सबसे दुखद यह है कि कई तरह के वन्य जीव, जो अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं, इस जंगल की आग में काल का ग्रास बन जाते हैं। जंगल में आग लगने की कीमत इनसानों को भी चुकानी पड़ती है, क्योंकि इससे फैला प्रदूषण मानव जीवन पर विपरीत असर डालता है।
गर्मी शुरू होते ही जंगल में आग लगने के दुखद मामले सामने आने लगते हैं। पिछले कुछ वर्षों से उत्तराखंड के जंगलों में भीषण अग्निकांड के कई मामले सामने आए हैं। पिछले दिनों मुंबई उच्च न्यायालय के नागपुर खंडपीठ ने एक याचिका पर सुनवाई के दौरान जंगल में आग रोकने में विफल रहने के कारण वन विभाग को कड़ी फटकार लगाई थी। खंडपीठ ने वन विभाग को निर्देश दिया कि वह दो सप्ताह के भीतर हलफनामा दायर कर न्यायालय को बताए कि जंगलों में आग रोकने के लिए वह कौन-कौन से कदम उठा रहा है। दरअसल महाराष्ट्र में भी पिछले कुछ वर्षों से गर्मियों के दौरान जंगलों में आग लगने की कई घटनाएं घट चुकी हैं। आंकड़ा बताता है कि वर्ष 2008-2009 के दौरान अंधेरी टाइगर रिजर्व में 4,000 हेक्टेयर से अधिक जंगल नष्ट हो गए। उस दौरान जंगल में आग लगने की 124 घटनाएं घटीं, जिसमें 4,749 हेक्टेयर जंगल जल गए। पिछले पांच वर्षों में जितने जंगल जले, उसमें यह सर्वाधिक है।
जंगल में आग केवल अपने ही देश में नहीं, दुनिया के अन्य हिस्सों में भी लगती है। अमेरिका में तो इसके कई भीषण मामले सामने आए हैं, जब हजारों लोगों को अपनी रिहाइश छोड़कर भागना पड़ा। इन भीषण अग्निकांडों की वजह हैं। एक ओर वायुमंडल में कार्बन की मात्रा बढ़ती जा रही है, दूसरी ओर कार्बन को अवशोषित करने वाले स्रोत, यानी जंगल पृथ्वी पर लगातार घटते जा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संस्थान के 2010 के सर्वे के मुताबिक, पूरी दुनिया में चार अरब हेक्टेयर जंगल हैं। हर दस वर्षों में औसतन एक करोड़ 30 लाख हेक्टेयर जंगल कुदरती आपदा, आग व सूखे के अलावा उसके अन्य उपयोग के कारण नष्ट हो जाते हैं।
अपने देश में सात करोड़ 64 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में जंगल फैले हैं, लेकिन जनसंख्या के बढ़ते दबाव के कारण जंगल लगातार सिकुड़ते जा रहे हैं। वन क्षेत्रों के सिकुड़ने की एक मुख्य वजह आग लगना भी है। वर्ष 1991 से 2003 के बीच अकेले केरल में 25,000 हेक्टेयर जंगल नष्ट हो गए। जाहिर है, हमें अपने जंगलों को आग से बचाने के लिए मुस्तैद रहना होगा। एक सर्वे के मुताबिक, देश के 50 फीसदी जंगल आग संभावित और छह फीसदी जंगल गंभीर रूप से आग संभावित क्षेत्रों में आते हैं। इसलिए गर्मी में आग को लेकर ज्यादा सचेत रहने की जरूरत है। दरअसल अपने देश में आग रोकने की व्यवस्था काफी परंपरागत है। यहां इसके लिए फायर लाइन का विस्तार किया जाता है। फायर लाइन का मतलब उस क्षेत्र से है, जहां आग को फैलने से रोकने के लिए पेड़-पौधों को काट दिया जाता है। इस क्षेत्र को फायर ब्रेक भी कहते हैं। कभी-कभी यह फायर ब्रेक कुदरती भी होता है, जैसे-नदी।
राज्यों के वन विभाग के पास धन की कमी तो है ही, मानव संसाधन की भी कमी है। राज्यों के ज्यादातर वन विभागों के पास आग रोकने और इसके फैलने पर नियंत्रण के लिए बेहतर और आधुनिक उपकरणों का भारी अभाव है। इसलिए जरूरी है कि वन विभाग को इतना धन दिया जाए, जिससे उसके पास आधुनिक उपकरणों और मानव संसाधन की कमी नहीं हो। इसके अलावा जंगल के आसपास रह रहे लोगों को भी इस बारे में जागरूक करने की जरूरत है कि जंगल हमारे लिए कैसे सामाजिक और आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण हैं। कई बार इनसानों की वजह से जंगलों में आग लग जाती है।
उत्तराखंड में देखा गया कि बेध्यानी में फेंकी गई जलती बीड़ी ने कई बार पूरा जंगल स्वाहा कर दिया। जंगल में आग लगने से हमारे यहां सालाना 440 करोड़ रुपये का नुकसान होता है। इसके अलावा पेड़-पौधों को भी भारी नुकसान होता है। सबसे दुखद यह है कि कई तरह के वन्य जीव, जो अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं, इस जंगल की आग में काल का ग्रास बन जाते हैं। जंगल में आग लगने की कीमत इनसानों को भी चुकानी पड़ती है, क्योंकि इससे फैला प्रदूषण मानव जीवन पर विपरीत असर डालता है। आज मानवता के सामने सबसे बड़ा खतरा जलवायु परिवर्तन से है और इसे बचाने में जंगल ही सहायक हैं। इसलिए जंगल को आग लगने से बचाने के लिए सरकार के साथ-साथ आम जनता को भी सजग होना होगा।