सारांश
हिमालय हिमनदों एवं प्राकृतिक संसाधनों का बहुत बड़ा स्रोत है। भारत की सारी सततवाहिनी नदियों का उद्भव हिमालय से ही हुआ है। अपनी प्राकृतिक सौन्दर्य से इसने पूरे विश्व का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया है। भारत को आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक सुरक्षा प्रदान करने वाला हिमालय पिछले कुछ दशकों से विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित हो रहा है, जिसके कारण धन एवं जन की हानि हो रही है। 16 एवं 17 जून 2013 को तेज वर्षा से प्रेरित भूस्खलन ने मंदाकिनी नदी एवं उसकी उपशाखाओं की धारा को रोककर, अल्पकालिक झील का निर्माण कर दिया बादल के फटने से आयी त्वरित बाढ़ ने बस्तियों एवं सडकों को बहा दिया और उत्तराखण्ड में विशेष कर केदारनाथ क्षेत्र में ऐसा विनाश किया जैसा पहले कभी नहीं हुआ था।
Abstract
Himalaya is the home of glaciers and store house of natural resources. It is the birth place of all the perennial rivers of India and has attracted international attention due to its natural beauty. The Himalaya which provides the social, economical and political security to India is affected by various disasters from last few decades, which causes loss of life and property. On 16 and 17 June, 2013, cloud burst induced landslides blocked the Mandakini River and its tributaries and formed the ephemeral lakes. Bursting of these lakes causes flash floods which washed out the settlements and roads and caused huge devastation in Uttarakhand state mainly in Kedarnath region, never witnessed so far.
भूमिका
पर्यावरण, हमारे चारों ओर का व्याप्त वातावरण मुख्यतः स्थलमण्डल, जलमण्डल एवं वायुमण्डल का योग है, जिसमें जीवन पाया जाता है। पृथ्वी पर जीवन इन तीनों मण्डलों के अन्तः सम्बन्ध एवं प्राकृतिक सन्तुलन से ही हुआ है। पर्यावरण का भौतिक भाग जो मानव नियन्त्रण से परे है, प्रकृति कहलाती है।
प्रकृति ने मानव की समस्त मूलभूत आवश्यकताएं सुख एवं सम्पदा के सारे संसाधन अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझते हुए प्रदान किए हैं। प्रकृति ने वह मृदा जिसमें हम अन्न पैदा करते हैं, पानी जिसे हम पीते हैं, एवं हवा जिसमें हम सांस लेते हैं तथा जिनके अभाव में पृथ्वी पर जीवन सम्भव नहीं है, बिना किसी सीमा एवं शुल्क के उपलब्ध कराया है। तमाम वैज्ञानिक विकास के बावजूद भी हम इन मूलभूत आवश्यकताओं के निर्माण में अक्षम है।
वैसे तो मानव भी पर्यावरण का ही एक अंग है, और इसका अस्तित्व प्रकृति के ऊपर ही निर्भर है। इसीलिए मानव का उद्विकास, उसकी संस्कृति एवं सभ्यता प्राकृतिक नियमों एवं वैज्ञानिक तथ्यों को ध्यान में रखकर पल्लवित एवं पुष्पित हुई जैसे सिन्धु घाटी की सभ्यता (सिन्धु नदी), मेसोपोटामिया (दजला एवं फरात के बीच में), मिश्र (नील नदी)।
