सूखी धरती, प्यासा किसान

Submitted by RuralWater on Thu, 04/21/2016 - 12:28
Source
नेशनल दुनिया, 18 अप्रैल 2016

कुछ दिन पहले यह खबर आई कि बुन्देलखण्ड में एक किसान ने ‘मेरा चोला हो लाल बसन्ती, सूख रही है बुन्देली धरती’ यह कहते हुए फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली। उसके सिर पर बैंक का 50 हजार का कर्ज था, जिसे वह चुकता नहीं कर पाया। बुन्देलखण्ड के इस किसान द्वारा आत्मघाती कदम उठाना कोई पहली घटना नहीं है, बल्कि आये दिन किसी-न-किसी राज्य से किसानों द्वारा आत्महत्या किये जाने की खबरें आती हैं। बैंकों व साहूकारों से कर्ज लेकर खेती करने को मजबूर किसान तब मायूस हो जाते हैं, जब बारिश न होने से धरती सूख जाती है। सूखा जब विकराल रूप लेता है कि उनकी फसलें पूरी तरह नष्ट हो जाती हैं। ऐसे में कर्ज में डूबे किसान तंगहाली से जूझते-जूझते आत्महत्या जैसा कदम उठा लेते हैं।

देश के सूखा प्रभावित दस राज्यों में किसानों की चिन्ता और उनकी बदहाल जिन्दगी हम सभी की चिन्ता बढ़ा रही है। जब भी देश के किसी राज्य या राज्यों में सूखा व अकाल की समस्या खड़ी होती है, तो केन्द्र सरकार व राज्य सरकारों की तन्द्रा तब टूटती है, जब बहुत देर है चुकी होती है।

कमजोर मानसून के चलते लगातार दो साल से सूखे का संकट झेल रहे कई राज्यों के लोगों में पानी व रोटी को लेकर हाहाकार मचा है। महाराष्ट्र के हालात तो और भी चिन्ताजनक हैं। किसानों द्वारा आत्महत्या करने की घटनाएँ लगातार बढ़ रही हैं। ऐसे में सरकार में बैठे रहनुमाओं पर यह सवाल उठना लाजिमी है कि जब भी ऐसी प्राकृतिक आपदा आती है, उनकी अदूरदर्शिता ही सामने आती है। उनके स्तर पर जो निर्णय लिये जाते हैं, उसमें भी विवेकहीनता ही दिखाई देती है।

उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड के अलावा, राज्य के पश्चिमी व पूर्वी इलाकों में भी सूखे के हालात हैं। कुछ दिन पहले यह खबर आई कि बुन्देलखण्ड में एक किसान ने ‘मेरा चोला हो लाल बसन्ती, सूख रही है बुन्देली धरती’ यह कहते हुए फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली। उसके सिर पर बैंक का 50 हजार का कर्ज था, जिसे वह चुकता नहीं कर पाया। बुन्देलखण्ड के इस किसान द्वारा आत्मघाती कदम उठाना कोई पहली घटना नहीं है, बल्कि आये दिन किसी-न-किसी राज्य से किसानों द्वारा आत्महत्या किये जाने की खबरें आती हैं। बैंकों व साहूकारों से कर्ज लेकर खेती करने को मजबूर किसान तब मायूस हो जाते हैं, जब बारिश न होने से धरती सूख जाती है। सूखा जब विकराल रूप लेता है कि उनकी फसलें पूरी तरह नष्ट हो जाती हैं। ऐसे में कर्ज में डूबे किसान तंगहाली से जूझते-जूझते आत्महत्या जैसा कदम उठा लेते हैं। सूखे की वजह से पर्याप्त खाद्यान्न पैदा नहीं हो पाता, और महंगाई बढ़ने के साथ ही दूसरे इलाकों में भी भुखमरी के हालात पैदा हो जाते हैं। यही वो हालात हैं, जब किसान व गरीब रोटी न मिलने से असमय ही मौत के मुँह में समा जाते हैं।

70 फीसदी लोग हैं कृषि पर निर्भर


भारत कृषि प्रधान देश है। देश की लगभग 70 फीसदी आबादी कृषि पर निर्भर करती है। कृषि एवं इससे सम्बद्ध क्षेत्र भारत की अधिकांश जनसंख्या, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों के लिये आजीविका का मुख्य साधन हैं। यह सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के निर्धारण में भी महत्त्वपूर्ण योगदान देता है, लेकिन लगातार दो वर्षों से मौसम की बेरुखी के चलते बारिश कम हुई, जिसकी वजह से देश के दस राज्य सूखे की चपेट में आ गए।

