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प्राकृतिक समाज में तो यह बात पूरी तरह सही और व्यावहारिक थी, सभी उपभोग की वस्तुएँ सीधे प्रकृति से ली जाती थीं, जो सड़ गल कर प्रकृति में ही विलीन हो जाती थीं, किन्तु आज के विकसित मानव ने ऐसे पदार्थों का उत्पादन कर लिया है, जो प्रकृति में आसानी से वापस विलीन नहीं होते हैं। जैसे प्लास्टिक उत्पाद, जिन्हें हजार साल सड़ने में लग सकते हैं। आधुनिक जीवाश्मिक ईंधन और उनसे निकली हुई गैसें, जिन्हें सन्तुलित अवस्था में आने में पता नहीं कितना समय लग जाएगा। इसलिये ऐसे कचरे से निपटने के लिये कुछ विशेष विधियाँ और प्रयास करने जरूरी हो गए हैं। कचरे के कारण गन्दगी की समस्या को, प्रधानमंत्री के स्वच्छता अभियान ने उजागर कर दिया है। झाड़ू लगा कर कचरा उठाएँ तो सही, किन्तु उसके निपटारे की व्यवस्थाएँ खड़ी न होने के कारण यह कचरा अवैज्ञानिक विधि से खुले में जलाया जा रहा है और व्यवस्थित या मनमाने डम्पिंग स्थलों में फेंका जा रहा है। डम्पिंग स्थलों में कचरे में आग लगने के मामले आये दिन सामने आते रहते हैं। दिल्ली, मुम्बई, शिमला, धर्मशाला आदि शहरों में ऐसी घटनाएँ हो चुकी हैं।
अभी हिमाचल प्रदेश के चम्बा शहर के कुरांह डम्पिंग स्थल में आग से आस-पास के गाँवों में वायु प्रदूषण की समस्या खड़ी कर दी है। कहने का तात्पर्य यह है कि यह समस्या सर्वव्यापक होती जा रही है। वायु प्रदूषण के अतिरिक्त, डम्पिंग स्थलों से प्लास्टिक कचरे के हानिकारक कण वर्षा के माध्यम से भूजल और नदियों के पानी में मिल जाते हैं। पहाड़ी नदियाँ अब प्लास्टिक कचरे से पटी दिखती हैं। इससे पर्यटन जैसे व्यवसाय के लिये जरूरी सुन्दर भूदृश्य गायब होते जा रहे हैं। निर्मल जल प्रदूषित होता जा रहा है।
हिमालय में इस समस्या का असर और भी घातक हो जाता है, क्योंकि मैदानी प्रदूषण से बचने के लिये ही पर्यटक पर्वतीय क्षेत्रों में भ्रमण और स्वास्थ्य लाभ के लिये आते हैं। सुन्दर भूदृश्य, शुद्ध वायु और प्राकृतिक शुद्ध जल ही उसे आकर्षित करने वाले मुख्य कारक हैं।
यदि यहाँ ही पानी और वायु की गुणवत्ता प्रदूषित हो जाएगी, तो हम कह सकते हैं कि राष्ट्र रूपी शरीर के फेफड़े ही खराब होने के कगार पर हैं। इसका पर्वतीय क्षेत्रों की आर्थिक स्थिति पर बहुत बुरा असर पड़ेगा, स्वास्थ्यवर्धक स्थलों के खोने से स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी राष्ट्र को अपूरणीय क्षति झेलनी पड़ेगी। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से जलवायु परिवर्तन के बढ़ते खतरे के दुष्प्रभाव भी देश को झेलने पड़ेंगे।
मुख्यत: चार तरह का कचरा होता है। जैविक कचरा, प्लास्टिक कचरा, मल जल और औद्योगिक रासायनिक तरल कचरा और विभिन्न प्रकार की धातुएँ एवं इलेक्ट्रॉनिक कचरा। इन सब तरह के कचरे का अलग-अलग तरह से निपटारा करके ही हम समस्या पर काबू पा सकते हैं। इस कार्य के लिये दुनिया में अपनाई जा रही सर्वोत्तम तकनीकों पर नजर डालने से पहले हमें यह समझ लेना जरूरी है कि असल में गन्दगी या कचरा है क्या और हम इसे कैसे परिभाषित करते हैं।
