फाॅरेस्ट कंजरवेशन एक्ट 1980 के तहत उत्तराखंड में 71 प्रतिशत क्षेत्र में वन है। प्रदेश के कुल क्षेत्रफल में से 7 लाख 41 हजार हेक्टेयर भूमि पर खेती होती है, जबकि लगभग तीन लाख हेक्टेयर भूमि बंजर हो चुकी है। राज्य गठन के बाद प्रदेश की कृषि योग्य भूमि में 17 प्रतिशत तक की कमी आई है। प्रदेश में बढ़ते पलायन के कारण भी हजारों गांवों की लाखों हेक्टेयर जमीन खाली पड़ी है। जो लोग बचे हैं, वे खेती करने के लिए पहले की अपेक्षा कम उत्सुक दिखते हैं। हांलाकि वे अपने गुजर-बसर के लिए खेती कर भी रहे हैं। इन लोगों द्वारा खेती न करने का कारण जंगली जानवरों की समस्या भी है। यदि पहाड़ के कई इलाकों में फसल लगाई भी जाती है, तो सुंअर जैसे जंगली जानवर और बंदर फसल को बर्बाद कर देते हैं। ऊपर से सिंचाई के लिए पानी का अभाव अलग से है। वहीं कई बार जलवायु परिवर्तन के कारण पड़ रही मौसम की मार से फसल को नुकसान भी पहुंचता है। बाजार में फसल का उचित मूल्य भी नहीं मिलता है। ऐसे में राज्य के पहाड़ी इलाकों में किसानों को खेती करना घाटे का सौदा लगता है। नई पीढ़ी तो खेती के कार्य को एक तरह से नकारती ही जा रही है। ऐसे में खेतों का खाली पड़ा रहना लाजमी भी है, लेकिन कैबिनेट के फैसले से राज्य के किसानों को राहत मिलने की संभावना है।
उत्तराखंड सरकार ने कैबिनेट की बैठक में किसानों को साधते हुए अहम फैसला लिया और राज्य में किसानों की उपज को बेचने के लिए मंडी की अनिवार्यता को हटाते हुए खुले बाजार की व्यवस्था लागू कर दी है। राज्य सरकार का ये निर्णय केंद्र द्वारा किसानों को राहत दिए जाने के निर्णय के समान ही है। जिसमें केंद्र ने कृषि उपज एवं पशुधन विपणन अधिनियम लागू कर किसानों को राहत दी थी। उत्तराखंड की त्रिवेंद्र सरकार ने भी किसानों को राहत देने के लिए केंद्र सरकार के इसी फाॅर्मूले को अपनाया है। जिसके तहत प्रदेश में लागू उत्तराखंड़ कृषि उत्पादन मंडी विकास एवं विनियमन अधिनियम को समाप्त कर दिया गया है। इसके स्थान पर कृषि उपज एवं पशुधन विपणन अधिनियम लागू किया गया है। इससे किसानों के सामने अभी तक अपनी उपज को मंडी में बेचने की जो अनिवार्यता थी, वो समाप्त हो गई है। अब किसान कहीं भी अपनी उपज को उचित दामों पर बेच सकते हैं। इससे बिचौलियों के चंगुल से निकलने में भी किसानों को सहायता मिलेगी। तो वहीं मंडी समिति की ओर से फल-सब्जी व अन्य कृषि उत्पादों के कारोबार पर शुल्क भी नहीं लिया जाएगा। साथ ही आढ़ती किसानों के उत्पादों को बिना लाइसेंस के भी खरीद सकते हैं। इससे किसानों को उस अतिरिक्त वसूली के बोझ से भी छुटकारा मिलेगा, जो आढ़ती द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से किसानों से की जाती थी। हांलाकि ऐसा इसलिए होता था, क्योंकि आढ़ती को किसानों का उत्पाद खरीदने के लिए लाइसेंस की जरूरत पड़ती थी, जिसका शुल्क सरकर को जमा होता था, लेकिन इस शुल्क का बोझ आढ़ती सीधे, परंतु अप्रत्यक्ष रूप से किसानों के कंधे पर डाल देते थे।
