राजीव कुमार
गो.ब.पन्त कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, पन्तनगर,
कृषि में रसायनों के अत्यधिक प्रयोग से जहाँ खेती की लागत में वृद्धि हुयी है। वही मृदा उर्वरता में निरन्तर कमी आ रही है। आज देश में बढ़ती हुयी जनसंख्या को पर्याप्त खाद्यान्न उपलब्ध कराने की बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। वही बिगत साठ वर्षों से प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन से हमने बहुत कुछ खो दिया है। दिन प्रतिदिन नई तकनीकों का प्रयोग करके अधिक उत्पादन की चाह में हमने पर्यावरण प्रदूषण, जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण को मृदा प्रदूषण को बढ़ावा दिया है। एक ही खेत में लगातार धान्य फसलों के सघन खेती करने से तथा असंतुलित उर्वरकों एवम् रसायनिक कीट नाशी के प्रयोग से मृदा संरचनाए, वायु संचार की दशा तथा मृदा जैविक पदार्थ में लगातार गिरावट आयी है। इसके अतिरिक्त मृदा में पाये जाने वाले सुक्ष्म जीवाणुओं तथा कृषक मित्र केंचुओं की संख्या में कमी हुयी है। इसके फलस्वरूप फसलोत्पादन एवं मृदा उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव पडा है। फसलोत्पादन की वृद्धि दर में गिरावट आई है। जिसे अपनाकर प्राकृतिक संसाधनों को बिना क्षति पहुंचाये समाज को खाद्य एवम् पोषक तत्वों की आवश्यकताओं को पूरा किया जा सकता है। दीर्घकाल तक हम इस तरह की खेती पर जीवन व्यतीत कर प्रश्नगत है। अभी हाल ही के दशकों में संसार बहुत तेजी से सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, तकनीकी, एवं पर्यावरणीय एवं कृषि पारिस्थितिकी तौर पर बदला है। कारण -बढ़ती हुई मानवीय भोजन, वस्त्र, मकान आदि की पूर्ति के लिए भूमि, जल एवं पर्यावरण का अत्यधिक दोहन हुआ जिससे टिकाऊ खेती की आवश्यकता महसूस हुई, अत: टिकाऊ खेती वह खेती है् मानव की बदलती आवश्यकताओं की आपूर्ति हेतु, कृषि में लगने वाले साधनों का इस प्रकार सफल व्यवस्थित उपयोग किया जाना, ताकि प्राकृतिक संसाधनों का ह्रास न होने पाए और पर्यावरण भी सुरक्षित रहे। टिकाऊ खेती कोई एक नारा नहीं है, बल्कि यह एक भविष्य की अनिवार्य आवश्यकता है, जिसमें खाद्यान्न-जनसंख्या, भूमि, जल-पर्यावरण तथा लाभ: खर्च अनुपात में सामंजस्य जरुरी है तभी भविष्य में मानव पेट भर सकेंगे।
टिकाऊ खेती
परिभाषा के अनुसार बदलते पर्यावरण अर्थात धरती के तापक्रम में वृद्धि, समुद्र के स्तर में बढ़ोतरी एवं ओजोन की परत में क्षति आदि नई उत्पन्न विषमताओं में कृषि को टिकाऊपन देने के साथ-साथ बढ़ती आबादी को अन्न खिलाने के लिए उत्पादकता के स्तर पर क्रमागत वृद्धि करना ही टिकाऊ खेती है। दूसरे शब्दों में वह खेती है, जो मानव की वर्तमान एवं भावी पीढ़ी की अन्न, चारे, वस्त्र तथा इंधन की आवश्यकताओं को पूरा करे जिसमें परम्परागत विधियों एवं नई तकनीकों का समावेश हो, भूमि पर दबाव कम पड़े, जैव-विविधता नष्ट न हो, रसायनों का कम प्रयोग, जल एवं मृदा प्रबन्ध सही हो, टिकाऊ खेती कहलाएगी।
