उद्धारक शिप्रा उद्धारकों की बाट जोह रही

Submitted by admin on Wed, 01/27/2010 - 09:53
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डॉ. भगवतीलाल राजपुरोहीत

इस शिप्रा को अपने जीवन के लिए पानी उधार भी लेना पड़ता है। वही शिप्रा जो कभी सबका उद्धार करती थी और जो आशा की किरण भी- अब अपने उद्धार का रास्ता देख रही है। शिप्रा का परिसर रमणीय प्राकृतिक छटा से भरपूर था। यह सरल तरल है सिप्रा। जगह-जगह कमलकुल खिले थे। विचरते थे हंस और बतख। यक्ष और गन्धर्व इसका सेवन करते थे। तटों पर गीत गाती थीं किन्नरियाँ। पक्षी कलरव करते रहते थे। भ्रमरों की गुँजार होती रहती थी। महर्षिगण इसकी स्तुति करते रहते थे। अप्सराएँ नृत्य करती रहती थीं। इसके तट पर सदा यज्ञ होते रहते थे। यह शिप्रा सबको सदा आमोद देती है। स्नान तो क्या स्मरण मात्र से मोक्ष दे देती है यह। स्कन्दपुराण का अवन्ती खण्ड सिप्रा की चर्चा करते हुए यहीं विराम नहीं लेता। आगे फिर कहता है- राजर्षिगण उसके तट पर बार-बार बस कर पुण्यार्जन करते अघाते नहीं। युवतियाँ इसके जल में क्रीड़ा करती रहती हैं। गजराजों के झुंड के झुंड इसमें खेलता रहता था। इसके तट पर वेदविद् विप्र और आत्मलीन ब्रह्मर्षियों का सदा डेरा रहता है। यहाँ सिद्ध निवास करते हैं। वे लोगों को सदा सिद्धि प्रदान करते हैं। सबको सदा सब कुछ देती रहती है यह सिप्रा।

सर्वदा सर्वकालें च सिद्धैः सिद्धिप्रदा नृणाम्।

इस नदी का कोई कहीं भी शिप्रा नाम के मन्त्र का उच्चारण कर लेता है। उसे भी शिवलोक प्राप्त हो जाता है तो स्नान का फल बताना तो और भी कठिन है। वैसे शिप्रा हर जगह पवित्र और पाप हरण करती है। परन्तु अवन्ती में उसका विशेष महत्व इसलिए है कि वह यहाँ उत्तरवाहिनी है। देवता भी शिप्रा के दर्शन की कामना करते रहते हैं। इसीलिए देश-प्रदेशों के यात्रियों के समूह शिप्रा-स्नान के लिए दूर-दूर से निरंतर उज्जैन की यात्रा करते रहते हैं। यात्रियों के आने की धारा अनजाने काल से अटूट है।

नानदेशोद्भवा लोका यात्रिणः समुपागताः।
शिवप्राकूले समसीना नरनारीसमन्विताः।।


शिप्रा तट पर विभिन्न पर्वों पर मेले जुटते ही रहते हैं। सोमवती या शनैश्चरी अमावस्या हो, शिवरात्रि या गंगादशमी हो, ग्रहण हो या मकर संक्रांति अथवा कार्तिक पूर्णिमा। भिन्न-भिन्न भाषा-भाषी लोग विभिन्न प्रान्तों से शिप्रा स्नान के लिए अकेले या समूह में उज्जैन आते ही रहते हैं। मालवी भजन में भी सिप्रा तरंगित होती रहती है-

कोई केवे सिपरा कोई केवे तिरवेणी
हरि म्हारा नारो ह धाम कठे भेजूँ कंकुपत्री।।


शिप्रातट पर उज्जयिनी प्राचीन महाकालवन क्षेत्र में है और उसमें प्रतिष्ठित हैं महाकाल, जो द्वादश ज्योतिर्लिंगों में महत्वपूर्ण है। यह स्थान पृथ्वी का नाभिदेश कहलाता है। जहाँ महाकाल स्थित हैं। इस स्थान का वही महत्व रहा है जो ग्रीन विन्च का है। ज्योतिष की परम्परा में उत्तर-दक्षिण की रेखा उज्जैन से होकर ही गुजरती है।

उज्जायिनी की शिप्रा पौराणिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक प्रवाह की प्रखरता को वहन करते-करते थक रही है। लगता है उसका बुढ़ापा उसे धीरे-धीरे निगलने लगा है। या समय की मार ने उसे असमय ही बुढ़ापे की ओर धकेल दिया है पर सिप्रा के तट पर बीता अतीत उजला है। यहीं महादेव ने राक्षसी वृत्तियों को पराजित कर सात्विक भक्ति का वातावरण तैयार किया। यहीं महर्षि सान्दीपानि का आशीर्वाद पाने औऱ उनसे शिक्षा ग्रहण करने के लिए श्रीकृष्ण, बलराम का आगमन हुआ। यहीं उनकी बुआ भी थीं। यहीं की राजकुमारी मित्रविन्दा का श्रीकृष्ण ने रुक्मणी के समान अपहरण कर उसे अपनी रानी बना लिया था। इसीलिए यहाँ के बिन्द और अनुविन्द पाण्डव विरोधी दुर्योधन के सहयोगी बन गये थे महाभारत के युद्ध में। तो यह शिप्रा का पावन तट जगद्गुरू श्रीकृष्ण का शिक्षास्थल रहा है। सुदामा के साथ इसी भूमि से शिक्षित होकर वे जगद्गुरू की उदात्तता तक पहुँचे। उसी सान्दीपानि आश्रम में शिप्रा तट पर वल्लभाचार्य ने भागवत कथा की थी। उनकी 73 वीं बैठक उज्जयिनी में शिप्रातट पर ही तो है।