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बाड़मेर जिले की बायतु तहसील-मुख्यालय से कनोड़, पनावड़ा और शहर क्रमशः 15, 23 और 37 किलोमीटर की दूरी पर बसे हैं। सफर के लंबे-लंबे फासले तय करते वक्त सुकून देने वाले हरे पत्ते कहीं नहीं दिखते। आखिर कनोड़ गांव की रूकमा देवी के आंगन में लहलहाती सब्जियों को देख तबीयत हरी हुई। यूं तो यह सामान्य बात लगती है कि रूकमा देवी इस मौसम में 100 से 135 किलोग्राम तक सब्जियां उगा लेती हैं लेकिन जो यहां की धरती, भूगोल और मौसम के हिसाब-किताब से परिचित है वह जानता है कि यह बात कितनी बड़ी है। पूरा इलाका उबड़-खाबड़ और रेतीले टीलों वाला है। गर्मी के दिनों में आग की तरह बरसने वाली धूप और धूल भरी आंधियां यहां के जनजीवन को झाकझोरती हैं। तब हवाएं 45 किलोमीटर/घंटा की रतार से भी तेज चलती हैं। रेत के टीले अपनी जगह बार-बार बदलते हैं। एक तो रेतीली माटी में पोषक तत्वों की कमी, ऊपर से जलधारण की क्षमता में भी कमी बनी रहती है। इन्हीं दिनों दिन-रात के तापमान में भी भारी उतार-चढ़ाव चलता है। फसलों में वाष्पोत्सर्जन और वाष्पीकरण अधिक रहता है। इसलिए गांव-गांव में गरीबी के दृश्य और विकराल बन पड़ते हैं। सूखा के हालात ग्वार, काचरी, ककड़ी, सांगरी और कुमट को पैदा होने नहीं देती। तब इन्हें सुखाकर सालभर खाने की हसरतें सिर्फ हसरतें बनकर उड़ जाती हैं।
दूसरी तरफ कनोड़, पनावड़ा और शहर गांव की औरते टूटे हुए माटी के बर्तनों में प्याज और लहसुन उगाने की पंरपरागत कोख से ‘वेजीटेबल पिट’ के विचार का प्रचार-प्रसार कर रही हंै। इन दिनों संस्था से करीब 100 समूह जुड़े हैं जो 1200 से भी ज्यादा परिवारों में ऐसी गतिविधियां चला रहे हैं।
‘लोक कल्याण संस्था’ के भंवरलाल चैधरी बताते हैं- ‘‘यह विचार सबसे पहले कानोड़ के गांव की औरतों को सुनाया तो उनके दिल से खुशी की लहर भी उठी और चंद सवाल भी। लेकिन दूसरा कोई चारा भी तो नहीं था, 2 से 3 साल के प्रयोग और परिश्रम से बहुत सी शंकाएं उखाड़ फेंकी गईं। हमने कनोड़ गांव की औरतों के साथ मिलकर इलाके की जरूरतों के मुताबिक ‘वेजिटेबल पिट’ में तमाम तरह के सुधार भी किए हैं।’’
सूखा, भूख, गरीबी, शोषण और रोगों से घिरा यह पश्चिमी राजस्थान के थार का इलाका है। इधर की जमीन को अच्छी बरसात का इंतजार है। बाजारों में ऊंचे भाव के चलते सब्जियां भी गरीबों की पहुंच से दूर हैं। औरतों-बच्चों पर कुपोषण का असर इस कदर छाया है कि यहां के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं लगती। इसके बाद फैलने वाली बीमारियों को भी अकाल की ही तरह प्रकृति और नियति से जोड़कर देख लिया जाता है। लेकिन कनोड़, पनावड़ा और शहर जैसे गांव की औरतों ने यहां की प्रकृति और नियति को अपने हाथों से बदल डाला है।पड़ोसी गांव पनावड़ा में भी यहां-वहां ऐसी ही हरियाली को देखकर सांसों को राहत मिल रही है। करणरामजी की पत्नी मायके में हैं, करणरामजी ने बताया कि- ‘‘वह एक बार में 100 किलो से ज्यादा सब्जियां उगाती है, यह हमारी जरूरत के हिसाब से बहुज ज्यादा है। अगर पैदावार ज्यादा हो तो वह (पत्नी) दूर के बाजारों में बेचने की बजाय सब्जियों को आसपास के रिश्तेदारों में बांट आती है।’’
