उंचल्ली का प्रपात

Submitted by Hindi on Sat, 03/05/2011 - 11:36
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गांधी हिन्दुस्तानी साहित्य सभा
जोग के बिल्कुल ही सूखे प्रपात के इस बार के दर्शन का गम हलका करने के लिए दूसरा एकाध भव्य और प्रसन्न दृश्य देखने की आवश्यकता थी ही। कारवार जिले के सर्वसंग्रह-गजेटियर- के पन्ने उलटते-उलटते पता चला कि जोग से थोड़ा ही घटिया उंचल्ली नामक एक सुन्दर प्रपात शिरसी से बहुत दूर नहीं है। लशिंग्टन नामक एक अंग्रेज ने सन् 1845 में इसकी खोज की थी, मानों उसके पहले किसी ने इसे देखा ही न हो। अंग्रेजों की आंखों पर वह चढ़ा की दुनिया में उसकी शोहरत हो गयी।

यह उंचल्ली कहां है! वहां किस ओर से जाया जा सकता है? हम कैसे जायें? हमारे कार्यक्रम में वह बैठ सकता है या नहीं? आदि पूछताछ मैंने शुरू कर दी। श्री शंकरराव गुलवाड़ी जी ने देखा कि अब उंचल्ली का कार्यक्रम तय किये बिना शांति या स्वास्थ्य मिलने वाला नहीं है। वे खुद भी मुझसे कम उत्साही नहीं थे। उन्होंने बताया कि जब बिजली पैदा करने की दृष्टि से कारवार जिले के प्रपातों की जांच (सर्वे) की गयी थी, तब इंजीनियर लोगों ने उंचल्ली के प्रपात को प्रथम स्थान पर रखा था; और गिरसप्पा यानी जोग के प्रपात को दूसरे स्थार पर; मागोडा को तीसरा और सूपा के नजदीक के प्रपात को चौथा स्थान दिया था।

समुद्र के साथ कारवार जिले की दोस्ती जोड़ने वाली मुख्य चार नदियां हैं- काली नदी, गंगावली, अघनाशिनी और शरावती। इनमें से शरावती या बालनदी होन्नावर के पास समुद्र से मिलती है। दस साल पहले जब हमने जोग का प्रपात दुसरी बार देखा था, तब इस शरावती नदी पर नाव में बैठकर होन्नावर से हम ऊपर की ओर गये थे। शरावती का किनारा तो मानों वन श्री का साम्राज्य है!

अब की बार जब हम हुबली से अंकोला और कारवार गये तब आरबेल घाटी में से ‘नागमोड़ी’ रास्ता निकलने वाली गंगावली देखा था। और अंकोला से गोकर्ण जाते समय उसके पृष्ठभाग पर नौका-क्रीड़ा भी की थी। काली नदी के दर्शन तो मैंने बचपन में ही कारवार में किये थे। पचास साल पहले के ये संस्मरण दस साल पहले ताजे भी किए थे और अबकी बार भी कारवार पहुंचते ही काली नदी के दो बार दर्शन किये। किन्तु इतने से संतोष न होने के कारण कारवार से हलगा तक की दस मील की यात्रा-आना-जाना-नाव में की।

चौथी है अघनाशिनी। उसका नाम ही कितना पावन है! गोकर्ण के दक्षिणी की ओर तदड़ी बंदर के पास वह टेढ़ी-मेढ़ी होकर खूब फैलती है। किन्तु समुद्र तक पहुंचने के लिए उसको जो रास्ता मिलता है वह बिल्कुल छोटा है। यह अघनाशिनी जहां समुद्र से मिलने के लिए उतावली होकर सह्याद्रि के पहाड़ पर से नीचे कूदती है, वहीं स्थान उंचल्ली के प्रपात के नाम से पहचाना जाता है।

