उत्तराखण्ड हिमालय में भूस्खलन : 2013 प्राकृतिक आपदा के विशेष संदर्भ में (Landslides in Uttarakhand Himalaya : With special reference to Natural Disaster of 2013)

Submitted by Hindi on Tue, 07/12/2016 - 11:54
Source
अनुसंधान (विज्ञान शोध पत्रिका) अक्टूबर 2014

सारांश


वर्तमान समय में मानव की आत्म केंद्रित विकास की अंधी प्रवृत्ति पर्यावरण को असंतुलित कर भूस्खलन एवं बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं में निरन्तर वृद्धि कर रही है। लोभ के वशीभूत मानव विश्व के प्राणदाता हिमालय के अधिकाधिक भौतिक सम्पदा प्राप्त करना चाहता है, यद्यपि हमारे पूर्वजों, ऋषि-मुनियों ने इसे श्रद्धा एवं आदर की दृष्टि से देखा था। संस्कृत के प्रसिद्ध कवि कालिदास ने हिमालय को देवताओं की आत्मा कहा-

‘‘अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराज:’’ (कुमारसम्भव- 1/1)

सृष्टि के आदिकाल से ही मानव, पशु-पक्षी, जीव-जन्तु सभी प्रकृति पर निर्भर रहे हैं। प्रत्येक प्राणी के हित की रक्षा के लिये प्राकृतिक पर्यावरण में संतुलन बनाए रखना अत्यन्त आवश्यक है। अन्यथा उसके असंतुलन से प्राकृतिक आपदाएं मानव सहित सम्पूर्ण प्राणि जगत के लिये कहीं-कहीं पर महाविनाशक और संहारक हो जाती हैं। ये प्राकृतिक आपदाएं आकस्मिक एवं दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं होती हैं, जो जन, धन एवं संसाधनों की क्षति के साथ-साथ मानवीय जीवन पर विपरीत प्रभाव डालती है और उन्हें संकटग्रस्त कर देती हैं। उत्तराखण्ड राज्य में विगत 16-17 जून, 2013 में आई प्राकृतिक आपदा से उत्पन्न स्थिति को देखते हुए उनसे होने वाली क्षति को रोकने और कम करने के लिये उपयुक्त उपाय करने तथा उनमें निरन्तर आधुनिक तकनीकि से सुधार करने की महती आवश्यकता है और प्रकृति से अनावश्यक छेड़-छाड़ न कर उसके प्रति आत्मीयता एवं संवेदनशीलता का भाव परम आवश्यक है।

Abstract


In the present time self centered superfluity development by human increases the imbalance of the environment and causes natural disasters like flood, landslides etc. People are interested to exploit more and more natural resources from the Himalaya; although, our ancestors and saints had seen Himalaya with respect and honour. The famous poet of Sanskrit Maha Kavi Kalidas has said that Himalaya is the soul of God (Devtas) [‘‘अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराज:’’ (कुमारसम्भव- 1/1)]. From the ancient times, human, birds, animals etc. are dependent on the nature. Therefore, it is essential to keep balance in environment in the interest of all creatures, otherwise natural disaster occur and destroy the lives and properties at many places. These natural calamities are fateful events depleting life, wealth and natural resources besides leading to irreversible dangerous effects on human life. Visualizing situation due to natural disaster of past 16-17 June 2013 in Uttarakhand, suggestions have been made to incorporate suitable measures to be undertaken with gradually increasing techniques, besides preventing unnecessary disturbance in nature and becoming more sensitive and concerned with it.

1. प्रस्तावना


हिमालय विश्व की सर्वाधिक संवेदनशील पर्वत श्रृंखलाओं में से एक है। भारत के उत्तरी क्षेत्र में अवस्थित हिमालय की पर्वत श्रृंखलाएं अत्यन्त जटिल एवं बहुआयामी स्वरूप के साथ-साथ ऋषि-मुनियों, साधु-संतों, योगी-महापुरूषों के लिये साधना स्थल रहा है। प्रकृति-प्रेमियों के लिये भी प्राचीन काल से आकर्षण का केंद्र रहा है। हिमालय अपनी समृद्धि, जैव विविधता, प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों, जीवनदायी जल भण्डारण स्रोतों, औषधि-वनस्पतियों तथा भारत की आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक एवं प्राकृतिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण रहा है।

