पश्चिम के लोग प्रबंधकीय कौशल में श्रेष्ठतम होने का दावा करते हैं। किन्तु उड़ीसा के नयागढ़ जिले के अशिक्षित ग्रामीणों ने जंगलों के प्रबंधन के लिए जो पद्धति अपनाई है, वह ब्रिटेन के शिक्षाविदों को भी आकर्षित कर रही है। अब ब्रिटेन के विद्याथिर्यों को पाठयक्रम में उड़ीसा के ग्रामीणों के वन प्रबंधन कौशल के बारे में पढ़ाया जा रहा है।
थेंगापली की प्राचीन वन प्रबंधन योजना अब इंग्लैण्ड के एन्ड्रयूज एण्डोड चर्च प्राथमिक विद्यालय तथा ग्लासविच प्राथमिक विद्यालय में भूगोल विषय में पढ़ाई जाती है। यह विषय लोगों के व्यापक देशज ज्ञान तथा समाज द्वारा उसके अनुकरण की जांच-पड़ताल करता है। इस ज्ञान के वैज्ञानिक आधार हैं तथा इसे वैज्ञानिक वन प्रबंधन के मापदंडों पर साबित किया जा सकता है।
बहुधा ऐसे स्वयंप्रेरित वन संरक्षण तथा प्रबंधन योजनाओं की कड़ी आलोचना की जाती है तथा उनकी प्रौद्योगिक और पर्यावरणीय उपयोगिता पर बहस छिड़ जाती है। फिर भी उड़ीसा के कुछ जिलों में वनवासियों द्वारा किए गए वन संरक्षण के इन उपायों ने दुनियाभर के प्रबंधन गुरूओं को आकर्षित किया है। राज्य के आंगुल, ढेंकनाल तथा नयागढ़ जैसे कई जिलों में वन संरक्षण के सफल उदाहरण देखे जा सकते हैं।
थेंगापली पद्धति के अनुसार हर शाम गांव में आस-पास के दो घरों के दरवाजे पर दो छड़ियां रखी जाती हैं। इसका मतलब है कि उन दो घरों से एक-एक व्यक्ति दिनभर जंगल की रखवाली करेगा। हालांकि गांव के दो ही व्यक्ति दिनभर पहरा देते हैं पर लकड़ी के तस्करों का पता चलने पर उन्हें पकड़ने के लिए पूरा गांव एकत्र होता है। हाथों में छड़ियां लेकर ये पहरेदार सभी को आश्वस्त करते हैं कि कोई भी आदमी कुल्हाड़ी लेकर न तो जंगल में प्रवेश कर पाएगा और न ही कुछ चुरा पाएगा। नियमित पहरेदारी के अलावा गांववालों ने अपने ऊपर भी कई पाबंदियां लगा रखी हैं। जैसे उन्होंने यह तय किया है कि वे अपनी बकरियों को जंगल में नहीं जाने देंगे, क्योंकि बकरियां नए पौधों को चबा जाती हैं।
वन संसाधन प्रबंधन में लगे ग्रामीणों की संख्या लगभग 12 हजार से भी अधिक है। नयागढ़ जिले के छोटे से एक गांव केसरपुर के लोगों ने 32 साल पहले पास के बिंझगिरी पहाड़ी के संरक्षण और पुनरुद्धार करने के लिए एक योजना बनायी। उनका मंत्र था ‘वृक्ष से प्यार करो।’ कई सालों बाद अब वह चाहत एक जन-आंदोलन का रूप ले चुकी है जो केवल नयागढ़ जिले के ही 2.5 लाख एकड़ के क्षेत्र में बसे हुए 850 गांवों के 65,000 घरों तक पहुंच गया है। इस क्षेत्र में 4,000 लोग किसी भी दिन जंगलों की रक्षा में पहरेदारी करते देखे जा सकते हैं।
संरक्षित वन से जहां 10,000 लोग साल के पत्तों से थाली बनाकर, 8,000 लोग तेन्दु पता चुन कर, 6,500 लोग जलावन की लकड़ी बेचकर, 5,000 लोग बांस के कारीगर का काम करते हुए, 4,000 लोग बीड़ी बनाकर, 200 लोग वन व्यापारी के रूप में तथा 100 लोग लकड़ी का काम करते हुए जीविकोपार्जन करते हैं।