उत्तराखंड में आठ लाख से ज्यादा किसान हैं। प्रदेश के विभिन्न जनपदों में 23 मंडी समितियां हैं। खेतों में मेहनत कर फसल बेचने के बाद इन किसानों पर मार इसलिए भी पड़ती थी, क्योंकि किसानों को अपनी तैयार फसल कृषि मंडियों को बेचनी पड़ती थी। मंड़ी द्वारा निर्धारित दाम पर ही फसल का सौदा होता था। ऐसे में किसान रात दिन खेतों में मेहनत करने के बाद, जब उपज को बेचने जाता तो खुद को ठगा-सा महसूस करता था। इससे कई किसानों के हालात काफी दयनीय हो गए थे। मौसम की मार के साथ ही कर्ज के बोझ ने उन्हें परेशान कर दिया था। किसान खेती छोड़ते जा रहे थे। इन सभी बंदिशों से मुक्त होने की किसानों ने कई बार मांग भी की थी, लेकिन अब राज्य के किसान इन सभी बंदिशों से मुक्त हैं और उनके पास अपनी उपज को बेचने के लिए खुला व बड़ा बाजार है। इसके अलावा सरकार ने उन लोगों के लिए भी खेती की राह खोल दी है, जो खेती तो करना चाहते हैं, लेकिन बूढ़े होने या घर में कोई खेती करने वाला न होने के कारण उनके खेत खाली पड़े हैं। इसे लिए सरकार ने कांट्रेक्ट फार्मिंग को मंजूरी दी है।
अभी तक देश में सबसे अधिक कांट्रेक्ट फार्मिंग कर्नाटक और मैसूर में ही होती है। यहां कंपनियां खेती की जमीन को ठेके या लीज़ पर लेकर हल्दी, मसाले या विभिन्न प्रकार की फसलें उगा रही हैं, लेकिन उत्तराखंड में खेती की संपूर्ण संभावनाएं और स्थान होने के बाद भी ऐसा नहीं था। यहां खेत खाली पड़े थे। पलायन के कारण यहां कई गांवों में बूढ़े मां-बाप और बच्चे ही या महिलाएं ही हैं। ऐसे सैंकड़ों बीघा खेतों पर कोई खेती करने वाला नहीं है। बूढ़े हाथों से दो चार नाली में जितनी खेती हो सकती, अपने गुजर बसर के लिए कर लेते हैं। इसके समाधान के लिए सरकार ने कांट्रेक्ट फार्मिंग एक्ट 2018 को मंजूरी दे दी है। कृषि क्षेत्र में काम करने वाली कंपनियां अपनी जरूरत के हिसाब से किसानों से खेती के लिए कांट्रेक्ट (ठेका) कर सकेंगी। हांलाकि लोगों को आशंका है, कि ठेके पर देने के बाद कहीं जमीन पर कब्जा न हो जाए। किंतु ऐसा कदाचित नहीं होगा, क्योंकि खेती करने के लिए कानूनी करारनामा जरूरी होगा। कानूनी करारनामे के बिना कोई भी व्यक्ति या कंपनी ठेके पर खेती नहीं कर सकेंगे। हांलाकि यदि कार्य योजना के अनुसार किया गया तो राज्य में बंजर होती जमीन पर भी फसल लहलहाने लगेगी और आय के साधन भी बढ़ेंगे, जो पलायन रोकने में कारगर साबित हो सकते हैं।
किसानों को ये होंगे फायदे
- किसान के पास मंडी परिषद में शुल्क देकर फसल बेचने का विकल्प होगा और खुले बाजार में भी। जहां दाम बेहतर मिले, किसान वहां फसल बेच सकेगा।
- मंडी क्षेत्र में विकसित 'अपणु बाजारों' में किसान खेत से फसल लाकर उपभोक्ताओं तक सीधे पहुंचा सकेंगे।
- गोदाम और कोल्ड स्टोर के मंडी के समकक्ष होने के चलते किसानों को अपनी फसल सुरक्षित रखने के ज्यादा से ज्यादा विकल्प मिलेंगे।
- मंडियों और उनके समकक्ष संस्थान अधिक उपलब्ध होने से किसानों का परिवहन का खर्च भी बचेगा।
- फल और सब्जी का कारोबार करने वाले व्यापारियों को मंडी शुल्क से मुक्ति मिलेगी।
लेखक - हिमांशु भट्ट (8057170025)
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