स्वच्छता और पर्यावरण 

Submitted by Shivendra on Thu, 11/07/2019 - 13:15

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स्वच्छता और पर्यावरण का प्रत्यक्ष सम्बन्ध है। स्वच्छता की स्थिति में पर्यावरणीय स्थिति भी स्वच्छ व स्वस्थ रहेगी। आम पर्यावरण की समस्या एक वैश्विक समस्या है, अस्वच्छता के कारण पर्यावरण पर जोखिम पैदा हुआ है। नगरीय एवं ग्राम्य समाज में स्वच्छता के प्रति कम जागरुकता से पर्यावरणीय विविध पहलू प्रभावित हुए हैं। जलावरण, वातावरण, मृदावरण, जिवावरण आदि पर विपरीत असर पहुँचा है। अनुप्रयोगों की बदौलत, विविध रासायनिक उद्योगों, यातायात, जंगलों की कटाई, प्लास्टिक का अतिरेकपूर्ण उपयोग, प्रदूषित जल, प्रदूषण अन्य उद्योगों आदि के कारण पर्यावरणीय असंतुलन पैदा हुआ है। जिसका सीधा प्रभाव जन जीवन पर लक्षित है।
 
स्वच्छता व पर्यावरण सामाजिक आयाम है जो समाज को प्रभावित करते हैं, जिसका अभ्यासक्रम इस समाज शास्त्र का विषयवस्तु है।
 
पर्यावरणीय स्वच्छता और गंदे निवास स्थान

गंदे निवास स्थानों से स्वच्छता का प्रत्यक्ष सम्बन्ध है। स्वच्छता के अभाव में अपने आप ही गन्दी बस्तियाँ पैदा होने लगेगी। गंदे निवास महानगरों की प्रमुख समस्या है। विशेषतः मुम्बई, दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, जैसे महानगरों में भौतिक विकास के साथ ही साथ गंदे निवासों की समस्या भी तेजी से बढ़ने लगी है। नगरों में उद्योगों का दूषित जल और जहरीले वायु के द्वारा पर्यावरण को नुकसान हुआ है। झुग्गियाँ, गंदे मलबे, प्लास्टिक के कूड़े और नदी, व तालाबों का दूषित जल, यातायात का धुँआ प्राथमिक सुविधाओं का अभाव अस्वच्छता के प्रश्न पैदा करते हैं। गाँवों में खुले में शौचक्रिया, खुले ड्रेनेज, शुद्ध पेयजल, खुले मलबे, पाठशाला व घरों में शौचालय की असुविधाएँ पर्यावरण को हानी पहुँचाती है।
 
इस प्रकार ग्राम व नगर समुदायों में गंदे आवास व निम्न जीवनशैली से स्वच्छता पर विपरीत असर पैदा किया है।
 
पर्यावरणीय स्वच्छता और पेयजल

जल मानव जीवन के अस्तित्व का बुनियादी आधार है। बिना जल मानव जीवन असम्भव है। सजीव सृष्टि का मूलाधार जल ही है। पेयजल के लिए स्वच्छ जल ही महत्त्वपूर्ण है क्योंकि प्रदूषित जल स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बन जाता है। अनेक रोगों का कारक बनता है।
 
पानी की स्वच्छता हेतु कई बातें महत्त्वपूर्ण हैं। जैसे की समयांतर में जल की जाँच करना, आवश्यक दवाइयों का विनियोग करना आदि। यदि ऐसी सावधानी नहीं रखी जाती तो जल पीने लायक नहीं रहता। राष्ट्रीय व राज्य स्तर पीने के पानी के लिए बांध का निर्माण करना, उचित वितरण प्रबंधन होना, स्वच्छता की सावधानी रखना व उचित व्यवस्था हेतु प्रशासन का आयोजन करना अनिवार्य है।
 
स्वच्छता व पेयजल एक दूसरे से संबंधित हैं। उचित व्यवस्थापन से उचित जल प्राप्त हो सकता है।
 
जहाँ स्वच्छता वहाँ ईश्वर का निवास यह उक्ति वास्तव में सार्थक है। हमें बचपन से ही यह शिक्षा दी जाती है। मानवीय अस्तित्व की चर्चा में स्वच्छता का प्रश्न चिरस्थाई प्रश्न रहा है। सेहतमंद तन, स्वास्थ्य, मन, स्वस्थ देश का निर्माण करता है। देश व मानव विकास हेतु स्वच्छता की अनिवार्यता है। स्वच्छता विहीन मनुष्य पंगु के समान है।
 