इन राज्यों में फसलें लहलहाने के बजाय नष्ट हो गईं और हालात चिन्ताजनक हो गए। सूखे की वजह से कुपोषण, भुखमरी और महामारी के चलते मृत्यु दर में काफी वृद्धि हुई। सूखे का संकट झेल रहे इन राज्यों में जहाँ कृषि एवं पर्यावरण पर अत्यन्त प्रतिकूल प्रभाव पड़ा, वहीं इन राज्यों की अर्थव्यवस्था पूरी तरह डगमगा गई।

मौसम विभाग का अनुमान भी दे गया दगा


मौसम विभाग के आँकड़ों से पता चलता है कि पिछले 116 साल में चार बार लगातार दो साल सूखा पड़ा है, जिसमें वर्ष 2014-15 भी शामिल रहा। 116 वर्षों में लगातार तीसरे साल सूखा कभी नहीं पड़ा। अगर इस साल बारिश हो जाती है तो पिछला रिकॉर्ड बरकरार रह पाएगा। मौसम वैज्ञानिकों के अनुसार जिस साल भी मानसून की बारिश 90 फीसदी से कम होती है तो सूखे की स्थिति पैदा हो जाती है।

वर्ष 2008 के बाद 2009, 2014 व 2015 ही ऐसे साल रहे हैं, जब देश सूखे की चपेट में आया। इन वर्षों में मौसम विभाग का अनुमान था कि 90 फीसदी से अधिक बारिश होगी, लेकिन अनुमान गलत निकला और कम बारिश की वजह से देश के कई हिस्सों में सूखे का संकट उत्पन्न हो गया। इन इलाकों में लहलहाने की उम्मीद में फसलें नष्ट हो गईं और कर्ज में डूबे किसानों के सपने टूट गए।

किसान जहाँ अपने कर्ज नहीं चुका पाये, वहीं उनके परिवारों के समक्ष रोटी का संकट भी खड़ा हो गया। हालात तब चिन्ताजनक हो गए, जब कर्ज में डूबे हजारों किसानों ने आत्महत्या कर ली और भुखमरी के चलते भी कई लोगों को जान गँवानी पड़ी। मौसम की मार, सरकार और सरकार में बैठे रहनुमाओं की बेफिक्री ही वह वजह रही कि जहाँ लाखों किसान परिवार संकट में फँस गए। तमाम परिवार दाने-दाने को मोहताज हो गए और हजारों परिवारों में घर के मुखिया की खुदकुशी के चलते मातम छा गया।

2012 में तेरह हजार किसानों ने की थी खुदकुशी


नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2012 के दौरान देश में 1,35,445 लोगों ने आत्महत्या की, जिसमें 11.2 फीसदी किसान थे। यानी 2012 में 13,755 किसानों ने आत्महत्या की। चौंकाने वाली बात यह है कि देश के पाँच मुख्य कृषि उत्पादक राज्यों महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल में 10,486 किसानों ने आत्महत्या की।

अकेले महाराष्ट्र में 2012 के दौरान 3,786 किसानों ने आत्महत्या की। बड़े राज्यों में शुमार उत्तर प्रदेश की बात करें तो यहाँ वर्ष 2012 में 745 किसानों ने आत्महत्या की थी। एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2013 के मुकाबले वर्ष 2014 में ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की। वर्ष 2013 के बाद जिस प्रकार देश में सूखे का संकट झेलना पड़ा, उसके चलते किसानों की आत्महत्या के आँकड़े भी बढ़ गए।

फसल नष्ट होने की पीड़ा असहनीय


वैसे तो किसानों की आत्महत्या के पीछे बहुत से कारण होते हैं। लेकिन जब सूखा पड़ता है और किसानों की फसलें नष्ट हो जाती हैं तो किसानों को सबसे अधिक पीड़ा होती है, जिसे वे सहन नहीं कर पाते हैं और वे आत्महत्या जैसा आत्मघाती कदम उठाने को मजबूर हो जाते हैं। आँकड़ों पर गौर किया जाये तो फसलें नष्ट होने के चलते आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या अधिक रहती है।

सूखारिपोर्ट बताती है कि फसलें नष्ट होने की वजह से जहाँ कुल 16.81 फीसदी किसान आत्महत्या करतें हैं तो अन्य कारणों से 15.04 फीसदी किसान आत्महत्या करते हैं। पारिवारिक कारणों से आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या 13.27 फीसदी होती है।

चलो देर से ही सही, जागी तो सरकार


सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर ही सही सरकार जागी और उसने दस राज्यों को सूखाग्रस्त घोषित कर दिया। इसके साथ ही मनरेगा के तहत राज्यों को धनराशि भी आवंटित कर दी है, जिसमें 2723 करोड़ रुपए दस सूखाग्रस्त राज्यों में काम करने वाले मजदूरों के लिये है। इसके पीछे सोच यह है कि संकट से जूझ रहे मजदूरों को काम मिल सके।

पिछले दो वर्षों के दौरान कम बारिश की वजह से देश के कई राज्य सूखे के चपेट में आ गए थे, जिसमें फसलें तो नष्ट हुई ही, पानी के लिये भी हाहाकार मच गया है। ऐसे में मौसम विभाग ने जून में ही मानसून के आने की उम्मीद जताई है और अनुमान है 101 फीसदी और अधिक-से-अधिक 111 फीसदी बारिश हो सकती है। सबसे अधिक सूखा झेल रहे मराठवाड़ा में तो सामान्य से अधिक बारिश होने का अनुमान जताया गया है।

जब जल नहीं रहेगा तो...