हमने सिद्धापुर से शिरसी का रास्ता लिया। किन्तु शिरसी तक जाने के बदले एक रास्ता पश्चिम की ओर फूटता था, उससे हम नीलकुंद पहुंचे। वहां श्री गोपाल माडगांवकर के चाचा रहते थे। वे बड़े प्रतिष्ठित जमींदार थे। उनके आतिथ्य का स्वीकार करके हम उंचल्ली की खोज में निकल पड़े। नीलकुंद से होसतोट (=नया बगीचा) जाना था। फौजी ‘जीप’ का प्रबंध होने से जंगल का रास्ता कैसे तय करेंगे, यह चिंता करीब-करीब मिट गई थी। होसतोट से होन्नेकोंब (=सोने का सींग) की ओर का रास्ता हमें लेना था। किन्तु इस रास्ते से मोटर तो क्या, बैलगाड़ी या पालकी भी नहीं जा सकती थी। इसे तो बाघ का रास्ता कहना चाहिये। मनुष्य भी बाघ के जैसा बनकर ही ऐसे रास्ते से जा सकता है, हमने अपनी जीप को एक पेड़ की छांह में आराम करने के लिए छोड़ दिया और ‘अथाSतो प्रपात-जिज्ञासा’ कहकर जंगल में रास्ता तय करना शुरु किया। होसतों से एक स्थानिक नौजवान हाथ में एक बड़ा ‘कोयता’ लेकर हमें रास्ता दिखाने के लिए हमारे आगे चला। इस बेचारे को धीरे चलने की आदत नहीं थी, न सृष्टि-सौंदर्य निहारने की लत! वह तो आगे ही आगे चलने लगा। हमें उसका बहुत ही कम लाभ मिला। हम कुछ आगे गये ऊपर चढ़े, नीचे उतरे, फिर चढ़े और फिर उतरे। इतने में जंगल घना होने लगा। थोड़े समय के बाद वह घनघोर हो गया।

So steep the path, the foot was fain,
Assistance from the hand to gain.


हमारी मुख्य कठिनाई तो पगडंडी की थी। वहां सूखे पत्ते इतने जमा हो गये थे कि पांव न फिसले तो ही गनीमत समझिये! मेहर मालिक की कि इन पत्तों में से सरसराता हुआ कोई सांप न निकला। वरना हमारी उंचल्ली वहीं की वहीं रह जाती। जहां सख्त उतार होता था वहां लाठी से पत्तों को हटाकर देखना पड़ता था कि कोई मजबूत पत्थर या किसी दरख्त की एकाध चीमड़ जड़ है या नहीं।

दोपहर के बारह का समय था। किन्तु पेड़ों की ‘स्निग्ध-छाया’ के अंदर धूप आये तभी न? चलकर यदि गरम न हो गये होते तो सर्दी ही लगती। जरा आगे बढ़ते और एक-दूसरे से पूछते, “हमने कितना रास्ता तय किया होगा? अब कितना बाकी होगा?” सभी अज्ञान! किन्तु सिद्धापुर से एक आयुर्वेदिक डॉक्टर कैमरा लेकर हमारे साथ आये थे। ये सज्जन एक साल पहले दूसरे किसी रास्ते से उंचल्ली गये थे। अपने पुराने अनुभव के आधार पर वे रास्ते का अंदाज हमें बताते थे। बीच-बीच में तो हमारा यह नाम मात्र का रास्ता भी बन्द हो जाता था। आगे अंदाज से ही चलना पड़ता था किन्तु सच्ची मुसीबत रास्ता बन्द हो जाने पर नहीं, बल्कि तब होती है जब एक पगडंडी फूटकर दो पगडंडियां बन जाती हैं। जब सही रास्ता दिखाने वाला कोई नहीं होता और अंधा अंदाज करने वाले एक साथी की राय से दूसरे का अंधा अंदाज मेल नहीं खाता, तब ‘यद् भवि तद् भवतु’- जो होने वाला होगा सो होगा- कहकर किस्मत के भरोसे किसी एक पगडंडी को पकड़ लेना पड़ता है।

किसी ने कहा कि दूर से प्रपात की आवाज सुनाई देती है। मेरे कान बहुत तीक्ष्ण, नहीं है, एक ने तो कभी का इस्तीफा दे दिया है और दूसरा काम भर की ही बात सुनता है। किन्तु अपनी कल्पना-शक्ति के बारे में ऐसा नहीं कहूंगा। मैंने कान और कल्पना, दोनों के सहारे सुनने की कोशिश की। किन्तु जिसे प्रपात की आवाज कहें वैसी कोई आवाज सुनाई न दी। कहीं मधुमक्खियां भनभनाती होती तो भी मैं कहता, “हां, हां, प्रपात की आवाज सचमुच सुनाई देती है।” कठिन यात्रा में साथियों के साथ झट सहमत हो जाने के यात्रा-धर्म मेरा पूर्ण विश्वास है। किन्तु यहां मैं लाचार था।