स्वच्छता का सम्बन्ध वय-उम्र के साथ नहीं है। बच्चों से बूढ़ो तक इसका विशेष महत्व रहा है। मानव शरीर को रोगमुक्त रखने के लिए पर्यावरणीय शुद्धता के लिए स्वच्छता की अनिवार्यता है। व्यक्ति के शरीर, चीज-पदार्थ के उपभोग, तमाम सजीव-निर्जीव स्थितियों से स्वच्छता का ख्याल संलग्न है। स्वच्छता केवल हाथ-मुँह-पैर धोने तक सीमित नहीं है। देश की विकास रेखा में भी स्वच्छता का सविशेष योगदान रहा है। देश के विकास में कार्यरत विभूतियाँ, सेवाकर्मियों को प्रोत्साहित कर सकती है। किसी भी देश के विकास का प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से आधार स्वच्छता पर निर्भर है। गरीबी, बेरोजगारी, निम्न स्वास्थ्य, अल्प शिक्षा, निरक्षरता आदि में कहीं-न-कहीं अस्वच्छता जिम्मेदार है। भारत की वास्तविकता है कि निवास स्थानों के आस-पास गंदगी के ढेर बने रहते हैं। गरीबी का विषचक्र लोगों के जीवन को तहस-नहस कर देता है। डब्ल्यूएचओ का मंतव्य है कि किसी भी देश की विकास रेखा स्वच्छता के मानदण्ड पर आधारित है। लोगों का स्वयंमेव विकास सम्भव है।
 
भारत या विश्व के किसी भी देश के सन्दर्भ में स्वच्छता कि सावधानी हेतु देश की सरकार, व्यक्ति विशेष, संगठन, स्वैच्छिक संस्थान व कार्यालय आदि के द्वारा जिम्मेदारियाँ निभाई जाती हैं। वैश्विक स्तर पर स्वच्छता का प्रश्न चर्चा का विषय बना रहता है।
 
पर्यावरणीय कचराः सार्वजनिक स्थान व निजी स्थान
 
भारत देश कला, संस्कृति व स्थापत्यों का देश है। भारतीय प्रजा अपने इतिहास को लेकर विश्वभर में विख्यात है। भारतीय इतिहास के मद्देनजर सार्वजनिक स्थानों को विविध क्षेत्रों में विभाजित किया 
जा सकता है। सार्वजनिक स्थान वे हैं जहाँ लोग बेझिझक घूम-फिर सकते हैं। आनन्द उठा सकते हैं। शहरों में ग्राम्य की तुलनामे घन कचरे का निकाल मुश्किल है। गाँव में घन, द्रव्य कचरा कुछ समय में जमीन में घुल-मिल जाता है और जमीन को उर्वर बनाता है। कचरे की निकास व्यवस्था हमारे ले ‘प्रथम ग्रास मक्षिका’ के समान है।
 
सार्वजनिक स्थानों पर प्रदूषण की स्थिति विकट रहती है। भारत में सरकार, संस्थानों के द्वारा सार्वजनिक स्थानों की स्वच्छता हेतु प्रचार-प्रसार किए जाते हैं, फिर भी लोगों की लापरवाही उनको नजरअंदाज कर देती है। बाग-बगीचों का उपयोग लोगों के द्वारा ऐसे होने लगा है, जैसे उस स्थान पर दूसरी बार किसी को जाना न हो। बाग-बगीचों में खाद्य पदार्थ, चीज-वस्तुएँ कूड़े के रूप में फेंक जाते हैं।
 
भारत में देव स्थानों को भी बक्शा नहीं गया है। ऐसे सार्वजनिक स्थानों को भी गंदगी का रोग लग गया है। गरीबों को दूध-पानी नसीब नहीं और मंदिरों में व्यर्थ बहाया जाता है।
 
भारत में सार्वजनिक स्थानों पर स्वच्छता की आवश्यकता
 
वैश्विक स्तर पर स्वच्छता का विशेष महत्व है। वैयक्तिक स्वच्छता के साथ-ही-साथ सार्वजनिक स्वच्छता भी आवश्यक है। सार्वजनिक स्थानों के प्रति लोगों की लापरवाही एक प्रश्नार्थ है। सार्वजनिक स्थान लोगों के आवागमन के स्थान हैं, जहाँ एक ही स्थान पर कई लोग इकट्ठे होते रहते हैं। ऐसे स्थानों पर स्वयंमेव लोगों के आवागमन के स्थान हैं, जहाँ एक ही स्थान पर कई लोग इकट्ठे होते रहते हैं। ऐसे स्थानों पर स्वयंमेव स्वच्छता ही श्रेष्ठ रास्ता है।
 
परिवार में व्यक्ति स्वच्छता का ख्याल रखता भी है। तब भी सार्वजनिक स्थानों पर वह इन नियमों का परिपालन नहीं करता। भारत देश में पर्व-त्योहारों के अवसर पर लोग सार्वजनिक स्थानों पर इकट्ठे होते हैं। लोगों के द्वारा विविध चीजों का प्रयोग होता है जिनसे पैदा होने वाला कचरा जहाँ-तहाँ फेंक दिया जाता है और अस्वच्छता की स्थिति का निर्माण होता है। अस्वच्छता की स्थिति आरोग्य के लिए खतरा पैदा करने लगती है। मानवीय विकास हेतु सार्वजनिक स्थानों की स्वच्छता अनिवार्य है।
 