टिकाऊ खेती के लाभ
1. मृदा की उर्वरा शक्ति को न केवल बनाये रखता हैं बल्कि उसमें वृद्धि भी करता है।
2. पोषक तत्वों को संतुलित एवं दीर्घकालीन उपयोगी बनाता है।
3. मृदा में लाभकारी सुक्ष्म जीवों की पर्याप्त जनसंख्या को बनाये रखता है।
4. भूमिगत जल स्तर को बनाये रखना।
5. रसायनों के अत्यधिक उपयोग से होने वाले प्रदूषण का कम होना।
6. प्राकृतिक संसाधनों के उचित उपयोग पर बल
टिकाऊ खेती के आधार
1. विभिन्न फसलों का फसल प्रणाली में समावेश करने से प्रति इकाई लागत को कम किया जा सकता है। इससे विभिन्न प्रकार की खाद्यान्न जैसे धान्य, दाल, तेल इत्यादि आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ-साथ मृदा स्वास्थ्य का संरक्षण होता है।
2. संतुलित उर्वरकों का प्रयोग करें। इससे फसलों का गुणवत्ता उत्पादन युक्त भरपूर होगा। यहां पर संतुलित उर्वरक प्रयोग से तात्पर्य सिर्फ यह हैं कि नाइट्रोजन फास्फोरस व पोटाश का सही अनुपात में प्रयोग करें इसके अभाव आवश्यकतानुसार सूक्ष्म पोषक तत्वों का भी प्रयोग करना है। आवश्यक संतुलित उर्वरकों के प्रयोग से मृदा में पोषण तत्वों की उपलब्धता में होने वाले असंतुलन भी कम होता है।
3. एकीकृत पोषक तत्वों आपुर्ति प्रबन्धन आवश्यक है। इसके अन्तर्गत कार्बनिक खादें जैसे गोबर की खाद, हरी खाद, वर्मी कम्पोस्ट इत्यादि का रासायनिक उर्वरकों के साथ उचित मात्रा में प्रयोग किया जाता है। इससे उत्पादकता में वृद्धि के साथ-साथ मृदा स्वास्थ्य में भारी सुधार होता है।
4. जल का समुचित प्रयोग करें। फसलों में जल के उचित प्रबंधन से उर्वरक एवं अन्य उत्पादन घटकों की उपयोग क्षमता को बढ़ाया जा सकता है।
5. खर पतवारों का एकीकृत नियन्त्रण करना। खरपतवार के प्रभावशाली नियन्त्रण के लिए नाशी रसायनों जैविक तौर-तरीका भी अपनाया जाए प्रदूषण को भी कम किया जा सकता है।
6. रोग एवं कीटों का एकीकृत नियन्त्रण करना। रोग एवं कीटों का समन्वित नियन्त्रण करने से कीटों व रोगों का रासायनिक पदार्थों के प्रति होने वाले सहनशीलता को नियन्त्रित किया जा सकता है। तथा साथ-साथ कृषि लागत में भी कमी की जा सकती है।
21वीं सदी में टिकाऊ खेती हेतु सुझाव
21 वीं सदी में टिकाऊ खेती के निम्नलिखित बातों पर विशेष ध्यान देना होगा-
• फसल प्रणाली के साथ- साथ एग्री-बिजनेस आधारित खेती में विविधीकरण करना जिसमें फसल + डेयरी/पशुपालन/बकरी/मत्स्य/मुर्गी /बत्तख/कछुआ/तीतर/बटेरपालन/बागवानी, औषधीय एवं सुगंध पौधे, फूल, फल सब्जियाँ, मशरुम, रेशम आदि ताकि आमदनी बढ़े।
• प्रमुख स्रोतों- ऊर्जा, जल, भूमि एवं मानव शक्ति (श्रम) को सुव्यवस्थित ढंग से संगठित करना होगा।
Hindi Title
टिकाऊ खेती के गुर
विकिपीडिया से (Meaning from Wikipedia)
अन्य स्रोतों से
संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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