विश्व शौचालय दिवस, 19 नवम्बर 2015 पर विशेष
आधुनिक फ्लश शौचालय स्वच्छ्ता की दृष्टि से एकमात्र विकल्प बनता जा रहा है। इस दृष्टि से ही इसे प्रचारित और प्रोत्साहित किया जा रहा है। खासकर शहरों के शुष्क शौचालयों का विकल्प देकर फ्लश शौचालय ने शहरी मल प्रबन्धन आसान भी बना है और एक बड़े सफाई कामगार को मैला ढोने अस्वच्छ काम से मुक्ति दिलाने का प्रशंसनीय कार्य किया।
किन्तु हर कार्य के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पक्ष होते हैं। कालान्तर में अनुभव के आधार पर जब ये दोनों पक्ष उद्घाटित हो जाते हैं, तो नकारात्मक प्रभावों के निराकरण के लिये नए प्रयासों और चिन्तन की आवश्यकता पैदा हो जाती है।
असल में स्वछता जैसे महत्त्वपूर्ण कार्य को ज़्यादा तर्क सम्मत बनाते रहने की सतत आवश्यकता है। इसके लिये हमें गन्दगी या मल के अर्थ समझ लेना बहुत जरूरी है।
कोई भी पदार्थ अपने आप में गन्दगी नहीं होता, बल्कि मैरी डगलस के शब्दों में 'उपयुक्त स्थान से बाहर पड़ा पदार्थ गन्दा हो जाता है।' जैसे धूल खेत में उपजाऊ मिट्टी है और बिस्तर पर गन्दगी। मानव मल भी खेत में सड़ने के बाद उपजाऊ खाद बन जाता है। इसके अलावा कहीं भी रहेगा तो गन्दगी ही रहेगा।
प्राचीन काल में खेत जंगल में खूँटी लेकर शौच जाने की परम्परा थी। खूँटी से गड्ढा खोदकर उसमें शौच किया जाता था और उसे मिट्टी से ढँक दिया जाता। दो-चार दिन में सड़कर उसकी मिट्टी बन जाती। यह अपने आप में बहुत अच्छी व्यवस्था थी। किन्तु कालान्तर में आबादी बढ़ने, शहरीकरण, वनों के घट जाने से इस व्यवस्था में बदलाव किया गया।
नदी-नालों के किनारे शौच का रिवाज़ बन गया और खुले में शौच की परम्परा पड़ी। शहरों में शुष्क शौचालय बन गए, जिसका विकल्प फ्लश शौचालयों ने उपलब्ध कराया है। शहरों में फ्लश शौचालयों को मल निकास नालियों में डाल कर नज़दीकी नदियों में दिया है।
नदी-नालों के किनारे खुले में शौच से मल नदी को प्रदूषित कर रहा था। अभी सीवेज को नदी में डालने से नदी प्रदूषित हो रही है। ज़्यादा कुछ नहीं बदला है। सीवेज संशोधन यंत्र लगाकर मल को संशोधित करने का प्रयास किया जाता है। किन्तु ऐसी सुविधा बहुत कम स्थानों पर है। दूसरा, इस तरह के संशोधित मल जल की शुद्धता सन्दिग्ध ही रहती है।
असली समस्या मल जल साथ मिल जाने से पैदा होती है। ग्रामीण क्षेत्रों में फ्लश शौचालयों से मल पाइपों के माध्यम से बड़े-बड़े टैंकनुमा गड्ढों में डाल दिया जाता है, जो कई सैलून तक नहीं भरते और काम देते रहते हैं। मल भी धीरे-धीरे सड़कर खाद बन जाता है।
किन्तु फ्लश के साथ जो पानी गड्ढे में भरता है, वह धीरे-धीरे रिसकर ज़मीन के अन्दर जाता रहता है और भूमिगत जल को प्रदूषित करता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि फ्लश शौचालय की आधुनिक व्यवस्था भी निरापद नहीं है। उसमें भी सुधार सोचना पड़ेगा। ग्रामीण क्षेत्रों में यह सुधार मुकाबिलतन आसान है, क्योंकि वहाँ गाँधी जी द्वारा सुझाया शौचालय बनाना आसान और सम्भव है।
इसमें दो-तीन फुट गहरा गड्ढा खोदकर वहाँ से निकली मिट्टी को वहीं किनारे रख लिया है। शौच बैठने के लिये लकड़ी या कंक्रीट की सीट बना ली जाती है। शौच के बाद थोड़ी-थोड़ी मिट्टी डालकर मल को ढक दिया जाता है, जिससे दुर्गन्ध भी नहीं फैलती और मक्खी भी पैदा नहीं होती।
गड्ढा भर जाने पर उसके बगल में एक और गड्ढा खोदकर बारी-बारी उन्हीं गड्ढों को प्रयोग में लाया जा सकता है। दूसरे गड्ढे के भरते-भरते पहले वाले में मल की मिट्टी बन चुकी होती है। उस मिट्टी का प्रयोग खेत में खाद के रूप में किया जा सकता है और खेत से मिट्टी लाकर मल को ढँकने के लिये रख सकते हैं। यह बहुत सस्ता और कारगर तरीका हो सकता है।
थोड़ी मेहनत करनी पड़ सकती है। परदे के लिये प्लास्टिक का चार फुट चौकोर इस्तेमाल किया जा सकता है, जो ग्रामीण क्षेत्रों में आकर्षक बनाकर प्रोत्साहित किया जा सकता है। उपकरणों और तकनीक को थोड़ा आसान और आधुनिक बनाना पड़ेगा।
किन्तु शहरों में तो फ्लश के सिवा फ़िलहाल कोई चारा नज़र नहीं आता। हाँ कम पानी के प्रयोग का विकल्प और सीवेज व्यवस्था में सौ प्रतिशत संशोधन संयंत्र लगाने की व्यवस्थाएँ करनी पड़ेंगी। असली मकसद तो पानी को शुद्ध रखने का है। ताकि जल की अशुद्धता से होने वाले रोगों से बचा जा सके। इसलिये नए-से-नए तकनीकी उपायों की खोज पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है।