आजादी के बाद उड़ीसा में संभवत: यह पहली बार हुआ कि इतनी बड़ी संख्या में लोग एक ऐसे उद्देश्य के लिए आगे आए हों जिसका तात्कालिक फायदा कुछ न हो। 1970 के दशक में किए गए कुछ कठोर फैसलों तथा ग्रामीणों के त्याग ने इस आंदोलन को एक गति प्रदान की।
1960-70 के वर्षों में केसरपुर तथा आस-पास के गांवों में कम से कम छह बार अकाल पड़े थे। वर्षा जल के स्तर में काफी गिरावट आई तथा लोगों को गर्मी के दिनों में अत्यधिक गर्म हवाओं का प्रकोप झेलना पड़ा। इसका प्रभाव खेती बाड़ी वाली जमीन पर भी पड़ने लगा। कृषि उत्पादन घटता गया। स्थिति यहां तक बिगड़ गई कि छोटे किसान काम के लिए दूर-दराज स्थित जगहों की ओर पलायन करने लगे।
केसरपुर गांव जहां साक्षरता केवल 7 प्रतिशत थी, के लोग लगातार पड़ने वाले अकाल का कारण नहीं समझ पा रहे थे। उत्कल विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफेसर और केसरपुर गांव के निवासी डा. नारायण हजारी ने बताया कि 1960 के दौरान वहां पेड़ों की कटाई जोरो पर थी। जब घने जंगलों की कटाई जारी थी प्रशासन मूकदर्शक बना हुआ था। बिंझगिरी पहाड़ी के घने जंगल 1970 के आते-आते वीरान होने लगे। तीन किलोमीटर लम्बी, एक किलोमीटर चौड़ी और 280 मीटर ऊंची बिंझगिरी पहाड़ी की तलहटी में बसे 13 गांवों में जलावन, पशु आहार तथा घरेलू उपयोग की चीजें मुख्यत: इसी पहाड़ी से प्राप्त होती थीं। जंगल की अंधाधुंध कटाई के कारण गांव के लोगों को जलावन की लकड़ी का घोर अभाव होने लगा।दिन प्रतिदिन स्थिति बिगड़ती ही गई। ऐसे में एक घटना ने चेतावनी का काम किया जब केसरपुर के लोगों को लाश जलाने तक के लिए लकड़ी नहीं मिल सकी। डा. हजारी ने बताया कि उस समय तक वृक्षारोपण द्वारा कम होते जंगलों की भरपाई करने के प्रयास आधे मन से ही हो रहे थे।
वर्ष 1978 में कुछ विद्यार्थी स्वयंसेवकों ने नेशनल सर्विस स्कीम के तहत केसरपुर गांव में वृक्षारोपण के लिए शिविर लगाया। गांव वालों की सारी अवधारणा इन स्वयंसेवकों ने अपनी बातचीत से बदल दी। उसी के बाद समस्या के मूल कारण को लोगों ने पहचाना।
सर्वप्रथम केसरपुर के एक छोटे किसान खेतई ने सभी गांव वालों को इकट्ठा कर तथा कई बार शिविर लगाकर उनमें जागरूकता लाने का प्रयास किया। खेतई जो अब अस्सी वर्ष के हैं, बताते हैं कि गांव के लोगों को प्रारंभिक प्रेरणा तत्कालीन जिला वन पदाधिकारी प्रताप पटनायक से मिली। लेकिन गांव के लोगों की अपने ही संसाधनों पर निर्भरता केसरपुर के जंगलों के संरक्षण के प्रयास का मूल कारण थी।
जिला वन अधिकारी पटनायक की सलाह पर गांव वालों ने वन संरक्षण की प्राचीन पद्धति थेंगापली को पुनर्स्थापित करते हुए पहला संगठित कदम बढ़ाया।
वन संरक्षण के लिए ग्राम परिषद ने शुरू-शुरू में दस वर्ष तक गांवों में बकरी रखने की मनाही कर दी थी। बकरियां छोटे-छोटे मुलायम पौधों को चर जाती थीं। उदय नाथ खेतई ने बताया कि गांव के लोगों ने बड़ा त्याग किया था क्योंकि बकरियां उन्हें तुरंत आर्थिक लाभ पहुंचाती थीं।
यहां तक कि गांव वाले दिनभर में एक बार ही खाना बनाते थे ताकि जलावन की खपत कम हो और जंगलों पर इसका बोझ कम पड़े। बहुत कम समय में ही गांव वाले वृक्षारोपण तथा वन-संरक्षण से लाभ उठा सकने की स्थिति में आ गए। बकरियों द्वारा जड़ों तक खा ली गई घास भी इतनी बढ़ गई कि पशुओं को पर्याप्त चारा मिलने लगा। पहाड़ियों से मिट्टी का कटाव भी संतोषजनक रूप से कम हो गया।