सार्वजनिक स्थानों पर अस्वच्छतालक्षी समस्याएँ
 
द्रव्य व सघन कचरे से अस्वच्छता पैदा होती है। सघन कचरा गंदगी का मूल कारण है। कागज, झूठी खुराक, प्लास्टिक बैग, आदि सघन कचरा गंदगी फैलाता है।
 
भारत में लोगों के द्वारा सार्वजनिक स्थानों पर कचरा न फैले इस हेतु से थूंकदानी, कचरादान जैसी व्यवस्था की गई है, फिर भी अस्वच्छता पैदा होती है। इससे अनेक समस्याएँ पैदा होती हैं। पर्यावरणीय सुरक्षा हेतु भी अस्वच्छता निषेध आवश्यक है।
 
बढ़ती आबादी के कारण गंदे निवास का बढ़ना, मानवीय संघर्ष, नगरीयकरण, आधुनिकीकरण की समस्याएँ बढ़ी हैं। लोग सार्वजनिक स्थानों पर भी दिन बिताने लगे हैं। बाग-बगीचे, सार्वजनिक स्थान, मंदिर, अस्पताल, रेलवे-स्टेशन आदि पर गंदगी का साम्राज्य फैलता जा रहा है।
 
दूषित वातावरण

सार्वजनिक स्थानों के अस्वच्छ रहने पर वातावरण भी दूषित होने लगा है। दूषित वातावरण मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए खतरा बन गया है। रोगों का फैलाव होने लगा है।
 
मानवीय विकास का अवरोध

सार्वजनिक स्थानों पर कचरें के निकास के कारण आर्थिक, स्वास्थ्य जैसी अन्य समस्याएं उद्भावित होने लगती हैं। देश की संपरी को हानि पहुँचती है। सार्वजनिक अस्वच्छता मानव विकास के लिए खतरा है।
 
मानवीय जीवन की सामाजिक समस्याएँ

मानव जीवन हेतु पर्यावरण एक मूलाधार है। सार्वजनिक स्थानों पर कचरे के निकास के कारण हम सामाजिक आन्दोलन में निष्फल सिद्ध होते हैं। समाज के अस्वस्थ बनने पर समाज की सामाजिक अन्तक्र्रियाएँ सामाजिक सम्बन्धों पर गहरा असर फैलता है।
 
विभाजन

सार्वजनिक स्थानों पर जनसमूह के इकट्ठे होने पर लापरवाही के कूड़े-कचरे का फैलाव होने लगता है। फलस्वरूप धनि और गरीबों के बीच विभाजन भी पैदा होने की सम्भावना है। धनिकवर्ग निजी 
स्थानों की ओर कि जहाँ स्वच्छता है, उस दिशा में अपना चयन करेंगे। अतः प्रवासन की स्थिति में भी भेदभाव की स्थिति परवर्तित होने लगेगी।
 
सार्वजनिक स्थानों पर अस्वच्छता का असर
 
भारत में सार्वजनिक स्थान पर्याप्त मात्रा में हैं। मन्दिर, अस्पताल, दरगाह, बाग-बगीचे, स्नानगृह, आश्रम, भोजनालय, पाठशालाएँ आदि सार्वजनिक स्थानों की पहचान हैं।
 
भारत के लोगों का अधिकांश समय सार्वजनिक स्थानों पर बसर जाता है। बच्चे पाठशाला में जाते हैं, स्त्रियाँ वृद्धि आदि मंदिरों में, युवावर्ग थियेटर, क्लब, बाग-बगीचे में पहुँचते हैं। अतः सभी को स्वच्छता हेतु कार्यशील होना पड़ेगा।
 
अस्वच्छता हमेशा निषेधात्मक प्रभाव पैदा करती है। अस्वच्छता ऐसा प्रदूषण है, जिनसे स्वास्थ्य को भी खतरा पैदा हो सकता है। सघन कचरे का उचित निकाल सार्वजनिक स्थानों पर आने वाले लोगों के हित का कदम है। अस्वच्छता के कारण लोगों में शारीरिक-मानसिक बीमारी के फैलने का डर बना रहता है।

सामाजिक भेदभाव के फलस्वरूप सार्वजनिक स्थानों पर अस्वच्छता  का भी माहौल देखा गया है। देश के विकास में अस्वच्छता बाधारूप बन जाती है।
 

सार्वजनिक स्थानों पर स्वच्छता के प्रयास
 

भारत वैविध्य भर बिन सांप्रदायिक देश है। संस्कृति, परिधान, रीत-रिवाज आदि में पर्याप्त विविधता द्रष्टव्य है। सार्वजनिक स्थानों से तात्पर्य किसी गाँव के सीमान्त, नुक्कड़, पाठशाला, अस्पताल, पंचायत घर आदि सार्वजनिक स्थानों की स्वच्छता लोगों का स्वास्थ्य बनाने में अहम भूमिका निभाते हैं। इस सन्दर्भ में कई सुझाव प्राप्त हुए हैं।
 
