स्वच्छ भारत मिशन समूचे समुदाय के सामूहिक व्यवहार विषयक परिवर्तन पर ध्यान केन्द्रित करता है। शौचालयों के निर्माण मात्र से यह सुनिश्चित नहीं होता है कि ग्रामीण आबादी नियमित आधार पर शौचालयों का इस्तेमाल करेगी। कई ऐसे महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक और व्यवहार विषयक घटक हैं, जो शौचालयों के इस्तेमाल में बाधक हैं। व्यवहार विषयक बदलाव के अधिकतर कार्यक्रमों में यह देखा गया है कि कुछ समय पश्चात शौचालयों के इस्तेमालकर्ता फिर से खुले में शौच जाने की पुरानी प्रवृत्ति अपनाने लगते हैं, जिससे इस कार्यक्रम का प्रयोजन विफल हो जाता है।
स्वच्छ भारत मिशन (एसबीएम) के रूप में देश में शौचालयों के निर्माण में एक मूक क्रान्ति आई है। इस आन्दोलन की शुरुआत 2 अक्टूबर, 2014 को हुई थी, जिसके बाद से 2 अक्टूबर, 2019 तक 10 करोड़ से अधिक शौचालयों का निर्माण किया गया। इन व्यापक प्रयासों की वजह से देश के करीब 700 जिलों में लगभग 6 लाख गाँवों को खुले में शौच जाने से मुक्त घोषित किया गया। पूर्ववर्ती अन्य सभी कार्यक्रमों की तुलना में एसबीएम की एक बड़ी खासियत यह रही है कि इसका स्वरूप माँग-संचालित है, जिसमें प्राथमिक लक्ष्य व्यवहार विषयक बदलाव रहा है, जिसकी परिणति शौचालयों के निर्माण की माँग सृजित होने के साथ ही शौचालयों के उपयोग में बढ़ोत्तरी के रूप में होती है।
व्यवहार विषयक बदलाव के अधिकतर कार्यक्रमों में यह देखा गया है कि कुछ समय पश्चात शौचालयों के इस्तेमालकर्ता फिर से खुले में शौच जाने की पुरानी प्रवृत्ति अपनाने लगते हैं, जिससे इस कार्यक्रम का प्रयोजन विफल हो जाता है। इस अध्ययन का आंशिक लक्ष्य शौचालयों के निर्माण के बाद उनका उपयोग करने और उपयोगकर्ताओं के फिर से पुराने ढर्रे पर लौट आने अथवा निर्मित शौचालयों का उपयोग न करने की प्रवृत्ति के कारणों का पता लगाना था। इस प्रकार शौचालयों के निर्माण मात्र से यह सुनिश्चित नहीं होता है कि ग्रामीण आबादी नियमित आधार पर शौचालयों का इस्तेमाल करेगी।
कई ऐसे महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक और व्यवहार विषयक घटक हैं, जो शौचालयों के इस्तेमाल में बाधक हैं। अनेक लोगों के लिए खुले में शौच जाना प्रातः भ्रमण, फसलों की देखरेख और सामाजिक मेल-मिलाप का एक हिस्सा होता है। (नील, वुजसिक, बर्न्स, वुड और डिवाइन 2015:10)। महिलाओं के मामले में अंधेरे में खुले में शौच के लिए बाहर जाना, परिवार के बड़े सदस्यों, विशेष रूप से पति और सास-ससुर की निगरानी से इतर अन्य महिलाओँ के साथ खुल कर मिलने का दिन में एकमात्र अवसर हो सकता है।