उत्तराखण्ड राज्य (जो पूर्व में काली नदी तथा पश्चिम में सतलुज नदी के बीच अवस्थित है) में 16 व 17, जून 2013 में अतिवृष्टिजनित प्राकृतिक आपदा में रूद्रप्रयाग, चमोली, उत्तरकाशी और पिथौरागढ़ जनपदों को सर्वाधिक प्रभावित किया (चित्र : 1)। जिससे वहाँ की प्राकृतिक तथा सांस्कृतिक विरासत के साथ ही जान-माल की भी हानि हुई। इस प्राकृतिक आपदा में उत्तराखण्ड राज्य के लोगों के साथ-साथ देश के विभिन्न प्रान्तों से आये तीर्थयात्री काल-कवलित हो गये। उत्तराखण्ड सरकार के अनुसार 5748 लापता/मौतें हुईं (अमर उजाला, 15 जून, 2014)। इस प्राकृतिक आपदा से प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप में लाखों लोग प्रभावित हुए हैं। ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटना भारत के इतिहास में संभवतया कभी हुई हो। आपदा प्रभावित लोगों की मानें तो यह एक ऐसी दुर्घटना है जिसे सदियों तक भुलाया नहीं जा सकेगा।

ऐसी प्राकृतिक आपदाएं जो आकस्मिक और दुर्भाग्यपूर्ण होती हैं, वे समस्त प्राणिजगत के जीवन पर तो विपरीत प्रभाव डालती ही हैं, उन्हें संकटग्रस्त भी बना देती हैं। प्राकृतिक आपदाएं मानव के लिये महाविनाशक एवं संहारक होती हैं। विकास की अंधी दौड़ के कारण भूस्खलन एवं पर्यावरण ह्रास तीव्र गति से हो रहा है। हमारे आस-पास हो रही प्राकृतिक आपदाएं प्राय: हमारी ही स्वार्थपूर्ण नीतियों का दुष्परिणाम होती हैं। वेद के ऋषि का यह कथन-

‘‘प्रण: पूर्वस्मै सुविताय वोचत मक्षू सुम्नाय नव्यसे’’ (ऋग.- 8/27/10)

अर्थात हे ईश्वर! हमें प्राचीन परम ऐश्वर्य की ओर ले चलो और हम भविष्य के नवीन से नवीनतम उत्कर्ष को भी प्राप्त करते चले जायें। वास्तव में मानव ने कभी यह विचार किया कि उसके संपूर्ण उत्थान में इस प्रकृति का ही वरदहस्त है, जो उसे बिना किसी याचना के ही स्वत: सब कुछ प्रदान करती रहती है?

किसी भी राष्ट्र अथवा राज्य का सुविकास वहाँ के लोगों के लिये रोजगार और सम्पन्नता के द्वार खोलता है। शिक्षा और स्वास्थ्य की उत्कृष्ट सुविधा प्रदान कर सामाजिक उत्थान में सहयोग करते हैं और मानव के अस्तित्व के नये आयाम को जन्म देते हैं। मानसून काल में मौसम की विशेष अवस्था के कारण अतिवृष्टि, वृष्टि प्रस्फोट (क्लाउड बर्स्ट) से उफनती नदियाँ, ताश के पत्तों के समान गिरते मकान, खाई में परिवर्तित होती सड़कें, बच्चों के खिलौनों की तरह बहते वाहन, गले-गले तक डूबे लोग, भूस्खलन के मलबे में दबे-कराहते मनुष्य, पशु, पक्षी, थरथराता पहाड़ एक बड़ी भयावहता को ही दर्शाता है।

