लेखक
ग्रामीणों द्वारा डेढ़ महीने की मेहनत से तालाब का आकार खुलने लगा और 10 फीट तक गहरीकरण भी हुआ। तय हुआ कि अब कोई कचरा नहीं फेंकेगा। बारिश का पानी मोतियों की तरह तालाब में समाने लगा। बारिश में लबालब भर जाने से ग्रामीणों का उत्साह बढ़ गया। इसका सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि गाँव के कुएँ, बावड़ी और ट्यूबवेल रिचार्ज हो गए। गाँव के किसान दावा करते हैं कि गाँव की करीब एक सौ एकड़ जमीन भी इसकी वजह से अब पूरी तरह सिंचित हो गई है।
किसी तालाब के गहरे होने से उस गाँव के अच्छे दिन लौट आना आखिर कैसे सम्भव है। कोई एक तालाब कैसे पूरे गाँव की भलाई और उनके अच्छे दिन लौटा पाने में समर्थ हो सकता है। लेकिन यह हुआ है एक गाँव में।मध्य प्रदेश के तेजी से विस्तारित हो महानगर में तब्दील होते जा रहे इन्दौर शहर के पास का एक छोटा-सा गाँव इन दिनों तालाब की सफलता की कहानी सुना रहा है। इस गाँव के लोग तालाब की चर्चा इतने उत्साह से करते हैं कि जैसे अपने ही किसी बुजुर्ग का प्रशस्ति गान सुना रहे हों। उनके चेहरे पर चमक आ जाती है और वे किस्सागोई के अन्दाज में सुनाने लगते हैं।
युवा हमें तालाब बताने ले जाते हैं। देखिए, साहब... पहले बस इतना-सा रह गया था यह तालाब। इसका पानी इतना गन्दला उठता था कि इसकी बदबू से इधर रहने वाले परेशान हो उठते थे। बारिश से ठंड का मौसम भी नहीं आता और यह सूख जाया करता था। पर अभी देखिए... जनवरी का महीना है और तालाब में पानी हिलोरें ले रहा है। तालाब में पानी क्या लौटा साहब, हमारे तो जैसे दिन ही फिर गए।
कलवार गाँव के तालाब की कहानी सिलसिलेवार बताते हुए यहाँ के सरपंच नरेंद्र कांसल कहते हैं- 'हम सोच भी नहीं सकते थे कि एक तालाब हमारी किस्मत पलट सकता है। पर मैंने सरपंच बनते ही यह सोच रखा था कि कैसे भी इस मरते हुए तालाब को फिर से पुनर्जीवित तो करना है। बीते 20 सालों से हम गाँव के लोग पीने और खेती जैसे जरूरी कामों के लिये भी पानी को तरसने लगे थे। गाँव वालों को भी नहीं लगता था कि तालाब जिन्दा होगा तो हमारे लिये इतना फायदेमन्द होगा। पर आज तालाब ने काफी कुछ बदल दिया है। गलती हमारी ही थी कि हमने अपने तालाब को भुला दिया था।'
गाँव के युवा राजेंद्र पटेल बताते हैं कि इन्दौर से हमारा गाँव कलवार महज 28 किमी दूर है लेकिन पानी की कमी से बीते कुछ सालों से गाँव के लोग बहुत परेशान रहते थे। गाँव में पीने के पानी की किल्लत तो खेतों में सिंचाई के लिये पानी नहीं मिलता था। गाँव के पढ़े-लिखे लड़के खेती-बाड़ी से कतराने लगे थे। किसान परिवारों में पानी की कमी से फसल उत्पादन कम हो गया था। इससे उनका खेती-किसानी में मन नहीं लगता था। कुछ गाँव की खेती छोड़कर शहर जाकर दूसरा काम करने लगे थे तो कुछ खेती की जमीन बेचने की तैयारी में थे। गाँव में खेती के अलावा चारा भी क्या है।
बारिश तो जैसे-तैसे निकल जाती पर बारिश गुजरते ही पानी का हाहाकार शुरू हो जाता। गाँव की पाँच हजार की आबादी के लिये पानी का इन्तजाम करना पंचायत के बस में कहाँ था। आसपास कोई नदी नहीं, कोई जलस्रोत नहीं। पुरखों का बनाया करीब 50 साल पुराना एक बड़ा तालाब भर था। यह तालाब भी पूरी तरह उपेक्षित।
गाँव में नल-जल से घर-घर बिना किसी मेहनत से पानी पहुँचने लगा और खेत-खेत ट्यूबवेल बन गए तो फिर गाँव के तालाब और कुएँ-कुण्डियों को भला कौन याद रखता। लोग इन्हें भुला बैठे। कोई भी इनकी ओर बरसों तक ध्यान ही नहीं दिया। तालाब सिकुड़ने लगा। लोग अपने घरों का कचरा और गन्दगी इसमें डालने लगे। पानी ज्यादा दिन तक ठहरता नहीं था। बारिश के दो महीने बाद ही पानी सूख जाया करता।