1. स्वच्छता की शिक्षा

भारतीय समाज व्यवस्था में लोगों को स्वच्छता की शिक्षा आवश्यक है। परिवार के द्वारा शैक्षिक संस्थानों के द्वारा स्वच्छता सम्बन्ध में लोगों को अवगत कराया जाना आवश्यक है।
 
2. स्वच्छता के उपकरणों का उपयोग

सार्वजनिक स्थानों पर स्वच्छता हेतु सरकार, स्थायीत्व संस्थान, समवायो के द्वारा स्वच्छता के उपकरण रखे गए हैं। कूड़ादानी, थूंकदानी, ड्रेनेज व्यवस्था, शौचालय आदि। लोगों को चाहिए कि उनका ही उचित उपयोग कर स्वच्छता निर्माण में सहभागी बनते रहे।
 
3. जागरुकता

अस्वच्छता की स्थिति से प्रतीत होता है कि लोगों में स्वच्छता सम्बन्ध में स्वयंमेव का अभाव है। स्वजागृति हेतु विविध कार्यशालाएँ, प्रवचन, प्रशिक्षण आदि का आयोजन किया जाता है।
 
भारत में निजी स्थानों की स्थिति

भारत में सार्वजनिक व निजी स्थानों की स्थिति परवर्तित है। दोनों स्थानों के बीच बहुत बड़ा अन्तर देखा गया है। किसी मालिक की निगरानी में उनकी सम्पत्ति के रूप में निजी स्थानों का समावेश होता है।
 
निजी स्थानों का अधिकार वैयक्तिक व सामूहिक भी रहता है। निजी स्थान निश्चित समुदाय, दर्म, वर्ण या वर्ग के लोगों के लिए ही आरक्षित रहते हैं। सम्बन्धित स्थानों के सन्दर्भ में तमाम निर्णय किसी व्यक्ति विशेष के रहते हैं। स्वच्छता सम्बन्ध में भी मालिक के द्वारा नियमों का गठन होता है। अपनी इच्छानुसार मालिक स्वच्छता सम्बन्ध में उपकरणों का उपयोग करता है। निजी स्थानों को लिए प्रतिष्ठा विशेष महत्त्वपूर्ण मानी गई है।
 
भारत में निजी स्थानों में संस्थान, पाठशाला, कॉलेज, क्लब, थियेटर आदि का समावेश होता है। सार्वजनिक स्थानों की तुलना में इसकी स्थिति अच्छी होती है। कई बार अस्वच्छता हेतु जुर्माना लगाने का भी नियम होता है। भारत में लोग स्वास्थ्य की परिस्थिति अच्छी है। पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव में लोग स्वास्थ्य के प्रति जागरुक हुए हैं। निजी संस्थानों व स्थानों में स्वच्छता के भी आग्रही बने हैं।
 
निजी स्थानों पर स्वच्छता की आवश्यकता

सार्वजनिक व निजी स्थानों पर लोगों का आवागमन नित्य रहता है। ऐसे माहौल में स्वच्छता के कड़े नियमों की आवश्यकता है। स्वच्छता के उपकरणों का उपयोग गंदगी हटाता है। निजी स्थानों पर उनके मालिकों के द्वारा इसका अनुरोध किया जाता है।

  1. आरोग्य प्राप्ति हेतु
  2. संस्थान की प्रतिष्ठा
  3. बाजार में एक प्रभाव हेतु
  4. उत्पादकता की वृद्धि हेतु

भारत में निजी स्थानों पर स्वच्छता के प्रयास

भारत में निजी स्थानों की स्वच्छता के लिए विविध प्रयास द्रष्टव्य हैं। पाठशाला, कॉलेज, आदि शैक्षिक संस्थानों के सफाई कार्य हेतु सफाईकर्मियों की नियुक्ति की जाती है। बच्चों के स्वास्थ्य को हानि से बचाया जाता है। स्वच्छ वातावरण का निर्माण किया जाता है।
 
सफाई व्यवस्था खेल-कूद के मैदान में भी की जाती है। शौचालयों, वर्गखंडों, कक्षा, भोजनालय, कम्प्यूटर कक्ष आदि में विशेष ध्यान रखा जाता है। अनेक निजी कम्पनियों में भी स्वच्छता की संभावना द्रष्टव्य है। सफाईकर्मियों के साथ-साथ संस्थान के सभी कर्मचारियों को स्वच्छता की सूचना दी जाती है। स्वच्छता के उपकरणों के द्वारा सुबह दोपहर एवं शाम के समय सफाई की जाती है। कई निजी कम्पनियों व निजी स्थानों पर लोगों की स्वच्छता जागृति सम्बन्ध में विधेयात्मक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। लोगों को पुरस्कृत करने की योजना सोची जाती है। स्वच्छता भंग करने वाले पर कानूनी कार्यवाही करते हुए उस पर जुर्माना लागू किया जाता है।
 