एक ओर यदि जंगल की भीषण सुंदरता का मैं रसास्वादन कर रहा था, तो दूसरी ओर चि. सरोज के कितने बेहाल हो रहे होंगे इस चिंता से उसकी ओर देखता था। जब सरोज ने कहा, “जंगल की ऐसी यात्रा के अंत में अगर कोई प्रपात देखने को न मिले तो भी कहना होगा कि यहां आना सार्थक ही हुआ है। कैसा मजे का जंगल है! ये बड़े-बड़े पेड़; उन्हें एक-दूसरे से बांधने वाली ये लताएं-सब सुन्दर है!” तब मुझे बहुत संतोष हुआ।

आगे जब रास्ता लगभग असंभव-सा मालूम हुआ, और एक हाथ में लकड़ी तथा दूसरे से किसी का कंधा पकड़कर उतरना भी संदेहप्रद प्रतीत हुआ, तब भी सरोज कहने लगीः “मेरा उत्साह कम नहीं हुआ है। किन्तु दूसरों को अड़चन में डाल रही हूं इस खयाल से ही हताश हो रही हूं। यह उतार फिर चढ़ना होगा इसका भी ख्याल रखना है।”

मैंने कहा, “एक बार उंचल्ली के दर्शन करने के बाद किसी न किसी तरह वापस तो लौटना होगा ही। किन्तु हम पूरा आराम लेकर ही लौटेंगे। यहां तक तो आ ही गये हैं, और अब प्रपात की आवाज भी सुनाई दे रही है। इसीलिए अब तो आगे बढ़ना ही चाहिए।”

हमारे मार्गदर्शक ने नीचे जाकर आवाज दी। डॉक्टर ने कहा, “शायद उसने पानी देखा होगा।” हमारा उत्साह बढ़ा। हम फिर उतरे। आगे बढ़े। फिर दाहिनी ओर मुड़े और आखिर जिसके लिए आंखें तरस रही थीं उस प्रपात का सिर नजर आया!

एक तंग घाटी के इस ओर हम खड़े थे और सामने अघनाशिनी का पानी, जिसे सुबह जीप की यात्रा के दरम्यान हमने तीन-चार बार लांघा था, यहां एक बड़े पत्थर के तिरछे पट पर से नीचे पहुंचने की तैयारी कर रहा था। गीत जिस प्रकार तम्बूरे की ताल के साथ ही सुना जाता है, उसी प्रकार प्रपात के दर्शन भी नगारे के समान धब-धब आवाज के साथ ही किए जाते हैं।

उंचल्ली का प्रपात जोग के राजा की तरह एक ही छलांग में नीचे नहीं पहुंचता है। सुबह की पतली नींद के हरेक अंश का जिस प्रकार हम अर्ध-जागृत स्थिति में अनुभव लेते हैं, उसी प्रकार अघनाशिनी का पानी एक-एक सीढ़ी से कूदकर सफेद रंग का अनेक आकारों का परदा बनाता है। इतने शुभ्र पानी में संसार का काले से काला ‘अध’-पाप भी सहज ही धुल सकता है।

जिस प्रकार धान पछोरने पर सूप के दाने नाचते-कूदते दाहिनी ओर के कोने पर दौड़ते आते हैं, और साथ-साथ आगे भी बढ़ते हैं, उसी प्रकार यहां का पानी पहाड़ के पत्थर पर से उतरते समय तिरछा भी दौड़ता है और फेन के वलय बनाकर नीचे भी कूदता है। पानी एक जगह अवतीर्ण हुआ की फौरन घूमकर अंगरखे के घेर की तरह या धोती के घुमाव की तरह फैलने लगता है और अनुकूल दिशा ढूंढ़कर फिर नीचे कूदता है।