आदिवासी सभ्यता से बाहर निकलकर मानव ने जब विकास की प्रक्रिया को प्रारम्भ किया होगा तो उसे यह अहसास भी नहीं रहा होगा कि इस अनियन्त्रित, असंतुलित एवं अनियोजित विकास से वह अपने ही विनाश का मार्ग बना रहा है किन्तु आज विश्व के तमाम देश चाहे तो विकासशील हों या विकसित, विगत वर्षों में आए हुए आपदाओं के बाद भली-भांति जान गये हैं कि प्रकृति कितनी बड़ी है और मानव कितना बौना। विकास के साथ-साथ मानव ने प्राकृतिक सीमा पार कर दी है और अब वह प्रकृति की कीमत पर विकास कर रहा है। अब वह सारे सुख सम्पदा प्राप्त करना चाहता है जिसको किसी ने भी पर्यावरण को प्रदूषित करते हुए, प्राकृतिक नियमों की अनदेखी करते हुए एवं प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन से प्राप्त किया है। जिसके परिणामस्वरूप वरदान स्वरूप जीवन दायिनी प्रकृति अभिशाप बनती हुई दिखाई दे रही है। प्रकृति के सारे घटक एवं तत्व साम्यावस्था में हैं। मानवीय गतिविधियों ने विगत वर्षों में प्रकृति को असंतुलित किया है जो आपदाओं का कारण बन रहा है।
उत्तराखण्ड की त्रासदी के कारण
गंगोत्री हिमनद उत्तरकाशी जिले में स्थित है जहाँ से भगीरथी नदी निकलती है। सतोपन्थ एवं भगीरथ खरक हिमनद बद्रीनाथ के पास जोशीमठ जिले में स्थित है जहाँ से अलकनन्दा नदी निकलती है। भगीरथी एवं अलकनन्दा देवप्रयाग में मिलती है जहाँ से इसका नाम गंगा हो जाता है। चोराबारी एवं साथी हिमनद केदारनाथ के पास रूद्रप्रयाग जिले में स्थित है जहाँ से मन्दाकिनी नदी निकलती है जो रूद्रप्रयाग के पास अलकनन्दा से मिलती है। केदारनाथ, गढ़वाल हिमालय में 3440 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है (चित्र 1)। चोरावारी ने निकलकर दक्षिण पश्चिम दिशा में लगभग 85 किमी. दूरी तय करने के बाद मन्दाकिनी, अलकनन्दा में मिल जाती है। सरस्वती, कशाी गंगा एवं मध्यमहेश्वर गंगा बायें तरफ से एवं सोनगंगा तथा लेस्टर दाहिने तरफ से मन्दाकिनी नदी में मिलती है। सरस्वती नदी की एक धारा मन्दिर से उत्तर में केदारनाथ के पीछे मन्दाकिनी नदी में मिलती है तथा एक धारा जो अब निष्क्रिय हो गयी है, केदारनाथ के सामने मन्दिर के दक्षिण दिशा में मिलती है।
15,16 एवं 17 जून 2013 को दक्षिणी मानसून एवं पश्चिमी विक्षोभ दोनों सक्रिय थे। इन दोनों प्रक्रियाओं के कारण उत्तराखण्ड में बहुत तेज बरसात हुई जिसे बादल फटना कहा जाता है। जिसके कारण मन्दिर के पीछे उत्तर दिशा में स्थित गांधी सरोवर एवं मन्दिर से दक्षिण दिशा में स्थित वासुकी ताल जो कि 2-3 किमी. दूर स्थित है पूरी तहर भर गये। तेज एवं लगातार हो रही वर्षा के कारण भूस्खलन होने लगा। भूस्खलन से आने वाले अवशादों ने मन्दाकिनी एवं उसकी उपशाखाओं की धारा को रोक दिया। धारा अवरूद्ध हो जाने के कारण अल्पकालिक झीलों का निर्माण हो गया। कुछ देर बाद स्थायी एवं अल्पकालिक झीलें वस्र्ट कर गयीं जिसके कारण त्वरित बाढ़ आ गयी। त्वरित आयी बाढ़ ने मन्दिर के पास बायें तट पर स्थित निष्क्रिय धारा को सक्रिय कर दिया एवं कई नई धाराओं को भी उत्पन्न कर दिया। क्योंकि हिमजलीय मैदान पर, नदी की निष्क्रिय धारा पर एवं मंदाकिनी नदी की घाटी में बस्तियों का निर्माण हो गया था, जिसके कारण नदी की घाटी, नदी के अधिकतम बहाव को धारण करने में सक्षम नहीं थी। अधिक ऊर्जा वाले त्वरित बाढ़ ने केदारनाथ को पूरी तरह से तबाह कर दिया। इस बाढ़ एवं भूस्खलन ने केदारनाथ के नीचे भी मन्दाकिनी घाटी में रामबाड़ा, गौरीकुण्ड, सोनप्रयाग एवं फाटा में भी ऐसी बर्बादी की जैसा इस क्षेत्र में पहले कभी भी देखने को नहीं मिला। चित्र 2 एवं 3 केदारनाथ में प्रकोप के पहले एवं बाद की स्थिति को प्रदर्शित करते हैं। उत्तराखण्ड, मुख्य रूप से केदारनाथ की इस त्रासदी में कितने परिवार एवं लोग समाप्त हो गये, कितने लापता हो ये, कितने घर विहीन हो गये, कितने गाँव, मुख्य मार्ग से कट गये, कितनी सड़कें एवं पगडंडियाँ बह गयी, कितने मकान, दुकानें एवं होटल बह गये एवं क्षतिग्रस्त हो गये यह अभी भी शत-प्रतिशत प्रामाणिकता के साथ नहीं पता है।