प्रवर्तमान समय में स्वच्छता सम्बन्ध में ऐसा करने का एक कारण है-प्रतिस्पर्धा। समाज में प्रतिष्ठा हेतु मालिक गण ये प्रवृत्तियाँ करते रहते हैं।
 
भारत में सार्वजनिक स्थानों व निजी स्थानों की स्वच्छता

प्रत्येक क्षेत्रों में सार्वजनिकता व निजता के बीच तुलना का माहौल है। अच्छे स्वास्थ्य की प्राप्ति के लिए प्रत्येक देश की सरकार व स्वैच्छिक संस्थानों कई प्रयत्नशीलता काबिलेदाद है। अर्थोपार्जन करने वाले संस्थान भी इस सन्दर्भ में प्रयत्नशील रहते हैं।
 
सार्वजनिक स्थानों पर सरकार प्रयत्नशील है। स्वच्छता हेतु खर्च भी किया जाता है। नागरिकों के द्वारा वसूले गए कर से ही सरकार यह प्रावधान कर सकती है। किन्तु लोग अपने ही रुपए का मूल्य न समझकर स्वच्छता भंग करने लगते हैं। दोष सरकार के सिर पहनाया जाता है।
 
निजी स्थानों पर यह एक बड़ी जिम्मेदारी उठाई जाती है। मालिक स्वयं इस सन्दर्भ में निगरानी रखता है। संस्था से संलग्न व आगंतुकों पर यह अंकुश डाला जाता है कि स्वच्छता भंग हो न पाए। अतः निजी स्थानों पर स्वच्छता की स्थिति सार्वजनिक स्थानों की तुलना में बेहतरीन होती है।
 
सार्वजनिक स्थानों व निजी स्थानों पर कचरा निकाल पद्धति
 
स्वच्छता सम्बन्धित नियमों का परिपालन अनिवार्य होता है। हमने चीजों के उपयोग के बाद सघन कचरे का जहाँ-तहाँ निकाल कर दिया है। इसके निकाल हेतु उचित व्यवस्था भी आवश्यक है। नगर पालिका, ग्राम-पंचायत आदि के द्वारा इनका प्रबन्ध किया जाता है।
 
जिला, तहसील तथा ग्राम्य स्तर पर लोगों की स्वच्छता हेतु सघन कचरे के निकाल की व्यवस्था की गई है। निधि-अनुदानों के द्वारा सार्वजनिक स्थानों पर इसका आयोजन किया जाता है। किन्तु भ्रष्टाचार व सामाजिक समस्याओं की बदौलत प्रशासन के द्वारा लापरवाही देखी गई है।
 
आज कचरे के निकाल हेतु स्थान-स्थान पर डिब्बों का प्रबन्ध किया गया है। किन्तु सच यह है कि अब तक लोगों को इसकी आदत डलवाई जाए, तबतक यह सब निष्फल है। निजी स्थानों पर नियमों का सख्त पालन करना पड़ता है। अतः निजी स्थानों पर पूर्ण सजगता के साथ यह कार्य किया जाता है।
 
स्वच्छता हेतु चीज-पदार्थों के उपयोग की पद्धति को विकसित करना, साधनों की वैयक्तिक रूप से प्राप्ति कराना, आदि कार्य अब भी शेष है। निजी स्थानों पर कचरा निकाल की विशेष जिम्मेदारी सौंपी गई होती है। सार्वजनिक स्थानों पर उचित जगह पर स्थान न रखने पर उसका उपयोग सम्भव नहीं बनता।
 
निजी स्थानों पर कचरा निकाल हेतु कचरादानी, ड्रेनेज प्रबंध, शौचालय आदि का उचित प्रबंधन है। समयांतर में उसको साफ किया जाता है। कचरा निकाल पद्धति में पानी का उपयोग, दूषित पानी का निकाल, सघन कचरे की सफाई, वायु प्रदूषकों का नाश आदि का समावेश होता है। निजी संस्थान इन सभी के प्रति सजग होते हैं। मानव जीवन के लिए स्वच्छता का मूल्य अधिक मूल्यवान है।
 
पर्यावरणीय स्वास्थ्य के अभाव से उत्पन्न समस्याएँ

मानव जीवन ‘स्वास्थ्य’ पर आधारित है। उसका अस्तित्व स्वच्छता पर निर्भर है। स्वास्थ्य के सुधरने के अभाव में मनुष्य व पशु के बीच का अन्तर समाप्त हो जाता है। स्वास्थ्य के सम्बन्ध में ही इंसान का सामाजिक स्तर निम्न हो जाता है। स्वास्थ्य का अभाव अनेक समस्याओं को पैदा करता है।
 

  • सामाजिक समस्याएँ

स्वास्थ्य की अपूर्णता व्यक्ति के सामाजिक जीवन को भी विचलित कर देती है। इंसान-इंसान के बीच के सम्बन्धों में तनाव पैदा होने लगता है। मनुष्य को एक सामाजिक प्राप्ति होने के नाते ऐसी स्थिति में जीवन जीना दूभर हो जाता है। स्वास्थ्य की अपूर्णता से बीमारी के फैलाव से तनाव-दबाव से जीवन बोझिल हो रहा है।
 