मनुष्य के भौतिक तथा तकनीकी विकास यथा मकान, बाँध, जलाशय, नदियों के किनारे तक बजरी/रेता खनन एवं अतिक्रमण के प्रभाव ने पर्यावरण तथा प्राकृतिक संसाधनों का समुचित दोहन न कर विदोहन किया है। जिसके परिणामस्वरूप अलकनंदा, भागीरथी, काली तथा गोरी नदियों ने जिस प्रकार का रौद्ररूप धारण कर ताण्डव किया, उससे स्पष्ट है कि हमने अतीत की दुर्घटनाओं से कोई शिक्षा नहीं ली। उत्तराखण्ड और हिमाचल प्रदेश ऐसी प्राकृतिक आपदाओं के कारण पहले से ही अतिसंवेदनशील माने जाते रहे हैं। वैसे तो भारत में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण का गठन किया गया है किन्तु ऐसी प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिये अभी भी उनको और अधिक नवीन तकनीकी तथा संसाधनों की आवश्यकता है, जिससे भविष्य में ऐसी आपदाओं से होने वाली जन-धन की हानि को कम किया जा सके।

Figure-1 उत्तराखण्ड में आई इस भयानक त्रासदी से यह विचारणीय हो गया है कि उत्तराखण्ड और हिमाचल प्रदेश जैसे पहाड़ी राज्यों में आवश्यकता से अधिक खनन तथा दोहन न हो, किन्तु आज इससे विपरीत कई स्थानों पर हो रहा है। गंगा, यमुना तथा उनकी सहायक नदियों पर जिस प्रकार अनेकों बाँध एवं पनबिजली परियोजनाएं बनायी जा रही हैं जो जनोपयोगी एवं आवश्यक तो हैं फिर भी उनके आस-पास पर्यावरण संतुलन पर इनका प्रभाव होता है। केदारनाथ के नीचे फाटा व्यूंग और सिंगोली, भटवारी, जलविद्युत परियोजनाएं बनायी जा रही हैं। इनमें लगभग 30 किलोमीटर की सुरंग खोदी जा रही है, इसके लिये भारी मात्रा में डायनामाइट का प्रयोग किया जा रहा है। इन विस्फोटों से पहाड़ के जलभृत (एक्वीफर) फूट रहे हैं। यह जमा पानी रिस कर सुरंग के रास्ते निकल रहा है। पहाड़ के जलस्रोत सूखते जा रहे हैं। पेड़-पौधों को पानी नहीं मिल रहा है और वे कमजोर हो रहे हैं। वृक्ष कमजोर हों तो वर्षा का पानी सीधी धारा बनकर नीचे गिरता है और वह अपने साथ पेड़ों तथा पत्थरों को लाकर नदी में डाल देता है। तब उफनती नदी अपने साथ पेड़ों तथा पत्थरों को लेकर बहती है। इनकी टक्कर से मकान और पुल ध्वस्त हो जाते हैं, जैसा कि 16 व 17, जून 2013 को उत्तराखण्ड में हुआ है। वर्ष 2010 में उत्तराखण्ड राज्य में आपदा की दृष्टि से अतिसंवेदनशील 243 गाँवों को विस्थापित कर पुनर्वास के लिये चयनित किया गया था, जिनकी संख्या मार्च 2013 तक 550 हो गई है। निश्चित रूप से यह मानसून इस आँकड़े को और बढ़ा देगा।

2. संवेदनशील क्षेत्रों में सक्रिय भूस्खलन, त्वरित बाढ़ एवं भूमि कटाव की पहचान


- ढालू जमीन जहाँ पर मृदा आवरण कम हो और वर्षा की अधिकता हो तथा जहाँ पर चट्टानें क्षरित, गलित और कमजोर पदार्थ से बनी हों जैसे स्लेट, फाइलाइट, माइका सिस्ट आदि वहाँ पर भूस्खलन एवं भूकटाव स्वाभाविक रूप से अधिक होता है।

- ऊपरी ढालों पर अनुप्रस्थ (चौड़ाई) दिशाओं में बृहत दरारों का पड़ना और चट्टानों में स्थित दरारों का पहले की अपेक्षा अधिक खुलने से भौलखण्ड या मलवा गिरने की स्थिति में तो नहीं आ गया है।

- खेत एवं जंगलों में पेड़ों का अपनी सामान्य स्थिति से इधर-उधर झुकना, सक्रिय भूस्खलन की संभावना को दर्शाता है।

- यदि किसी क्षेत्र में अति सघन पर्णीय जंगल हों तो वहाँ पर नमी क अधिकता का अवलोकन करना आवश्यक है जो वर्षा काल में भूस्खलन हेतु एक अतिरिक्त उत्प्रेरक का कार्य कर सकता है।

