्रों पर उन्नत तकनीकों के प्रयोग द्वारा विभिन्न फसलों की पैदावार स्थानीय तकनीकों की अपेक्षा 20 से 60 प्रतिशत तक अधिक प्राप्त की गई है ।
के.पी.आर. विठ्ठल, एन.एल. जोशी और राज सिंह
केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान
जोधपुर ३४२ ००३ (राजस्थान)
खेती, फरवरी 2008