सामाजिक नियंत्रण का अभाव भी मनुष्य को स्वास्थ्य के अभाव का अहसास देता है। अनियंत्रित रहने वाले लोग रोग को निमंत्रण देते हैं। समाज के लिए अनुचित कार्य करने लगते हैं। विविध सामाजिक संस्थान जैसे की विवाह संस्थान, परिवार संस्थान, बिरादरी संस्थान आदि भी स्वास्थ्यपरक स्थिति से मुक्त नही हैं। प्रत्येक संस्थान व्यक्ति विशेष पर निर्भर है। व्यक्ति के बीमार होने पर, मानसिक समस्या पैदा होने पर उसके निषेधात्मक प्रभाव को देखा जाता है। संवेदना कम होना, तलाक प्राप्त करना, सम्बन्धों में तनाव पैदा होने जैसी निषेधात्मक क्रियाएँ देखी जाती हैं। स्वास्थ्य की अपूर्णता के कारण सामाजिक संरचना भी अस्त-व्यस्त हो उठती है। व्यक्ति विशेष के निम्न स्तर की ओर जाने के डर से लघुता, हताशा का अनुभव होने लगता है। जिसका प्रत्यक्ष असर सामाजिक जीवन पर फैलता जाता है। व्यक्ति अपने सामाजिक अस्तित्व के लिए संघर्षरत बन जाता है।
 

  • आर्थिक समस्याएँ

स्वास्थ्य की अपूर्णता के कारण व्यक्ति अपना रोज-ब-रोज का कार्य ठीक ढंग से नहीं कर पाता। अपने अर्थोपार्जन के कार्य पर विक्षेप पैदा होने लगता है। आमदनी प्राप्ति का वह प्रयास करता है किन्तु मानसिक विचलितता के कारण वह सफल नहीं हो पाता।
 
स्वास्थ्य की अपूर्णता गरीबी जैसी समस्याओं को पैदा करती है। प्रत्येक व्यक्ति स्वस्थ जीवन जीने के लिए लालचित होता है। किन्तु स्वास्थ्य जन्य समस्याएँ व्यक्ति को ऋण में डुबो देती हैं और जीवन से हताश कर देती है।
 
व्यक्ति ठीक ढंग से अपना विकास साध नहीं सकता। बीमार व रोगयुक्त व्यक्ति अपने शारीरिक व मानसिक अस्वच्छता को चिंता व हताशा में रत रहता है। विकास के अवसरों को प्राप्त नहीं कर पाता। चिन्ता के कारण सृजनात्मकता पैदा नहीं कर सकता। बीमारी के ही कारण सूद पर पैसा लेना उनकी मजबूरी बन जाती है।
 
अस्वच्छता के कारण वह सूद के चक्रव्यूह से बाहर नहीं निकल सकता। अर्थाभाव के कारण वह अपराध के रस्ते अपनाने लगता है। देश के विकास में मानव संसाधन का बहुमूल्य योगदान है।
 
भारत देश में सबसे अधिक मानव संसाधन प्राप्त होता है। यदि इस मानवशक्ति का आर्थिक विकास हेतु सदुपयोग किया जाना आवश्यक है। लोगों के जीवन स्तर-ऊँचाई प्राप्त कर सकता है। आरोग्य की विप्रस्थिति देश के पिछड़ेपन का कारण बनती है।

  • धार्मिक समस्याएँ

कुरिवाज, गलत मान्यताएँ आदि के लिए स्वास्थ्यपरक स्थिति जिम्मेदार है। धार्मिक विधियों व रिवाजों के अनुसार स्वास्थ्य समस्या को हल करने का प्रयास किया जाता है। अन्धविश्वास, दोरे-धागे व जादू-टोने से आरोग्य की सुरक्षा सोची जाती है जो सरासर गलत है।

  • स्वास्थ्यजन्य समस्याएँ

स्वास्थ्य की अपूर्णता व्यक्ति विशेष को हताशा की गर्त में खो देती है। स्वास्थ्य का अभाव कई बीमारियों को न्योता देता है। आरोग्यपूर्ण स्थिति अर्थात रोगमुक्त रहने की प्रक्रिया। प्रक्रिया शब्द इसलिए प्रयुक्त है कि यह एक निरन्तर क्रिया है। व्यक्ति हवा, जल, खुराक आदि को ध्यान में रखते हुए जीवन व्यतित करता है। इसके प्रति की लापरवाही स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा करती है। कई बीमारी का भोग बनने वाले लोग वास्तव में मानसिक रूप से भी बीमार हो जाते हैं। अतः यह स्थिति अनेक रोगों का कारक बनती है।
 