कोई भी वस्तु अपने आप में गन्दी या कचरा नहीं होती। हम ‘मैरी डगलस’ की परिभाषा को सर्वमान्य मान सकते हैं। मैरी के अनुसार, ‘गन्दगी का अर्थ किसी भी पदार्थ का गलत जगह पड़ा होना है।’ जैसे धूल घर के अन्दर गन्दगी है, किन्तु खेत के अन्दर वरदान, गोबर सड़क पर गन्दगी है, किन्तु खाद के गड्ढे में सड़ाकर खेती के लिये वरदान। यह बात हर उस पदार्थ पर लागू होती है, जिसे हम कचरा या गन्दगी कहते हैं। इसका अर्थ यह हुआ की हमें कुछ गन्दी चीजों को नष्ट नहीं करना है, बल्कि उन्हें उनकी ठीक जगह पहुँचा देना है या उनका हानिरहित रूपान्तरण कर देना है।
प्राकृतिक समाज में तो यह बात पूरी तरह सही और व्यावहारिक थी, सभी उपभोग की वस्तुएँ सीधे प्रकृति से ली जाती थीं, जो सड़ गल कर प्रकृति में ही विलीन हो जाती थीं, किन्तु आज के विकसित मानव ने ऐसे पदार्थों का उत्पादन कर लिया है, जो प्रकृति में आसानी से वापस विलीन नहीं होते हैं। जैसे प्लास्टिक उत्पाद, जिन्हें हजार साल सड़ने में लग सकते हैं। आधुनिक जीवाश्मिक ईंधन और उनसे निकली हुई गैसें, जिन्हें सन्तुलित अवस्था में आने में पता नहीं कितना समय लग जाएगा। इसलिये ऐसे कचरे से निपटने के लिये कुछ विशेष विधियाँ और प्रयास करने जरूरी हो गए हैं।
गैसीकरण विधि से प्लास्टिक और जैविक दोनों प्रकार के कचरे को गैसीय रूप में परिवर्तित किया जा सकता है। यह गैस ईंधन का काम देती है। इसे तरल ईंधन में भी बदला जा सकता है। इस ईंधन का प्रयोग गाड़ियाँ चलाने व बिजली बनाने के लिये किया जा सकता है।
इस विधि में बहुत कम मात्रा में धुआँ या गैसीय तत्व हवा में जाते हैं, फिर भी कई लोग पर्यावरण की दृष्टि से इसे अनुकूल नहीं समझते। किन्तु खुले में कचरा जलाने और डम्पिंग स्थलों से अशुद्ध जल रिसाव से होने वाले पर्यावरणीय नुकसान झेलने की तुलना में यह अच्छी तकनीक साबित हो सकती है। इससे उत्पन्न ऊर्जा का प्रयोग हो जाने के कारण, कहीं और बिजली बनाने के लिये खर्च होने वाले ईंधन में भी कमी आएगी, जिससे प्रदूषण की मात्रा में सन्तुलन बन जाएगा।
जैविक कचरे के निपटारे के और भी आसान और बेहतर तरीके उपलब्ध हैं, जिसमें जैविक कचरे को (एन-एरोबिक) ऑक्सीजन रहित अपघटन के लिये बायो गैस प्लांट में सड़ाया जाता है। इससे मीथेन गैस बनती है, जो प्राकृतिक गैस की तरह बढिय़ा ईंधन है। जैविक कचरे के साथ गोबर मिलाकर बड़ी मात्रा में बायो-गैस का उत्पादन किया जा सकता है। इससे पशुधन की उपयोगिता में भी वृद्धि होगी और पशु लावारिस छोड़ने में भी कमी आएगी। जिस जैविक कचरे से बायोगैस बनाना सम्भव न हो उससे कम्पोस्ट खाद बना सकते हैं।
सबसे समस्यादायक प्लास्टिक कचरा है। भारत में प्रतिवर्ष 50 लाख, 60 हजार टन प्लास्टिक कचरा पैदा होता है। यानी प्रतिदिन 15 हजार 342 टन कचरा। प्लास्टिक कचरे का सबसे निरापद और अच्छा समाधान अभी तक रीसाइकिलिंग (पुन: चक्रीकरण) ही माना गया है। इससे एक तो दुर्लभ कच्चे माल की बचत होती है, एक किलो प्लास्टिक बनाने के लिये दो किलो क्रूडड ऑयल का प्रयोग होता है। दूसरे, प्लास्टिक निर्माण में ऊर्जा का बहुत प्रयोग होता है।
इस प्रक्रिया में पहले उच्च तापमान की फिर प्रशीतन की आवश्यकता होती है। तीसरा लाभ है, प्लास्टिक खुले में जलाने की मात्रा में कमी लाकर ग्रीनहाउस गैसों और कार्बन मोनो ऑक्साइड, डाइऑक्सिन और फ्यूरान जैसी जहरीली गैसों के उत्सर्जन में कमी लाकर स्वास्थ्य के लिये खतरे कम करना और जलवायु परिवर्तन के खतरे को कम करना। एलडीपीई, एचडीपीई और पीपी प्लास्टिक में लेड और केडमियम पिगमेंट मिले रहते हैं, जो वर्षा में रिसकर जल स्रोतों में मिल जाते हैं। इसलिये रीसाइकिलिंग को अच्छा माना जाता है। इसमें केवल कठिनाई यह है कि प्लास्टिक कई तरह की होती है, इसे अलग-अलग ही संसाधित कर सकते हैं। किन्तु प्लास्टिक कचरे को अलग-अलग करना टेढ़ी खीर है।