- जिन क्षेत्रों में गर्मी के दिनों में काफी आग लगी हो, वहाँ के ढलानों में मानसून के प्रारंभिक काल में अदृढ़ शुष्क मिट्टी की अधिकता एवं भूमि की जल संग्रहण क्षमता में आयी कमी के कारण निचले क्षेत्रों में त्वरित बाढ़ की संभावना रहती है।

- ऐसे क्षेत्र जहाँ पर नये रास्तों, सड़कों, नहरों आदि का मलवा जमा हो अथवा भूमि कटाव हुआ हो, वहाँ पर भूस्खलन या मलवा आने की संभावना बढ़ जाती है।

- बाजार एवं संकरी बस्तियों में जहाँ बिना किसी उपयुक्त योजना के निर्माण के कारण जल निकासी में उत्पन्न हुये अवरोधों के कारण भूकटाव हो सकता है या मलवा जमा हो सकता है। अत: ऐसे क्षेत्रों का अवलोकन कर भूस्खलन एवं बाढ़ की संभावना को कम किया जा सकता है।

- नदियों/नालों या उसके सहायक नदियों/नालों एवं ऊँचे ढलान से प्रारंभ होने वाले क्रमिक झरने अपने तीव्र वेग, द्रव्य वाहक क्षमता के कारण नीचे आने तक अत्यंत खतरनाक हो जाते हैं। यह त्वरित बाढ़ एवं भूकटाव का एक मुख्य कारक होता है। अत: ऐसे क्षेत्रों में कभी भी आपदा घटित हो सकती है।

- सड़क, मकान, रास्ता, स्कूल आदि के निर्माण में जहाँ उर्ध्वाधर ढाल को अत्यधिक काटा गया हो या जहाँ पर पुराना मलवा एकत्र हो, ऐसे स्थानों पर भूस्खलन की संभावना बनी रहती है।

3. खतरे से पूर्व तैयारी तथा प्रबंधन


प्राय: हमें पता है भूस्खलन की प्रक्रिया बरसात के मौसम में और अधिक बढ़ जाती है और वह क्षेत्र जिनके ढाल स्थिर नहीं होते, चट्टानों में अधिक विभंग होते हैं, पहाड़ियों में कम पेड़-पौधे होते हैं, भूस्खलन से ज्यादा प्रभावित होते हैं। इन क्षेत्रों में बरसात से पूर्व कुछ प्राथमिक तैयारियाँ की जानी चाहिये जिससे भूस्खलन से होने वाले नुकसान को कम किया जा सके। अत: भूस्खलन को रोकने के लिये तथा उससे होने वाले नुकसान को कम करने के लिये निम्नलिखित तैयारियाँ करनी चाहिये।

- सीधी ढालों पर बनने वाले मकानों को बहुत सावधानी पूर्वक बनाना चाहिये।
- दुर्गम क्षेत्रों में बनने वाले मकानों आदि में प्रयोग होने वाला सामान उच्च गुणवत्ता का होना चाहिये।
- संभावित स्थानों पर भूस्खलन से होने वाले खतरों का प्रशिक्षण होना चाहिये।
- भूस्खलन ग्रसित क्षेत्रों का मानचित्र बनाना चाहिये तथा बचाव कार्य की तैयारियाँ पूर्व से ही कर लेनी चाहिये।
- समय-समय पर भूस्खलन के प्रति लोगों में जागरूकता बढ़ानी चाहिये।
- वनोन्मूलन एक मुख्य कारण है अत: इस पर प्रतिबंध लगाना चाहिये।
- वनोन्मूलन के उपरान्त होने वाले भवनों के निर्माण पर नियंत्रण किया जाना चाहिये अथवा उचित योजना के बनने के बाद ही निर्माण होना चाहिए।
- अस्थायी ढलानों को स्थिर किया जाना चाहिए।
- पूर्व चेतावनी निकायों को प्रबल करना चाहिए।
- स्थानीय आपदा प्रबंधन गुटों को ग्रामीण तथा शहरी स्तर पर बनाया जाना चाहिये जो आपदा में फंसे लोगों की मदद कर सकें।
- आधुनिक संचार माध्यम से जन सामान्य में जागरूकता लानी चाहिए।