शहर नाम के गांव में कलादेवी ने वेजीटेेबल पिट के लिए जो जगह चुनी उसमें न बहुत अधिक छाया है, न धूप और न ही उन्हें पानी देने में कोई दिक्कत आती है। ‘‘असल में वेजिटेबल पिट बनाने के लिए ऐसी ही जगह चाहिए होती है’’ हमारे साथ आएं अंबारामजी ने आगे बताया- ‘‘जो तेज और गर्म हवाओं के साथ-साथ जानवर की पहुंच से दूर हो।’’ अंबारामजी ने वेजीटेबल पिट बनाने की आसान तरकीब भी सुझाई-‘‘इसके लिए 15 गुणा 10 गुणा 2.5 फीट के आकार का गडढ़ा जाता है। इसके बाद बजरी, सीमेन्ट और रेत की 1 इंच मोटी परत का प्लास्टर चढ़ाया जाता है। दो दिनों के बाद खोदी गई माटी, काली माटी और पुराने सड़े हुए गोबर की खाद को बढ़िया से मिलाकर पिट में भर दीजिए।’’ कलादेवी पिट बनाने के खर्चपानी को कुछ इस अंदाज में समझाती हैं- 300 बनाने, 60 खाद, 30 काली माटी, 15 बीज और 10 रूपए दवा में जोड़ लीजिए, कितना बैठा। हमने जोड़कर बताया-415 रूपए।
कौन-सी सब्जी, कौन से मौसम में और कैसे उगानी हैं, यहां यह बात सबको पता है। गांववालों से ही जाना कि खरीफ के समय मिर्च, टमाटर, बैंगन, चैलाई, भिण्डी, बेल वाली तोरई, लोकी और ककड़ी उगाते है। रबी में मेथी, पालक, धनिया, जीरा, मूली, हरी प्याज और गाजर उगाते हैं। सिंचाई के लिए 10-12 दिनों में 15-20 लीटर पानी से ही काम चल जाता है। सब्जियों को बीमारियों से बचाने का देसी नुस्खा है- राख, गाय की पेशाब और नीम की पत्तियों या निंबोली का रस। गांव के घर-घर में पता है कि मोयला, पत्ती छेदक, फल छेदक जैसे कीड़ों के लिए मेलाथियान 50 ईसी या एण्डोसल्फाल 35 ईसी को 2 मिलीलीटर पानी में घोलकर छिड़का दिया जाए। कुल मिलाकर नई तकनीक को लेकर गांववालों में ऐसी जागरूकता को देखकर सुखद आश्चर्य होता है।
ऐसा नहीं है कि ‘वेजीटेबल पिट’ की कामयाबी के बाद लोगों की आर्थिक-सामाजिक दिनचर्या में कोई क्रांतिकारी अंतर आया हो। लेकिन बादलों पर से उनकी निर्भरता थोड़ी-सी कम जरूर हुई है। ऐसा भी नही है कि कुपोषण और बीमारियों को जड़ से उखाड़ फेंका गया है लेकिन उसके असर को बहुत हद तक कम जरूर कर दिया गया है। आसपास बड़ा बाजार न होने से बागवानी का यह रूप अबतक घरेलू ही रहा है लेकिन ऐसा भी नहीं है कि व्यवसायिक मोड़ देने की यहां की औरते संभावनाएं नहीं तलाश रही हैं। याने कभी ‘लोक कल्याण संस्था’ ने स्थानीय उलझनों को समझते हुए जो क्षेत्रीय प्रशिक्षण और अवलोकन किए थे, जो प्रायोगिक फार्म ईजाद किए थे, उसी का फल है कि आज बायतु के आसपास में सैकड़ों समूह और संस्थाएं सूखे की जड़ों के हर निशानों को और हराभरा बनाने के लिए जुटी हुई हैं।