कहा गया है कि जल ही जीवन है। यह सच भी है कि जल के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। आज स्वच्छ व पर्याप्त जल जिस तरह से लोगों की पहुँच से दूर होता जा रहा है। उससे न केवल आम लोगों की चिन्ता बढ़ गई है, अपितु वैज्ञानिक भी इस अहम समस्या को लेकर खासे चिन्तित नजर आ रहे हैं। 2001 की जनगणना के आँकड़ों पर गौर करें तो देश में 25 फीसदी ग्रामीण और 65 फीसदी शहरी आबादी को ही पर्याप्त पानी उपलब्ध है, जबकि वर्तमान स्थिति तो और भी भयावह हो गई है।

भयंकर सूखे से जूझ रहे मराठवाड़ा के लातूर में पानी के लिये जिस तरह से हाहाकार मचा है, वह सरकार के लिये बड़ी चुनौती बन गया है। हालात बिगड़ते जा रहे हैं और ऐसे में केन्द्र सरकार को एक स्पेशल ट्रेन के जरिए लगभग पाँच लाख लीटर पानी पहुँचाना पड़ा। लेकिन केवल इतने पानी से ही समस्या दूर होने वाली नहीं है।

इस समस्या पर विश्व स्वास्थ्य संगठन भी चिन्तित है। उसने देश के शहरी क्षेत्रों में प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 200 लीटर पानी की उपलब्धता की सिफारिश की है। इसके विपरीत प्रतिदिन प्रति व्यक्ति महज 140 लीटर पानी की सप्लाई ही हो पा रही है।

विशेषज्ञों का मानना है कि पिघलते ग्लेशियर, कटते जंगल और बढ़ती गर्मी के कारण वर्षा का चक्र पूरी तरह से बिगड़ गया है, नतीजन सूखे के हालात पैदा हो रहे हैं। जिससे न केवल फसलें सूख रही हैं, बल्कि लोगों को पीने का पानी तक मयस्सर नहीं हो पा रहा है। भारत में गंगोत्री ग्लेशियर अपने मूल स्थान से 23 मीटर पीछे हट चुका है और आशंका जताई जा रही है कि आगामी 20 से 30 वर्षों में यह ग्लेशियर खत्म भी हो सकता है। यदि ऐसा हुआ तो भारत, चीन व नेपाल की सात नदियों अस्तित्व संकट में पड़ जाएगा।

इन नदियों में पहले जलस्तर बढ़ेगा और फिर तजी से घटेगा। केदारनाथ धाम के पीछे लगभग सात किमी चोरवाड़ी ग्लेशियर 7-8 मीटर पीछे हट गया है। वैज्ञानिकों का मानना है कि हिमालयी क्षेत्र के ग्लेशियर प्रति वर्ष 131.4 वर्ग किमी सिकुड़ते जा रहे हैं। निरन्तर ग्लेशियर पिघलते रहना अच्छे संकेत नहीं हैं, इसके लिये बढ़ते ग्लोबल वार्मिंग को अविलम्ब काबू पाना बहुत जरूरी हो गया है। यह भी आशंका व्यक्त की जा रही है कि 2050 तक विश्व की आधी आबादी भूख, पानी और महामारी के कारण नष्ट हो जाएगी। बढ़ते प्रदूषण और लगातार जंगलों को काटे जाने से समस्या बढ़ती जा रही है।

देश में वर्ष 1981 से लेकर 2011 तक 8.30 लाख हेक्टेयर जंगल, उद्योग और खनन परियोजनाओं के नाम पर काटे जा चुके हैं। यही नहीं भूजल के अत्यधिक दोहन व व्यर्थ में पानी बहाए जाने के चलते भी समस्या बढ़ती जा रही है। बढ़ती जनसंख्या के साथ ही जहाँ पानी की बढ़ती माँग का दबाव है, वहीं जरूरत के अनुरूप पानी खर्च न कर उसे व्यर्थ में बहाया जाना भी लोगों में जागरुकता की कमी को दर्शाता है। हालत यह है कि भूजल स्तर लगातार गिरता जा रहा है और इस दिशा में हमारी बेफिक्री समस्या को और बढ़ा ही रही है। अब जिस तरह पहाड़ी इलाकों में भी भूजल स्तर लगातार गिरता जा रहा है, हमारी चिन्ता को बढ़ाने वाला है।