व्यवहार विषयक घटकों के अलावा, यह देखा गया है कि शौचालय का डिजाइन, स्वच्छता सामग्री की उपलब्धता, पानी की व्यवस्था और राजनीतिक या सामाजिक नेतृत्व जैसे कारक निर्माण की माँग में बढ़ोत्तरी और शौचालयों के इस्तेमाल में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं (ओ.रेली और लुई)। परन्तु, अनेक गाँव सजातीय नहीं होते हैं और जाति तथा धर्म के आधार पर विभाजित होते हैं। समूचा गाँव सजातीय होने की स्थिति में उसमें व्यवहार विषयक सामूहिक बदलाव लाना आसान होता है, लेकिन अधिक संघर्ष होने की स्थिति में इसमें कठिनाई आती है (गुप्ता, कोफे और स्पियर्स)। इतना ही नहीं, पवित्रता और प्रदूषण की जाति आधारित धारणा ऐसे गड्ढा शौचालयों के निर्माण में कठिनाई पैदा करती है, जिन्हें भविष्य में खाली करने की आवश्यकता हो। इस प्रकार शौचालयों को अपनाना हमेशा जल या शौचालयों की उपस्थिति अथवा अभाव से सम्बद्ध नहीं होता है, बल्कि ‘सामाजिक निर्धारक’ और सामाजिक विश्वास परम्परागत धारणाओं को प्रबलित करते हैं।
भारतीय समाज में विविधता के कारण व्यवहार विषयक बदलाव की चुनौती अक्सर बढ़ जाती है, और इसीलिए अधिक संदर्भगत समझ आवश्यक होती है। तथ्य यह है कि स्थानीय जानकारी पर विचार किए बिना स्वच्छता अभियान निष्फल गतिविधियों में बदल जाता है। इस पृष्ठभूमि में हमने उन कारकों (सामाजिक, भौतिक और व्यवहार विषयक) का पता लगाने और विश्लेषण करने का प्रयास किया, जो लोगों में खुले में शौच न जाने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देते हैं और शौचालयों के निर्माण और व्यवहार विषयक बदलाव के लिए सूचना, शिक्षा, संचार (आईईसी) जैसे कारगर तत्वों को निष्फल कर देते हैं। इसके अतिरिक्त हमने शौचालयों के निर्माण के लिए सहमति को प्रभावित करने में आपूर्ति-पक्ष की प्रमुख रुकावटों का पता लगाने और पानी की उपलब्धता तथा भूमि उपयोग में परिवर्तन की भूमिका को समझने की कोशिश की।
पृष्ठभूमि
हमने अपने नमूने में देश की सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता को शामिल करने का प्रयास किया। इसलिए हमने तीन राज्यों (बिहार, तेलंगाना और गुजरात) को चुना। ये तीन राज्य तीन अलग-अलग सामाजिक-सांस्कृतिक, भाषायी और आर्थिक पृष्ठभूमि का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो विविधता के हमारे मानदंड से मेल खाते हैं। शौचालयों तक पहुँच सबसे अधिक गुजरात (85 प्रतिशत), उसके बाद तेलंगाना (61 प्रतिशत), और फिर बिहार (30 प्रतिशत) में देखी गई। प्रत्येक राज्य से हमने दो जिलों (उत्कृष्ट कार्य निष्पादन और सबसे खराब निष्पादन के आधार पर), प्रत्येक जिले से दो ब्लॉकों (उत्कृष्ट कार्य निष्पादन और सबसे खराब निष्पादन आधार पर), और प्रत्येक ब्लॉक से दो ग्राम पंचायतों (उत्कृष्ट कार्य निष्पादन और सबसे खराब निष्पादन के आधार पर) और प्रत्येक ग्राम पंचायत से एक गाँव का चयन किया। नमूने के आकार में 1252 [बिहार (एन=441), गुजरात (एन=409), और तेलंगाना (एन=402)] इकाइयाँ शामिल थीं।
व्यवहार विषयक पद्धतियाँ