गाँव वालों को जब कोई उपाय नहीं सूझा तो पंचायत ने पूरे गाँव को चौपाल पर इकट्ठा किया। यहाँ पानी की किल्लत को लेकर चर्चा होने लगी। पहले दिन कोई हल नहीं निकला। दूसरे दिन फिर बैठे। धीरे-धीरे बात बनने और बढ़ने लगी। इस तरह एक महीने तक विचार विमर्श चलता रहता। योजनाएँ बनती और उन पर बात होती। बुजुर्गों ने युवाओं को फटकारा भी कि यह सब हमारी ही लापरवाही का परिणाम है। नई पीढ़ी पानी के परम्परागत संसाधन और संरचनाएँ ही भूल गईं। उन्हें सहेजा जाता तो आज यह नौबत नहीं बनती।
आखिरकार चौपाल पर तय हुआ कि पानी के लिये काम की शुरुआत सरकारी (सार्वजनिक) तालाब को पुर्नजीवित करने से होगी। अब सवाल पैसों का था तो यह भी निश्चित हुआ कि सरकार से या पंचायत से इसके लिये कोई राशि नहीं ली जाये। तालाब को उपेक्षित करने की गलती हमसे हुई है तो प्रायश्चित भी हम ही करेंगे। हर घर से इसके लिये सहयोग राशि इकट्ठा होने लगी और बातों-ही-बातों में चौपाल पर 32 लाख रुपए का इन्तजाम हो गया। उन दिनों गर्मियों के दिन थे। गाँव के लोगों ने खुद श्रमदान भी किया और काम का सामजिक अंकेक्षण भी। इस तरह डेढ़ महीने की मेहनत से तालाब का आकार खुलने लगा और 10 फीट तक गहरीकरण भी हुआ। तय हुआ कि अब कोई कचरा नहीं फेंकेगा।
बारिश का पानी मोतियों की तरह तालाब में समाने लगा। बारिश में लबालब भर जाने से ग्रामीणों का उत्साह बढ़ गया। इसका सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि गाँव के कुएँ, बावड़ी और ट्यूबवेल रिचार्ज हो गए। गाँव के किसान दावा करते हैं कि गाँव की करीब एक सौ एकड़ जमीन भी इसकी वजह से अब पूरी तरह सिंचित हो गई है।
तालाब की पाल पर हमें मिले रामचंद्र पंडित कहते हैं- 'हमारी संस्कृति में पानी को पंचतत्व में गिना जाता है। यानी जिन तत्वों से हमारा शरीर बना है या जो जीवन के लिये सबसे जरूरी है, उनमें पानी सबसे पहले आता है। गाँव हो या मकान, इनके वास्तु में भी पानी का सबसे बड़ा महत्त्व माना गया है। जिस तरह बिना पानी का मटका या घड़ा रखे कोई घर नहीं हो सकता ठीक उसी तरह बिना जल संरचनाओं के भला कोई भी गाँव कैसे हो सकता है। हमारे यहाँ तो हर मांगलिक काम में सबसे पहले पानी से भरे कलश को ही पूजा जाता है। इसका संकेत हमें पानी के पर्यावरण से जोड़कर देखने की जरूरत है। आज जल संरचनाओं की उपेक्षा के कारण ही गाँव और उसकी खेती खत्म होने की कगार तक जा रही है। गाँव में जल संरचनाएँ नहीं रहेंगी तो आदमी के चेहरे पर पानी (चमक) कैसे रहेगा?'
गाँव में पानी आया तो दूसरे काम भी होने लगे। लोगों में आत्मविश्वास जागा कि वे चाहें तो बिना सरकार की मदद के हम खुद गाँव की दिशा बदल सकते हैं। लोगों को लगा कि गाँव में बरसात और ठंड में शादी और अन्य आयोजन करने में बड़ी परेशानी होती है तो ग्रामीणों ने इसका भी हल आपसी समझ से खोज लिया।
सरपंच नरेंद्र कांसल ने अपने खुद मालिकाना हक की करीब पाँच हजार वर्गफीट जमीन गाँव के हित में कम्युनिटी हाल और मेरिज गार्डन के लिये दान कर दी। भवन निर्माण व अन्य सुविधाओं के लिये कुछ तो खुद आपस में सहभागिता की और बाकी 12 लाख रुपए विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से मंजूर करा लिये। निर्माण काम 75 फीसदी पूरा हो चुका है। दो महीने में यह काम पूरा हो जाएगा।
सच ही है, पानी से ही सब कुछ सम्भव है। पानी है तो कुछ भी असम्भव नहीं है।