बिंझगिरी पर जैसे-जैसे वृक्षारोपण बढ़ता गया, लकड़ी की तस्करी का भय भी बढ़ता गया। वन-संरक्षण कार्य में और गांवों के लोगों को भी लगाने की आवश्यकता महसूस होने लगी। पहले नौ गांव केसरपुर का साथ देने आगे आए और फिर तेरह गांव।
गांववाले सामान्यत: तीन लोगों से सलाह लेते थे। उदयनाथ खेतई, केसरपुर उच्च प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक जोगीनाथ साहू तथा प्रोफेसर नारायण हजारी। यह उन लोगों का प्रेरक नेतृत्व ही था जिसके कारण 22 गांवों के लोग एक साथ मिलकर काम करते थे। हर गांव में अपनी ग्राम समितियां थीं जो अंतिम निर्णय ले सकती थीं। 1982 में जन-आंदोलन में एक क्षणिक परिवर्तन आया। एक बैठक में प्रत्येक गांव के पांच-पांच सदस्यों ने भाग लेकर ‘वृक्ष ओ जीवेर बंधु परिषद’ का गठन किया। इसके बाद जन-आंदोलन एक संगठन के रूप में काम करने लगा। पदयात्रा से लेकर पोस्टर तक लगाए गए और सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित किए गए।
केसरपुर के विद्यालय में प्रधानाध्यापक के पद पर कार्यरत जोगीनाथ साहू कहते हैं, ”प्रचार के लिए तात्कालिक नारे दिए जाते थे। विवाह, जन्मदिन, पूजा और गांव के सालाना कार्यक्रम जैसे अवसरों पर इन नारों द्वारा प्रचार होता था। पारंपरिक और सामाजिक रीति-रिवाजों को ध्यान में रखकर हम लोग गीत लिखते थे जो बड़े उपयोगी साबित हुए।
वर्तमान में बिंझगिरी के लगभग 1080 एकड़ के क्षेत्र में वन संरक्षित किए जा रहे हैं। 22 गांवों द्वारा 121 तालाबों का प्रबंधन किया जा रहा है। परिषद् द्वारा देसी पद्धति से खेती शुरू करने के लिए पांच गांवों का चुनाव किया जा चुका है और संगठन हर गांव में औषधीय पौधों की एक नर्सरी लगाने का विचार कर रहा है। गांववालों की मांग पर एक बीज केंद्र भी खोला गया है, जो बिना लाभ या हानि के आधार पर चलता है। परिषद के बीज केन्द्र में 116 से अधिक प्रकार के बीज जमा किए गए हैं जिससे सरकारी या निजी बीज केंद्रों पर निर्भरता घटी है।
परिषद की सारी गतिविधियां दो स्तरों पर नियंत्रित की जाती हैं। परिषद के मातृक्षेत्र में पड़ने वाले 22 गांवों में पारंपरिक अनौपचारिक ग्राम समितियां हैं जो विद्यालय, मंदिर, सार्वजनिक खेत तथा तालाबों जैसे संसाधनों के प्रबंधन के लिए उत्तरदायी हैं। इन ग्राम समितियों में 5 से 10 सदस्य होते हैं। अधिकतर गांवों में समितियां परंपरागत रूप से उन प्रतिनिधियों द्वारा चुनी जाती हैं जिन्हें गांवों द्वारा चुनकर भेजा जाता हैं।
अंतर्ग्रामीण प्रशासन की देख-रेख के लिए 22 गांवों के प्रतिनिधित्व वाली 170 सदस्यीय एक आमसभा संगठन से जुड़े सभी बड़े फैसले लेती है। ग्राम समितियां अपने आस-पास के पहाड़ी भागों के संरक्षण का दायित्व निभाती हैं और परिषद की कार्यकारी समिति अपनी सहयोगी संस्थाओं की मदद के लिए जागरूकता कार्यक्रम चलाती है।