पृथक रसोईघर और शौचालय होने के बीच एक सुदृढ़ सम्बन्ध देखा गया। मकान के भीतर स्वच्छ रसोई के लिए अलग स्थान की ही भाँति शौचालय के लिए पृथक स्थान महत्त्वपूर्ण समझा गया(रविन्द्र, और स्मिथ, 2018)। तीनों राज्यों में हमारे नमूना परिवारों में अधिसंख्य मामलों में पृथक रसोईघर (64.3 प्रतिशत) नहीं पाए गए। जबकि शौचालयों के लिए पहुँच होने के बावजूद सभी परिवारों में करीब 8 प्रतिशत अथवा कुछ सदस्य शौचालयों का इस्तेमाल नहीं कर रहे थे। परिवार में शौचालयों के निर्माण का प्रमुख कारण निजता और सुविधा था। इसके बाद समकक्ष का दबाव, सामाजिक प्रतिष्ठा, महिलाओं की माँग और पंचायत नेताओं तथा अन्य राजनीतिक नेताओं और स्वास्थ्य एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं की प्रेरणा शामिल थी।
आँकड़ों के हमारे विश्लेषण से पता चलता है कि शौचालयों तक पहुँच का पेयजल के प्रमुख स्रोत के साथ मजबूत रिश्ता है। जिन गाँवों में पाइप के जरिए जलापूर्ति की व्यवस्था थी, वहाँ शौचालयों तक पहुँच और उनके इस्तेमाल में अधिकता देखी गई। इसके अलावा परिवार के मुखिया के लिंग का भी शौचालयों तक पहुँच पर असर देखा गया। जिन परिवारों की प्रमुख महिलाएँ हैं, उनमें पुरुष प्रधान परिवारों की तुलना में शौचालयों के इस्तेमाल की प्रवृत्ति अधिक पाई गई। कृषि इतर स्व-रोजगाररत परिवारों में खुले में शौच जाने की प्रवृत्ति कम देखी गई।
शौचालयों तक पहुँच के मामले में किसी परिवार के जीवन की गुणवत्ता एक महत्त्वपूर्ण घटक पाई गई। अन्य बुनियादी सेवाओं तक पहुँच को भी शौचालयों तक पहुँच में महत्त्वपूर्ण घटक के रूप में देखा गया। परिवार के लिए पेयजल सुविधा की पृथक व्यवस्था होने की स्थिति में पृथक शौचालय के इस्तेमाल की प्रवृत्ति अधिक देखी गई। आवासीय इकाई के भीतर पेयजल स्रोत होने की स्थिति की तुलना में आवास परिसर से पेयजल स्रोत की दूरी 400 मीटर से अधिक होने की स्थिति में, खुले में शौच जाने की प्रवृत्ति अधिक पाई गई। इसी प्रकार आवास के भीतर जल स्रोत होने की तुलना में आवास से बाहर पेयजल स्रोत होने की स्थिति में परिवार के उपयोग के लिए पृथक शौचालय 10 प्रतिशत कम देखे गए। स्नानघर सुविधा शौचालयों तक पहुँच में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यदि परिवार में स्नानघर नहीं है, तो खुले में शौच जाने की प्रवृत्ति बढ़ने की आशंका रहती है। अटैच बाथरूम सुविधा होने से परिवार के सभी सदस्यों द्वारा शौचालय के उपयोग के अवसर बढ़ जाते हैं। वर्ष के दौरान विभिन्न अवधियों में पानी की अपर्याप्त उपलब्धता का शौचालयों के उपयोग पर नकारात्मक असर पड़ता है। आवास की स्थिति, जो जीवनस्तर का सूचक होती है, की भी शौचालय उपयोग में महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
परिवारों की आर्थिक स्थिति और कुल खर्च क्षमता का शौचालयों तक पहुँच और उनके उपयोग की प्रवृत्ति पर सकारात्मक असर पड़ता है। मासिक परिवार व्यय 1000 रुपए से अधिक होने की स्थिति से खुले में शौच जाने की प्रवृत्ति में कमी आने की सम्भावना बढ़ जाती है। इसके अलावा टिकाऊ सामान पर व्यय में एक प्रतिशत बढोत्तरी होने से शौचालयों के उपयोग के अवसर 48 प्रतिशत बढ़ जाते हैं। इसका निहितार्थ यह है कि बेहतर आर्थिक स्थिति और बेहतर जीवन स्तर से शौचालयों के निर्माण और इस्तेमाल के अवसर बढ़ जाते हैं।