हाथ से करना श्रमसाध्य तो है ही, प्लास्टिक की पहचान भी अपने आप में एक समस्या है। हालांकि इसके लिये इन्फ्रारेड डिटेक्शन जैसी स्वचालित तकनीक का भी प्रयोग हो रहा है, फिर भी सब तरह के प्लास्टिक को अलग करना सम्भव नहीं हो रहा है। मिश्रित प्लास्टिक कचरे से केवल कुर्सी, बेंच जैसे सामान ही बनाए जा सकते हैं। इनकी माँग सीमित ही होती है। अत: कुछ कचरा तो बच ही जाता है, जिसका पुन: चक्रीकरण नहीं होता।
इसके समाधान के लिये या तो आप उसे डम्प कर दें या इन्सीनेरेटर में जला कर बिजली बनाने के काम ले लें। स्वीडन इस मामले में काफी अच्छी तकनीक और व्यवस्था विकसित कर चुका है। वहाँ 33 प्रतिशत कचरे का पुन: चक्रीकरण होता है, 16 प्रतिशत का जैविक उपचार, 50.3 प्रतिशत को बिजली बनाने के लिये प्रयोग किया जाता है। केवल .7 प्रतिशत ही डम्पिंग स्थलों तक पहुँचता है।
घरेलू कचरे का संशोधन करने की जिम्मेदारी ही नगरपालिकाएँ उठाती हैं। शेष कचरा व्यापारिक घरानों को ही कानूनी रूप से संशोधित करना पड़ता है। पैकेजिंग, बिजली और इलेक्ट्रॉनिक कचरा, बेकार टायर, बैटरियाँ आदि का कचरा संशोधित करने की जिम्मेदारी उत्पादक की होती है। कानूनी प्रावधान सख्त हैं जिनका पालन हर हाल में सुनिश्चित करवाया जाता है।
कचरे से विभिन्न विधियों से ऊर्जा बनाने की तकनीक भी बहुत उन्नत है, इसी के चलते 2013 में स्वीडन ने अन्य यूरोपीय देशों से ऊर्जा बनाने के लिये 8 लाख, 32 हजार टन कचरे का आयात किया। कचरे को उन्होंने समस्या से आर्थिक संसाधन में परिवर्तित कर दिया है। इस काम में हमारे देश में भी बहुत खोज करने की जरूरत है, ताकि नवाचार द्वारा निरापद विकल्पों से कुछ समाधान हो सके। फिर भी प्रकृति की सीमाओं को समझ कर कुछ उत्पादों पर कानूनी प्रतिबन्ध की जरूरत भी बनी ही रहेगी।
प्लास्टिक मिश्रित कोलतार से सड़क बनाना एक और विकल्प है। इसका सफल प्रयोग हो रहा है। इस सड़क में गड्ढे कम पड़ते हैं और मियाद भी ज्यादा है। सीमेंट प्लांट और ताप बिजली घरों में भी कोयले के साथ काफी मात्रा में प्लास्टिक के कचरे को जलाया जा सकता है। एसीसी सीमेंट मध्य प्रदेश में प्लास्टिक कचरे को जलाने पर उत्सर्जन की मात्रा, हानिकारक कचरे को जलाने वाले इन्सीनेरेटर के मानक से भी कम पाये गए। इसमें हानिकारक कचरे को 850 डिग्री सेंटीग्रेड से 1050 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान पर जलाया जाता है।
एक ओर प्लास्टिक के नुकसान सामने आ रहे हैं दूसरी ओर प्लास्टिक का प्रयोग बढ़ता ही जा रहा है। नए-से-नए क्षेत्रों में प्लास्टिक का प्रयोग होने लगा है। इस दुविधा से पार पाने का एक और विकल्प, जैविक पदार्थों से बना बायो डिग्रेडेबल प्लास्टिक के रूप में सामने आ रहा है। इसकी कीमत अभी तक ज्यादा होने के कारण यह प्रचलित नहीं हो पाया है। इसके कोई हानिकारक प्रभाव देखने में नहीं आये हैं। कचरा प्रबन्धन को समस्या के बजाय संसाधन माना जाये और इसे स्वच्छता अभियान का अगला चरण मान कर चलना होगा।