पर्यावरणीय स्वास्थ्यपूर्ण समाज निर्माण के आवश्यक सोपान
 
सामूहिक प्रयासों से स्वास्थ्यपूर्ण समाज का निर्माण होता है। समाज के सभी वर्ग के लोगों के स्वास्थ्य हेतु सनिष्ट प्रयास किये जा सकते हैं। प्रत्येक परिवारों को एक निश्चित जीवनशैली अपनानी अनिवार्य है। स्वास्थ्यपूर्ण समाज निर्माण हेतु हवा, पानी, खुराक, वातावरण व स्वास्थ्यपरक नियमों की आवश्यकता है।

  • शुद्ध हवा

हवा मनुष्य जीवन का आवश्यक स्रोत है। मनुष्य के जीवित रहने का आधार हवा है। वर्तमान समय में हवा की शुद्धता की समस्या बनी रहती है। भाँव, रजकण, कचरे से हवा प्रदूषित होती है। मनुष्य की श्वसन क्रिया से इतने दूषित तत्व उनके शरीर में प्रवेश करते हैं। अतः फेफड़े, पेट, नाक आदि के सम्बन्धित रोग पैदा होते हैं।
 
वायु प्रदूषण का निषेध ही स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकता है। वाहनों का कम प्रयोग, औद्योगिक समवायो का धुँआ, आदि का नियंत्रण वायु प्रदूषण का रोक सकता है। शुद्ध हवा के द्वारा अरोग्यपूर्ण समाज सम्भव है।

  • शुद्ध व स्वच्छ जल

शुद्ध जल स्वस्थ समाज निर्माण का कारक है। अशुद्ध जल से अनेकानेक बीमारियों का फैलाव होता है। दूषित जल के लिए कड़े कदम उठाने आवश्यक है। लोगों को चर्म, आँख, आँतें, बाल आदि के रोग दूषित जल के कारण लागू हो जाते हैं। हमें चाहिए कि हम इस बात की जाँच करे कि प्रयुक्त किया जाने वाला जल शुद्ध है या नही? जल के प्रदूषित होने पर स्वास्थ्य के लिए जोखिम पैदा हो उठता है।

  • पौष्टिक आहार

कुपोषण भारत देश की सबसे बड़ी आरोग्य जन्य समस्या है। सभी नागरिकों के लिए पौष्टिक आहार की आवश्यकता होती है। ऐसे आहार के प्रयोग से तंदरुस्ती पैदा होगी और स्वस्थ समाज का निर्माण हो सकेगा। अन्न का चयन और स्वच्छता भी स्वास्थ्यजन्य बातों को असर पहुँच सकता है।

  • स्वास्थ्यपरक नियम

उचित स्वस्थ हेतु समाज में स्वास्थ्यपरक नियमों का गठन आवश्यक है। सुबह जल्दी उठना, रात को जल्दी से सो जाना, नियमित व्यायाम, योग करना। शुद्ध जल, खुराक प्राप्त करना। नियमित तौर पर स्वास्थ्य की जाँच कराना, उपयोगी सिद्ध होता है।

  • स्वच्छ वातावरण

आरोग्यमयता के लिए शुद्ध पर्यावरण का होना अनिवार्य है। वातावरण की शुद्धता जिनसे खण्डित होती है ऐसे माध्यमों को जैसे कि हवा, पानी, गदंगी, कचरा, भाप आदि का उचित समाधान ढूँढना आवश्यक है। स्वच्छ वातावरण स्वच्छ-स्वास्थ्य समाज का निर्माण कर सकता है।

  • आरोग्य व स्वच्छता की शिक्षा

समाज की स्वच्छता हेतु उचित शिक्षा आवश्यक है। बच्चों, युवा व औरतों को स्वास्थ्य सम्बंध में प्रशिक्षित किया जाए, स्वच्छता की गरिमा समझाई जाए यही जरुरी है। स्वच्छता कब,कहा, कैसे महत्त्वपूर्ण है इस प्रकार की शिक्षा स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकती।

पर्यावर्णीय स्वच्छता का महत्व

इंसान की जिन्दगी के लिए साँसे जितनी महत्त्वपूर्ण है उतनी ही स्वच्छता भी महत्त्वपूर्ण है। कदाचित स्वच्छता बनाए रखना एक व्यक्ति का कार्य नहीं है किन्तु उसके लिए सभी का प्रयास आवश्यक है। गंदी बस्ती में एक दिन रहने पर स्वच्छता का महत्व स्पष्ट हो सकता है।
 
स्वच्छता केवल आन्तरिक नहीं बाह्य वातावरण को भी प्रभावित करती है। मनुष्य को अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए स्वच्छता का होना जरूरी है। स्वच्छता का स्वास्थ्य से प्रत्यक्ष सम्बन्ध अनुभव करने के लिए अस्पताल की मुलाकात अनिवार्य हो जाती है। संक्रामक रोग के भोग बनने वाले अब सजग होने लगे हैं।
 