1989 तक परिषद के विकास कार्य में महिलाओं की भागीदारी को गंभीरता से नहीं लिया जाता था। 1994-1995 के दौरान चार स्तर पर काम करने वाली संरचना बनी। शुरूआत में महिलाएं इन संरक्षण समूहों के साथ काम करने में हिचकिचाती थीं। लेकिन जैसे-जैसे स्वयं सहायता समूहों द्वारा विभिन्न योजनाएं प्रस्तुत की गईं, इनका आत्मविश्वास बढ़ता गया। अब महिलाएं जन-आंदोलन का नेतृत्व भी कर रही हैं। परिषद के अधयक्ष श्री जुगल भट ने कहा, ”महिलाएं सभी विकास कार्यक्रमों की प्रमुख प्रेरणा होती हैं। यहां तक कि समय-समय पर आयोजित होने वाली विभिन्न पदयात्राओं में भी महिलाएं नेतृत्व कर रही हैं।”
ग्रामीण महिलाओं ने घरेलू हिंसा जैसे सामाजिक मुद्दों को भी उठाया है। अब ऐसी घटनाएं केशरपुर और आसपास के गांवों में काफी हद तक कम हुई हैं। मिशन शक्ति, नयागढ़ की अधयक्षा कुन्तला हाती ने बताया, ”ग्रामीण महिलाओं को सभा बैठक में भाग लेने से पुरूष नहीं रोक सकते। यदि किसी महिला को ऐसी स्थिति का सामना करना पड़े तो उसके बचाव के लिए संगठन आगे आएगा।” कुन्तला ने कड़े स्वर में कहा, ”महिलाएं अपने परिवार वालों पर बहुत अधिक निर्भर नहीं हैं। वे हर महीने 800 रूपए तक कमा सकती हैं और यह राशि अगले छह महीने में चार अंक तक पहुंच जाने की उम्मीद है।”
वर्षों तक वन संरक्षण करने के बाद गांववालों ने स्वीकार किया कि जलस्तर बढ़ा है, बिंझगिरि के जंगलों में नई जलधाराएं देखी गई हैं। केसरपुर के भिकियाकरी हजारी ने कहा, ”1970 में कुएं के लिए 60 फीट खोदना पड़ता था जो एक साल तक ही पानी देता था। 1988 में भूमिगत जलस्तर में नाटकीय सुधार आया। तब पानी 20 फुट नीचे ही मिलने लगा।”
राज्य के बाकी जगहों पर जहां पिछले वर्ष भीषण अकाल से लोग त्रस्त थे, केसरपुर गांव के लोग अपने खेतों की सिंचाई गांव के तालाब से कर सकने में कामयाब रहे। पारिस्थितिकीय संतुलन में आए बदलाव ने जल की कमी को दूर कर दिया है। गांव वाले अब धीरे-धीरे धान की बजाय सब्जी की खेती की ओर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। केसरपुर के विभिन्न 125 घरों में से 45 घरों में बिजली है और 80 परिवार शौचालय का उपयोग करते हैं। कुछ वर्षों पहले तक उड़ीसा के दूर-दराज के गांव के लिए यह एक दुर्लभ दृश्य था। अब तो ऊर्जा क्षेत्र की जरूरतों के लिए बायोगैस संयंत्र भी लगाए गए हैं।
बड़ी मात्रा में जनजातीय और दलित जनसंख्या वाली कृषि आधारित अर्थव्यवस्था में उड़ीसा के लाखों लोगों के जीविकोपार्जन तथा सहअस्तित्व से जंगल गहरे जुड़े हुए हैं। यह निर्भरता बड़े पैमाने पर जंगलों के संरक्षण तथा पुनर्निमाण के लिए उड़ीसा के लोगों को प्रेरित करती है। जंगलों तथा वन भूमि संबंधी स्पष्ट स्थानीय अधिकारिता के अभाव में, वर्षों से भूमि सुधार प्रबंध की उलझी व्यवस्थाओं के कारण इसके रख-रखाव तथा उपयोग में कई तरह की पेचीदगियां आती हैं। इस संदर्भ में नयागढ़ जिले के ग्रामीणों की इस छोटी सी शुरुआत से सैंकड़ों वनवासियों को प्रेरणा मिलती है। यह वन प्रबंध कौशल राज्य के सभी 14 जिलों की अर्थव्यवस्था को फिर से जीवित करने में मदद कर सकता है।