विकास, आजीविका और प्राकृतिक संतुलन

Submitted by Hindi on Thu, 08/11/2011 - 11:17

विकास के जो काम हिमालय की प्रकृति को स्थायी नुकसान पहुंचाने वाले हैं उन्हें देशहित में यहां न किया जाए, उसके विकल्प तलाशे जाएं। तीसरी और सबसे जरूरी बात होगी विकास के ऐसे तरीके और तकनीकें खोजना जो स्थानीय जनता को पूरी आजीविका और सबके लिए आजीविका की गारंटी दे सकें।

धरती पर जीवन का आरम्भ और जीवन को चलाए रखने का काम प्रकृति की बड़ी पेचीदा प्रक्रिया है। इसे पूरी तरह समझ पाना अति कठिन है। फिर भी हजारों सालों में मनुष्य ने अनुभव और विज्ञान की मदद से इस गुत्थी को सुलझाने की कोशिश की है। जिसके महत्वपूर्ण निष्कर्ष ये हैं कि प्रकृति ने जो कुछ पैदा किया वह फिजूल नहीं है। हर जीव का अपना महत्व है। वनस्पति से लेकर जीवाणुओं, कीड़े-मकोड़ों और मानव तक की जीवन प्रक्रिया को चलाए रखने में अपना-अपना योगदान रहा है। किंतु इस सारी प्रक्रिया में संतुलन बना रहना चाहिए। कोई भी प्राणी सीमा से ज्यादा नहीं बढ़ना चाहिए। जब ऐसी गड़बड़ी पैदा होती है तो प्रकृति संतुलन बनाने की कोशिश करती है। उदाहरण के लिए एक वन्य प्राणी अभयारण्य में देखा गया कि हिरण एक खास तरह की बीमारी और सुस्ती का शिकार हो गए हैं। कारण तलाशने पर पाया गया कि उस वन में बाघ नहीं होने के कारण हिरणों को भागना नहीं पड़ता जिस कारण उनके लिए स्वास्थ्यकारी व्यायाम की पूर्ति नहीं होती जिससे वे बीमार होकर मरने लगे, बाघ तो हिरण के लिए मौत के समान हैं किंतु वही उनके स्वस्थ रहने में मदद करता है। जिंदा रहने के लिए शुद्ध हवा, शुद्ध पानी में विष घुल जाए तो सब प्राणियों का जीवन संकट में पड़ जाता है। इसलिए ये तीनों चीजें पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध रहनी चाहिए।

इसके साथ-साथ अनेक प्रकार के जीव जंतु व वनस्पतियां भी बनी रहनी चाहिए। समस्त भोजन मिट्टी के अंदर छुपा रहता है जिसे खाद्य पदार्थ के रूप में निकालने का काम वनस्पति करती है। जिसमें सूर्य की किरणें उसकी मदद करती हैं। वनस्पति जैसे घास, पत्ती, फल, फूल को खाकर शाकाहारी जीव जिंदा रहते हैं और शाकाहारी जीवों को खाकर मांसाहारी जीव जिंदा रहते हैं और अंत में जीवों के मृत शरीर मिट्टी के अंदर सड़कर उसकी उपजाऊ शक्ति को बनाए रखते हैं। उस उपजाऊ मिट्टी में फिर वनस्पति पैदा होती जाती है और जीवन चक्र घूमने लगता है। वनस्पति तेज बारिश में मिट्टी कटाव को रोकती है और बारिश लाने और मौसम चक्र को ठीक ठाक बनाए रखने में मदद करती है। पानी को अपनी जड़ों में रोक कर पूरा साल बहने वाले चश्मों, नदी नालों के जल को संरक्षित करने का काम भी करती है और अशुद्ध वायु को खा कर खुद बढ़ती है और अन्य जीवों के लिए शुद्ध वायु ऑक्सीजन वातावरण में छोड़ती है। दूसरे शब्दों में वनस्पति सारे जीवन चक्र को चलाने में सबसे केंद्रीय भूमिका निभाती है। सारी दुनिया में विकास के लिए दो तरह के साधन प्रकृति ने दिए । एक ऐसे साधन, जो प्रयोग करते जाओ वे फिर से नए होते जाते हैं जैसे जंगल, चारागाह और कृषि भूमि। प्रयोग करते रहो, जंगल बढ़ता रहेगा या नया लगाया जा सकेगा। चारागाह की घास चराई के बाद हर साल नई होती रहेगी और हर फसल काटने के बाद कृषि अगली फसल देने के लिए तैयार होगी, यही तीन साधन हैं जो अनेक प्रकार के प्राणियों को जिंदा रहने के साधन देने के साथ-साथ मनुष्य के विकास का सामान भी लगातार देते रहने की क्षमता रखते हैं इसलिए इन संसाधनों को नवीनीकृत होने वाले संसाधन कहा जाता है।