शौचालय निर्माण सम्बन्धी सरकारी कार्यक्रमों और वित्तीय सहायता के बारे में जानकारी होने का रचनात्मक असर क्रमशः शौचालयों के निर्माण और इस्तेमाल पर पड़ता है। स्वच्छ भारत मिशन के प्रति जागरूकता खुले में शौच जाने की प्रवृत्ति में 10 प्रतिशत कमी लाती है। उत्तरदाता (विशेष रूप से परिवार के मुखिया) या महिलाओं के दबाव के कारण निर्मित शौचालयों का इस्तेमाल परिवार के सभी सदस्यों द्वारा किए जाने की सम्भावना बढ़ जाती है। आस-पास के वातावरण की स्वास्थ्य और स्वच्छता सम्बन्धी स्थितियाँ शौचालयों के निर्माण और उपयोग की सम्भावना बढ़ा देती हैं।
सामाजिक-आर्थिक ढाँचागत और पर्यावरण प्रभावों के बावजूद शौचालयों तक पहुँच और उनके इस्तेमाल में राज्य-विषयक प्रभावों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। गुजरात की तुलना में बिहार में खुले में शौच जाने की प्रवृत्ति 13 प्रतिशत अधिक और परिवार के विशेष इस्तेमाल के लिए शौचालय होने की सम्भावना 37 प्रतिशत कम देखी गई। गुजरात की तुलना में बिहार में 15 वर्ष से ऊपर आयु के पुरुष और महिला सदस्यों और वृद्धजनों द्वारा शौचालयों के उपयोग की सम्भावना 20 प्रतिशत कम देखी गई। बिहार की तुलना में तेलंगाना में खुले में शौच जाने की प्रवृत्ति 30 प्रतिशत अधिक पाई गई।
फोकस ग्रुप विचार विमर्श, भागीदारी पूर्ण ग्रामीण आकलन (पीआरए), स्वच्छता सम्बन्धी चित्रों और विसंरचित साक्षात्कार की मदद से जागरूकता के दिलचस्प नतीजे सामने आए। निजी और सामाजिक खुशहाली के प्रति जागरूकता के बावजूद, परिवार खुल में शौच जाने को नपी खुशहाली के प्रति कोई खतरा नहीं समझते हैं। शौचालयों की तुलना में स्वयं के लिए घर, पूजा स्थल, मनोरंजन के स्रोत के रूप में मेले या सामाजिक उत्सवों की मांग अधिक पाई गई। गाँवों में कुछ परिवारों द्वारा शौचालय को स्वीकार न किए जाने का अन्य पर नकारात्मक असर देखा गया। इसे देखते हुए जो शौचालयों का इस्तेमाल कर रहे थे, उन्होंने भी किसी एक या अन्य बहाने से उनका इस्तेमाल करना बंद कर दिया। विभिन्न स्वयं-सहायता समूहों के सदस्यों ने बताया कि शौचालय का ढाँचा दिव्यांगजनों के अनुकूल नहीं है। अनेक परिवारों में वृद्धजनों के लिए शौचालय का इस्तेमाल करना आरामदायक नहीं पाया गया। पीआरए और एफजीटी ने मिलकर यह उद्घाटित किया कि सूचना, शिक्षा संचार का एसबीएम (जी) के कार्यान्वयन की समूची प्रक्रिया में कम इस्तेमाल किया गया। प्रातः कालीन सतर्कता, खुले में शौच जाने वालों को उजागर करना (व्हिसल ब्लोइंग), बैठकों, प्रशिक्षण आदि उपायों के जरिए इस प्रवृत्ति के बारे में जागरूकता पैदा करने के प्रयास किए गए। समुचित स्वच्छता प्रणाली, शौचालयों की आवश्यकता, मलके समुचित निपटान और मासिक धर्म के दौरान स्वच्छता के महत्व के बारे में समुदायों में शिक्षा का अभाव देखा गया।