हमारे दायित्व
ऐसी घटना हिमालय या उत्तराखण्ड में नई नहीं है। पहाड़ी क्षेत्रों में बादल का फटना एवं भूस्खलन एक साधारण घटना है लेकिन केदारनाथ क्षेत्र में इतनी बड़ी आपदा पहली बार हुई है। इसी तरह से बादल का फटना, भूस्खलन, नदी की धारा बाधित होना, अल्पकालिक झील का निर्माण, झील का बर्स्ट होना एवं त्वरित बाढ़ का आना एवं अवसादों के अपवहित होने की घटना गंगोत्री हिमनदीय क्षेत्र में सिंह एवं मिश्रा ने 2002 में अध्ययन किया है।
इस तरह की घटना इस बात का संदेश देती है कि प्राकृतिक घटनाएं मानव नियन्त्रण एवं पुर्वानुमान से परे हैं लेकिन इतना अवश्य है कि बेहतर नियोजन एवं प्रबन्धन के द्वारा इन आपदाओं से होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है। पिछले कुछ दशकों में विकास प्राकृतिक नियमों एवं वैज्ञानिक तथ्यों की अनदेखी करके किया गया। एवं आपदाग्रस्त्र क्षेत्रों में भी बस्तियां बनायी गई। आज हम प्रकृति के साथ नहीं बल्कि उसकी कीमत पर विकास कर रहे हैं। यह समस्या सिर्फ किसी व्यक्ति, गाँव, नगर, शहर या राज्य की समस्या नहीं है, अपितु यह पूरे जनमानस की समस्या है। सभी इसके निराकरण के लिये प्रयासरत हैं फिर भी यह समस्या दिनों दिन विशालकाय होती जा रही है। आज मानव का अस्तित्व अपने ही क्रियाकलापों के कारण खतरे में दिखायी दे रहा है। अतः इसके समाधान के लिए जन-जन की सहभागिता की आवश्यकता है। तभी हमारी पृथ्वी हरी भरी एवं साफ सुथरी दिखाई देगी एवं हम पूरे विश्व को यह संदेश दे पायेंगे कि हम उस देश के रहने वाले है जहाँ पर प्रकृति को संरक्षित करने के लिये पूरा जनमानस जागरूक है।
निष्कर्ष
अगर उत्तराखण्ड में वननाशन न हुआ होता, डायनामाइट का वृहद प्रयोग न हुआ होता, भूस्खलन के क्षेत्र में मकान न बने होते एवं नदी के धर में बस्तियां न होती तो सम्भवत जीवन एवं सम्पदा की उतनी बर्बादी नहीं होती जितनी अभी हुई है। यदि हम प्रकति का सृजन नहीं कर सकते तो हमें उसका विध्वंस भी नहीं करना चाहिए और यह सदैव याद रखना चाहिए कि जो प्रकृति हमें मुफ्त में जीवनदायिनी तत्व प्रदान कर रही है हमें उसकी रक्षा करनी है एवं प्राकृतिक नियमों एवं वैज्ञानिक तथ्यों को ध्यान में रखते हुए ऐसा विकास करना है जिसमें पर्यावरण भी प्रदूषित न हो। प्रकृति भी संरक्षित रहे एवं प्राकृतिक संसाधन भी आने वाले पीढ़ी के लिये बचे रहें।
संदर्भ
सिंह, ध्रुवसेन एवं मिश्रा, अजय(2002) रोल आॅफ ट्रिब्यूटरी ग्लेशियरस फन लैन्डस्केप माडीफिकेशन इन द गंगोत्री ग्लेशियर एरिया, गढ़वाल हिमालय इन्डिया, करेन्ट साइन्स, खण्ड 82, अंक 5, मु. पृ. 101-105.
ध्रुवसेन सिंह
एसोसिएट प्रोफेसर, सेंटर आॅफ एडवांस्ड स्टडी, भूविज्ञान विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ (उ.प्र.)-226007, भारत, dhruvsensingh@rediffmail.com
Dhruv Sen Singh
Associate Professor, Centre of Advanced Study in Geology University of Lucknow, Lucknow-226007, dhruvsensingh@rediffmail.com