दूसरी प्रकार के वे साधन हैं जिन्हें एक बार प्रयोग कर लिया वे दोबारा नहीं पनप सकते। जैसे खनिज संसाधन। खनिज संसाधन जीवन को संवारने और सुविधा प्रदान करने में मददगार हो सकते हैं किंतु जिंदा रहने की व्यवस्था नहीं कर सकते इसलिए इस दृष्टि से इनका स्थान दूसरे दर्जे का बनता है। मनुष्य बुद्धिमान प्राणी होने के नाते लगातार विकास चाहता है। विकास के लिए नवीनीकृत होने वाले संसाधनों का भी लगातार दोहन करना पड़ता है। इस दोहन की गति यदि संसाधन की प्राकृतिक बढ़त से ज्यादा गति से हो तो यह संसाधन नष्ट हो जाएगा। मान लो जंगल पांच प्रतिशत वार्षिक दर से बढ़ता है और उसका दोहन 10 प्रतिशत वार्षिक दर से किया जाए तो यह जंगल 20 वर्षों में समाप्त हो जाएगा। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह भी है कि विकास सबके हिस्से में आना चाहिए, आजीविका सबकी चलनी चाहिए। इसलिए संसाधनों का प्रबन्ध ऐसे हो कि सभी को अपने हिस्से की आजीविका के अवसर प्राप्त हों। यदि फल, चारा, ईंधन, खाद, रेशा और दवाई देने वाले वृक्ष व झाड़ियां ज्यादा मात्रा में लगाएं जाएं तो पेड़ काटे बिना फलों की बिक्री से स्थानीय जनता को आय हो सकती है। चारे से बेहतर पशुपालन हो सकता है। ईंधन से खाना बनाने का काम पत्ती की खाद से कृषि भूमि का उपजाऊपन बढ़ाया जा सकता है।

रेशे वाले पेड़ों से दस्तकारी का सामान और दवाई वाले पेड़ पौधों से दवाइयों के लिए कच्चे माल से आय के अलावा स्थानीय कुटीर या लघु उद्योगों को बढ़ावा दिया जा सकता है। इन गतिविधियों के लिए पेड़ नहीं काटने पड़ेंगे बल्कि पेड़ों को बचाने और बढ़ाने से आजीविका बढ़ती जाएगी। चारागाह और कृषि भूमि को भी बेहतर आजीविका का आधार बनाने के लिए रासायनिक पदार्थों के अत्यधिक प्रयोग और खरपतवारों से बचा कर और चारागाह से खरपतवार नष्ट करके उपयोगी घासों के रोपण से उन्हें भरपूर उपजाऊ बनाया जा सकता है। पशुपालन व्यवसाय का भी पूर्ण विकास हो और मैदानी और विदेशी पशु पालकों के उत्पादों के साथ पहाड़ी किसान भी मुकाबला कर सकें। हिमाचल प्रदेश में प्रति व्यक्ति कृषि एक बीघा से भी कम है कुल क्षेत्रफल का 10.5 प्रतिशत ही कृषि भूमि है। जबकि वन और चरागाहें के अंतर्गत 60 प्रतिशत से भी ज्यादा भूमि है। विकास को सही दिशा देना जरूरी है क्योंकि हिमालय जैसे कठिन पर्वतीय क्षेत्रों में प्रकृति बहुत नाजुक होती है। जिसके साथ छेड़छाड़ से प्राकृतिक संतुलन में आए बिगाड़ को ठीक करना अत्यंत कठिन होता है। हिमालय में आई विकृति का नुकसान गंगा और सिंध के मैदानों में बसी करोड़ों जनता को उठाना पड़ेगा। अतः विकास के लिए बनने वाले बांध, सड़कों, कारखानों आदि के बारे में यह सुनिश्चित करना पड़ेगा कि इनसे जल, जंगल, जमीन और जैव विविधता नष्ट न हो, इसके लिए निर्माण के तरीकों में सुधार करने के साथ-साथ यह भी निर्धारित करना पड़ेगा कि विकास के जो काम हिमालय की प्रकृति को स्थायी नुकसान पहुंचाने वाले हैं उन्हें देशहित में यहां न किया जाए, उसके विकल्प तलाशे जाएं। तीसरी और सबसे जरूरी बात होगी विकास के ऐसे तरीके और तकनीकें खोजना जो स्थानीय जनता को पूरी आजीविका और सबके लिए आजीविका की गारंटी दे सकें। हिमालय में ऐसा टिकाऊ विकास पूरे देश की खुशहाली की गारंटी होगा, लिहाजा पूरे देश को हिमालय क्षेत्र के टिकाऊ विकास की चिंता करनी होगी।