पवित्रता और प्रदूषण के प्रति सामाजिक सांस्कृतिक मानदंड लोगों को घर में शौचालय रखने से रोकते हैं। इसी प्रकार अनेक लोगों की प्राथमिकताएँ भिन्न होती हैं। उदाहरण के लिए तेलंगाना के मेदक जिले के एक गाँव में समुदाय के सदस्यों ने पूजा स्थल के निर्माण के लिए धन एकत्र किया, लेकिन शौचालय के निर्माण पर धन खर्च करने में रुचि प्रदर्शित नहीं की।
सिफारिशें
स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण की व्यापक सहारना हुई है, परन्तु, इसमें शामिल नए लोगों के फिर से मूल व्यवहार में वापसी की आशंका बनी हुई है। इस समस्या से निपटने के लिए कार्यक्रम में बड़े परिवारों के लिए एक से अधिक शौचालय का प्रावधान करना शामिल किया जा सकता है। जमीनी स्तर पर सूचना सम्प्रेषण पर अधिक बल दिया जा सकता है। स्वास्थ्य और सामाजिक कार्यकर्ता लोगों को प्रभावित करने में अधिक बड़ी भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं।
स्वच्छता में सुधार का सम्बन्ध जीवन स्थितियों के अन्य सूचकांकों के साथ है, अतः परिवार के स्तर पर और साथ ही सार्वजनिक सेवा के स्तर पर बेहतर ढाँचा कायम करना बड़ा महत्त्वपूर्ण है। बेहतर जलापूर्ति सेवा, आवास, स्नानघर का निर्माण जैसे उपाय शौचालय तक पहुँच और उसके इस्तेमाल की प्रवृत्ति में बढ़ोत्तरी कर सकते हैं। इसके साथ ही परिवारों की अधिक आय और टिकाऊ सामान की ऊँची क्रय शक्ति का प्रभाव जीवन स्तर को बेहतर बनाने और इस तरह स्वच्छता पद्धति को बढ़ावा देने पर पड़ता है। बेहतर स्वच्छता कवरेज के लिए महिला साक्षरता पर जोर देना भी अत्यन्त आवश्यक है।
- http://sbm.gov.in(ATHARVA) से 1 अक्टूबर, 2019 को लिया गया
- स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण के अन्तर्गत शौचालय कवरेज के मूल्यांकन के लिए परिवार सर्वेक्षण, रिपोर्ट 2017 वेबसाइट:https://mowQs.gov.in/sites/default/files/Final_iQCI_report_2017.pdf
सन्दर्भ
- नील डी. वुजसिक.जे.बर्न्स, आर.वुड.डब्ल्यू और डिवाइन, जे. (2015)। खुले में शौच जाने की प्रवृत्ति में बदलाव के लिए प्रेरित करना: व्यवहार विज्ञान से नई तकनीक। जल और स्वच्छता कार्यक्रम, विश्व बैंक, वाशिंगटन डीसी।
- ओ रेली, के. और लुई, ई. (2014)। दि टॉयलेट ट्राइपोड, अंडरस्टैंडिंग सक्सेसफुल सेनिटेशन इन रूरल इंडिया, हेल्थ एंड प्लेस, 29, 43-51
- गुप्ता ए. कोफे डी. और स्पियर्स डी. (2016)। पवित्रता, प्रदूषण और अस्पृश्यता: ग्रामीण भारत में स्वच्छता कार्यक्रमों के अंगीकरण, इस्तेमाल और स्थायित्व की चुनौतियाँ और नवाचार, पेट्रा बोंगार्ज, नाओमी वेरनोन और जॉन फोकस द्वारा सम्पादित, प्रैक्टिकल एक्शन पब्लिशिंग, वारविकशायर(यूके)।
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