अब तो बिना यह जाने कि यह पानी इस प्रकार कितने नखरे करने वाला है और अंत में कहां तक पहुंचने वाला है, संतोष मिलने वाला न था। हममें से चंद लोग आगे बढ़े। फिर उतरे। और भी उतरे। पेड़ की लचीली डालियों को पकड़कर उतरे। ऐसा करते-करते पूरे प्रपात का अखंड साक्षात्कार कराने वाले एक बड़े पत्थर पर हम जा पहुंचे। उस पर खड़े रहकर सामने की बड़ी ऊंची चट्टान से गिरते हुए पानी का पदक्रम देखना जीवन का अनोखा आनन्द था। हम टकटकी लगाकर पानी को देखते थे। मगर हम लोगों को देखने के लिए पानी के पास फुर्सत न थी। वह अपनी मस्ती में चूर था। कपूर के चूर्ण में शुभ्र रंग का जो उत्कर्ष होता है, वही इस जीवनावतार में था।

भगवान सूर्यनारायण माथे पर से हमें अपने आशीर्वाद देते थे। पसीने के रेले हमारे गालों पर से चाहे उतने उतरें, सामने के प्रपात के आगे वे किसी का ध्यान थोड़े ही खींच सकते थे! सूर्यनारायण के आशीर्वाद झेलने की जैसी शक्ति उंचल्ली के प्रपात में थी, वैसी मुझ में न थी। पानी चमक कर सफेद रेशम या साटन की शोभा दिखाने लगा। A moving tapestry of white satin and silver filigree.

कटक में चांदी के बारीक तार खींचकर उसके अत्यंत नाजुक और अत्यंत मोहक फूल, गहने आदि बनाये जाते हैं। तार के बनाये हुए पीपल के पत्ते, कमल, करंड आदि अनेक प्रकार की चींजे मैने उंड़ीसा में मन भरकर देखी हैं और कहा है, ‘इन गहनों ने बेशक कटक का नाम सार्थक किया है।’

प्रकृति के हाथों से बनने वाले और क्षण-क्षण में बदलने वाले चांदी के सुंदर और सजीव गहने यहां फिर से देखकर कटक का स्मरण हो आया। सोने के ढक्कन से सत्य का रूप शायद ढक जाता होगा, किन्तु चांदी के सजीव तार-काम से प्रकृति का सत्य अद्भुत ढंग सो प्रकट होता था। “अब इस सत्य का क्या करूं? किस तरह उसे पी लूं? उसे कहां रखूं? किस तरह उठाकर ले चलूं?” ऐसी मधुर परेशानी मैं महसूस कर रहा था, इतने में पुरानी आदत के कारण, अनायास, कंठ से ईशावास्य का मंत्र जोरों से गूंजने लगा। हां, सचमुच इस जगत को उसके ईश से ढंकना ही चाहिये- जिस तरह सामने का तिरछा पत्थर पानी के परदे से ढक जाता है और वह परदा चैतन्य की चमक से छा जाता है। जो-जो दिखाई देता है-फिर वह चाहे चर्मचक्षु की दृष्टि हो या कल्पना की दृष्टि हो-सबको आत्मतत्त्व से ढक देना चाहिए। तभी अलिप्त भाव से अखंड जीवन का आनंद अंत तक पाया जा सकता है। मनुष्य के लिए दूसरा कोई रास्ता नहीं है।

दृष्टि नीचे गई। वहां एक शीतल कुंड अपनी हरी नीलिमा में प्रपात का पानी झेलता था और यह जानने के कारण कि परिग्रह अच्छा नहीं है, थोड़ी ही देर में एक सुंदर प्रवाह में उस सारी जलराशि को बहा देता था। अघनाशिनी अपने टेढ़े-मेढ़े प्रवाह के द्वारा आसपास की सारी भूमि को पावन करने का और मानव-जाति के टेढ़े-मेढ़े (जुहुराण) पाप (एनस्) को धो डालने का अपना व्रत अविरत चलाती थी। मैंने अंत में उसी से प्रार्थना कीः

युयोधि अस्मत् जुहुराणम् एनः
भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम।


हे अघनाशिनी! हमारा टेढ़ा-मेढ़ा कुटिल पाप नष्ट कर दे। हम तेरे लिए अनेकों नमस्कार के वचन रचेंगे।

जून, 1947