4. खतरे के दौरान एवं उसके बाद के प्रबंधन


भूस्खलन के दौरान निम्नलिखित बातों पर ध्यान दिया जाना चाहिये तथा इन पर अमल करने से भूस्खलन के द्वारा होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है।

- घायलों को उचित समय पर प्राथमिक उपचार दिया जाना चाहिये।
- लोगों को सलाह दी जानी चाहिये कि घबराने के बजाय एक-दूसरे की मदद करें।
- आपदा प्रबंधन से संबंधित गतिशील घटकों को तुरंत सक्रिय हो जाना चाहिये तथा दूर संचार और चिकित्सीय सहायता दी जानी चाहिये।
- स्थानीय आपदा प्रबंधन गुटों को तुरंत सक्रिय हो जाना चाहिये ताकि पीड़ितों को तत्काल उपचार एवं अन्य सहायता मिल सके।
- नुकसान का निर्धारण तथा विश्राम प्रबंधन ग्रामीण एवं शहरी स्तर पर तुरंत शुरू किया जाना चाहिये।
- निकटस्थ चिकित्सालयों में आपदा पीड़ितों हेतु आवश्यक संसाधन होने चाहिए।

5. आपदा के कारण, वैदिक समाधान एवं निष्कर्ष


पर्यावरणविदों का मानना है कि अनियोजित विकास, वनों का अवैध कटान, अत्यधिक खनन तथा नियमों की अवहेलना कर नदियों, पहाड़ों, एवं मार्गों के किनारे अतिक्रमण कर अवैध रूप से किये गये भवन निर्माण भी इस प्रकार की त्रासदी को बढ़ाने में कम योगदान नहीं करते हैं। आज मानव को आवश्यकता है प्रकृति के साथ संवेदनशीलता पूर्वक सामांजस्य बैठाकर ऐसे संतुलित विकास करने की जिससे पर्यावरण भी सुरक्षित रहे और मानव सहित सभी प्राणी सुखपूर्वक जीवन-यापन कर सकें। संपूर्ण विश्व को मानवता का पाठ पढ़ाने वाले वेदों का योगदान भी पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रहा है। वैदिक ऋचाएं वर्तमान तथा भविष्य की समस्याओं के निदान में अपनी भूमिका का निर्वहन करती रही हैं। अथर्ववेद के पृथ्वीसूक्त का ऋषि स्वार्थ से कोसों दूर रहकर पृथ्वी अर्थात पर्यावरण की सुरक्षा और संवेदना का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कहता है कि-

‘‘यत्ते भूमि विखानामि क्षिप्रं तदपि रोहतु।
मा ते मर्म विमश्ग्वरि मा ते हृदयमर्पिपम्।।’’ (अथर्व. - 12/1/35)


अर्थात- हे भूमि माता! तेरा जो कोई भाग मैं खोदूं या लूंगा, वह उतना ही होगा, जिसे तू पुन: शीघ्र उत्पन्न कर सके। हे खोजने योग्य पृथ्वी! मैं न तो तेरे मर्मस्थल पर या तेरी जीवन शक्ति पर कभी आघात अर्थात चोट करूं और न ही तेरे हृदय को हानि पहुँचाऊँ।

ऋषि की यह संवेदना ही प्रत्येक मानव के लिये प्रकृति अर्थात पर्यावरण की सुरक्षा के मार्ग को प्रशसत करने का शुभ संदेश है।

Sandarvआरए सिंह एवं मुकेश कुमार
एसोसिएट प्रोफेसर, भूविज्ञान विभाग, एलएसएम राजकीय स्रातकोत्तर महाविद्यालयपिथौरागढ़-262502, उत्तराखण्ड, भारत, एसोसिएट प्रोफेसर, संस्कृत विभाग, एलएसएम राजकीय स्रातकोत्तर महाविद्यालय पिथौरागढ़-262502, उत्तराखण्ड, भारत

R.A. Singh and Mukesh Kumar
Associate Professor, Department of Geology, L.S.M. Govt. P.G. College, Pithoragarh-262502, Uttarakhand, India, Associate Professor, Department of Sanskrit L.S.M. Govt. P.G. College, Pithoragarh-262502, Uttarakhand, India, Singhdr.ramautar@yahoo.com