स्वच्छता के महत्व को स्वीकार करते हुए ही सामाजिक विकास की भी दिशा तय की जा सकती है। सामाजिक संम्बन्धों के अस्तित्व हेतु स्वास्थ्य आवश्यक है और स्वास्थ्य हेतु स्वच्छता। कमजोर स्वास्थ्य, सामाजिकता का कुप्रभाव पैदा करता है। गाँधी जी ने भी भारत की स्वच्छता से नाराज होकर देश को पश्चिमी समाज की स्वच्छता समझने का संदेश दिया था। लोग साथ जीना नहीं बल्कि अस्वच्छता के कारण साथ मरना जानते हैं। हम आज तकनीकों का उपयोग करते हैं, समय से ताल मिलाते है किन्तु स्वच्छता केन्द्री अभी भी नहीं बने है, स्वच्छता ही मानव का गौरव है।

हमारे समाज में स्वच्छता जागृति के जितने प्रयास होते हैं, उतने स्वच्छता प्राप्ति हेतु नहीं होते। सभी उम्र, वर्ग के लिए स्वच्छता आवश्यक है। सामाजिक अन्तर्क्रियाओं में सामाजिक व्यवस्थापन बनाए रखने में स्वच्छता अनिवार्य है। स्वच्छता का महत्व राजनैतिक क्षेत्र में, शैक्षिक क्षेत्र में व आर्थिक क्षेत्र में रहा है। स्वच्छता केवल जैविक बात न होकर पर्यावरणीय तालुक भी रखती है। स्वास्थ्यपूर्णता स्वच्छता के द्वारा ही सम्भव है।
 
व्यावसायिक स्थानों, संस्थानों, पाठशालाओं, सार्वजनिक स्थानों आदि पर स्वच्छता आवश्यक है। ऐसे स्थानों पर लोगों की तादाद अधिक होती है जिससे स्वास्थ्य के प्रश्न भी पैदा होते हैं। निजी संस्थानों में कुछ मात्रा में स्वच्छता देखी गई है। इस सन्दर्भ में निजी संस्थान के संयोजकों ने विशेष प्रावधान किए होते हैं। अतः समाज के स्थायित्व के लिए स्वच्छता सविशेष जरूरी है।
 
स्वास्थ्यपूर्ण अनेक प्रश्नों का समाधान ढूँढ सकती है, वैसे ही स्वच्छता कई नई दिशाओं को उद्घाटित कर सकती है। अच्छे स्वास्थ्य के लिए शिक्षा प्राप्ति हेतु, समाज के सदस्य के रूप में स्वच्छता को स्वीकार करना अब अनिवार्य है।

सन्दर्भ सूची
 

  1. चाकले, ए.एम.  हेल्थ वर्कर के लिए पाठ्य पुस्तक (प्रथम खण्ड) एन.आर.ब्रदर्स, इन्दौर। चतुर्थ आवृत्ति (2002)
  2. ओमवेट गेल जयपुर। (2009), दलित और प्रजातान्त्रिक क्रान्ति, रावत पब्लिकेशन,
  3. परीख सूर्यकान्त,  शौचालय (परिचय पुस्तिका)
  4. सुलभ स्वच्छता आन्दोलन, सुलभ इन्टरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गनाइजेशन।
  5. ओमवेट गेल, दलित और प्रजातान्त्रिक क्रान्ति, रावत पब्लिकेशन, जयपुर (2009)
  6. शर्मा, रामशरण, शुद्रो का प्राचीन इतिहास राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली। (1992)
  7. पटेल अर्जुन, गुजरात में दलित अस्मिता सेन्टर फॉर सोशियल स्टडीज, सूरत। (2005)
  8. मेकवान मार्टिन, विश्वभर में विस्तरित दलितों की आवाज परिवर्तन ट्रस्ट, बरोड़ा। (2002)
  9. सुलभ स्वच्छता आन्दोलन, सुलभ इन्टरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गनाइजेशन, नई दिल्ली।
  10. डॉ. बिन्देश्वर पाठक,  स्वच्छता का समाजशास्त्र (पर्यावरणीय स्वच्छता, जन स्वास्थ्य और सामाजिक उपेक्षा, सुलभ) इन्टरनेशनल, सोशल सर्विस ऑर्गनाइजेशन, नई दिल्ली। (2009)

Journal

  1. Sulabh India, Nomber, 2012, Issue: 11, Volume-24 Website
  2. www.sulabhinternational.org,
  3. www.sulabhtoilet museum.org,
  4. www.sociology of sanitaition.com,
  5. www.masafoundation.org,
  6. www.safai vidhyalaya.org,
  7. www.harijan sevak sangh.org,
  8. www.Govt of india.com
  9. www.govt of Gujarat.com,
  10. www.UNDP.org,

 

डॉ.अनिल वाघेला,
एसोसिएटेड प्रो. एंड हेड ऑफ सोसिओलोजी डिपार्टमेंट.
एम.के.भावनगर यूनिवर्सिटी,
शामलदास आर्ट्स कॉलेज भावनगर,गुजरात, इंडिया -364002

 

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