डॉ. मीना कुमारी राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले की भादरा तहसील के डाबड़ी गाँव में जन्मी। वर्ष 2007 में इतिहास में स्नातकोत्तर करने के बाद वे 2009 से इतिहास के अध्यापन से जुड़ गईं। उन्होंने वर्ष 2016 में कोटा विश्वविद्यालय से ‘चूरू मंडल का पारंपरिक जल प्रबंधन’ विषय पर पी.एच-डी. की। इसके लिए भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद्, दिल्ली ने उन्हें फेलोशिप प्रदान की। राजस्थान के बीकानेर क्षेत्र के ‘परंपरागत जल प्रबंधन एवं तकनीक’ विषय पर आपको महारत हासिल है। इस विषय पर इनके दो दर्जन से अधिक शोधपत्र राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। विगत कई वर्षों से वे दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास विषय के अध्यापन में व्यस्त हैं। वर्तमान में डॉ. मीना आई.सी.एच.आर., दिल्ली के प्रोजेक्ट ‘बीकानेर राज्य की जल व्यवस्था का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में अध्ययन : 1701 ई. से 1950 ई.’ के प्रोजेक्ट डायरेक्टर के रूप में कार्यरत है। साथ ही देशज ज्ञान परंपरा के क्षेत्र में विख्यात संस्था दीनदयाल शोध संस्थान, दिल्ली के साथ रिसॉर्स पर्सन के तौर पर संलग्न हैं।
डॉ. मीना का चूरू मंडल के पारंपरिक जलस्रोतों पर सर्वेक्षणात्मक शोध एक सराहनीय प्रयास है। इस ग्रंथ में वर्षाजल, सतही जल एवं भूमिगत जल की उपलब्धता पर चर्चा की गई है। जल के प्रकारों (पालर, पाताल एवं रेजानी) से संबंधित जल-स्थापत्य का निर्माण तत्कालीन टेक्नॉलॉजी का विस्तृत विवरण है, जो अत्यंत महत्त्वपूर्ण बिंदु है। इसके अलावा लेखिका ने चूरू जैसे थार मरुस्थलीय क्षेत्र में विशाल जल-प्रबंधन खड़ा करने के लिए विभिन्न भागीदारों की भूमिका पर विस्तार से चर्चा की है। पर्यावरण, मोहल्लों की बसावट के संग जल-संरक्षण, वाणिज्य व्यापार जैसे व्यापक विषयों का जुड़ाव लेखिका के अध्ययन का प्रशंसनीय पहलू है।
—प्रो. बी.एल. भादानी, पूर्व चेयरमैन एवं कोऑर्डिनेटर सी.ए.एस., डिपार्टमेंट ऑफ हिस्ट्री, ए.एम.यू.-अलीगढ़
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प्रस्तुत शोध-ग्रंथ में जल-संरक्षण को लेकर हमारे प्रज्ञावान पुरखों की दूर-दृष्टि की झलक मिलती है। डॉ. मीना ने अथक परिश्रम से तथ्य और साक्ष्य जुटाकर तकनीकी रूप से ग्राफ, प्रारूप, अभिलेखीय संदर्भों के भिन्न-भिन्न उदाहरणों के माध्यम से पुस्तक रूप में सुंदर विमर्श प्रस्तुत किया है। पुस्तक में तथाकथित साक्षर समाज द्वारा निरक्षर मान ली गई हमारी लोक-मेधा की सुंदर बानगी प्रस्तुत की गई है। इस पुस्तक के साथ मीना कुमारी ने उन चीजों को भी हासिल किया है, जिसकी प्रतीक्षा अकादमिक जगत काफी समय से कर रहा था।
— केसर, इंडिया वाटर पोर्टल
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अभिलेखीय सामग्री में जल प्रबंधन, विशेषकर कुओं, बावडि़यों तथा तालाबों के संदर्भ में बहुत बारीकी से चित्रित किया गया है, लेकिन इसके लिए संरक्षण का कार्य सच्चाई की तह तक जाने के लिए बहुत आवश्यक था। पुस्तक की लेखिका ने यह कार्य बहुत लगन व परिश्रम से किया है। राजस्थान का इतिहास बिना जल प्रबंधन की समस्या को जाने अपने अध्ययन में अधूरा है।
—प्रो. जी.एस.एल. देवड़ा, भूतपूर्व कुलपति
वर्धमान महावीर खुला विश्वविद्यालय-कोटा